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विनयपत्रिका हिंदी अर्थ सहित

शिव-स्तुति विनयपत्रिका गोस्वामी तुलसीदास कृत | Shiva Stuti Vinay Patrika Meaning in Hindi

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शिव-स्तुति विनयपत्रिका गोस्वामी तुलसीदास कृत

Shiva Stuti Vinay Patrika Meaning in Hindi 

शिव-स्तुति

को जाँचिये संभु तजि आन।
दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान॥१॥

कालकूट-जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान।
दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान॥२॥

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान॥३॥

सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान।
देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान॥४॥

हिंदी अर्थ भगवान् शिवजी को छोड़कर और किससे याचना की जाय? आप दीनों पर दया करने वाले, भक्तों के कष्ट हरने वाले और सब प्रकार से समर्थ ईश्वर हैं॥ १॥

समुद्र-मन्थन के समय जब कालकूट विष की ज्वाला से सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनों पर दया करने के प्रण की रक्षा के लिये तुरंत उस विष को पी गये। जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगत् को बहुत दुःख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाण से मार डाला। २॥

जिस परम गति को संत-महात्मा, वेद और सब पुराण महान् मुनियों के लिये भी दुर्लभ बताते हैं, हे सदाशिव! वही परम गति काशी में मरने पर आप सभी को समानभाव से देते हैं॥ ३॥

हे पार्वतीपति ! हे । परम सुजान!! सेवा करने पर आप सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं, आप कल्पवृक्ष के समान मुँहमाँगा फल देने वाले उदार हैं, आप कामदेव के शत्रु हैं। अतएव, हे कृपानिधान! तुलसीदास को श्रीराम के चरणों की प्रीति दीजिये॥४॥

राग धनाश्री(४)

दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं॥

मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
ता ठाकुर को रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं॥२॥

जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं॥३॥

ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं॥४॥

हिंदी अर्थशंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वे दीनदयालु हैं, देना ही उनके मन भाता है, माँगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं॥ १॥

वीरों में अग्रणी कामदेव को भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत् में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभु का प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है? ॥ २॥

करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनिगण जिस परम गति को भगवान् हरि से माँगते हुए सकुचाते हैं वही परम गति त्रिपुरारि शिवजी की पुरी काशी में कीट-पतंग भी पा जाते हैं, यह वेदों से प्रकट है॥ ३॥

ऐसे परम उदार भगवान् पार्वतीपति को छोड़कर जो लोग दूसरी जगह माँगने जाते हैं, उन मूर्ख माँगने वालों का पेट भलीभाँति कभी नहीं भरता॥४॥

बावरो रावरो नाह भवानी। ।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी॥१॥

निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी॥२॥

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी॥३॥

दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी॥४॥

प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत-मातु मुसुकानी॥५॥

हिंदी अर्थ (ब्रह्माजी लोगों का भाग्य बदलते बदलते हैरान होकर पार्वतीजी के पास जाकर कहने लगे) हे भवानी! आपके नाथ (शिवजी) पागल हैं। । सदा देते ही रहते हैं। जिन लोगों ने कभी किसी को
दान देकर बदले में पाने का कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगों को भी वे दे डालते हैं, जिससे वेद की मर्यादा टूटती है॥ १॥

आप बड़ी सयानी हैं, अपने घर की भलाई तो देखिये (यों देते-देते घर खाली होने लगा है, अनधिकारियों को) शिवजी की दी हुई अपार सम्पत्ति देख-देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी (व्यंग से) आपकी बड़ाई कर रही हैं॥ २॥

जिन लोगों के मस्तक पर मैंने सुख का नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजी के पागलपन के कारण उन कंगालों के लिये स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाकों दम आ गया है॥ ३॥

कहीं भी रहने को जगह न पाकर दीनता और दुःखियों के दुःख भी दुःखी हो रहे हैं और याचकता तो व्याकुल हो उठी है। लोगों की भाग्यलिपि बनाने का यह अधिकार कृपाकर आप किसी दूसरे को सौंपिये, मैं तो इस अधिकार की अपेक्षा भीख माँगकर खाना अच्छा समझता हूँ॥४॥

इस प्रकार ब्रह्माजी की प्रेम, प्रशंसा, विनय और व्यंग से भरी हुई सुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मनही-मन मुदित हुए और जगज्जननी पार्वती मुसकराने लगीं॥ ५॥

राग रामकली

जाँचिये गिरिजापति कासी।
जासु भवन अनिमादिक दासी॥१॥

औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
सकत न देखि दीन करजोरें॥२॥

सुख-संपति, मति-सुगति सुहाई।
सकल सुलभ संकर-सेवकाई॥३॥

गये सरन आरतिकै लीन्हे।
निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे ॥४॥

तुलसिदास जाचक जस गावै।
बिमल भगति रघुपतिकी पावै॥५॥

हिंदी अर्थपार्वतीपति शिवजी से ही याचना करनी चाहिये, जिनका घर काशी है और अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नामक आठों सिद्धियाँ जिनकी दासी हैं॥१॥

शिवजी महाराज औढरदानी हैं, थोड़ी-सी सेवा से ही पिघल जाते हैं। वह दीनों को हाथ जोड़े खड़ा नहीं देख सकते, उनकी कामना बहुत शीघ्र पूरी कर देते हैं॥२॥

शंकर की सेवा से सुख, सम्पत्ति, सुबुद्धि और उत्तम गति आदि सभी पदार्थ सुलभ हो जाते हैं॥३॥

जो आतुर जीव उनकी शरण गये, उन्हें शिवजी ने तुरंत अपना लिया और देखते ही पलभर में सबको निहाल कर दिया॥ ४॥

भिखारी तुलसीदास भी यश गाता है, इसे भी राम की निर्मल भक्ति की भीख मिले ! ॥ ५॥

(७)

कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
दारुन बिपति हरन करुनाकर॥१॥

बेद-पुरान कहत उदार हर।
हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर॥२॥

कवनि भगति कीन्ही गुन निधि द्विज।
होइ प्रसन्न दीन्हेह सिव पद निज॥३॥

जो गति अगम महामुनि गावहिं।
तव पुर कीट पतंगह पावहिं॥४॥

देहु काम-रिपु! राम-चरन-रति।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति॥५॥

हिंदी अर्थहे उमा-रमण! आप इस दीन पर कैसे कृपा नहीं करते? हे करुणा की खानि! आप घोर विपत्तियों के हरने वाले हैं॥१॥

वेद-पुराण कहते हैं कि शिवजी बड़े उदार हैं, फिर मेरे लिये आप इतने अधिक कृपण कैसे हो गये? ॥ २॥

गुणनिधि नामक ब्राह्मण ने आपकी कौन-सी भक्ति की थी, जिस पर प्रसन्न होकर आपने उसे अपना कल्याण पद दे दिया॥ ३॥

जिस परम गति को महान् मुनिगण भी दुर्लभ बतलाते हैं, वह आपकी काशीपुरी में कीटपतंगों को भी मिल जाती है॥ ४॥

हे कामारि शिव! हे स्वामी!! तुलसीदास की भेद-बुद्धि हरणकर उसे श्रीराम के चरणों की भक्ति दीजिये॥५॥

(८)

देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे॥

सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।
दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ॥२॥

गाँव बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे।
अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे॥३॥

बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे।
तुलसी दलि, रूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे॥४॥

हिंदी अर्थहे शंकर! आप बड़े देव हैं, बड़े दानी हैं और बड़े भोले हैं। जिन-जिन लोगों ने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने बिना भेद-भावके उन सब लोगों के दुःख दूर कर दिये॥ १॥

आपकी सेवा, स्मरण और पूजन में तो थोड़े-से बेलपत्र और चावलों से ही काम चल जाता है, परंतु इनके बदले में आप हाथी, रथ, घोड़े और जगत् में जितने सुख के पदार्थ हैं, सो सभी दे डालते हैं॥ २॥

हे वामदेव! मैं आपके गाँव (काशी)-में रहता हूँ, मैंने कभी आपसे कुछ माँगा नहीं, अब आधिभौतिक कष्ट के रूप में ये आपके किंकरगण मुझे सताने लगे हैं॥ ३॥

इसलिये आप इन कठोर कर्म करने वालों को जल्दी बुलाकर डाँट दीजिये, मैं आपकी बलैया लेता हूँ, क्योंकि ये दुष्ट तुलसीदासरूपी तुलसी के पेड़ को कुचलकर उसकी जगह शाखोट (सहोर)-के पेड़ लगाना चाहते हैं॥ ४॥

(९)

सिव! सिव! होइ प्रसन्न करु दाया ।
करुनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया॥१॥

जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।
बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई॥२॥

रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं।
तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं॥३॥

अहिभूषन, दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी।
मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक भयहारी॥४॥

गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान निवासी।
तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी॥५॥

हिंदी अर्थ हे कल्याणरूप शिवजी ! प्रसन्न होकर दया कीजिये। आप करुणामय हैं, आपकी कीर्ति सब ओर फैली हई है, मैं बलिहारी जाता हूँ, कृपापूर्वक अपनी माया हर लीजिये॥ १॥

आपके नेत्र कमल के समान हैं, आप सर्वगुणसम्पन्न हैं, कामदेव के शत्रु हैं। आपकी कृपा बिना न तो कोई आपकी महिमा जान सकता है और न श्रीराम के चरणकमलों में स्वप्न में भी उसकी भक्ति होती है॥ २॥

ऋषि, सिद्ध, मुनि, मनुष्य, दैत्य, देवता और जगत् में जितने जीव हैं, वे सब आपके चरणों से विमुख रहते हुए करोड़ों कल्प बीत जाने पर भी संसार-सागर का पार नहीं पा सकते॥ ३॥

सर्प आपके भूषण हैं, दूषण को मारने वाले (और सारे दोषों को हरने वाले) भगवान् श्रीराम के आप सेवक हैं, आप देवाधिदेव हैं, त्रिपुरासुर का संहार करने वाले हैं। हे शंकर! आप मोहरूपी कोहरे का नाश करने के लिये साक्षात् सूर्य हैं, शरणागत जीवों का शोक और भय हरण करने वाले हैं॥ ४॥

हे काशीपते! हे श्मशाननिवासी!! हे पार्वती के मनरूपी मानसरोवर में विहार करने वाले राजहंस!!! तुलसीदास को श्रीहरि के श्रेष्ठ चरणकमलों में अनपायिनी भक्ति का वरदान दीजिये।

राग धनाश्री(१०)

देव, मोह-तम-तरणि, हर, रुद्र, शंकर, शरण,हरण, मम शोक लोकाभिरामं।
बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं॥१॥

कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि कोटि तनु तेज भ्राजै।
भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल माला विराजै॥२॥

मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर वारि हरि-चरण-पूतं।
श्रवण कुंडल, गरल कंठ, करुणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं ॥३॥

शूल-शायक पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज, वृषभ-यानं।
व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं॥४॥

तांडवित-नृत्यपर, डमरु डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणराशी।
महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी॥५॥

तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी।।
ब्रह्मेद्र, चंद्रार्क, वरुणाग्नि, वसु, मरुत, यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकारी॥६॥

अकल, निरुपाधि, निर्गण, निरंजन, ब्रह्म, कर्म पथमेकमज निर्विकारं।
अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व सर्वोपकारं॥७॥

ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव! सानुकूलं।
तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव, विमुख तव पादमूलं॥८॥

नष्टमति, दुष्ट अति, कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।
देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया॥९॥

हिंदी अर्थहे शिव! मोहान्धकार का नाश करने के लिये आप साक्षात् सूर्य हैं। हे हर! हे रुद्र! हे शरण्य! हे लोकाभिराम! आप मेरा शोक हरण करने वाले हैं, आपके मस्तक पर द्वितीया का बाल-चन्द्र शोभा पा रहा है, आपके बड़े-बड़े नेत्र कमल के समान हैं। आप सौ करोड़ कामदेव के समान सुन्दरता के भण्डार हैं॥१॥

आपकी सुन्दर मूर्ति शंख, कुन्द, चन्द्रमा और कपूर के समान शुभ्रवर्ण है; करोड़ों मध्याह्न के सूर्यो के समान आपके शरीर का तेज झलमला रहा है; समस्त शरीर में भस्म लगी हुई है। आधे अंग में हिमाचल-कन्या पार्वतीजी शोभित हो रही हैं; साँपों और नर-कपालों की माला आपके गले में विराज रही । है॥ २॥

मस्तकपर बिजली के समान चमकते हुए पिंगलवर्ण जटा-जूटका मुकुट है तथा भगवान् श्रीहरि के चरणों से पवित्र हुई गंगाजी का श्रेष्ठ जल शोभित है। कानों में कुंडल हैं; कण्ठ में हलाहल विष झलक रहा है। ऐसे करुणाकन्द सच्चिदानन्दस्वरूप, अवधूतवेश भगवान् शिवजी की मैं वन्दना करता हूँ। ३॥

आपके करकमलों में शूल, बाण, धनुष और तलवार है; शत्रुरूपी वन को भस्म करने के लिये आप अग्नि के समान हैं। बैल आपकी सवारी है। बाघ और हाथी का चमड़ा आप शरीर में लपेटे हुए हैं। आप विज्ञानघन हैं यानी आपके ज्ञान में कहीं कभी अवकाश नहीं है तथा आप सिद्ध, देव, मुनि, मनुष्य आदि के द्वारा सेवित हैं॥ ४॥

आप ताण्डव-नृत्य करते हुए सुन्दर डमरू को डिमडिम-डिमडिम बजाते हैं, देखने में अशुभरूप प्रतीत होने पर भी आप कल्याण की खानि हैं। महाप्रलय के समय आप सारे ब्रह्माण्ड को भस्म कर डालते हैं, कैलास आपका भवन है और काशी में आप आसन लगाये रहते हैं। ५॥

आप तत्त्व के जानने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, यज्ञों के स्वामी हैं, विभु (व्यापक) हैं, सदा अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। हे पुरारि ! यह सारा विश्व आपके ही अंश से उत्पन्न है। ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण, अग्नि, आठ वसु, उनचास मरुत् और यम आपके चरणों की पूजा करने से ही सर्वाधिकारी बने हैं॥ ६॥

आप कलारहित हैं, उपाधिरहित हैं, निर्गुण हैं, निर्लेप हैं, परब्रह्म हैं। कर्म-पथ में एक ही हैं, जन्मरहित और निर्विकार हैं। सारा विश्व आपकी ही मूर्ति है, आपका रूप बड़ा उग्र होने पर भी आप मंगलमय हैं, आप देवताओं के स्वामी हैं, सर्वव्यापी हैं, संहारकर्ता होते हुए भी सबका उपकार करने वाले हैं॥ ७॥

हे शिव! आप जिस पर अनुकूल होते हैं उसको ज्ञान, वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख (मोक्ष) और सुन्दर सौभाग्य आदि सब सहज ही मिल जाते हैं; तो भी खेद है कि मूर्ख मनुष्य आपकी चरणसेवा से मुँह मोड़कर संसार के विकट पथ पर इधर-उधर भटकते फिरते हैं। ८॥

हे शम्भो! हे कामारि !! मैं नष्ट-बुद्धि, अत्यन्त दुष्ट, कष्टों में पड़ा हुआ, दुःखी तुलसीदास आपकी शरण आया हूँ; आप मुझे श्रीराम के चरणारविन्द में ऐसी अनन्य एवं अटल भक्ति दीजिये जिससे भेदरूप
माया का नाश हो जाय॥९॥

भैरवरूप शिव-स्तुति

देव, भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत-प्रेत प्रमथाधिपति, विपति-हर्ता।
मोह-मूषक-मार्जार, संसार-भय-हरण, तारण तरण, अभय कर्ता॥१॥

अतुल बल, विपुल विस्तार, विग्रह गौर, अमल अति धवल धरणीधराभं।
शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं॥२॥

भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि मालेव शोभा विचित्रं।
ललित लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर, नौमि हर धनद-मित्रं ॥३॥

इंदु-पावक-भानु-नयन, मर्दन-मयन, गुण-अयन, ज्ञान-विज्ञान-रूपं।
रमण-गिरिजा, भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल, वदनछवि अनूपं ॥४॥

चर्म-असि-शूल-धर, डमरु-शर-चाप-कर, यान वृषभेश, करुणा-निधानं।
जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकुलं, मृदुल चित, अजित, कृत गरलपानं ॥५॥

भस्म तनु-भूषणं, व्याघ्र-चाम्बरं, उरग-नर मौलि उर मालधारी।
डाकिनी, शाकिनी, खेचरं, भूचरं, यंत्र-मंत्र भंजन, प्रबल कल्मषारी॥६॥

काल अतिकाल, कलिकाल, व्यालादि-खग, त्रिपुर-मर्दन, भीम-कर्म भारी।
सकल लोकान्त-कल्पान्त शूलाग्र कृत दिग्गजाव्यक्त-गुण नृत्यकारी॥७॥

पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता।
पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र, बंधु, गुरु, जनक, जननी, विधाता॥८॥

यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारदा, निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी।
शेष, सर्वेश, आसीन आनंदवन, दास तुलसी प्रणत-त्रासहारी॥९॥

हिंदी अर्थहे भीषणमूर्ति भैरव! आप भयंकर हैं। भूत, प्रेत और गणों के स्वामी हैं। विपत्तियों के हरण करने वाले हैं। मोहरूपी चूहे के लिये आप बिलाव हैं; जन्म-मरणरूप संसार के भय को दूर करने वाले हैं; सबको तारने वाले, स्वयं मुक्तरूप और सबको अभय करने वाले हैं॥ १॥

आपका बल अतुलनीय है तथा अति विशाल शरीर गौरवर्ण, निर्मल, उज्ज्वल और शेषनाग की-सी कान्तिवाला है। सिर पर सुन्दर पीले रंग का सौ करोड़ बिजलियों के समान आभावाला जटाजूट शोभित हो रहा है॥ २॥

मस्तक पर माला की तरह विचित्र शोभावाली, परम पवित्र जलमयी देवनदी गंगा विराजमान है। सुन्दर ललाट पर चन्द्रमा की कमनीय कला शोभा दे रही है, ऐसे कुबेर के मित्र शिवजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥३॥

चन्द्रमा, अग्नि और सूर्य आपके नेत्र हैं; आप कामदेव का दमन करने वाले हैं, गुणों के भण्डार और ज्ञान-विज्ञानरूप हैं। पार्वती के साथ आप विहार करते हैं और सदा ही पर्वतराज कैलास आपका भवन है। आपके कानों में कुण्डल हैं और आपके मुख की सुन्दरता अनुपम है॥ ४॥

आप ढाल, तलवार और शूल धारण किये हुए हैं; आपके हाथों में डमरू, बाण और धनुष हैं। बैल आपकी सवारी है और आप करुणा के खजाने हैं। आपकी करुणा का इसी से पता लगता है कि आप समुद्र से निकले हुए भयानक अजेय विष की ज्वाला से देवता, राक्षस और मनुष्यलोक को जलता हुआ और शोक में व्याकुल देखकर करुणा के वश होकर उसे स्वयं पी गये॥५॥

भस्म आपके शरीर का भूषण है, आप बाघंबर धारण किये हुए हैं। आपने साँपों और नरमुण्डों की माला हृदय पर धारण कर रखी है। डाकिनी, शाकिनी, खेचर (आकाश में विचरने वाली दुष्ट आत्माओं), भूचर (पृथ्वी पर विचरने वाले भूत-प्रेत आदि) तथा यन्त्र-मन्त्र का आप नाश करने वाले हैं। प्रबल पापों को पलभर में नष्ट कर डालते हैं॥ ६॥

आप काल के भी महाकाल हैं, कलिकालरूपी सोके  लिये आप गरुड़ हैं। त्रिपुरासुर का मर्दन करने वाले तथा और बड़े-बड़े भयानक कार्य करने वाले हैं। समस्त लोकों के नाश करने वाले महाप्रलय के समय अपनी त्रिशूल की नोक से दिग्गजों को छेदकर आप गुणातीत होकर नृत्य करते हैं॥ ७॥

इस पाप-सन्ताप से पूर्ण भयानक संसार में मैं दीन होकर चौरासी लाख योनियों में भटक रहा हूँ, मुझे कोई भी बचाने वाला नहीं है। हे भैरवरूप! हे रामरूपी रुद्र !! आप ही मेरे बन्धु, गुरु, पिता, माता और विधाता हैं। मेरी रक्षा कीजिये॥ ८॥

जिनके गुणों का निर्मल बुद्धिवाली सरस्वती, वेद और नारद आदि ब्रह्मज्ञानी तथा शेषजी सदा गान करते हैं, तुलसीदास कहते हैं, वे भक्तों को अभय प्रदान करने वाले सर्वेश्वर शिवजी आनन्दवन काशी में विराजमान हैं।॥ ९॥

(१२)

शंकर, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं ।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं ॥१॥

कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।
सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं॥२॥

ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।
नौमि करुणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं ॥३॥

लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानु।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं॥४॥

तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं ॥५॥

हिंदी अर्थकल्याणकारी, कल्याण के दाता, संतजनों को आनन्द देनेवाले, हिमाचलकन्या पार्वती के पति, परम रमणीय, कामदेव के घमण्ड को चूर्ण करने वाले, कमलनेत्र, भक्ति से प्राप्त होने वाले महादेव का मैं भजन करता हूँ॥ १॥

जिनका शरीर शंख, कुन्द, चन्द्र और कपूर के समान चिकना, कोमल, शीतल, श्वेत और सुगन्धित है; जो कल्याणरूप, सुन्दर और सच्चिदानन्द कन्द हैं। सिद्ध, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, योगिराज, देवता, विष्णु और ब्रह्मा जिनके चरणारविन्द की वन्दना किया करते हैं॥ २॥

जिनको ब्राह्मणों का कुल प्रिय है; जो संतों को सुलभ और दुर्जनों को दुर्लभ हैं; जिनका वेष बड़ा विकराल है; जो विभु हैं और वेदों से अतीत हैं; जो करुणा की खान हैं; गरल को (कण्ठ में) और गंगा को (मस्तक पर) धारण करने वाले हैं; ऐसे निर्मल, निर्गुण और निर्विकार शिवजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥ ३॥

जो लोकों के स्वामी, शोक और शूल को निर्मूल करने वाले; त्रिशूलधारी तथा महान् मोहान्धकार को नाश करने वाले सूर्य हैं। जो काल के भी काल हैं, कलातीत हैं, अजर हैं, आवागमन रूप संसार को हरने वाले और कठिन कलिकालरूपी वन को जलाने के लिये अग्नि हैं॥ ४॥

यह तुलसीदास उन तत्त्ववेत्ता, अज्ञानरूपी समुद्र के सोखने के लिये अगस्त्यरूप, सर्वान्तर्यामी, सब प्रकार के सौभाग्य की जड़, जन्म-मरणरूप अपार संसार का नाश करने वाले, शरणागत जनों को सुख देने वाले, सदा सानुकूल शिवजी की शरण है॥५॥

राग वसन्त (१३)

सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु।
कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु॥१॥

कर्पर-गौर, करुना-उदार।
संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार ॥२॥

सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार।
निर्गुन, गुननायक, निराकार ॥३॥

त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस।
अहँकार निहार-उदित दिनेस॥४॥

बर बाल निसाकर मौलि भ्राज।
त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज॥५॥

जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल।
तिन्ह की गति कासीपति कृपाल॥६॥

उपकारी कोऽपर हर-समान।
सुर-असुर जरत कृत गरल पान॥७॥

बहु कल्प उपायन करि अनेक।
बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक॥८॥

बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन।
कह तुलसिदास मम त्राससमन॥९॥

हिंदी अर्थसम्पूर्ण कल्याण के देने वाली कामधेनु की तरह शिवजी के चरण-कमल की रज का सेवन करो॥ १॥

वे शिवजी कपूर के समान गौरवर्ण हैं, करुणा करने में बड़े उदार हैं, इस अनात्मरूप असार संसार में आत्मरूप सार-तत्त्व हैं, सोके राजा वासुकि का हार पहने रहते हैं॥ २॥

वे सुख की जन्मभूमि हैं—समस्त सुख उन सुखरूप से ही निकलते हैं, उनकी अपार महिमा है, वे तीनों गुणों से अतीत हैं, सब प्रकार के दिव्य गुणों के स्वामी हैं, वस्तुतः उनका कोई आकार नहीं है॥३॥

उनके तीन नेत्र हैं, वे मदन का मर्दन करने वाले महेश्वर, अहंकाररूप कोहरे के लिये उदय हुए सूर्य हैं॥ ४॥

उनके मस्तक पर सुन्दर बाल चन्द्रमा शोभित है, वे तीनों लोकों का शोक हरण करने वाले तथा गणों के राजा हैं॥ ५॥

विधाता ने जिनके मस्तक पर अच्छी गति का कोई योग नहीं लिखा, काशीनाथ कृपालु शिवजी उनकी गति हैं—शिवजी की कृपा से वे भी सुगति पा जाते हैं॥ ६॥

श्रीशंकर के समान उपकारी संसार में दूसरा कौन है, जिन्होंने विष की ज्वाला से जलते हुए देव-दानवों को बचाने के लिये स्वयं विष पी लिया॥ ७॥

अनेक कल्पों तक कितने ही उपाय क्यों न किये जायँ, शिवजी की कृपा बिना संसार के असली स्वरूप का ज्ञान कभी नहीं हो सकता॥ ८॥

तुलसीदास कहते हैं कि हे विज्ञान के धाम पार्वतीरमण शंकर! आप ही मेरे भय को दूर करने वाले हैं। ९॥

(१४)

देखो देखो, बन बन्यो आजु उमाकंत।
मानों देखन तुमहिं आई रितु बसंत॥१॥

जनु तनुदुति चंपक-कुसुम-माल।
बर बसन नील नूतन तमाल॥२॥

कलकदलि जंघ, पद कमल लाल।
सूचत कटि केहरि, गति मराल॥३॥

भूषन प्रसून बहु बिबिध रंग।
नूपुर किंकिनि कलरव बिहंग॥४॥

कर नवल बकुल-पल्लव रसाल।
श्रीफल कुच, कंचुकि लता-जाल॥५॥

आनन सरोज, कच मधुप गुंज।
लोचन बिसाल नव नील कंज॥६॥

पिक बचन चरित बर बर्हि कीर।
सित सुमन हास, लीला समीर॥७॥

कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान।
उर बसि प्रपंच रचे पंचबान॥८॥

करि कृपा हरिय भ्रम-फंद काम।
जेहि हृदय बसहिं सुखरासि राम॥९॥

हिंदी अर्थदेखिये, शिवजी! आज आप वन बन गये हैं। आपके अर्धांग में स्थित श्रीपार्वतीजी मानो वसन्त ऋतु बनकर आपको देखने आयी हैं॥ १॥

आपके शरीर की कान्ति मानो चम्पा के फूलों की माला है, सुन्दर नीले वस्त्र नवीन तमाल-पत्र हैं॥ २॥

सुन्दर जंघाएँ केले के वृक्ष और चरण लाल कमल हैं, पतली कमर सिंह की और सुन्दर चाल हंस की सूचना दे रही है॥ ३॥

गहने अनेक रंगों के बहुत-से फूल हैं, नूपुर (पैंजनी) और किंकिणी (करधनी) पक्षियों का सुमधुर शब्द है॥ ४॥

हाथ मौलसिरी और आम के पत्ते हैं, स्तन बेल के फल और चोली लताओं का जाल है॥ ५ ॥

मुख कमल और बाल गूंजते हुए भौर हैं, विशाल नेत्र नवीन नील कमल की पंखड़ियाँ हैं। ६॥

मधुर वचन कोयल तथा सुन्दर चरित्र मोर और तोते हैं, हँसी सफेद फूल और लीला शीतल-मन्दसुगन्ध समीर है॥ ७॥

तुलसीदास कहते हैं कि हे परम ज्ञानी शिवजी! यह कामदेव मेरे हृदय में बसकर बड़ा प्रपंच रचता है।॥ ८॥

इस काम की भ्रम-फाँसी को काट डालिये, जिससे सुखस्वरूप श्रीराम मेरे हृदय में सदा निवास करें॥९॥


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Shiv

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