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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 15

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः १५
गोचारणं, धेनुकासुरवधः कालियाविषदूषिताम्बूपानान् मृतानां
गवां गोपानां च पुनरुज्जीवनम् –

श्रीशुक उवाच
ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे
बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर्
वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अब बलराम और श्रीकृष्णने पौगण्ड-अवस्थामें अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया था। अब उन्हें गौएँ चरानेकी स्वीकति मिल गयी। वे अपने सखा ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हए वृन्दावनमें जाते और अपने चरणोंसे वृन्दावनको अत्यन्त पावन करते ।।१।।

तन्माधवो वेणुमुदीरयन्वृतो गोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः
पशून्पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद्विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् २

यह वन गौओंके लिये हरी-हरी घाससे युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पोंकी खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्णके यशका गान करते हुए ग्वालबाल-इस प्रकार विहार करनेके लिये उन्होंने उस वनमें प्रवेश किया ।।२।।

तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं महन्मनःप्रख्यपयःसरस्वता
वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना निरीक्ष्य रन्तुं भगवान्मनो दधे ३

उस वनमें कहीं तो भौंरे बड़ी मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हरिन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे। बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओंके हृदयके समान स्वच्छ और निर्मल था। उनमें खिले हुए कमलोंके सौरभसे सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वनकी सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान्ने मन-ही-मनउसमें विहार करनेका संकल्प किया ||३||

स तत्र तत्रारुणपल्लवश्रिया फलप्रसूनोरुभरेण पादयोः
स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य वनस्पतीन्मुदा स्मयन्निवाहाग्रजमादिपूरुषः ४

पुरुषोत्तम भगवान्ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलोंके भारसे झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलोंकी लालिमासे उनके चरणोंका स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे कुछ मुसकरात हुए-से अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा ।।४।।

श्रीभगवानुवाच
अहो अमी देववरामरार्चितं पादाम्बुजं ते सुमनःफलार्हणम्
नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोऽपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् ५

भगवान श्रीकृष्णने कहा-देवशिरोमणे! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं; परन्तु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियोंसे सुन्दर पुष्प और फलोंकी सामग्री लेकर आपके चरणकमलोंमें झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं। क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्यके लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करनेवालोंके अज्ञानका नाश करनेके लिये ही तो वृन्दावनधाममें वृक्ष-योनि ग्रहण की है। इनका जीवन धन्य है ||५||

एतेऽलिनस्तव यशोऽखिललोकतीर्थं
गायन्त आदिपुरुषानुपथं भजन्ते
प्रायो अमी मुनिगणा भवदीयमुख्या
गूढं वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम् ६

आदिपुरुष! यद्यपि आप इस वृन्दावनमें अपने ऐश्वर्यरूपको छिपाकर बालकोंकी-सी लीला कर रहे हैं, फिर भी आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेवको पहचानकर यहाँ भी प्रायः भौंरोंके रूपमें आपके भुवन-पावन यशका निरन्तर गान करते हुए आपके भजनमें लगे रहते हैं। वे एक क्षणके लिये भी आपको नहीं छोड़ना चाहते ||६||

नृत्यन्त्यमी शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः
कुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन
सूक्तैश्च कोकिलगणा गृहमागताय
धन्या वनौकस इयान्हि सतां निसर्गः ७

भाईजी! वास्तवमें आप ही स्तुति करनेयोग्य हैं। देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके दर्शनोंसे आनन्दित होकर नाच रहे हैं।हरिनियाँ मृगनयनी गोपियोंके समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें अपनी मधुर कुहू कुहू ध्वनिसे आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं! ये वनवासी होनेपर भी धन्य हैं। क्योंकि सत्पुरुषोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथिको अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं ।।७।।

धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्
पादस्पृशो द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः
नद्योऽद्रयः खगमृगाः सदयावलोकैर्
गोप्योऽन्तरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः ८

आज यहाँकी भूमि अपनी हरी-हरी घासके साथ आपके चरणोंका स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही है। यहाँके वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ आपकी अँगुलियोंका स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं। आपकी दयाभरी चितवनसे नदी, पर्वत, पशु, पक्षी-सब कृतार्थ हो रहे हैं और व्रजकी गोपियाँ आपके वक्षःस्थलका स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं ।।८।।

श्रीशुक उवाच
एवं वृन्दावनं श्रीमत्कृष्णः प्रीतमनाः पशून्
रेमे सञ्चारयन्नद्रेः सरिद्रोधःसु सानुगः ९

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावनको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालोंके साथ गोवर्धनकी तराईमें, यमुनातटपर गौओंको चराते हए अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करने लगे ।।९।।

क्वचिद्गायति गायत्सु मदान्धालिष्वनुव्रतैः
उपगीयमानचरितः पथि सङ्कर्षणान्वितः १०

एक ओर ग्वालबाल भगवान् श्रीकृष्णके चरित्रोंकी मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलरामजीके साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरोंकी सुरीली गुनगुनाहटमें अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं ।।१०।।

अनुजल्पति जल्पन्तं कलवाक्यैः शुकं क्वचित्
क्वचित्सवल्गु कूजन्तमनुकूजति कोकिलम्
क्वचिच्च कालहंसानामनुकूजति कूजितम्
अभिनृत्यति नृत्यन्तं बर्हिणं हासयन्क्वचित् ११

कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसोंके साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूरको उपहासास्पद बना देते हैं ।।११।।

मेघगम्भीरया वाचा नामभिर्दूरगान्पशून्
क्वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया १२

कभी मेघके समान गम्भीर वाणीसे दूर गये हुए पशुओंको उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेमसे पुकारते हैं। उनके कण्ठकी मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालोंका चित्त भी अपने वशमें नहीं रहता ।।१२।।

चकोरक्रौञ्चचक्राह्व भारद्वाजांश्च बर्हिणः
अनुरौति स्म सत्त्वानां भीतवद्व्याघ्रसिंहयोः १३

कभी चकोर, क्रौंच (कराँकुल), चकवा, भरदूल और मोर आदि पक्षियोंकी-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदिकी गर्जनासे डरे हुए जीवोंके समान स्वयं भी भयभीतकी-सी लीला करते ||१३||

क्वचित्क्रीडापरिश्रान्तं गोपोत्सङ्गोपबर्हणम्
स्वयं विश्रमयत्यार्यं पादसंवाहनादिभिः १४

जब बलरामजी खेलते-खेलते थककर किसी ग्वाल-बालकी गोदके तकियेपर सिर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उनके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस प्रकार अपने बड़े भाईकी थकावट दूर करते ||१४||

नृत्यतो गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथः
गृहीतहस्तौ गोपालान्हसन्तौ प्रशशंसतुः १५

जब ग्वालबाल नाचने-गाने लगते अथवा ताल ठोंकठोंककर एक-दूसरेसे कुश्ती लड़ने लगते, तब श्याम और राम दोनों भाई हाथमें हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर ‘वाह-वाह’ करते ||१५||

क्वचित्पल्लवतल्पेषु नियुद्धश्रमकर्शितः
वृक्षमूलाश्रयः शेते गोपोत्सङ्गोपबर्हणः १६

कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वाल-बालोंके साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्षके नीचे कोमल पल्लवोंकी सेजपर किसी ग्वालबालकी गोदमें सिर रखकर लेट जाते ।।१६।।

पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् १७

परीक्षित्! उस समय कोई-कोई पुण्यके मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्णके चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियोंसे पंखा झलने लगते ||१७||

अन्ये तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मनः
गायन्ति स्म महाराज स्नेहक्लिन्नधियः शनैः १८

किसी-किसीके हृदयमें प्रेमकी धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदारशिरोमणि परममनस्वी श्रीकृष्णकी लीलाओंके अनुरूप उनके मनको प्रिय लगनेवाले मनोहर गीत गाने लगता ||१८||

एवं निगूढात्मगतिः स्वमायया गोपात्मजत्वं चरितैर्विडम्बयन्
रेमे रमालालितपादपल्लवो ग्राम्यैः समं ग्राम्यवदीशचेष्टितः १९

भगवानने इस प्रकार अपनी योगमायासे अपने ऐश्वर्यमय स्वरूपको छिपा रखा था। वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठीक गोपबालकोंकी-सी ही मालूम पड़तीं। स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरणकमलोंकी सेवामें संलग्न रहती हैं, वे ही भगवान् इन ग्रामीण बालकोंके साथ बड़े प्रेमसे ग्रामीण खेल खेला करते थे। परीक्षित्! ऐसा होनेपर भी कभीकभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी प्रकट हो जाया करतीं ||१९||

श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा
सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन् २०

बलरामजी और श्रीकृष्णके सखाओंमें एक प्रधान गोप-बालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालोंने श्याम और रामसे बड़े प्रेमके साथ कहा- ||२०||

राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण
इतोऽविदूरे सुमहद्वनं तालालिसङ्कुलम् २१

‘हमलोगोंको सर्वदा सुख पहुँचानेवाले बलरामजी! आपके बाहुबलकी तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टोंको नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है। यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़के वृक्ष भरे पड़े हैं ||२१||

फलानि तत्र भूरीणि पतन्ति पतितानि च
सन्ति किन्त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना २२

वहाँ बहुत-से ताड़के फल पक-पककर गिरते रहते हैं और बहत-से पहलेके गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नामका एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलोंपर रोक लगा रखी है ||२२||

सोऽतिवीर्योऽसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक्
आत्मतुल्यबलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिर्वृतः २३

बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण! वह दैत्य गधेके रूपमें रहता है। वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहत-से उसीके समान बलवान् दैत्य उसी रूपमें रहते हैं ।।२३।।

तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन्
न सेव्यते पशुगणैः पक्षिसङ्घैर्विवर्जितम् २४

मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्यने अबतक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं। यही कारण है कि उसके डरके मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगलमें नहीं जाते ।।२४।।

विद्यन्तेऽभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च
एष वै सुरभिर्गन्धो विषूचीनोऽवगृह्यते २५

उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हींकी मन्द-मन्द सुगन्ध फैल रही है। तनिक-सा ध्यान देनेसे उसका रस मिलने लगता है ।।२५।।

प्रयच्छ तानि नः कृष्ण गन्धलोभितचेतसाम्
वाञ्छास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते २६

श्रीकृष्ण! उनकी सुगन्धसे हमारामन मोहित हो गया है और उन्हें पानेके लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलोंकी बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये ।।२६।।

एवं सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया
प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्वृतौ तालवनं प्रभू २७

अपने सखा ग्वालबालोंकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे
और फिर उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके साथ तालवनके लिये चल पड़े ।।२७।।

बलः प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्सम्परिकम्पयन्
फलानि पातयामास मतङ्गज इवौजसा २८

उस वनमें पहुँचकर बलरामजीने अपनी बाँहोंसे उन ताड़के पेड़ोंको पकड़ लिया और मतवाले हाथीके बच्चेके समान उन्हें बड़े जोरसे हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये ।।२८।।

फलानां पततां शब्दं निशम्यासुररासभः
अभ्यधावत्क्षितितलं सनगं परिकम्पयन् २९

जब गधेके रूपमें रहनेवाले दैत्यने फलोंके गिरनेका शब्द सुना, तब वह पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीकोकँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा ||२९||

समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली
निहत्योरसि काशब्दं मुञ्चन्पर्यसरत्खलः ३०

वह बड़ा बलवान् था। उसने बड़े वेगसे बलरामजीके सामने आकर अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोरसे रेंकता हुआ वहाँसे हट गया ||३०||

पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थितः
चरणावपरौ राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा ३१

राजन्! वह गधा क्रोधमें भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजीके पास पहँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोधसे अपने पिछले पैरोंकी दुलत्ती चलायी ||३१||

स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना
चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम् ३२

बलरामजीने अपने एक ही हाथसे उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाकर एक ताड़के पेड़पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधेके प्राणपखेरू उड़ गये थे ।।३२।।

तेनाहतो महातालो वेपमानो बृहच्छिराः
पार्श्वस्थं कम्पयन्भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम् ३३

उसके गिरनेकी चोटसे वह महान् ताड़का वक्ष-जिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल थास्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्षको भी उसने तोड़ डाला। उसने तीसरेको, तीसरेने चौथेको—इस प्रकार एक-दूसरेको गिराते हुए बहुत-से तालवृक्ष गिर पड़े ||३३||

बलस्य लीलयोत्सृष्ट खरदेहहताहताः
तालाश्चकम्पिरे सर्वे महावातेरिता इव ३४

बलरामजीके लिये तो यह एक खेल था। परन्तु उनके द्वारा फेंके हुए गधेके शरीरसे चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये। ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावातने झकझोर दिया हो ।।३४।।

नैतच्चित्रं भगवति ह्यनन्ते जगदीश्वरे
ओतप्रोतमिदं यस्मिंस्तन्तुष्वङ्ग यथा पटः ३५

भगवान् बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं। उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओतप्रोत है, जैसे सतोंमें वस्त्र। तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्यकी बात है ||३५||

ततः कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये
क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन्सर्वे संरब्धा हतबान्धवाः ३६

उस समय धेनुकासुरके भाई-बन्धु अपने भाईके मारे जानेसे क्रोधके मारे आगबबूला हो गये। सब-केसब गधे बलरामजी और श्रीकृष्णपर बड़े वेगसे टूट पड़े ||३६||

तांस्तानापततः कृष्णो रामश्च नृपलीलया
गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तृणराजसु ३७

राजन्! उनमेंसे जो-जो पास आया, उसी-उसीको बलरामजी और श्रीकृष्णने खेल-खेलमें ही पिछले पैर पकड़कर तालवृक्षोंपर दे मारा ||३७||

फलप्रकरसङ्कीर्णं दैत्यदेहैर्गतासुभिः
रराज भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम् ३८

उस समय वह भूमि ताड़के फलोंसे पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्योंके प्राणहीन शरीरोंसे भर गयी। जैसे बादलोंसे आकाश ढक गया हो, उस भूमिकी वैसी ही शोभा होने लगी ।।३८||

तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशम्य विबुधादयः
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः ३९

बलरामजी और श्रीकृष्णकी यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उनपर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे ||३९।।

अथ तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसाः
तृणं च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने ४०

जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिनसे लोग निडर होकर उस वनके तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दताके साथ घास चरने लगे ।।४०।।

कृष्णः कमलपत्राक्षः पुण्यश्रवणकीर्तनः
स्तूयमानोऽनुगैर्गोपैः साग्रजो व्रजमाव्रजत् ४१

इसके बाद कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ व्रजमें आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान्की लीलाओंका श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है ।।४१।।

तं गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबर्ह
वन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम्
वेणुम्क्वणन्तमनुगैरुपगीतकीर्तिं
गोप्यो दिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन्समेताः ४२

उस समय श्रीकृष्णकी घुघराली अलकोंपर गौओंके खुरोंसे उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंखका मुकुट था और बालोंमें सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुंथे हुए थे। उनके नेत्रोंमें मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्तिका गान कर रहे थे। वंशीकी ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रजसे बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कबसे श्रीकृष्णके दर्शनके लिये तरस रही थीं ।।४२।।

पीत्वा मुकुन्दमुखसारघमक्षिभृङ्गैस्
तापं जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि
तत्सत्कृतिं समधिगम्य विवेश गोष्ठं
सव्रीडहासविनयं यदपाङ्गमोक्षम् ४३

गोपियोंने अपने नेत्ररूप भ्रमरोंसे भगवान्के मुखारविन्दका मकरन्द-रस पान करके दिनभरके विरहकी जलन शान्त की। और भगवान्ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनयसे युक्त प्रेमभरी तिरछी चितवनका सत्कार स्वीकार करके व्रजमें प्रवेश किया ||४३||

तयोर्यशोदारोहिण्यौ पुत्रयोः पुत्रवत्सले
यथाकामं यथाकालं व्यधत्तां परमाशिषः ४४

उधर यशोदामैया और रोहिणीजीका हृदय वात्सल्यस्नेहसे उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और रामके घर पहुँचते ही उनकी इच्छाके अनुसार तथा समयके अनुरूप पहलेसे ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं ।।४४||

गताध्वानश्रमौ तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः
नीवीं वसित्वा रुचिरां दिव्यस्रग्गन्धमण्डितौ ४५

माताओंने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरनेकी मार्गकी थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पोंकी माला पहनायी तथा चन्दन लगाया ।।४५।।

जनन्युपहृतं प्राश्य स्वाद्वन्नमुपलालितौ
संविश्य वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्व्रजे ४६

तत्पश्चात् दोनों भाइयोंने माताओंका परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। इसके बाद बड़े लाड़प्यारसे दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणीने उन्हें सुन्दर शय्यापर सुलाया। श्याम और राम बड़े आरामसे सो गये ।।४६।।

एवं स भगवान्कृष्णो वृन्दावनचरः क्वचित्
ययौ राममृते राजन्कालिन्दीं सखिभिर्वृतः ४७

भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावनमें अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालोंके साथ वे यमुना-तटपर गये। राजन! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे ।।४७।।

अथ गावश्च गोपाश्च निदाघातपपीडिताः
दुष्टं जलं पपुस्तस्यास्तृष्णार्ता विषदूषितम् ४८

उस समय जेठ-आषाढ़के घामसे गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्याससे उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुनाजीका विषैला जल पी लिया ।।४८।।

विषाम्भस्तदुपस्पृश्य दैवोपहतचेतसः
निपेतुर्व्यसवः सर्वे सलिलान्ते कुरूद्वह ४९

परीक्षित्! होनहारके वश उन्हें इस बातका ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जलके पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजीके तटपर गिर पड़े ।।४९।।

वीक्ष्य तान्वै तथाभूतान्कृष्णो योगेश्वरेश्वरः
ईक्षयामृतवर्षिण्या स्वनाथान्समजीवयत् ५०

उन्हें ऐसी अवस्थामें देखकर योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी अमृतबरसानेवाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे ।।५०।।

ते सम्प्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलान्तिकात्
आसन्सुविस्मिताः सर्वे वीक्षमाणाः परस्परम् ५१

परीक्षित्! चेतना आनेपर वे सब यमुनाजीके तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरेकी ओर देखने लगे ।।५१।।

अन्वमंसत तद्राजन्गोविन्दानुग्रहेक्षितम्
पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः ५२

राजन्! अन्तमें उन्होंने यही निश्चय किया कि हमलोग विषैला जल पी लेनेके कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्णने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टिसे देखकर हमें फिरसे जिला दिया है ।।५२।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे धेनुकवधो नाम पञ्चदशोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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