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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 22

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०
पूर्वार्धः/अध्यायः २२
चीरहरणलीला –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः ।
चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेमें अर्थात् मार्गशीर्ष में नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं ।।१।।

आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेऽरुणे ।
कृत्वा प्रतिकृतिं देवीं आनर्चुः नृप सैकतीम् ॥ २ ॥

गन्धैर्माल्यैः सुरभिभिः बलिभिर्धूपदीपकैः ।
उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफल तण्डुलैः ॥ ३ ॥

राजन्! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार, भाँतिभाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं ।।२-३।।

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः ॥ ४ ॥

साथ ही ‘हे कात्यायनी! हे महामाये! हे महायोगिनी! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये। देवि! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।’—इस मन्त्रका जप करती हई वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं ।।४।।

एवं मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः ।
भद्रकालीं समानर्चुः भूयान्नन्दसुतः पतिः ॥ ५ ॥

इस प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका था, इस संकल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा की कि ‘नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों’ ||५||

ऊषस्युत्थाय गोत्रैः स्वैरन्योन्या बद्धबाहवः ।
कृष्णं उच्चैर्जगुर्यान्त्यः कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् ॥ ६ ॥

वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान् श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं ।।६।।

नद्याः कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ।
वासांसि कृष्णं गायन्त्यो विजह्रुः सलिले मुदा ॥ ७ ॥

एक दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने लगीं ।।७।।

भगवान् तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।
वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये ॥ ८ ॥

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शंकर आदि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना-तटपर गये ||८||

तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः ।
हसद्‌भिः प्रहसन् बालैः परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥

उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्तीसे वे एक कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये। साथी ग्वालबाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे- ||९||

अत्रागत्याबलाः कामं स्वं स्वं वासः प्रगृह्यताम् ।
सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद्यूयं व्रतकर्शिताः ॥ १० ॥

‘अरी कुमारियो! तुम यहाँ आकर इच्छा हो, तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुमलोगोंसे सच-सच कहता हूँ। हँसी बिलकुल नहीं करता। तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो ।।१०।।

न मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः ।
एकैकशः प्रतीच्छध्वं सहैवेति सुमध्यमाः ॥ ११ ॥

ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियो! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है’ ||११||

तस्य तत् क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः ।
व्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययुः ॥ १२ ॥

भगवान्की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक-दूसरीकी ओर देखने और मुसकराने लगीं। जलसे बाहर नहीं निकलीं ।।१२।।

एवं ब्रुवति गोविन्दे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः ।
आकण्ठमग्नाः शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् ॥ १३ ॥

जब भगवान्ने हँसी-हँसीमें यह बात कही तब उनके विनोदसे कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर खिंच गया। वे ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थी और उनका शरीर थर-थर कॉप रहा था। उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा- ||१३||

मानयं भोः कृथास्त्वां तु नन्दगोपसुतं प्रियम् ।
जानीमोऽङ्‌ग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः ॥ १४ ॥

‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम ऐसी अनीति मत करो। हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबाके लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं। देखो, हम जाड़ेके मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ||१४||

श्यामसुन्दर ते दास्यः करवाम तवोदितम् ।
देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवाम हे ॥ १५ ॥

प्यारे श्यामसुन्दर! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं। तुम तो धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबासे कह देंगी’ ||१५||

श्रीभगवानुवाच ।
भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।
अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः ॥ १६ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-कुमारियो! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेमसे भरी है। देखो, जब तुम अपनेको मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञाका पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो ||१६||

ततो जलाशयात् सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः ।
पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः ॥ १७ ॥

परीक्षित्! वे कुमारियाँ ठंडसे ठिठुर रही थीं, काँप रही थीं। भगवानकी ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथोंसे गुप्त अंगोंको छिपाकर यमुनाजीसे बाहर निकलीं। उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी ।।१७।।

भगवानाहता वीक्ष्य शुद्ध भावप्रसादितः ।
स्कन्धे निधाय वासांसि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम् ॥ १८ ॥

उनके इस शुद्ध भावसे भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियोंके वस्त्र अपने कंधेपर रख लिये और बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले– ||१८||

( मिश्र )
यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता
व्यगाहतैतत् तदु देवहेलनम् ।
बद्ध्वाञ्जलिं मूर्ध्न्यपनुत्तयेंऽहसः
कृत्वा नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम् ॥ १९ ॥

‘अरी गोपियो! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है—इसमें सन्देह नहीं। परन्तु इस अवस्थामें वस्त्रहीन होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है। अतः अब इस दोषकी शान्तिके लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ ||१९||

( इंद्रवंशा )
इत्यच्युतेनाभिहितं व्रजाबला
मत्वा विवस्त्राप्लवनं व्रतच्युतिम् ।
तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां
साक्षात्कृतं नेमुरवद्यमृग् यतः ॥ २० ॥

भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियोंने ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ गयी। अतः उसकी निर्विघ्न पूर्तिके लिये उन्होंने समस्त कर्मोंके साक्षी श्रीकृष्णको नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और अपराधोंका मार्जन हो जाता है ।।२०।।

( अनुष्टुप् )
तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान् देवकीसुतः ।
वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत् करुणस्तेन तोषितः ॥ २१ ॥

जब यशोदानन्दन भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञाके अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदयमें करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये ।।२१।।

( मिश्र )
दृढं प्रलब्धास्त्रपया च हापिताः
प्रस्तोभिताः क्रीडनवच्च कारिताः ।
वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं
ता नाभ्यसूयन् प्रियसङ्‌गनिर्वृताः ॥ २२ ॥

प्रिय परीक्षित्! श्रीकृष्णने कुमारियोंसे छलभरी बातें कीं, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठ-पुतलियोंके समान नचाया; यहाँतक कि उनके वस्त्र-तक हर लिये। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हईं, उनकी इन चेष्टाओंको दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतमके संगसे वे और भी प्रसन्न हुईं ।।२२।।

( अनुष्टुप् )
परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठसङ्‌गमसज्जिताः ।
गृहीतचित्ता नो चेलुः तस्मिन् लज्जायितेक्षणाः ॥ २३ ॥

परीक्षित्! गोपियोंने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। परन्तु श्रीकृष्णने उनके चित्तको इस प्रकार अपने वशमें कर रखा था कि वे वहाँसे एक पग भी न चल सकीं। अपने प्रियतमके समागमके लिये सजकर वे उन्हींकी ओर लजीली चितवनसे निहारती रहीं ।।२३।।

तासां विज्ञाय भगवान् स्वपादस्पर्शकाम्यया ।
धृतव्रतानां सङ्‌कल्पं आह दामोदरोऽबलाः ॥ २४ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उन कुमारियोंने उनके चरणकमलोंके स्पर्शकी कामनासे ही व्रत धारण किया है और उनके जीवनका यही एकमात्र संकल्प है। तब गोपियोंके प्रेमके अधीन होकर ऊखल-तकमें बँध जानेवाले भगवानने उनसे कहा- ||२४||

सङ्‌कल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम् ।
मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति ॥ २५ ॥

‘मेरी परम प्रेयसी कुमारियो! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषाका अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी ।।२५।।

न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेशते ॥ २६ ॥

जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगोंकी ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं। ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अंकुरके रूपमें उगनेके योग्य नहीं रह जाते ।।२६।।

याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपाः ।
यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ॥ २७ ॥

इसलिये कुमारियो! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है। तुम आनेवाली शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें मेरे साथ विहार करोगी। सतियो! इसी उद्देश्यसे तो तुमलोगोंने यह व्रत और कात्यायनी देवीकी पूजा की थी’* ।।२७।।

श्रीशुक उवाच ।
इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः ।
ध्यायन्त्यस्तत् पदाम्भोजं कृच्छ्रात् निर्विविशुर्व्रजम् ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान्की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई जानेकी इच्छा न होनेपर भी बड़े कष्टसे व्रजमें गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं ।।२८।।

अथ गोपैः परिवृतो भगवान् देवकीसुतः ।
वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः ॥ २९ ॥

प्रिय परीक्षित्! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनसे बहुत दूर निकल गये ।।२९।।

निदघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः ।
आतपत्रायितान् वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः ॥ ३० ॥

हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन ।
विशालर्षभ तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥ ३१ ॥

ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्यकी किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको सम्बोधन करके कहा- ||३०-३१।।

पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।
वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ॥ ३२ ॥

‘मेरे प्यारे मित्रो! देखो, ये वक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है। ये स्वयं तो हवाके झोंके, वर्षा, धूप और पाला-सब कुछ सहते हैं, परन्तु हम लोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं ||३२||

अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ३३ ॥

मैं कहता हूँ कि इन्हींका जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ।।३३।।

पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते ॥ ३४ ॥

ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुरऔर कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना पूर्ण करते हैं ।।३४।।

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा ॥ ३५ ॥

मेरे प्यारे मित्रो! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवनकी सफलता इतने में ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे, विवेक-विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो ||३५||

इति प्रवालस्तबक फलपुष्पदलोत्करैः ।
तरूणां नम्रशाखानां मध्यतो यमुनां गतः ॥ ३६ ॥

परीक्षित्! दोनों ओरके वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तोंसे लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वीतक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हींके बीचसे यमुना-तटपर निकल आये ।।३६।।

तत्र गाः पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतलाः शिवाः ।
ततो नृप स्वयं गोपाः कामं स्वादु पपुर्जलम् ॥ ३७ ॥

राजन्! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन लोगोंने पहले गौओंको पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जलका पान किया ।।३७।।

तस्या उपवने कामं चारयन्तः पशून् नृप ।
कृष्णरामौ उवुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन् ॥ ३८ ॥

परीक्षित्! जिस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनमें बड़ी स्वतन्त्रतासे अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालोंने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके पास आकर यह बात कही- ||३८।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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