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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 13

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः १३
सबालवत्सवृन्दे ब्रह्मणापहृते श्रीकृष्णस्य
तत्तद्‌रूपेणाब्दं यथापूर्वं विहरणं ब्रह्मणो मोहभंगश्च –
( अनुष्टुप् )

श्रीशुक उवाच ।
साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।
यन्नूतनयसीशस्य श्रृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! तुम बड़े भाग्यवान् हो। भगवान्के प्रेमी भक्तोंमें तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान्की लीला-कथाएँ सुननेको मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्धमें प्रश्न करके उन्हें और भी सरस और भी नूतन बना देते हो ||१||

( मिश्र )
सतामयं सारभृतां निसर्गो
यदर्थवाणी श्रुतिचेतसामपि ।
प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्
स्त्रिया विटानामिव साधु वार्ता ॥ २ ॥

रसिक संतोंकी वाणी, कान और हृदय । भगवान्की लीलाके गान, श्रवण और चिन्तनके लिये ही होते हैं उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान्की लीलाओंको अपूर्व रस-मयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषोंको स्त्रियोंकी चर्चामें नया-नया रस जान पड़ता है ।।२।।

( अनुष्टुप् )
श्रृणुष्वावहितो राजन् अपि गुह्यं वदामि ते ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ३ ॥

परीक्षित्! तुम एकाग्र चित्तसे श्रवण करो। यद्यपि भगवान्की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं ।।३।।

तथा अघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान् ।
सरित्पुलिनमानीय भगवान् इदमब्रवीत् ॥ ४ ॥

यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान् श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंको मृत्युरूप अघासुरके मुँहसे बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुनाके पुलिनपर ले आये और उनसे कहने लगे- ।।४।।

( वंशस्था )
अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः
स्वकेलिसम्पन् मृदुलाच्छबालुकम् ।
स्फुटत्सरोगन्ध हृतालिपत्रिक
ध्वनिप्रतिध्वानलसद् द्रुमाकुलम् ॥ ५ ॥

‘मेरे प्यारे मित्रो! यमुनाजीका यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँकी बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हमलोगोंके लिये खेलनेकी तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्धसे खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनिसे सुशोभित वृक्ष इस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे हैं ||५||

( अनुष्टुप् )
अत्र भोक्तव्यमस्माभिः दिवारूढं क्षुधार्दिताः ।
वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम् ॥ ६ ॥

अब हमलोगोंको यहाँ भोजन कर लेना चाहिये; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हमलोग भूखसे पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें’ ||६||

तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले ।
मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजुः समं भगवता मुदा ॥ ७ ॥

ग्वालबालोंने एक स्वरसे कहा—’ठीक है, ठीक है!’ उन्होंने बछडोंको पानी पिलाकर हरी-हरी घासमें छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान्के साथ बड़े आनन्दसे भोजन करने लगे ||७||

( मिश्र )
कृष्णस्य विष्वक् पुरुराजिमण्डलैः
अभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः ।
सहोपविष्टा विपिने विरेजुः
छदा यथाम्भोरुहकर्णिकायाः ॥ ८ ॥

सबके बीचमें भगवान् श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालोंने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्णकी ओर थे और सबकी आँखें आनन्दसे खिल रही थीं। वन-भोजनके समय श्रीकृष्णके साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमलकी कर्णिकाके चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों ।।८।।

( अनुष्टुप् )
केचित् पुष्पैर्दलैः केचित् पल्लवैः अङ्‌कुरैः फलैः ।
शिग्भिः त्वग्भिः दृषद्‌भिश्च बुभुजुः कृतभाजनाः ॥ ९ ॥

कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरों के पात्र बनाकर भोजन करने लगे ||९||

सर्वे मिथो दर्शयन्तः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक् ।
हसन्तो हासयन्तश्च अभ्यवजह्रुः सहेश्वराः ॥ १० ॥

भगवान् श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचिका प्रदर्शन करते। कोई किसीको हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट होजाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे ||१०||

( मंदाक्रांता )
बिभ्रद् वेणुं जठरपटयोः श्रृङ्‌गवेत्रे च कक्षे ।
वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यङ्‌गुलीषु ।
तिष्ठन् मध्ये स्वपरिसुहृदो हासयन् नर्मभिः स्वैः
स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग् बालकेलिः ॥ ११ ॥

(उस समय श्रीकृष्णकी छटा सबसे निराली थी।) उन्होंने मुरलीको तो कमरकी फेंटमें आगेकी ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगल में दबा लिये थे। बायें हाथमें बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही-भातका ग्रास था और अँगलियोंमें अदरक, नीबू आदिके अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओरसे घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे अपने साथी ग्वालबालोंको हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान् ग्वालबालोंके साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्गके देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे ।।११।।

( अनुष्टुप् )
भारतैवं वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु ।
वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः ॥ १२ ॥

भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान्की इस रसमयी लीलामें तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछडे हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बडी दूर निकल गये ||१२||

तान् दृष्ट्वा भयसंत्रस्न् ऊचे कृष्णोऽस्य भीभयम् ।
मित्राण्याशान्मा विरमत् इहानेष्ये वत्सकानहम् ॥ १३ ॥

जब ग्वालबालोंका ध्यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तोंके भयको भगा देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कहा-‘मेरे प्यारे मित्रो! तुमलोग भोजन करना बंद मत करो। मैं अभी बछड़ोंको लिये आता हूँ’ ||१३||

इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्ज गह्वरेष्वात्मवत्सकान् ।
विचिन्वन् भगवान् कृष्णः सपाणिकवलो ययौ ॥ १४ ॥

ग्वालबालोंसे इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण हाथमें दही-भातका कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुंजों एवं अन्यान्य भयंकर स्थानोंमें अपने तथा साथियोंके बछड़ोंको ढूँढ़ने चल दिये ।।१४।।

( शार्दूलविक्रीडित )
अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो मायार्भकस्येशितुः ।
द्रष्टुं मञ्जु महित्वमन्यदपि तद्वत्सानितो वत्सपान् ।
नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात् खेऽवस्थितो यः पुरा ।
दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्तः परं विस्मयम् ॥ १५ ॥

परीक्षित्! ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित थे। प्रभुके प्रभावसे अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हआ। उन्होंने सोचा कि लीलासे मनुष्य-बालक बने हए भगवान श्रीकृष्णकी कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर ग्वाल-बालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। अन्ततः वे जड़ कमलकी ही तो सन्तान हैं ।।१५।।

( अनुष्टुप् )
ततो वत्सान् अदृष्ट्वैत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान् ।
उभौ अपि वने कृष्णो विचिकाय समन्ततः ॥ १६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण बछड़े न मिलनेपर यमुनाजीके पुलिनपर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं। तब उन्होंने वनमें घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ा ।।१६।।

क्वाप्यदृष्ट्वान्तर्विपिने वत्सान् पालांश्च विश्ववित् ।
सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह ॥ १७ ॥

परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है। वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं ||१७||

ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च ।
उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वरः ॥ १८ ॥

अब भगवान् श्रीकृष्णने बछड़ों और ग्वालबालोंकी माताओंको तथा ब्रह्माजीको भी आनन्दित करनेके लिये अपनेआपको ही बछडों और ग्वालबालों-दोनोंके रूपमें बना लिया*। क्योंकि वे ही तो सम्पर्ण विश्वके कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं ।।१८।।

( शार्दूलविक्रीडित )
यावद् वत्सपवत्सकाल्पकवपुः
र्यावत् कराङ्‌घ्र्यादिकं ।
यावद् यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद् विभूषाम्बरम् ।
यावत् शीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद् विहारादिकं ।
सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्‌गवदजः
सर्वस्वरूपो बभौ ॥ १९ ॥

परीक्षित्! वे बालक और बछड़े संख्यामें जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिंगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’—यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी ।।१९।।

( अनुष्टुप् )
स्वयमात्मात्मगोवत्सान प्रतिवार्यात्मवत्सपैः ।
क्रीडन् आत्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद् व्रजम् ॥ २० ॥

सर्वात्मा भगवान् स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने आत्मस्वरूप बछड़ोंको अपने आत्मस्वरूप ग्वालबालोंके द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते हुए उन्होंने व्रजमें प्रवेश किया ||२०||

तत्तद् वत्सान् पृथङ्‌नीत्वा तत्तद्‍गोष्ठे निवेश्य सः ।
तत्तद् आत्माभवद् राजन् तत्तत्सद्म प्रविष्टवान् ॥ २१ ॥

परीक्षित्! जिस ग्वालबालके जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबालके रूपसे अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखलमें घुसा दिया और विभिन्न बालकोंके रूपमें उनके भिन्न-भिन्न घरोंमें चले गये ।।२१।।

( मिश्र )
तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता
उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम् ।
स्नेहस्नुतस्तन्यपयःसुधासवं
मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन् ॥ २२ ॥

ग्वालबालोंकी माताएँ बाँसुरीकी तान सुनते ही जल्दीसे दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परब्रह्म श्रीकृष्णको अपने बच्चे समझकर हाथोंसे उठाकर उन्होंने जोरसे हृदयसे लगा लिया। वे अपने स्तनोंसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण सुधासे भी मधुर और आसवसे भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं ||२२||

ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपन
अलङ्‌कार रक्षा तिलकाशनादिभिः ।
संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्
सायं गतो यामयमेन माधवः ॥ २३ ॥

परीक्षित्! इसी प्रकार प्रतिदिन सन्ध्यासमय भगवान् श्रीकृष्ण उन ग्वालबालोंके रूपमें वनसे लौट आते और अपनी बालसुलभ लीलाओंसे माताओंको आनन्दित करते। वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दनका लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनोंसे सजातीं। दोनों भौंहोंके बीचमें डीठसे बचानेके लिये काजलका डिठौना लगा देतीं तथा भोजन करातीं और तरह-तरहसे बड़े लाड़-प्यारसे उनका लालन-पालन करतीं ।।२३।।

गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं
हुङ्‌कारघोषैः परिहूतसङ्‌गतान् ।
स्वकान् स्वकान् वत्सतरानपाययन्
मुहुर्लिहन्त्यः स्रवदौधसं पयः ॥ २४ ॥

ग्वालिनोंके समान गौएँ भी जब जंगलोंमेंसे चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौड़कर उनके पास आ जाते, तब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभसे चाटतीं और अपना दूध पिलातीं। अस समय स्नेहकी अधिकताके कारण उनके थनोंसे स्वयं ही दूधकी धारा बहने लगती ।।२४।।

( अनुष्टुप् )
गोगोपीनां मातृतास्मिन् सर्वा स्नेहर्धिकां विना ।
पुरोवदास्वपि हरेः तोकता मायया विना ॥ २५ ॥

इन गायों और ग्वालिनोंका मातृभाव पहले-जैसा ही ऐश्वर्यज्ञानरहित और विशुद्ध था। हाँ, अपने असली पुत्रोंकी अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था। इसी प्रकार भगवान् भी उनकेपहले पुत्रोंके समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परन्तु भगवान्में उन बालकोंके जैसा मोहका भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ ।।२५।।

व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम् ।
शनैर्निःसीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत् ॥ २६ ॥

अपने-अपने बालकोंके प्रति व्रज-वासियोंकी स्नेहलता दिन-प्रतिदिन एक वर्षतक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँतक कि पहले श्रीकृष्णमें उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकोंके प्रति भी हो गया ।।२६।।

इत्थं आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः ।
पालयन् वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः ॥ २७ ॥

इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े और ग्वालबालोंके बहाने गोपाल बनकर अपने बालकरूपसे वत्सरूपका पालन करते हुए एक वर्षतक वन और गोष्ठमें क्रीडा करते रहे ।।२७।।

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो वनमाविशत् ।
पञ्चषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः ॥ २८ ॥

जब एक वर्ष पूरा होने में पाँच-छ: रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ बछड़ोंको चराते हुए वनमें गये ।।२८।।

ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम् ।
गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो ददृशुस्तृणम् ॥ २९ ॥

उस समय गौएँ गोवर्धनकी चोटीपर घास चर रही थीं। वहाँसे उन्होंने व्रजके पास ही घास चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ोंको देखा ।।२९||

( मिश्र )
दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा
स गोव्रजोऽत्यात्मप दुर्गमार्गः ।
द्विपात्ककुद्‍ग्रीव उदास्यपुच्छो
अगाद्धुङ्‌कृतैरास्रुपया जवेन ॥ ३० ॥

बछड़ोंको देखते ही गौओंका वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। वे अपने-आपकी सुध-बुध खो बैठी और ग्वालोंके रोकनेकी कुछ भी परवा न कर जिस मार्गसे वे न जा सकते थे, उस मार्गसे हुंकार करती हुई बड़े वेगसे दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनोंसे दूध बहता जाता था और उनकी गरदनें सिकुड़कर डीलसे मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेगसे दौड़ रही थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं ||३०||

( अनुष्टुप् )
समेत्य गावोऽधो वत्सान् वत्सवत्योऽप्यपाययन् ।
गिलन्त्य इव चाङ्‌गानि लिहन्त्यः स्वौधसं पयः ॥ ३१ ॥

जिन गौओंके और भी बछडे हो चके थे, वे भी गोवर्धनके नीचे अपने पहले बछड़ोंके पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपनेआप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चोंका एक-एक अंग ऐसे चावसे चाट रही थीं, मानो उन्हें अपने पेटमें रख लेंगी ||३१||

गोपाः तद् रोधनायास मौघ्यलज्जोरुमन्युना ।
दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान् ॥ ३२ ॥

गोपोंने उन्हें रोकनेका बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलतापर कुछ लज्जा औरगायोंपर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्गसे उस स्थानपर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ोंके साथ अपने बालकोंको भी देखा ||३२||

( मिश्र )
तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशया
जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान् ।
उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि
घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते ॥ ३३ ॥

अपने बच्चोंको देखते ही उनका हृदय प्रेमरससे सराबोर हो गया। बालकोंके प्रति अनुरागकी बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकोंको गोदमें उठाकर हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए ||३३।।

( अनुष्टुप् )
ततः प्रवयसो गोपाः तोकाश्लेषसुनिर्वृताः ।
कृच्छ्रात् शनैरपगताः तदनुस्मृत्युदश्रवः ॥ ३४ ॥

बूढ़े गोपोंको अपने बालकोंके आलिंगनसे परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्टसे उन्हें छोड़कर धीरे-धीरे वहाँसे गये। जानेके बाद भी बालकोंके और उनके आलिंगनके स्मरणसे उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहते रहे ||३४।।

व्रजस्य रामः प्रेमर्धेः वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम् ।
मुक्तस्तनेष्वपत्येषु अहेतुविद् अचिन्तयत् ॥ ३५ ॥

बलरामजीने देखा कि व्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनोंकी उन सन्तानोंपर भी, जिन्होंने अपनी माका दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण प्रेम-सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कण्ठा बढ़ती ही जा रही है, तब वे विचारमें पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था ||३५||

किमेतद् अद्‍भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि ।
व्रजस्य सात्मनस्तोकेषु अपूर्वं प्रेम वर्धते ॥ ३६ ॥

‘यह कैसी विचित्र बात है! सर्वात्मा श्रीकृष्णमें व्रजवासियोंका और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ोंपर भी बढ़ता जा रहा है ।।३६।।

केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी ।
प्रायो मायास्तु मे भर्तुः नान्या मेऽपि विमोहिनी ॥ ३७ ॥

यह कौन-सी माया है? कहाँसे आयी है? यह किसी देवताकी है, मनुष्यकी है अथवा असुरोंकी? परन्तु क्या ऐसा भी सम्भव है? नहीं-नहीं, यह तो मेरे प्रभुकी ही माया है। और किसीकी मायामें ऐसी सामर्थ्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले’ ||३७||

इति सञ्चिन्त्य दाशार्हो वत्सान् सवयसानपि ।
सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः ॥ ३८ ॥

बलरामजीने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टिसे देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें केवल श्रीकृष्ण-हीश्रीकृष्ण हैं ||३८।।

नैते सुरेशा ऋषयो न चैते
( मिश्र )
त्वमेव भासीश भिदाश्रयेऽपि ।
सर्वं पृथक्त्वं निगमात् कथं वदे-
त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत् ॥ ३९ ॥

तब उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा-‘भगवन्! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन भिन्न-भिन्न रूपोंका आश्रय लेनेपर भी आप अकेले ही इन रूपोंमें प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़ेमें ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े, बालक, सिंगी, रस्सी आदिके रूपमें अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं?’ तब भगवान्ने ब्रह्माकी सारी करतूत सुनायी और बलरामजीने सब बातें जान लीं ||३९||

( अनुष्टुप् )
तावदेत्यात्मभूरात्म-मानेन त्रुट्यनेहसा ।
पुरोवदाब्दं क्रीडन्तं ददृशे सकलं हरिम् ॥ ४० ॥

परीक्षित्! तबतक ब्रह्माजी ब्रह्मलोकसे व्रजमें लौट आये। उनके कालमानसे अबतक केवल एक त्रुटि (जितनी देरमें तीखी सूईसे कमलकी पंखुड़ी छिदे) समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ोंके साथ एक सालसे पहलेकी भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं ।।४०।।

यावन्तो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि ।
मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः ॥ ४१ ॥

वे सोचने लगे—’गोकुलमें जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्यापर सो रहे हैं उनको तो मैंने अपनी मायासे अचेत कर दिया था; वे तबसे अबतक सचेत नहीं हुए ।।४१।।

इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्माया मोहितेतरे ।
तावन्त एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम् ॥ ४२ ॥

तब मेरी मायासे मोहित ग्वालबाल और बछड़ोंके अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान्के साथ खेल रहे हैं? ||४२||

एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभूः ।
सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथञ्चन ॥ ४३ ॥

ब्रह्माजीने दोनों स्थानोंपर दोनोंको देखा और बहुत देरतक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टिसे उनका रहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनोंमें कौन-से पहलेके ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इनमेंसे कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी -‘यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके ||४३||

एवं सम्मोहयन् विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम् ।
स्वयैव माययाजोऽपि स्वयमेव विमोहितः ॥ ४४ ॥

भगवान् श्रीकृष्णको मायामें तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान्का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्माजी उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको अपनी मायासे मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होनेपर भी अपनी ही मायासे अपने-आप मोहित हो गये ||४४।।

तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि ।
महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युञ्जतः ॥ ४५ ॥

जिस प्रकार रातके घोर अन्धकारमें कुहरेके अन्धकारका और दिनके प्रकाशमें जगनके प्रकाशका पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षद्र पुरुष महापुरुषोंपर अपनी मायाका प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है ।।४५।।

तावत्सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात् ।
व्यदृश्यन्त घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः ॥ ४६ ॥

चतुर्भुजाः शङ्‌खचक्र गदाराजीवपाणयः ।
किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः ॥ ४७ ॥

ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछडे श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधरके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्मसे युक्त-चतुर्भुज। सबके सिरपर मुकुट, कानों में कुण्डल और कण्ठोंमें मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रही थीं ।।४६-४७।।

श्रीवत्साङ्‌गददोरत्‍न कम्बुकङ्‌कणपाणयः ।
नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्राङ्‌गुलीयकैः ॥ ४८ ॥

उनके वक्षःस्थलपर सुवर्णकी सुनहली रेखा-श्रीवत्स, बाहुओंमें बाजूबंद, कलाइयोंमें शंखाकार रत्नोंसे जड़े कंगन, चरणोंमें नूपुर और कड़े, कमरमें करधनी तथा अँगलियोंमें अंगठियाँ जगमगा रही थीं ||४८||

आङ्‌घ्रिमस्तकमापूर्णाः तुलसीनवदामभिः ।
कोमलैः सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः ॥ ४९ ॥

वे नखसे शिखतक समस्त अंगोंमें कोमल और नूतन तुलसीकी मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तोंने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे ।।४९।।

चन्द्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापाङ्‌गवीक्षितैः ।
स्वकार्थानामिव रजः सत्त्वाभ्यां स्रष्टृपालकाः ॥ ५० ॥

उनकी मुसकान चाँदनीके समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रोंकी कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनोंके द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुणको स्वीकार करके भक्त-जनोंके हृदयमें शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं ।।५०।।

आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैः मूर्तिमद्‌भिः चराचरैः ।
नृत्यगीताद्यनेकार्हैः पृथक् पृथक् उपासिताः ॥ ५१ ॥

ब्रह्माजीने यह भी देखा कि उन्हींके-जैसे दूसरे ब्रह्मासे लेकर तणतक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचतेगाते अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्रीसे अलग-अलग भगवान्के उन सब रूपोंकी उपासना कर रहे हैं ।।५१||

अणिमाद्यैर्महिमभिः अजाद्याभिर्विभूतिभिः ।
चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिभिः ॥ ५२ ॥

उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओरसे घेरे हुए हैं ।।५२।।

कालस्वभावसंस्कार कामकर्मगुणादिभिः ।
स्वमहिध्वस्तमहिभिः मूर्तिमद्‌भिः उपासिताः ॥ ५३ ॥

प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला काल, उसके परिणामका कारण स्वभाव, वासनाओंको जगानेवाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल-सभी मूर्तिमान् होकर भगवान्के प्रत्येक रूपकी उपासना कर रहे हैं। भगवान्की सत्ता और महत्ताके सामने उन सभीकी सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी ।।५३।।

सत्यज्ञानानन्तानन्द मात्रैकरसमूर्तयः ।
अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्‌दृशाम् ॥ ५४ ॥

ब्रह्माजीने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयंप्रकाश और केवल अनन्त आनन्दस्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतनताका भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँतक कि उपनिषदर्शी तत्त्वज्ञानियोंकी दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमाका स्पर्श नहीं कर सकती ||५४||

एवं सकृद् ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान् ।
यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम् ॥ ५५ ॥

इस प्रकार ब्रह्माजीने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाशसे यह सारा चराचर जगत् प्रकाशित हो रहा है ।।५५।।

ततोऽतिकुतुकोद्‌वृत्त स्तिमितैकादशेन्द्रियः ।
तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका ॥ ५६ ॥

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवानके तेजसे निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रजके अधिष्ठातृ-देवताके पास एक पुतली खड़ी हो ।।५६।।

( शिखरिणी )
इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके ।
परत्राजातोऽतन् निरसनमुखब्रह्मकमितौ ।
अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति
चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम् ॥ ५७ ॥

परीक्षित्! भगवान्का स्वरूप तर्कसे परेहै। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और मायासे अतीत है। वेदान्त भी साक्षात्रूपसे उसका वर्णन करने में असमर्थ है, इसलिये उससे भिन्नका निषेध करके आनन्द-स्वरूप ब्रह्मका किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओंके अधिपति हैं, तथापि भगवान्के दिव्यस्वरूपको वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँतक कि वे भगवानके उन महिमामय रूपोंको देखने में भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मूंद गयीं। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया ।।५७।।

( अनुष्टुप् )
ततोऽर्वाक्प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः ।
कृच्छ्राद् उन्मील्य वै दृष्टीः आचष्टेदं सहात्मना ॥ ५८ ॥

इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे। सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा ।।५८।।

सपद्येवाभितः पश्यन् दिशोऽपश्यत् पुरःस्थितम् ।
वृन्दावनं जनाजीव्य द्रुमाकीर्णं समाप्रियम् ॥ ५९ ॥
फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा है। जिधर देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी पाँतें शोभा पा रही हैं ||५९।।

यत्र नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः ।
मित्राणीवाजितावास द्रुतरुट्तर्षकादिकम् ॥ ६० ॥

भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावनधाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभावसे ही परस्पर दस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं ||६०।।

( वसंततिलका )
तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं
ब्रह्माद्वयं परमनन्त-मगाधबोधम् ।
वत्सान् सखीनिव पुरा परितो विचिन्वद्
एकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट ॥ ६१ ॥

ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन करनेके बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका-सा नाट्य कर रहा है। एक होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूँढ़ रहा है। ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान् श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें लगे हैं ।।६१।।

दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य
पृथ्व्यां वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य ।
स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुट कोटिभिरङ्‌घ्रियुग्मं
नत्वा मुदश्रुसुजलैः अकृताभिषेकम् ॥ ६२ ॥

भगवान्को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान्के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया ||६२||

( अनुष्टुप् )
उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन् ।
आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः ॥ ६३ ॥

वे भगवान् श्रीकृष्णकी पहले देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते
और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान्के चरणोंमें ही पड़े रहे ।।६३।।

( वंशस्था )
शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने
मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः ।
कृताञ्जलिः प्रश्रयवान्समाहितः
सवेपथुर्गद्‍गदयैलतेलया ॥ ६४ ॥

फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे। प्रेम और मुक्तिके एकमात्र उद्गम भगवान्को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अंजलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्की स्तुति करने लगे ।।६४।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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