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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

Shrimad Bhagwat Mahapuranश्रीमद् भागवत महापुराण सम्पूर्ण हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण माहात्म्य अध्याय 2: भक्ति का दुःख दूर करने के लिये नारदजी का उद्योग

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्

कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतम्॥

अथ द्वितीयोऽध्यायः (अध्याय 2)

भक्ति का दुःख दूर करने के लिये नारदजी का उद्योग

श्लोक-१
नारद उवाच
वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुरा कथम्।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजं स्मर दुःखं गमिष्यति॥

नारदजीने कहा-बाले! तुम व्यर्थ ही अपनेको क्यों खेदमें डाल रही हो? अरे! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करो, उनकी कृपासे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा॥१॥

श्लोक-२
द्रौपदी च परित्राता येन कौरवकश्मलात्।
पालिता गोपसुन्दर्यः स कृष्णः क्वापि नो गतः॥

जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की थी और गोपसुन्दरियोंको सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये हैं॥२॥

श्लोक-३
त्वं तु भक्तिःप्रिया तस्य सततं प्राणतोऽधिका।
त्वयाऽऽहूतस्तु भगवान् याति नीचगृहेष्वपि॥

फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणोंसे भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् नीचोंके घरोंमें भी चले जाते हैं। ३॥

श्लोक-४
सत्यादित्रियुगे बोधवैराग्यौ मुक्तिसाधकौ।
कलौ तु केवला भक्तिर्ब्रह्मसायुज्यकारिणी॥

सत्य, त्रेता और द्वापर—इन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है॥४॥

श्लोक-५
इति निश्चित्य चिद्रूपः सद्रूपां त्वां ससर्ज ह।
परमानन्दचिन्मूर्तिः सुन्दरी कृष्णवल्लभाम्॥

यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने अपने सत्स्वरूपसे तुम्हें रचा है; तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रिया और परम सुन्दरी हो॥५॥

श्लोक-६
बद्ध्वाञ्जलिं त्वया पृष्टं किं करोमीति चैकदा।
त्वां तदाऽऽज्ञापयत्कृष्णो मद्भक्तान् पोषयेति च॥

एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ‘मैं क्या करूँ?’ तब भगवान्ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भक्तोंका पोषण करो।’॥६॥

श्लोक-७
अङ्गीकृतं त्वया तदै प्रसन्नोऽभूद्धरिस्तदा।
मुक्तिं दासीं ददौ तुभ्यं ज्ञानवैराग्यकाविमौ॥

तुमने भगवान् की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करनेके लिये मुक्तिको तुम्हें दासीके रूपमें दे दिया और इन ज्ञान-वैराग्यको पुत्रोंके रूपमें॥७॥

श्लोक-८
पोषणं स्वेन रूपेण वैकुण्ठे त्वं करोषि च।
भूमौ भक्तविपोषाय छायारूपं त्वया कृतम्॥
तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे वैकुण्ठधाममें ही भक्तोंका पोषण करती हो, भूलोकमें तो तुमने उनकी पुष्टिके लिये केवल छायारूप धारण कर रखा है॥८॥

श्लोक-९
मुक्तिं ज्ञानं विरक्तिं च सह कृत्वा गता भुवि।
कृतादिद्वापरस्यान्तं महानन्देन संस्थिता॥
तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्यको साथ लिये पृथ्वीतलपर आयीं और सत्ययुगसे द्वापरपर्यन्त बड़े आनन्दसे रहीं॥९॥

श्लोक-१०
कलौ मुक्तिः क्षयं प्राप्ता पाखण्डामयपीडिता।
त्वदाज्ञया गता शीघ्रं वैकुण्ठं पुनरेव सा॥
कलियुगमें तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरन्त ही तुम्हारी आज्ञासे वैकुण्ठलोकको चली गयी॥१०॥

श्लोक-११
स्मृता त्वयापि चाव मुक्तिरायाति याति च।
पुत्रीकृत्य त्वयेमौ च पार्वे स्वस्यैव रक्षितौ॥
इस लोकमें भी तुम्हारे स्मरण करनेसे ही वह आती है और फिर चली जाती है; किंतु इन ज्ञान-वैराग्यको तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है॥११॥

श्लोक-१२
उपेक्षातः कलौ मन्दौ वृद्धौ जातौ सुतौ तव।
तथापि चिन्तां मुञ्च त्वमुपायं चिन्तयाम्यहम्॥
फिर भी कलियुगमें इनकी उपेक्षा होनेके कारण तुम्हारे ये पुत्र उत्साहहीन और वृद्ध हो गये हैं; फिर भी तुम चिन्ता न करो, मैं इनके नवजीवनका उपाय सोचता हूँ॥१२॥

श्लोक-१३
कलिना सदृशः कोऽपि युगो नास्ति वरानने।
तस्मिंस्त्वां स्थापयिष्यामि गेहे गेहे जने जने॥
सुमुखि! कलिके समान कोई भी युग नहीं है, इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें प्रत्येक पुरुषके हृदयमें स्थापित कर दूंगा॥ १३॥

श्लोक-१४
अन्यधर्मास्तिरस्कृत्य पुरस्कृत्य महोत्सवान्।
तदा नाहं हरेर्दासो लोके त्वां न प्रवर्तये॥

देखो, अन्य सब धर्मोको दबाकर और भक्तिविषयक महोत्सवोंको आगे रखकर यदि मैंने लोकमें तुम्हारा प्रचार न किया तो मैं श्रीहरिका दास नहीं॥१४॥

श्लोक-१५
त्वदन्विताश्च ये जीवा भविष्यन्ति कलाविह।
पापिनोऽपि गमिष्यन्ति निर्भयं कृष्णमन्दिरम्॥

इस कलियुगमें जो जीव तुमसे युक्त होंगे, वे पापी होनेपर भी बेखटके भगवान् श्रीकृष्णके अभय धामको प्राप्त होंगे॥ १५ ॥

श्लोक-१६
येषां चित्ते वसेद्भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी।
न ते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः॥

जिनके हृदयमें निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्तःकरण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते॥१६॥

श्लोक-१७
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसोवासुरोऽपि वा।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत्॥

जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते॥१७॥

श्लोक-१८
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः॥

तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे भगवान् वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं॥ १८॥

श्लोक-१९
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः॥

मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥१९॥

श्लोक-२०
भक्तिद्रोहकरा ये च ते सीदन्ति जगत्त्रये।
दुर्वासा दुःखमापन्नः पुरा भक्तविनिन्दकः॥

जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं वे तीनों लोकोंमें दुःख ही दुःख पाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेवाले दुर्वासा ऋषिको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था॥२०॥

श्लोक-२१
अलं व्रतैरलं तीर्थैरलंयोगैरलं मखैः।
अलं ज्ञानकथालापैर्भक्तिरेकैव मुक्तिदा॥

बस, बस व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञानचर्चा आदि बहुतसे साधनोंकी कोई आवश्यकता नहीं है; एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है॥२१॥

श्लोक-२२
सूत उवाच इति नारदनिर्णीतं स्वमाहात्म्यं निशम्य सा।
सर्वाङ्गपुष्टिसंयुक्ता नारदं वाक्यमब्रवीत्॥

सूतजी कहते हैं इस प्रकार नारदजीके निर्णय किये हुए अपने माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अंग पुष्ट हो गये और वे उनसे कहने लगीं॥ २२॥

श्लोक-२३

भक्तिरुवाच
अहो नारद धन्योऽसि प्रीतिस्ते मयि निश्चला।
न कदाचिद्विमुञ्चामि चित्ते स्थास्यामि सर्वदा॥

भक्तिने कहा—नारदजी! आप धन्य हैं। आपकी मुझमें निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें रहूँगी, कभी आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी॥२३॥

श्लोक-२४
कृपालुना त्वया साधो मद्बाधा ध्वंसिता क्षणात्।
पुत्रयोश्चेतना नास्ति ततो बोधय बोधय॥

साधो! आप बड़े कृपालु हैं। आपने क्षणभरमें ही मेरा सारा दुःख दूर कर दिया। किन्तु अभी मेरे पुत्रोंमें चेतना नहीं आयी है; आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये, जगा दीजिये॥२४॥

श्लोक-२५
सूत उवाच तस्या वचः समाकर्ण्य कारुण्यं नारदो गतः।
तयोर्बोधनमारेभे कराग्रेण विमर्दयन्॥

सूतजी कहते हैं- भक्तिके ये वचन सुनकर नारदजीको बड़ी करुणा आयी और वे उन्हें हाथसे हिला-डुलाकर जगाने लगे। २५॥

श्लोक-२६
मुखं संयोज्य कर्णान्ते शब्दमुच्चैः समुच्चरन्।
ज्ञान प्रबुध्यतां शीघ्रं रे वैराग्य प्रबुध्यताम्॥

फिर उनके कानके पास मुँह लगाकर जोरसे कहा, ‘ओ ज्ञान! जल्दी जग पड़ो; ओ वैराग्य! जल्दी जग पड़ो।’॥२६॥

श्लोक-२७
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैर्मुहर्मुहः।
बोध्यमानौ तदा तेन कथंचिच्चोत्थितौ बलात्॥

फिर उन्होंने वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार-बार गीतापाठ करके उन्हें जगाया; इससे वे जैसे-तैसे बहुत जोर लगाकर उठे॥ २७॥

श्लोक-२८
नेत्ररनवलोकन्तौ जृम्भन्तौ सालसावुभौ।
बकवत्पलितौ प्रायः शुष्ककाष्ठसमाङ्गकौ॥

किन्तु आलस्यके कारण वे दोनों जंभाई लेते रहे, नेत्र उघाड़कर देख भी नहीं सके। उनके बाल बगुलोंकी तरह सफेद हो गये थे, उनके अंग प्रायः सूखे काठके समान निस्तेज और कठोर हो गये थे॥२८॥

श्लोक-२९
क्षुत्क्षामौ तौ निरीक्ष्यैव पुनः स्वापपरायणौ।
ऋषिश्चिन्तापरो जातः किं विधेयं मयेति च॥

इस प्रकार भूख-प्यासके मारे अत्यन्त दुर्बल होनेके कारण उन्हें फिर सोते देख नारदजीको बड़ी चिन्ता हुई और वे सोचने लगे, ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ॥ २९॥

श्लोक-३०
अहो निद्रा कथं याति वृद्धत्वं च महत्तरम्।
चिन्तयन्निति गोविन्दं स्मारयामास भार्गव॥

इनकी यह नींद और इससे भी बढ़कर इनकी वृद्धावस्था कैसे दूर हो?’ शौनकजी! इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे भगवान् का स्मरण करने लगे॥३०॥

श्लोक-३१
व्योमवाणी तदैवाभून्मा ऋषे खिद्यतामिति।
उद्यमः सफलस्तेऽयं भविष्यति न संशयः॥

उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि ‘मुने! खेद मत करो, तुम्हारा यह उद्योग निःसंदेह सफल होगा॥३१॥

श्लोक-३२
एतदर्थं तु सत्कर्म सुरर्षे त्वं समाचर।
तत्ते कर्माभिधास्यन्ति साधवः साधुभूषणाः॥

देवर्षे! इसके लिये तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हें संतशिरोमणि महानुभाव बतायेंगे॥३२॥

श्लोक-३३
सत्कर्मणि कृते तस्मिन् सनिद्रा वृद्धतानयोः।
गमिष्यति क्षणाद्भक्तिः सर्वतः प्रसरिष्यति॥

उस सत्कर्मका अनुष्ठान करते ही क्षणभरमें इनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायँगी तथा सर्वत्र भक्तिका प्रसार होगा’॥

श्लोक-३४
इत्याकाशवचः स्पष्टं तत्सर्वैरपि विश्रुतम्।
नारदो विस्मयं लेभे नेदं ज्ञातमिति ब्रुवन्॥

यह आकाशवाणी वहाँ सभीको साफ-साफ सुनाई दी। इससे नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ और वे कहने लगे, ‘मुझे तो इसका कुछ आशय समझमें नहीं आया’ ॥ ३४॥
श्लोक-३५

नारद उवाच
अनयाऽऽकाशवाण्यापि गोप्यत्वेन निरूपितम।
किंवा तत्साधनं कार्यं येन कार्यं भवेत्तयोः॥

नारदजी बोले—इस आकाशवाणीने भी गुप्त-रूपमें ही बात कही है। यह नहीं बताया कि वह कौन-सा साधन किया जाय जिससे इनका कार्य सिद्ध हो॥ ३५॥

श्लोक-३६
क्व भविष्यन्ति सन्तस्ते कथं दास्यन्ति साधनम्।
मयात्र किं प्रकर्तव्यं यदुक्तं व्योमभाषया॥

वे संत न जाने कहाँ मिलेंगे और किस प्रकार उस साधनको बतायेंगे? अब आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार मुझे क्या करना चाहिये?॥३६॥

श्लोक-३७
सूत उवाच तत्र द्वावपि संस्थाप्य निर्गतो नारदो मुनिः।
तीर्थं तीर्थं विनिष्क्रम्य पृच्छन्मार्गे मुनीश्वरान्॥

सूतजी कहते हैं-शौनकजी! तब ज्ञान-वैराग्य दोनोंको वहीं छोड़कर नारदमुनि वहाँसे चल पड़े और प्रत्येक तीर्थ जाजाकर मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे। ३७॥

श्लोक-३८
वृत्तान्तः श्रूयते सर्वैः किंचिन्निश्चित्य नोच्यते।
असाध्यं केचन प्रोचुर्दुर्जेयमिति चापरे।
मूकीभूतास्तथान्ये तु कियन्तस्तु पलायिताः॥

उनकी उस बातको सुनते तो सब थे, किंतु उसके विषयमें कोई कुछ भी निश्चित उत्तर न देता। किन्हींने उसे असाध्य बताया; कोई बोले—’इसका ठीक-ठीक पता लगना ही कठिन है।’ कोई सुनकर चुप रह गये और कोई-कोई तो अपनी अवज्ञा होनेके भयसे बातको टाल-टूलकर खिसक गये॥३८॥

श्लोक-३९
हाहाकारो महानासीत्रैलोक्ये विस्मयावहः।
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैर्विबोधितम्॥
श्लोक-४०
भक्तिज्ञानविरागाणां नोदतिष्ठत्रिकं यदा।
उपायो नापरोऽस्तीति कर्णे कर्णेऽजपञ्जनाः॥

त्रिलोकीमें महान् आश्चर्यजनक हाहाकार मच गया। लोग आपसमें कानाफूसी करने लगे—’भाई! जब वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार-बार गीतापाठ सुनानेपर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य ये तीनों नहीं जगाये जा सके, तब और कोई उपाय नहीं है॥३९-४०॥

श्लोक-४१
योगिना नारदेनापि स्वयं न ज्ञायते तु यत्।
तत्कथं शक्यते वक्तुमितरैरिह मानुषैः॥

स्वयं योगिराज नारदको भी जिसका ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी लोग कैसे बता सकते हैं?’॥४१॥

श्लोक-४२
एवमृषिगणैः पृष्टैर्निीयोक्तं दुरासदम्॥

इस प्रकार जिन-जिन ऋषियोंसे इसके विषयमें पूछा गया, उन्होंने निर्णय करके यही कहा कि यह बात दुःसाध्य ही है। ४२॥

श्लोक-४३
ततश्चिन्तातुरः सोऽथ बदरीवनमागतः।
तपश्चरामि चात्रेति तदर्थं कृतनिश्चयः॥

तब नारदजी बहुत चिन्तातुर हुए और बदरीवनमें आये। ज्ञानवैराग्यको जगानेके लिये वहाँ उन्होंने यह निश्चय किया कि ‘मैं तप करूँगा’॥४३॥

श्लोक-४४
तावद्ददर्श पुरतः सनकादीन्मुनीश्वरान्।
कोटिसूर्यसमाभासानुवाच मुनिसत्तमः॥

इसी समय उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये। उन्हें देखकर वे मुनिश्रेष्ठ कहने लगे॥४४॥

श्लोक-४५
नारद उवाच
इदानीं भूरिभाग्येन भवद्भिः संगमोऽभवत्।
कुमारा ब्रुवतां शीघ्रं कृपां कृत्वा ममोपरि॥

नारदजीने कहा-महात्माओ! इस समय बड़े भाग्यसे मेरा आपलोगोंके साथ समागम हुआ है, आप मुझपर कृपा करके शीघ्र ही वह साधन बताइये॥ ४५ ॥

श्लोक-४६
भवन्तो योगिनः सर्वे बुद्धिमन्तो बहुश्रुताः।
पञ्चहायनसंयुक्ताः पूर्वेषामपि पूर्वजाः॥

आप सभी लोग बड़े योगी, बुद्धिमान् और विद्वान् हैं। आप देखनेमें पाँच-पाँच वर्षके बालक-से जान पड़ते हैं, किंतु हैं पूर्वजोंके भी पूर्वज॥ ४६॥

श्लोक-४७
सदा वैकुण्ठनिलया हरिकीर्तनतत्पराः।
लीलामृतरसोन्मत्ताः कथामात्रैकजीविनः॥

आपलोग सदा वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं, निरन्तर हरिकीर्तनमें तत्पर रहते हैं, भगवल्लीलामृतका रसास्वादन कर सदा उसीमें उन्मत्त रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है॥४७॥

श्लोक-४८
हरिः शरणमेवं हि नित्यं येषां मुखे वचः।
अतः कालसमादिष्टा जरा युष्मान्न बाधते॥

‘हरिः शरणम्’ (भगवान् ही हमारे रक्षक हैं) यह वाक्य (मन्त्र) सर्वदा आपके मुखमें रहता है; इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था भी आपको बाधा नहीं पहुँचाती॥ ४८॥

श्लोक-४९
येषां भ्रूभङ्गमात्रेण द्वारपालौ हरेः पुरा।
भूमौ निपतितौ सद्यो यत्कृपातः पुरं गतौ॥

पूर्वकालमें आपके भ्रूभंगमात्रसे भगवान् विष्णुके द्वारपाल जय और विजय तुरंत पृथ्वीपर गिर गये थे और फिर आपकी ही कृपासे वे पुनः वैकुण्ठलोक पहुँच गये॥४९॥

श्लोक-५०
अहो भाग्यस्य योगेन दर्शनं भवतामिह।
अनुग्रहस्तु कर्तव्यो मयि दीने दयापरैः॥

धन्य है, इस समय आपका दर्शन बड़े सौभाग्यसे ही हुआ है। मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु हैं; इसलिये मुझपर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये॥५०॥

श्लोक-५१
अशरीरगिरोक्तं यत्तत्किं साधनमुच्यताम्।
अनुष्ठ्यं कथं तावत्प्रब्रुवन्तु सविस्तरम्॥

बताइये—आकाशवाणीने जिसके विषयमें कहा है, वह कौनसा साधन है, और मुझे किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये। आप इसका विस्तारसे वर्णन कीजिये॥५१॥

श्लोक-५२
भक्तिज्ञानविरागाणां सुखमुत्पद्यते कथम्।
स्थापनं सर्ववर्णेषु प्रेमपूर्वं प्रयत्नतः॥

भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार सुख मिल सकता है? और किस तरह इनकी प्रेमपूर्वक सब वर्गों में प्रतिष्ठा की जा सकती है?’॥५२॥

श्लोक-५३
कुमारा ऊचुः मा चिन्तां कुरु देवर्षे हर्षं चित्ते समावह।
उपायः सुखसाध्योऽत्र वर्तते पूर्व एव हि॥

सनकादिने कहा—देवर्षे! आप चिन्ता न करें, मनमें प्रसन्न हों; उनके उद्धारका एक सरल उपाय पहलेसे ही विद्यमान है। ५३॥

श्लोक-५४
अहो नारद धन्योऽसि विरक्तानां शिरोमणिः।
सदा श्रीकृष्णदासानामग्रणीर्योगभास्करः॥

नारदजी! आप धन्य हैं। आप विरक्तोंके शिरोमणि हैं। श्रीकृष्ण दासोंके शाश्वत पथ-प्रदर्शक एवं भक्तियोगके भास्कर हैं॥५४॥

श्लोक-५५
त्वयि चित्रं न मन्तव्यं भक्त्यर्थमनुवर्तिनि।
घटते कृष्णदासस्य भक्तेः संस्थापना सदा॥

आप भक्तिके लिये जो उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये। भगवान् के भक्तके लिये तो भक्तिकी सम्यक स्थापना करना सदा उचित ही है। ५५॥

श्लोक-५६
ऋषिभिर्बहवो लोके पन्थानः प्रकटीकृताः।
श्रमसाध्याश्च ते सर्वे प्रायः स्वर्गफलप्रदाः॥

ऋषियोंने संसारमें अनेकों मार्ग प्रकट किये हैं; किंतु वे सभी कष्टसाध्य हैं और परिणाममें प्रायः स्वर्गकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं॥५६॥

श्लोक-५७
वैकुण्ठसाधकः पन्थाः स तु गोप्यो हि वर्तते।
तस्योपदेष्टा पुरुषः प्रायो भाग्येन लभ्यते॥

अभीतक भगवान् की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्रायः भाग्यसे ही मिलता है॥ ५७॥

श्लोक-५८
सत्कर्म तव निर्दिष्टं व्योमवाचा तु यत्पुरा।
तदुच्यते शृणुष्वाद्य स्थिरचित्तः प्रसन्नधीः॥

आपको आकाशवाणीने जिस सत्कर्मका संकेत किया है, उसे हम बतलाते हैं; आप प्रसन्न और समाहितचित्त होकर सुनिये॥ ५८॥

श्लोक-५९
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च ते तु कर्मविसूचकाः॥

नारदजी! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ-ये सब तो स्वर्गादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्मकी ही ओर संकेत करते हैं॥ ५९॥

श्लोक-६०
सत्कर्मसूचको नूनं ज्ञानयज्ञः स्मृतो बुधैः।
श्रीमद्भागवतालापः स तु गीतः शुकादिभिः॥

पण्डितोंने ज्ञानयज्ञको ही सत्कर्म (मुक्तिदायक कर्म) का सूचक माना है। वह श्रीमद्भागवतका पारायण है, जिसका गान शुकादि महानुभावोंने किया है॥६०॥

श्लोक-६१
भक्तिज्ञानविरागाणां तद्घोषेण बलं महत्।
व्रजिष्यति द्वयोः कष्टं सुखं भक्तेर्भविष्यति॥

उसके शब्द सुननेसे ही भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बड़ा बल मिलेगा। इससे ज्ञान-वैराग्यका कष्ट मिट जायगा और भक्तिको आनन्द मिलेगा॥६॥

श्लोक-६२
प्रलयं हि गमिष्यन्ति श्रीमद्भागवतध्वनेः।
कलेर्दोषा इमे सर्वे सिंहशब्दाद् वृका इव॥

सिंहकी गर्जना सुनकर जैसे भेड़िये भाग जाते हैं, उसी प्रकार श्रीमद्भागवतकी ध्वनिसे कलियुगके सारे दोष नष्ट हो जायेंगे। ६२॥

श्लोक-६३
ज्ञानवैराग्यसंयुक्ता भक्तिः प्रेमरसावहा।
प्रतिगेहं प्रतिजनं ततः क्रीडां करिष्यति॥

तब प्रेमरस प्रवाहित करनेवाली भक्ति ज्ञान और वैराग्यको साथ लेकर प्रत्येक घर और व्यक्तिके हृदयमें क्रीड़ा करेगी। ६३॥

श्लोक-६४
नारद उवाच
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैः प्रबोधितम्।
भक्तिज्ञानविरागाणां नोदतिष्ठत्रिकं यदा॥

नारदजीने कहा-मैंने वेद-वेदान्तकी ध्वनि और गीतापाठ करके उन्हें बहुत जगाया, किंतु फिर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य —ये तीनों नहीं जगे॥६४॥

श्लोक-६५
श्रीमद्भागवतालापात्तत्कथं बोधमेष्यति।
तत्कथासु तु वेदार्थः श्लोके श्लोके पदे पदे॥

ऐसी स्थितिमें श्रीमद्भागवत सुनानेसे वे कैसे जगेंगे? क्योंकि उस कथाके प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक पदमें भी वेदोंका ही तो सारांश है॥६५॥

श्लोक-६६
छिन्दन्तु संशयं ह्येनं भवन्तोऽमोघदर्शनाः।
विलम्बो नात्र कर्तव्यः शरणागतवत्सलाः॥

आपलोग शरणागतवत्सल हैं तथा आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं होता; इसलिये मेरा यह संदेह दूर कर दीजिये, इस कार्यमें विलम्ब न कीजिये॥६६॥

श्लोक-६७
कुमारा ऊचुः
वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा।
अत्युत्तमा ततो भाति पृथग्भूता फलाकृतिः॥

सनकादिने कहा- श्रीमद्भागवतकी कथा वेद और उपनिषदोंके सारसे बनी है। इसलिये उनसे अलग उनकी फलरूपा होनेके कारण वह बड़ी उत्तम जान पड़ती है॥६७॥

श्लोक-६८
आमूलाग्रं रसस्तिष्ठन्नास्ते न स्वाद्यते यथा।
स भूयः संपृथग्भूतः फले विश्वमनोहरः॥

जिस प्रकार रस वृक्षकी जड़से लेकर शाखाग्रपर्यन्त रहता है, किंतु इस स्थितिमें उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता; वही जब अलग होकर फलके रूपमें आ जाता है, तब संसारमें सभीको प्रिय लगने लगता है॥६८॥

श्लोक-६९
यथा दुग्धे स्थितं सर्पिर्न स्वादायोपकल्पते।
पृथग्भूतं हि तद्गव्यं देवानां रसवर्धनम्॥

दूध में घी रहता ही है, किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता; वही जब उससे अलग हो जाता है, तब देवताओंके लिये भी स्वादवर्धक हो जाता है॥६९॥

श्लोक-७०
इथूणामपि मध्यान्तं शर्करा व्याप्य तिष्ठति।
पृथग्भूता च सा मिष्टा तथा भागवती कथा॥

खाँड ईख के ओर-छोर और बीचमें भी व्याप्त रहती है, तथापि अलग होनेपर उसकी कुछ और ही मिठास होती है। ऐसी ही यह भागवतकी कथा है॥७०॥

श्लोक-७१
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्।
भक्तिज्ञानविरागाणां स्थापनाय प्रकाशितम्॥

यह भागवतपुराण वेदोंके समान है। श्रीव्यासदेवने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी स्थापनाके लिये प्रकाशित किया है॥ ७१॥

श्लोक-७२
वेदान्तवेदसुस्नाते गीताया अपि कर्तरि।
परितापवति व्यासे मुह्यत्यज्ञानसागरे॥
श्लोक-७३
तदा त्वया पुरा प्रोक्तं चतुःश्लोकसमन्वितम्।
तदीयश्रवणात्सद्यो निर्बाधो बादरायणः॥

पूर्वकालमें जिस समय वेद-वेदान्तके पारगामी और गीताकी भी रचना करनेवाले भगवान् व्यासदेव खिन्न होकर अज्ञानसमुद्रमें गोते खा रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चार श्लोकोंमें इसका उपदेश किया था। उसे सुनते ही उनकी सारी चिन्ता दूर हो गयी थी॥ ७२-७३॥

श्लोक-७४
तत्र ते विस्मयः केन यतः प्रश्नकरो भवान्।
श्रीमद्भागवतं श्राव्यं शोकदुःखविनाशनम्॥

फिर इसमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे प्रश्न कर रहे हैं? आपको उन्हें शोक और दुःखका विनाश करनेवाला श्रीमद्भागवत पुराण ही सुनाना चाहिये॥७४॥

श्लोक-७५
नारद उवाच
यदर्शनं च विनिहन्त्यशुभानि सद्यः
श्रेयस्तनोति भवदुःखदवार्दितानाम्।
निःशेषशेषमुखगीतकथैकपानाः
प्रेमप्रकाशकृतये शरणं गतोऽस्मि॥

नारदजीने कहा- महानुभावो! आपका दर्शन जीवके सम्पूर्ण पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और जो संसारदुःखरूप दावानलसे तपे हुए हैं उनपर शीघ्र ही शान्तिकी वर्षा करता है। आप निरन्तर शेषजीके सहस्र मुखोंसे गाये हुए भगवत्कथामृतका ही पान करते रहते हैं। मैं प्रेमलक्षणा भक्तिका प्रकाश करनेके उद्देश्यसे आपकी शरण लेता हूँ॥७५ ॥

श्लोक-७६
भाग्योदयेन बहुजन्मसमर्जितेन
सत्सङ्गमं च लभते पुरुषो यदा वै।
अज्ञानहेतुकृतमोहमदान्धकार
नाशं विधाय हि तदोदयते विवेकः॥

जब अनेकों जन्मोंके संचित पुण्यपुंजका उदय होनेसे मनुष्यको सत्संग मिलता है, तब वह उसके अज्ञानजनित मोह और मदरूप अन्धकारका नाश करके विवेक उदय होता है। ७६॥

इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये कुमारनारदसंवादो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥

 


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