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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद्भागवतपुराणम् श्रीस्कान्दे माहात्म्यम्

श्रीमद्भागवतपुराणम् श्रीस्कान्दे माहात्म्यम् अध्यायः 4

Spread the Glory of Sri SitaRam!

4 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/श्रीस्कान्दे माहात्म्यम्/अध्यायः ४

श्रीमद् भागवतस्य वक्तृश्रोतॄणां लक्षणानि, भागवतश्रवणस्य फलं विधिश्च –
ऋषयः ऊचुः –
साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि नः ।
श्रीभागवमाहात्म्यं अपूर्वं त्वन् मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥

शौनकादि ऋषियोंने कहा-सूतजी! आपने हमलोगोंको बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकालतक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हमलोगोंने आपके मुखसे श्रीमद्भागवतका अपूर्व माहात्म्य सुना है ।।१।।

तत्स्वरूपं प्रमाणं च विधिं च श्रवणे वद ।
तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि वदाधुना ॥ २ ॥

सूतजी! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवतका स्वरूप क्या है? उसका प्रमाण–उसकी श्लोकसंख्या कितनी है? किस विधिसे उसका श्रवण करना चाहिये? तथा श्रीमद्भागवतके वक्ता और श्रोताके क्या लक्षण हैं? अभिप्राय यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये ।।२।।

सूत उवाच –
श्रीमद् भागवतस्याथ श्रीमद्‌भगवतः सदा ।
स्वरूपमेकमेवास्ति सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥ ३ ॥

सूतजी कहते हैं-ऋषिगण! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान्का स्वरूप सदा एक ही है और वह है सच्चिदानन्दमय ।।३।।

श्रीकृष्णासक्तभक्तानां तन्माधुर्यप्रकाशकम् ।
समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि भागवतं हि तत् ॥ ४ ॥

भगवान् श्रीकृष्णमें जिनकी लगन लगी है उन भावुक भक्तोंके हृदयमें जो भगवान्केमाधुर्य भावको अभिव्यक्त करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरसका आस्वादन करानेवाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो ।।४।।

ज्ञानविज्ञान भक्त्यङ्‌ग चतुष्टयपरं वचः ।
मायामर्दनदक्षं च विद्धि भागवतं च तत् ॥ ५ ॥

जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अंगभूत साधनचतुष्टयको प्रकाशित करनेवाला है तथा जो मायाका मर्दन करनेमें समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो ।।५।।

प्रमाणं तस्य को वेद ह्यनन्तस्याक्षरात्मनः ।
ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक् चतुःश्लोक्या प्रदर्शिता ॥ ६ ॥

श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है? पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने ब्रह्माजीके प्रति चार श्लोकोंमें इसका दिग्दर्शनमात्र कराया था ।।६।।

तदानन्त्यावगाहेन स्वेप्सितावहनक्षमाः ।
ते एव सन्ति भो विप्रा ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७ ॥

विप्रगण! इस भागवतकी अपार गहराई में डुबकी लगाकर इसमें से अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेमें केवल ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं ||७||

मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च ।
परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः ॥ ८ ॥

ग्रन्तोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः ।
कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः ॥ ९ ॥

परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्योंका हितसाधन करनेके लिये श्रीव्यासजीने परीक्षित् और शुकदेवजीके संवादके रूपमें जिसका गान किया है, उसीका नाम श्रीमद्भागवतहै। उस ग्रन्थकी श्लोक-संख्या अठारह हजार है। इस भवसागरमें जो प्राणी कलिरूपी ग्राहसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है ।।८-९||

श्रोतारोऽथ निरूप्यन्ते श्रीमद् विष्णुकथाश्रयाः ।
प्रवरा अवराश्चेति श्रोतारो द्विविधा पताः ॥ १० ॥

अब भगवान् श्रीकृष्णकी कथाका आश्रय लेनेवाले श्रोताओंका वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकारके माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) ||१०||

प्रवराश्चातको हंसः शुको मीनादयस्तथा ।
अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः प्रकीर्तिताः ॥ ११ ॥

प्रवर श्रोताओंके ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवरके भी ‘वृक’, ‘भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं ।।११।।

अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ व्रती ।
सः चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः ॥ १२ ॥

‘चातक’ कहते हैं पपीहेको। वह जैसे बादलसे बरसते हुए जलमें ही स्पृहा रखता है, दूसरे जलको छता ही नहीं उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोड़कर केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रोंके श्रवणका व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है ।।१२।।

हंसः स्यात् सारमादत्ते यः श्रोता विविधाच्छ्रुतात् ।
दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः ॥ १३ ॥

जैसे हंस दूधके साथ मिलकर एक हुए जलसे निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानीको छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रोंका श्रवण करके भी उसमेंसे सारभाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं ।।१३।।

शुकः सुष्ठु मितं वक्ति व्यासम् श्रोतॄंश्च हर्षयन् ।
सुपाठितः शुको यद्वत् शिक्षकं पार्श्वगानपि ॥ १४ ॥

जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणीसे शिक्षकको तथा पास आनेवाले दूसरे लोगोंको भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथावाचक व्यासके मुँहसे उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणीमें पुनः सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओंको अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ।।१४।।

शब्दं नानिमिषो जातु करोत्यास्वादयन् रसम् ।
श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः क्षीरनिधौ यथा ॥ १५ ॥

जैसे क्षीरसागरमें मछली मौन रहकर अपलक आँखोंसे देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निर्निमेष नयनोंसे देखता हआ मुँहसे कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारसका ही आस्वादन करता रहता है, वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है ।।१५।।

यस्तुदन् रसिकान् श्रोतॄन् व्रौत्यज्ञो वृको हि सः ।
वेणुस्वनरसासक्तान् वृकोऽरण्ये मृगान् हथा ॥ १६ ॥

(ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओंके भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेड़ियेको। जैसे भेड़िया वनके भीतर वेणुकी मीठी आवाज सुनने में लगे हुए मगोंको डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मुर्ख कथाश्रवणके समय रसिक श्रोताओंको उद्विग्न करता हुआ बीच-बीचमें जोर-जोरसे बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है ।।१६।।

भूरुण्डः शिक्षयेदन्यात् श्रुत्वा न स्वयमाचरेत् ।
यथा हिमवतः श्रृंगे भूरुण्डाखो विहंगमः ॥ १७ ॥

हिमालयके शिखरपर एक भूरुण्ड जातिका पक्षी होता है। वह किसीके शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेशकी बात सुनकर उसे दूसरोंको तो सिखाये पर स्वयं आचरणमें न लाये, ऐसे श्रोताको ‘भूरुण्ड’ कहते हैं ।।१७।।

सर्वं श्रुतमुपादत्ते सारासारान्धधीर्वृषः ।
स्वादुद्राक्षां खलिं चापि निर्विशेषं यथा वृषः ॥ १८ ॥

‘वृष’ कहते हैं बैलको। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनोंको वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तुका विचार करनेमें उसकी बुद्धि अंधी-असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है ।।१८।।

स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन् विपरीते रमेत यः ।
यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो हित्वाम्रमपि तद्‌युतम् ॥ १९ ॥

जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुणसे युक्त आमको भी छोड़कर केवल नीमकी ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान्की मधुर कथाको छोड़कर उसके विपरित संसारी बातोंमें रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं ||१९||

अन्येऽपि बहवो भेदा द्वयोर्भृङ्‌गखरादयः ।
विज्ञेयास्तत्तदाचारैः तत्तत्प्रकृतिसम्भवैः ॥ २० ॥

ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकारके श्रोताओंके ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत-से भेद हैं,’ इन सब भेदोंको उन-उन श्रोताओंके स्वाभाविक आचार-व्यवहारोंसे परखना चाहिये ।।२०।।

यः स्थित्वाभिमुखं प्रणम्य विधिवत्
त्यक्तान्यवादो हरेः ।
लीलाः श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो
नम्रोऽथ कॢपाञ्जलिः ।
शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः
प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिः ।
नित्यं कृष्णजनप्रियो निगदितः
श्रोता स वै वक्तृभिः ॥ २१ ॥

जो वक्ताके सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातोंको छोड़कर केवल श्रीभगवान्की लीला-कथाओंको ही सुननेकी इच्छा रखे, समझने में अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्यभावसे उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवा, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे, जो बात समझमें न आये, पूछे और पवित्र भावसे रहे तथा श्रीकृष्णके भक्तोंपर सदा ही प्रेम रखता हो-ऐसे ही श्रोताको वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ।।२१।।

भावगन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु स्मानुकम्पो यः ।
बहुधा बोधनचतुरो वक्ता सम्मानितो मुनिभिः ॥ २२ ॥

अब वक्ताके लक्षण बतलाते हैं। जिसका मन सदा भगवान्में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तुकी अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद् और दीनोंपर दया करनेवाला हो तथा अनेकों युक्तियोंसे तत्त्वका बोध करा देने में चतुर हो, उसी वक्ताका मुनिलोग भी सम्मान करते हैं ||२२||

अथ भारतभृस्थाने श्रीभागवतसेवने ।
विधिं श्रृणुत भो विप्रा येन स्यात् सुखसन्ततिः ॥ २३ ॥

विप्रगण! अब मैं भारतवर्षकी भूमिपर श्रीमद्भागवत-कथाका सेवन करनेके लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुनें। इस विधिके पालनसे श्रोताकी सुखपरम्पराका विस्तार होता है ।।२३।।

राजसं सत्त्विकं चापि तामसं निर्गुणं तथा ।
चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवतसेवनम् ॥ २४ ॥

श्रीमद्भागवतका सेवन चार प्रकारका है-सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण ।।२४।।

सप्ताहं यज्ञवद् यत्तु सश्रमं सत्वरं मुदा ।
सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम् ॥ २५ ॥

जिसमें यज्ञकी भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजासामग्रियोंके कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रमसे बहुत उतावलीके साथ सात दिनोंमें ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवतका सेवन ‘राजस’ है ||२५||

मासेन ऋतुना वापि श्रवणं स्वादसंयुतम् ।
सात्त्विकं यदनायासं समस्तानन्दवर्धनम् ॥ २६ ॥

एक या दो महीनेमें धीरे-धीरे कथाके रसका आस्वादन करते हए बिना परिश्रमके जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्दको बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक’ सेवन कहलाता है ।।२६।।

तामसं यत्तु वर्षेण सालसं श्रद्धया युतम् ।
विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च सौख्यदम् ॥ २७ ॥

तामस सेवन वह है जो कभी भूलसे छोड़ दिया जाय और याद आनेपर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्षतक आलस्य और अश्रद्धाके साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करनेकी अपेक्षा अच्छा और सुख ही देनेवाला है ।।२७।।

वर्षमासदिनानां तु विमुच्य नियमाग्रहम् ।
सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं निर्गुणं मतम् ॥ २८ ॥

जब वर्ष, महीना और दिनोंके नियमका आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्तिके साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है ||२८||

पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं तत् प्रकीर्तितम् ।
तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंखय्या ॥ २९ ॥

राजा परीक्षित् और शुकदेवके संवादमें भी जो भागवतका सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनोंकी बात आती है, वह राजाकी आयुके बचे हुए दिनोंकी संख्याके अनुसार है, सप्ताह-कथाका नियम करनेके लिये नहीं ।।२९।।

अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च यथेच्छया
यथा कथञ्चित् कर्तव्यं सेवनं भगवच्छ्रुतेः ॥ ३० ॥

भारतवर्षके अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण-सेवन अपनी रुचिके अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवतका सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये ||३०||

ये श्रीकृष्णविहारैक भजनास्वादलोलुपाः ।
मुक्तावपि निराकाङ्‌क्षाः तेषां भागवतं धनम् ॥ ३१ ॥

जो केवल श्रीकृष्णकी लीलाओंके ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादनके लिये लालायितरहते और मोक्षकी भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है ।।३१।।

येऽपि संसारसन्तापनिर्विण्णा मोक्षकाङ्‌क्षिणः ।
तेषां भवौषधं चैतत् कलौ सेव्यं प्रयत्‍नतः ॥ ३२ ॥

तथा जो संसारके दुःखोंसे घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोगकी ओषधि है। अतः इस कलिकालमें इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये ||३२||

ये चापि विषयारामाः सांसारिकसुखस्पृहाः ।
तेषां तु कर्म मार्गेण या सिद्धिः साधुना कलौ ॥ ३३ ॥

सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्लभा ।
तस्मात्तैरपि संसेव्या श्रीमद्‌भागवती कथा ॥ ३४ ॥

इनके अतिरिक्त जो लोग विषयोंमें ही रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखोंकी ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुगमें सामर्थ्य, धन और विधि-विधानका ज्ञान न होनेके कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशामें उन्हें भी सब प्रकारसे अब इस भागवतकथाका ही सेवन करना चाहिये ।।३३-३४।।

धनं पुत्रांस्तथा दारान् वाहनादि यशो गृहान् ।
असापत्‍न्यं च राज्यं च दद्यात् भागवती कथा ॥ ३५ ॥

यह श्रीमद्भागवतकी कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है ।।३५।।

इह लोके वरान् भुक्त्वा भोगान् वै मनसेप्सितान् ।
श्रीभागवतसंगेन यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३६ ॥

सकाम भावसे भागवतका सहारा लेनेवाले मनुष्य इस संसारमें मनोवांछित उत्तम भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रीमद्भागवतके ही संगसे श्रीहरिके परमधामको प्राप्त हो जाते हैं ।।३६।।

यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे रताः ।
तेषां संसेवनं कुर्याद् देहेन च धनेन च ॥ ३७ ॥

जिनके यहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथाके श्रवणमें लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धनसे करनी चाहिये ।।३७।।

तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम् ।
श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत् सर्वं धनसंज्ञितम् ॥ ३८ ॥

उन्हींके अनुग्रहसे सहायता करनेवाले पुरुषको भी भागवत-सेवनका पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओंकी होती है-श्रीकृष्णकी और धनकी। श्रीकृष्णके सिवा जो कुछ भी चाहा जाय, यह सब धनके अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है ।।३८।।

कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मतः ।
यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्धते ॥ ३९ ॥

श्रोता और वक्ता भी दो प्रकारके माने गये हैं, एक श्रीकृष्णको चाहनेवाले और दूसरे धनको। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथामें रस मिलता है, अतः सुखकी वृद्धि होती है ||३९||

उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे फलच्युतिः ।
किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिः विलम्बेनापि जायते ॥ ४० ॥

यदि दोनों विपरीत विचारके हों तो रसाभास हो जाता है, अतः फलकी हानि होती है। किन्तु जो श्रीकृष्णको चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होनेपर भी सिद्धि अवश्य मिलती है ।।४०||

धनार्थिनस्तु संसिद्धिः विधिसंपूर्णतावशात् ।
कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव विधिरुत्तमः ॥ ४१ ॥

पर धनार्थीको तो तभी सिद्धि मिलती है, जब उनके अनुष्ठानका विधि-विधान पूरा उतर जाय। श्रीकृष्णकी चाह रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधिमें कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदयमें प्रेम है तो, वही उसके लिये सर्वोत्तम विधि है ।।४१।।

आसमाप्ति सकामेन कर्त्तव्यो हि विधिः स्वयम् ।
स्नातो नित्यक्रियां कृत्वा प्राश्य पादोदकं हरेः ॥ ४२ ॥

पुस्तकं च गुरुं चैव पूजयित्वोपचारतः ।
ब्रूयाद् वा श्रृणुयाद् वापि श्रीमद्‌भागवतं मुदा ॥ ४३ ॥

सकाम पुरुषको कथाकी समाप्तिके दिनतक स्वयं सावधानीके साथ सभी विधियोंका पालन करना चाहिये। (भागवत-कथाके श्रोता और वक्ता दोनोंके ही पालन करनेयोग्य विधि यह है—) प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले। फिर भगवान्का चरणामृत पीकर पूजाके सामानसे श्रीमद्भागवतकी पुस्तक और गुरुदेव (व्यास) का पूजन करे। इसके पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नता-पूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा स्वयं कहे अथवा सुने ।।४२-४३।।

पयसा वा हविषेण मौनं भोजमाचरेत् ।
ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिं क्रोधलोभादिवर्जनम् ॥ ४४ ॥
दूध या खीरका मौन भोजन करे। नित्य ब्रह्मचर्यका पालन और भूमिपर शयन करे, क्रोध और लोभ आदिको त्याग दे ।।४४।।
कथान्ते कीर्तनं नित्यं समाप्तौ जागरं चरेत् ।
ब्रह्मणान् भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः प्रतोषयेत् ॥ ४५ ॥

प्रतिदिन कथाके अन्तमें कीर्तन करे और कथासमाप्तिके दिन रात्रिमें जागरण करे। समाप्ति होनेपर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे सन्तुष्ट करे ।।४५।।

गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च समर्पयेत् ।
एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ४६ ॥

दारागारसुतान् राज्यं धनादि च यदीप्सितम् ।
परंतु शोभते नात्र सकामत्वं विडम्बनम् ॥ ४७ ॥

कथावाचक गुरुको वस्त्र, आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे। इस प्रकार विधिविधान पूर्ण करनेपर मनुष्यको स्त्री, घर, पुत्र, राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता श्रीमद्भागवतकी कथामें शोभा नहीं देता ।।४६-४७।।

कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम् ।
श्रीमद्‌भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥ ४८ ॥

श्रीशुकदेवजीके मुखसे कहा हुआ यह श्रीमद्भागवतशास्त्र तो कलियुगमें साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है ।।४८।।

इति श्रीस्कान्दे महापुराण् एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये भागवत श्रोतृवक्तृ लक्षणविधिनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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