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श्रीमद् भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 1 अध्याय 9: युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना, भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग

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॥ ॐ तत्सत्॥
॥ श्रीगणेशायः नमः॥
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्

प्रथमः स्कन्धः

अथ नवमोऽध्यायः (अध्याय 9) – युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भ

युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना, भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग

श्लोक-1
सूत उवाच
इति भीतः प्रजाद्रोहात्सर्वधर्मविवित्सया।
ततो विनशनं प्रागाद् यत्र देवव्रतोऽपतत्॥

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोहसे भयभीत हो गये। फिर सब धर्मोंका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने कुरुक्षेत्रकी यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्यापर पड़े हुए थे॥1॥

श्लोक-2
तदा ते भ्रातरः सर्वे सदश्वैः स्वर्णभूषितैः।
अन्वगच्छन् रथैर्विप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा॥

शौनकादि ऋषियो! उस समय उन सब भाइयोंने स्वर्णजटित रथोंपर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिरका अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे॥2॥

श्लोक-3
भगवानपि विप्रर्षे रथेन सधनञ्जयः।
स तैळरोचत नृपः कुबेर इव गुह्यकैः॥

शौनकजी! अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण भी रथपर चढ़कर चले। उन सब भाइयोंके साथ महाराज युधिष्ठिरकी ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षोंसे घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों॥3॥

श्लोक-4
दृष्ट्वा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतमिवामरम्।
प्रणेमुः पाण्डवा भीष्मं सानुगाः सह चक्रिणा॥

अपने अनुचरों और भगवान् श्रीकृष्णके साथ वहाँ जाकर पाण्डवोंने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्गसे गिरे हुए देवताके समान पृथ्वीपर पड़े हुए हैं। उन लोगोंने उन्हें प्रणाम किया।
4॥

श्लोक-5
तत्र ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षयश्च सत्तम।
राजर्षयश्च तत्रासन् द्रष्टुं भरतपुङ्गवम्॥

शौनकजी! उसी समय भरतवंशियोंके गौरवरूप भीष्मपितामहको देखनेके लिये सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये॥5॥

श्लोक-6
पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान् बादरायणः।
बृहदश्वो भरद्वाजः सशिष्यो रेणुकासुतः॥

श्लोक-7
वसिष्ठ इन्द्रप्रमदस्त्रितो गृत्समदोऽसितः।
कक्षीवान् गौतमोऽत्रिश्च कौशिकोऽथ सुदर्शनः॥

श्लोक-8
अन्ये च मुनयो ब्रह्मन् ब्रह्मरातादयोऽमलाः।
शिष्यैरुपेता आजग्मुः कश्यपाङ्गिरसादयः॥

पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान् व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्धहृदय महात्मागण एवं शिष्योंके सहित कश्यप, अंगिरापुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे॥6 -8॥

श्लोक-9

तान् समेतान् महाभागानुपलभ्य वसूत्तमः।
पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित्॥

भीष्मपितामह धर्मको और देश-कालके विभागको–कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बातको जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियोंको सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया॥9॥

श्लोक-10

कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम्।
हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्तविग्रहम्॥

वे भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीलासे मनुष्यका वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वरके रूपमें हृदयमें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णकी बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की॥10॥

श्लोक-11

पाण्डुपुत्रानुपासीनान् प्रश्रयप्रेमसङ्गतान्।
अभ्याचष्टानुरागात्रैरन्धीभूतेन चक्षुषा॥

पाण्डव बड़े विनय और प्रेमके साथ भीष्मपितामहके पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामहकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा- ॥11॥

श्लोक-12

अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद्यूयं धर्मनन्दनाः।
जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः॥

‘धर्मपुत्रो! हाय! हाय! यह बड़े कष्ट और अन्यायकी बात है कि तुमलोगोंको ब्राह्मण, धर्म और भगवान्के आश्रित रहनेपर भी इतने कष्टके साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे॥12॥

श्लोक-13

संस्थितेऽतिरथे पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधूः।
युष्मत्कृते बहून् क्लेशान् प्राप्ता तोकवती मुहुः॥

अतिरथी पाण्डुकी मृत्युके समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगोंके लिये कुन्तीरानीको और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े॥13॥

श्लोक-14

सर्वं कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम्।
सपालो यद्रशे लोको वायोरिव घनावलिः॥

जिस प्रकार बादल वायुके वशमें रहते हैं, वैसे ही लोकपालोंके सहित सारा संसार कालभगवान्के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगोंके जीवनमें ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हींकी लीला हैं॥14॥

श्लोक-15

यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिवृकोदरः।
कृष्णोऽस्त्री गाण्डिवं चापं सुहृत्कृष्णस्ततो विपत्॥

नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षाका काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों भला, वहाँ भी विपत्तिकी सम्भावना है ? ॥ 15 ॥

श्लोक-16

न ह्यस्य कर्हिचिद्राजन् पुमान् वेद विधित्सितम्।
यद्रिजिज्ञासया युक्ता मुह्यन्ति कवयोऽपि हि॥

ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बातको कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जाननेकी इच्छा करके मोहित हो जाते हैं॥ 16॥

श्लोक-17

तस्मादिदं दैवतन्त्रं व्यवस्य भरतर्षभ।
तस्यानुविहितोऽनाथा नाथ पाहि प्रजाः प्रभो॥

युधिष्ठिर! संसारकी ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छाके अधीन हैं। उसीका अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजाका पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करनेमें समर्थ हो॥17॥

श्लोक-18

एष वै भगवान्साक्षादाद्यो नारायणः पुमान्।
मोहयन्मायया लोकं गूढश्चरति वृष्णिषु॥

ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी मायासे लोगोंको मोहित करते हुए ये यदुवंशियोंमें छिपकर लीला कर रहे हैं॥18॥

श्लोक-19

अस्यानुभावं भगवान् वेदगुह्यतमं शिवः।
देवर्षिर्नारदः साक्षाद्भगवान् कपिलो नृप॥

इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर! उसे भगवान् शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् कपिल ही जानते हैं॥19॥

श्लोक-20

यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम्।
अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम्॥

जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथितक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं। 20॥

श्लोक-21

सर्वात्मनः समदृशो ह्यद्वयस्यानहङ्कृतेः।
तत्कृतं मतिवैषम्यं निरवद्यस्य न क्वचित्॥

इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकाररहित और निष्पाप परमात्मामें उन ऊँचे-नीचे कार्योंके कारण कभी किसी प्रकारकी विषमता नहीं होती॥21॥

श्लोक-22

तथाप्येकान्तभक्तेषु पश्य भूपानुकम्पितम्।
यन्मेऽसूंस्त्यजतः साक्षात्कृष्णो दर्शनमागतः॥

युधिष्ठिर! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समयमें जबकि मैं अपने प्राणोंका त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है॥ 22॥

श्लोक-23

भक्त्याऽऽवेश्य मनो यस्मिन् वाचायन्नाम कीर्तयन्।
त्यजन् कलेवरं योगी मुच्यते कामकर्मभिः॥

भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभावसे इनमें अपना मन लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं॥23॥

श्लोक-24

स देवदेवो भगवान् प्रतीक्षतां कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम्।
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लसन्मुखाम्बुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजः॥

वे ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूपसे, जिसका और लोगोंको केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जबतक मैं इस शरीरका त्याग न कर 24॥

श्लोक-25

सूत उवाच
युधिष्ठिरस्तदाकर्ण्य शयानं शरपञ्जरे।
अपृच्छद्विविधान्धर्मानृषीणां चानुशृण्वताम्॥

सूतजी कहते हैं-युधिष्ठिरने उनकी यह बात सुनकर शरशय्यापर सोये हुए भीष्मपितामहसे बहुत-से ऋषियोंके सामने ही नाना प्रकारके धर्मोके सम्बन्धमें अनेकों रहस्य पूछे॥ 25 ॥

श्लोक-26
पुरुषस्वभावविहितान् यथावर्णं यथाश्रमम्।
वैराग्यरागोपाधिभ्यामाम्नातोभयलक्षणान्॥

श्लोक-27

दानधर्मान् राजधर्मान् मोक्षधर्मान् विभागशः।
स्त्रीधर्मान् भगवद्धर्मान् समासव्यासयोगतः॥

श्लोक28
धर्मार्थकाममोक्षांश्च सहोपायान् यथा मुने।
नानाख्यानेतिहासेषु वर्णयामास तत्त्ववित्॥

तब तत्त्ववेत्ता भीष्मपितामहने वर्ण और आश्रमके अनुसार पुरुषके स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा रागके कारण विभिन्नरूपसे बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्म-इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तारसे वर्णन किया। शौनकजी! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों परुषार्थोंका तथा इनकी प्राप्तिके साधनोंका अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया॥26-28॥

श्लोक-29

धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः।
यो योगिनश्छन्दमृत्योर्वाञ्छितस्तूत्तरायणः॥

भीष्मपितामह इस प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका समय आ पहुँचा जिसे मृत्युको अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं॥29॥

श्लोक-30

तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीविमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे।
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे पुरःस्थितेऽमीलितदृग्व्यधारयत्॥

उस समय हजारों रथियोंके नेता भीष्मपितामहने वाणीका संयम करके मनको सब ओरसे हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया। भगवान् श्रीकृष्णके सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजीकी आँखें उसीपर एकटक लग गयीं॥30॥

श्लोक-31
विशुद्धया धारणया हताशुभस्तदीक्षयैवाशु गतायुधव्यथः।
निवृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिविभ्रमस्तुष्टाव जन्यं विसृजञ्जनार्दनम्॥

उनको शस्त्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान्के दर्शनमात्रसे ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान्की विशुद्ध धारणासे उनके जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़नेके समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियोंके वृत्तिविलासको रोक दिया और बड़े प्रेमसे भगवान्की स्तुति की॥31॥

श्लोक-32

श्रीभीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुंप्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः॥

भीष्मजीने कहा-अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंशशिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी विहार करनेकीलीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टिपरम्परा चलती है॥ 32॥

श्लोक-33

त्रिभुवनकमनं तमालवण रविकरगौरवराम्बरं दधाने।
वपुरलककुलावृताननाब्जे विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या॥

जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्यरश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल सदृश मुखपर धुंघराली अलकें लटकती रहती हैं उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो॥ 33॥

श्लोक-34

युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक् कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये।
मम निशितशरैर्विभिद्यमान त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा॥

मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुखपर लहराते हुए घुघराले बाल घोड़ोंकी टापकी धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूंदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जाय॥ 34॥

श्लोक-35

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु॥

अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव सेनाके बीचमें अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टिसे ही शत्रुपक्षके सैनिकोंकी आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान् श्रीकृष्णमें मेरी परम प्रीति हो॥ 35 ॥

श्लोक-36

व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या।
कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु॥

अर्जुनने जब दूरसे कौरवोंकी सेनाके मुखिया हमलोगोंको देखा तब पाप समझकर वह अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान श्रीकृष्णके चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे॥36॥

श्लोक-37

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञामृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु हरिरिव हन्तुमिभंगतोत्तरीयः॥

मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़्गा; उसे सत्य एवं ऊँची करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े। उस समय वे इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी॥ 37॥

श्लोक-38

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे।
प्रसभमभिससार मद्धार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः॥

मुझ आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोकनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलतासे परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों आश्रय हों॥38॥

श्लोक-39

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोर्यमिह निरीक्ष्य हता गताः सरूपम्॥

अर्जुनके रथकी रक्षामें सावधान जिन श्रीकृष्णके बायें हाथमें घोड़ोंकी रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनोंकी शोभासे उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारतयुद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्णमें मुझ मरणासन्नकी परम प्रीति हो॥39॥

श्लोक-40

ललितगतिविलासवल्गुहासप्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः॥

जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्मादसे मतवाली होकर जिनकी लीलाओंका अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णमें मेरा परम प्रेम हो॥ 40॥

श्लोक-41

मुनिगणनृपवर्यसंकुलेऽन्तः सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम्।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा॥

जिस समय युधिष्ठिरका राजसूययज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामें सबसे पहले सबकी ओरसे इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं॥41॥

श्लोक-42

तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम्।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकंसमधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः॥

जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूपसे जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्णको मैं भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ॥42॥

श्लोक-43
सूत उवाच कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत्॥

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार भीष्मपितामहने मन, वाणी और दृष्टिकी वृत्तियोंसे आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णमें अपनेआपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये॥43॥

श्लोक-44
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले।
सर्वेब णी वयांसीव दिनात्यये॥

उन्हें अनन्त ब्रह्ममें लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिनके बीत जानेपर पक्षियोंका कलरव शान्त हो जाता है॥44॥

श्लोक-45

तत्र दुन्दुभयो नेदुर्देवमानववादिताः।
शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः॥

उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभावके राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी॥ 45॥

श्लोक-46

तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव।
युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्तं दुःखितोऽभवत्॥

शौनकजी! युधिष्ठिरने उनके मृत शरीरकी अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समयके लिये वे शोकमग्न हो गये॥ 46॥

श्लोक-47

तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तद्गुह्यनामभिः।
ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान् प्रययुः पुनः॥

उस समय मुनियोंने बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णकी उनके रहस्यमय नाम ले लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयोंको श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमोंको लौट गये॥47॥

श्लोक-48

ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम्।
पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम्॥

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णके साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारीको ढाढस बंधाया॥48॥

श्लोक-49

पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः।
चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः॥

फिर धृतराष्ट्रकी आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंशपरम्परागत साम्राज्यका धर्मपूर्वक शासन करने लगे॥49॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भो नाम नवमोऽध्यायः॥9॥


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Shiv

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