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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 20

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०
पूर्वार्धः/अध्यायः २०
प्रावृड्वर्णनं शरद्‌वर्णनं च –

श्रीशुक उवाच ।
( अनुष्टुप् )
तयोस्तदद्‍भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः ।
गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! ग्वालबालोंने घर पहुँचकर अपनी मा, बहिन आदि स्त्रियोंसे श्रीकृष्ण और बलरामने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थे-दावानलसे उनको बचाना, प्रलम्बको मारना इत्यादि-सबका वर्णन किया ।।१।।

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः ।
मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ ॥ २ ॥

बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्यामकी अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि ‘श्रीकृष्ण और बलरामके वेषमें कोई बहुत बड़े देवता ही व्रजमें पधारे हैं’ ।।२।।

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद्‍भवा ।
विद्योतमानपरिधिः विस्फूर्जित नभस्तला ॥ ३ ॥

इसके बाद वर्षा ऋतुका शुभागमन हुआ। इस ऋतुमें सभी प्रकारके प्राणियोंकी बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमापर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कड़क आदिसे आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा ।।३।।

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत् स्तनयित्‍नुभिः ।
अस्पष्टज्योतिः आच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ ॥ ४ ॥

आकाशमें नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाशकी ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होनेपर भी गुणोंसे ढक जानेपर जीवकी होती है ।।४।।

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु ।
स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते ॥ ५ ॥

सूर्यने राजाकी तरह पृथ्वीरूप प्रजासे आठ महीनेतक जलका कर ग्रहण किया था, अब समय आनेपर वे अपनी किरण-करोंसे फिर उसे बाँटने लगे ।।५।।

तडिद्वन्तो महामेघाः चण्ड श्वसन वेपिताः ।
प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव ॥ ६ ॥

जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राणतक निछावर कर देते हैं— वैसे ही बिजलीकी चमकसे शोभायमान घनघोर बादल तेज हवाकी प्रेरणासे प्राणियोंके कल्याणके लिये अपने जीवनस्वरूप जलको बरसाने लगे ।।६।।

तपःकृशा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही ।
यथैव काम्यतपसः तनुः सम्प्राप्य तत्फलम् ॥ ७ ॥

जेठ-आषाढ़की गर्मीसे पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षाके जलसे सिंचकर वह फिर हरीभरी हो गयी-जैसे सकामभावसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है ||७||

निशामुखेषु खद्योताः तमसा भान्ति न ग्रहाः ।
यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे ॥ ८ ॥

वर्षाके सायंकालमें बादलोंसे घना अँधेरा छा जानेपर ग्रह और तारोंका प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परन्तु जुगनू चमकने लगते हैं जैसे कलियुगमें पापकी प्रबलता हो जानेसे पाखण्ड मतोंका प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं ।।८।।

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डुकाः व्यसृजन् गिरः ।
तूष्णीं शयानाः प्राग् यद्वद् ब्राह्मणा नियमात्यये ॥ ९ ॥

जो मेंढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलोंकी गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे-जैसे नित्य-नियमसे निवृत्त होनेपर गुरुके आदेशा-नुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं ।।९।।

आसन् उत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः ।
पुंसो यथास्वतंत्रस्य देहद्रविण सम्पदः ॥ १० ॥

छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठआषाढ़में बिलकुल सूखनेको आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरेसे बाहर बहने लगीं-जैसे अजितेन्द्रिय पुरुषके शरीर और धन सम्पत्तियोंका कुमार्गमें उपयोग होने लगता है ।।१०।।

हरिता हरिभिः शष्पैः इन्द्रगोपैश्च लोहिता ।
उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत् ॥ ११ ॥

पृथ्वीपर कहीं-कहीं हरी-हरी घासकी हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियोंकी लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों (सफेद कुकुरमुत्तों) के कारण वह सफेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजाकी रंग-बिरंगी सेना हो ||११||

क्षेत्राणि शष्यसम्पद्‌भिः कर्षकाणां मुदं ददुः ।
मानिनां उनुतापं वै दैवाधीनं अजानताम् ॥ १२ ॥

सब खेत अनाजोंसे भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्दके फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्धके अधीन है—यह बात न जाननेवाले धनियोंके चित्तमें बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजेमें कैसे रख सकेंगे ||१२||

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया ।
अबिभ्रन् रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया ॥ १३ ॥

नये बरसाती जलके सेवनसे सभी जलचर और थलचर प्राणियोंकी सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान्की सेवा करनेसे बाहर और भीतरके दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं ।।१३।।

सरिद्‌भी सङ्‌गतः सिन्धुः चुक्षोभ श्वसनोर्मिमान् ।
अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा ॥ १४ ॥

वर्षा-ऋतुमें हवाके झोकोंसे समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरंगोंसे युक्त हो रहा था, अब नदियोंके संयोगसे वह और भी क्षुब्ध हो उठा-ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगीका चित्त विषयोंका सम्पर्क होनेपर कामनाओंके उभारसे भर जाता है ।।१४।।

गिरयो वर्षधाराभिः हन्यमाना न विव्यथुः ।
अभिभूयमाना व्यसनैः यथा अधोक्षजचेतसः ॥ १५ ॥

मूसलधार वर्षाकीचोट खाते रहनेपर भी पर्वतोंको कोई व्यथा नहीं होती थी—जैसे दुःखोंकी भरमार होनेपर भी उन पुरुषोंको किसी प्रकारकी व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवानको ही समर्पित कर रखा है ||१५||

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धाः तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः ।
नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव ॥ १६ ॥

जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घाससे ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गया—जैसे जब द्विजाति वेदोंका अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रमसे वे उन्हें भूल जाते हैं ।।१६।।

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः ।
स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव ॥ १७ ॥

यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं-ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषोंके पास भी स्थिरभावसे नहीं रहतीं ||१७||

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात् ।
व्यक्ते गुणव्यतिकरे अगुणवान् पुरुषो यथा ॥ १८ ॥

आकाश मेघोंके गर्जन-तर्जनसे भर रहा था। उसमें निर्गुण (बिना डोरीके) इन्द्रधनुषकी वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणोंके क्षोभसे होनेवाले विश्वके बखेड़ेमें निर्गुण ब्रह्मकी ||१८||

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः ।
अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥ १९ ॥

यद्यपि चन्द्रमाकी उज्ज्वल चाँदनीसे बादलोंका पता चलता था, फिर भी उन बादलोंने ही चन्द्रमाको ढककर शोभाहीन भी बना दिया था-ठीक वैसे ही, जैसे पुरुषके आभाससे आभासित होनेवाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता ।।१९।।

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दन् शिखण्डिनः ।
गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे ॥ २० ॥

बादलोंके शुभागमनसे मोरोंका रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्यके द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थे-ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थीके जंजालमें फंसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापोंसे जलते और घबराते रहते हैं, भगवान्के भक्तोंके शुभागमनसे आनन्द-मग्न हो जाते हैं ।।२०।।

पीत्वापः पादपाः पद्‌भिः आसन्नानात्ममूर्तयः ।
प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥ २१ ॥

जो वृक्ष जेठ-आषाढ़में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ोंसे जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियोंसे खूब सज-धज गयेजैसे सकामभावसे तपस्या करनेवाले पहले तो दर्बल हो जाते हैं, परन्त कामना पूरी होनेपर मोटे-तगड़े हो जाते हैं ।।२१।।

सरःस्वशान्तरोधःसु न्यूषुरङ्‌गापि सारसाः ।
गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः ॥ २२ ॥

परीक्षित्! तालाबोंके तट, काँटे-कीचड़ और जलके बहावके कारण प्रायः अशान्त ही रहते थे, परन्तु सारस एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थेजैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धंधोंकी झंझटसे कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरोंमें ही पड़े रहते हैं ।।२२।।

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे ।
पाषण्डिनामसद्वादैः वेदमार्गाः कलौ यथा ॥ २३ ॥

वर्षा ऋतुमें इन्द्रकी प्रेरणासे मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियोंके बाँध और खेतोंकी मेड़ें टूट-फूट जाती हैं—जैसे कलियुगमें पाखण्डियोंके तरहतरहके मिथ्या मतवादोंसे वैदिक मार्गकी मर्यादा ढीली पड़ जाती है ।।२३।।

व्यमुञ्चन् वान्वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः ।
यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः ॥ २४ ॥

वायुकी प्रेरणासे घने बादल प्राणियोंके लिये अमृतमय जलकी वर्षा करने लगते हैं जैसे ब्राह्मणोंकी प्रेरणासे धनी लोग समय-समयपर दानके द्वारा प्रजाकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ।।२४।।

एवं वनं तद् वर्षिष्ठं पक्वखर्जुर जम्बुमत् ।
गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद् हरिः ॥ २५ ॥

वर्षा ऋतुमें वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनोंसे भर रहा था। उसी वनमें विहार करनेके लिये श्याम और बलरामने ग्वालबाल और गौओंके साथ प्रवेश किया ||२५||

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा ।
ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः ॥ २६ ॥

गौएँ अपने थनोंके भारी भारके कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान् श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौड़ने लगतीं। उस समय उनके थनोंसे दूधकी धारा गिरती जाती थी ।।२६।।

वनौकसः प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः ।
जलधारा गिरेर्नादाद् आसन्ना ददृशे गुहाः ॥ २७ ॥

भगवान्ने देखा कि वनवासी भीलऔर भीलनियाँ आनन्दमग्न हैं। वृक्षोंकी पंक्तियाँ मधुधारा उँडेल रही हैं। पर्वतोंसे झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होनेपर छिपनेके लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं ||२७||

क्वचिद् वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति ।
निर्विश्य भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः ॥ २८ ॥

जब वर्षा होने लगती तब श्रीकृष्ण कभी किसी वक्षकी गोदमें या खोडरमें जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफामें ही जा बैठते और कभी कन्द-मूल-फल खाकर ग्वालबालोंके साथ खेलते रहते ||२८||

दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके ।
सम्भोजनीयैर्बुभुजे गोपैः सङ्‌कर्षणान्वितः ॥ २९ ॥

कभी जलके पास ही किसी चट्रानपर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालोंके साथ मिलकर घरसे लाया हुआ दही-भात, दाल-शाक आदिके साथ खाते ||२९||

शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान् ।
तृप्तान् वृषा वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः ॥ ३० ॥

प्रावृट्‌श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदावहाम् ।
भगवान् पूजयांचक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम् ॥ ३१ ॥

वर्षा ऋतुमें बैल, बछड़े और थनोंके भारी भारसे थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देरमें भरपेट घास चर लेतीं और हरी-हरी घासपर बैठकर ही आँख मूंदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतुकी सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियोंको सुख पहुँचा रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े-सब-के-सब भगवान्की लीलाके ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न होते और बारबार उनकी प्रशंसा करते ।।३०-३१।।

एवं निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे ।
शरत् समभवद् व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला ॥ ३२ ॥

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्दसे व्रजमें निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतनेपर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाशमें बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गतिसे चलने लगी ||३२||

शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः ।
भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥ ३३ ॥

शरद ऋतुमें कमलोंकी उत्पत्तिसे जलाशयोंके जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर ली–ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषोंका चित्त फिरसे योगका सेवन करनेसे निर्मल हो जाता है ।।३३||

व्योम्नोऽब्भ्रं भूतशाबल्यं भुवः पङ्‌कमपां मलम् ।
शरत् जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम् ॥ ३४ ॥

शरद् ऋतुने आकाशके बादल, वर्षा-कालके बढ़े हुए जीव, पथ्वीकी कीचड और जलके मटमैलेपनको नष्ट कर दिया-जैसे भगवानकी भक्ति ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियोंके सब प्रकारके कष्टों और अशुभोंका झटपट नाश कर देती है ||३४||

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः ।
यथा त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः ॥ ३५ ॥

बादल अपने सर्वस्व जलका दान करके उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित होने लगे-ठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्तिसम्बन्धी चिन्ता और कामनाओंका परित्याग कर देनेपर संसारके बन्धनसे छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं ||३५||

गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम् ।
यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥ ३६ ॥

अब पर्वतोंसे कहीं-कहीं झरने झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जलको नहीं भी बहाते थे-जैसे ज्ञानी पुरुष समयपर अपने अमृतमय ज्ञानका दान किसी अधिकारीको कर देते हैं और किसी-किसीको नहीं भी करते ||३६।।

नैवाविदन् क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः ।
यथाऽऽयुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः ॥ ३७ ॥

छोटे-छोटे गड़ोंमें भरे हुए जलके जलचर यह नहीं जानते कि इस गडेका जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है जैसे कुटुम्बके भरण-पोषणमें भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षणक्षण क्षीण हो रही है ||३७||

गाधवारिचरास्तापं अविन्दन् शरदर्कजम् ।
यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः ॥ ३८ ॥

थोड़े जलमें रहनेवाले प्राणियोंको शरत्कालीन सूर्यकी प्रखर किरणोंसे बड़ी पीड़ा होने लगी-जैसे अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बीको तरह-तरहके ताप सताते ही रहते हैं ।।३८।।

शनैः शनैर्जहुः पङ्‌कं स्थलान्यामं च वीरुधः ।
यथाहंममतां धीराः शरीरादिष्वनात्मसु ॥ ३९ ॥

पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोड़ने लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोड़ने लगे-ठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमेंसे ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ यह अहंता और ममता छोड़ देते हैं ।।३९।।

निश्चलाम्बुरभूत् तूष्णीं समुद्रः शरदागमे ।
आत्मनि उपरते सम्यङ्‌ मुनिर्व्युपरतागमः ॥ ४० ॥

शरद् ऋतुमें समुद्रका जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गया जैसे मनके निःसंकल्प हो जानेपर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्डका झमेला छोडकर शान्त हो जाता है ।।४०||

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन् कर्षका दृढसेतुभिः ।
यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः ॥ ४१ ॥

किसान खेतोंकी मेड़ मजबूत करके जलका बहना रोकने लगे-जैसेयोगीजन अपनी इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर जानेसे रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञानकी रक्षा करते हैं ।।४१।।

शरदर्कांशुजांस्तापान् भूतानां उडुपोऽहरत् ।
देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम् ॥ ४२ ॥

शरद् ऋतुमें दिनके समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगोंको बहत कष्ट होता; परन्तु चन्द्रमा रात्रिके समय लोगोंका सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते -जैसे देहाभिमानसे होनेवाले दुःखको ज्ञान और भगवतिरहसे होनेवाले गोपियोंके दुःखको श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं ।।४२।।

खमशोभत निर्मेघं शरद् विमलतारकम् ।
सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम् ॥ ४३ ॥

जैसे वेदोंके अर्थको स्पष्टरूपसे जाननेवाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद् ऋतुमें रातके समय मेघोंसे रहित निर्मल आकाश तारोंकी ज्योतिसे जगमगाने लगा ।।४३।।

अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी ।
यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि ॥ ४४ ॥

परीक्षित्! जैसे पृथ्वीतलमें यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान् श्रीकृष्णकी शोभा होती है, वैसे ही आकाशमें तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा ।।४४||

आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसून वनमारुतम् ।
जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः ॥ ४५ ॥

फूलोंसे लदे हए वृक्ष और लताओंमें होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायुके स्पर्शसे सब लोगोंकी जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियोंकी जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथमें नहीं था, श्रीकृष्णने उसे चुरा लिया था ।।४५||

गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन् ।
अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव ॥ ४६ ॥

शरद् ऋतुमें गौएँ, हरिनियाँ, चिड़ियाँ और नारियाँ ऋतुमती–सन्तानोत्पत्तिकी कामनासे युक्त हो गयीं तथा साँड़, हरिन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगे-ठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुषके द्वारा की हुई क्रियाओंका अनुसरण उनके फल करते हैं ।।४६।।

उदहृष्यन् वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्‌ विना ।
राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप ॥ ४७ ॥

परीक्षित्! जैसे राजाके शुभागमनसे डाकू चोरोंके सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदयके कारण कुमुदिनी (कुँई या कोईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकारके कमल खिल गये ।।४७।।

पुरग्रामेष्वाग्रयणैः इन्द्रियैश्च महोत्सवैः ।
बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः ॥ ४८ ॥

उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवोंमें नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतोमें अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजीकी उपस्थितिसे अत्यन्त सुशोभित होने लगी ।।४८।।

वणिङ्‌मुनि नृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे ।
वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते ॥ ४९ ॥

साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आनेपर अपने देव आदि शरीरोंको प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातक -जो वर्षाके कारण एक स्थानपर रुके हुए थे—वहाँसे चलकर अपने-अपने अभीष्ट कामकाजमें लग गये ।।४९।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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