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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 28

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श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०
पूर्वार्धः/अध्यायः २८
विकालेऽवगाहनाद् वरुणदूतेन वरुणालयं नीतस्य नंदस्य भगवता पुनरनयनम् –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम् ।
स्नातुं नन्दस्तु कालिन्द्यां द्वादश्यां जलमाविशत् ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! नन्दबाबाने कार्तिक शुक्ल एकादशीका उपवास किया और भगवान्की पूजा की तथा उसी दिन रातमें द्वादशी लगनेपर स्नान करनेके लिये यमुना-जलमें प्रवेश किया ।।१।।

तं गृहीत्वानयद् भृत्यो वरुणस्यासुरोऽन्तिकम् ।
अवज्ञायासुरीं वेलां प्रविष्टमुदकं निशि ॥ २ ॥

नन्दबाबाको यह मालूम नहीं था कि यह असुरोंकी वेला है, इसलिये वे रातके समय ही यमुनाजलमें घुस गये। उस समय वरुणके सेवक एक असुरने उन्हें पकड़ लिया और वह अपने स्वामीके पास ले गया ||२||

चुक्रुशुस्तमपश्यन्तः कृष्ण रामेति गोपकाः ।
भगवांस्तदुपश्रुत्य पितरं वरुणाहृतम् ।
तदन्तिकं गतो राजन् स्वानामभयदो विभुः ॥ ३ ॥

नन्दबाबाके खो जानेसे व्रजके सारे गोप ‘श्रीकृष्ण! अब तुम्हीं अपने पिताको ला सकते हो; बलराम! अब तुम्हारा ही भरोसा है’ इस प्रकार कहते हुए रोने-पीटने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् हैं एवं सदासे ही अपने भक्तोंका भय भगाते आये हैं। जब उन्होंने व्रजवासियोंका रोना-पीटना सुना और यह जाना कि पिताजीको वरुणका कोई सेवक ले गया है, तब वे वरुणजीके पास गये ||३||

प्राप्तं वीक्ष्य हृषीकेशं लोकपालः सपर्यया ।
महत्या पूजयित्वाऽऽह तद्दर्शनमहोत्सवः ॥ ४ ॥

जब लोकपाल वरुणने देखा कि समस्त जगत्के अन्तरिन्द्रिय और बहिरिन्द्रियोंके प्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके यहाँ पधारे हैं, तब उन्होंने उनकी बहुत बड़ी पूजा की। भगवान्के दर्शनसे उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। इसके बाद उन्होंने भगवान्से निवेदन किया ।।४।।

श्रीवरुण उवाच –
अद्य मे निभृतो देहो अद्यैवार्थोऽधिगतः प्रभो ।
त्वत्पादभाजो भगवन् अवापुः पारमध्वनः ॥ ५ ॥

वरुणजीने कहा-प्रभो! आज मेरा शरीर धारण करना सफल हुआ। आज मुझे सम्पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्त हो गया; क्योंकि आज मुझे आपके चरणोंकी सेवाका शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। भगवन्! जिन्हें भी आपके चरणकमलोंकी सेवाका सुअवसर मिला, वे भवसागरसे पार हो गये ||५||

नमस्तुभ्यं भगवते ब्रह्मणे परमात्मने ।
न यत्र श्रूयते माया लोकसृष्टिविकल्पना ॥ ६ ॥

आप भक्तोंके भगवान्, वेदान्तियोंके ब्रह्म और योगियोंके परमात्मा हैं। आपके स्वरूपमें विभिन्न लोकसष्टियोंकी कल्पना करनेवाली माया नहीं है—ऐसा श्रुति कहती है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।६।।

अजानता मामकेन मूढेनाकार्यवेदिना ।
आनीतोऽयं तव पिता तद् भवान् क्षन्तुमर्हति ॥ ७ ॥

प्रभो! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने कर्तव्यको भी नहीं जानता। वही आपके पिताजीको ले आया है, आप कृपा करके उसका अपराध क्षमा कीजिये ||७||

ममाप्यनुग्रहं कृष्ण कर्तुं अर्हस्यशेषदृक् ।
गोविन्द नीयतामेष पिता ते पितृवत्सल ॥ ८ ॥

गोविन्द! मैं जानता हूँ कि आप अपने पिताके प्रति बड़ा प्रेमभाव रखते हैं। ये आपके पिता हैं। इन्हें आप ले जाइये। परन्तु भगवन्! आप सबके अन्तर्यामी, सबके साक्षी हैं। इसलिये विश्वविमोहन श्रीकृष्ण! आप मुझ दासपर भी कृपा कीजिये ||८||

श्रीशुक उवाच –
एवं प्रसादितः कृष्णो भगवान् ईश्वरेश्वरः ।
आदायागात् स्वपितरं बन्धूनां चावहन् मुदम् ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मा आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुणने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान् अपने पिता नन्दजीको लेकर व्रजमें चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओंको आनन्दित किया ।।९।।

नन्दस्त्वतीन्द्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम् ।
कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

नन्दबाबाने वरुणलोकमें लोक-पालके इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्तिको देखा तथा यह भी देखा कि वहाँके निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्णके चरणोंमें झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रजमें आकर अपने जाति-भाइयोंको सब बातें कह सुनायीं ||१०||

ते चौत्सुक्यधियो राजन् मत्वा गोपास्तमीश्वरम् ।
अपि नः स्वगतिं सूक्ष्मां उपाधास्यदधीश्वरः ॥ ११ ॥

परीक्षित्! भगवान्के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान् हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकतासे विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हमलोगोंको भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे ।।११।।

इति स्वानां स भगवान् विज्ञायाखिलदृक् स्वयम् ।
सङ्‌कल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचिन्तयत् ॥ १२ ॥

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती? वे अपने आत्मीय गोपोंकी यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करनेके लिये कृपासे भरकर इस प्रकार सोचने लगे ||१२||

जनो वै लोक एतस्मिन् अविद्याकामकर्मभिः ।
उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन् ॥ १३ ॥

‘इस संसारमें जीव अज्ञानवश शरीरमें आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँतिकी कामना और उनकी पूर्तिके लिये नाना प्रकारके कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियोंमें भटकता फिरता है, अपनी असली गतिको-आत्मस्वरूपको नहीं पहचान पाता ।।१३।।

इति सञ्चिन्त्य भगवान् महाकारुणिको हरिः ।
दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम् ॥ १४ ॥

परमदयालु भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सोचकर उन गोपोंको मायान्धकारसे अतीत अपना परमधाम दिखलाया ।।१४।।

सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ।
यद्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिताः ॥ १५ ॥

भगवान्ने पहले उनको उस ब्रह्मका साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरूप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योतिःस्वरूप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ||१५||

ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्‌धृताः ।
ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राक्रूरोऽध्यगात् पुरा ॥ १६ ॥

जिस जलाशयमें अक्रूरको भगवान्ने अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मह्रदमें भगवान् उन गोपोंको ले गये। वहाँ उन लोगोंने उसमें डुबकी लगायी। वे ब्रह्मह्रदमें प्रवेश कर गये। तब भगवान्ने उसमेंसे उनको निकालकर अपने परमधामका दर्शन कराया ।।१६।।

नन्दादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानन्दनिवृताः ।
कृष्णं च तत्रच्छन्दोभिः स्तूयमानं सुविस्मिताः ॥ १७ ॥

उस दिव्य भगवत्स्वरूप लोकको देखकर नन्द आदि गोप परमानन्दमें मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान् होकर भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ।।१७।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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