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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 42

Spread the Glory of Sri SitaRam!

42 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४२
कुब्जायामनुग्रहः; धनुषो भङ्गः; मल्लशालासज्जीकरणं च –

श्रीशुक उवाच –
( मिश्र )
अथ व्रजन्राजपथेन माधवः
स्त्रियं गृहीताङ्‌गविलेपभाजनाम् ।
विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां
पप्रच्छ यान्तीं प्रहसन् रसप्रदः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डलीके साथ राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे उसका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’। वह अपने हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए उससे पूछा- ||१||

का त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनं
कस्याङ्‌गने वा कथयस्व साधु नः ।
देह्यावयोरङ्‌गविलेपमुत्तमं
श्रेयः ततस्ते न चिराद् भविष्यति ॥ २ ॥

‘सुन्दरी! तुम कौन हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो? कल्याणि! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा’ ।।२।।

सैरन्ध्रि उवाच –
दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससम्मता
त्रिवक्रनामा ह्यनुलेपकर्मणि ।
मद्‍भावितं भोजपतेरतिप्रियं
विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति ॥ ३ ॥

उबटन आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा-‘परम सुन्दर! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगानेका काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंसको बहुत भाते हैं। परन्तु आप दोनोंसे बढ़कर उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है’ ||३||

( अनुष्टुप् )
रूपपेशलमाधुर्य हसितालापवीक्षितैः ।
धर्षितात्मा ददौ सान्द्रं उभयोरनुलेपनम् ॥ ४ ॥

भगवान्के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया। उसने भगवान्पर अपना हृदय न्योछावर कर दिया। उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया ।।४।।

ततस्तावङ्‌गरागेण स्ववर्णेतरशोभिना ।
सम्प्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरञ्जितौ ॥ ५ ॥

तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका अंगराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरंजित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए ||५||

प्रसन्नो भगवान् कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम् ।
ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन् दर्शने फलम् ॥ ६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शनका प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी करनेका विचार किया ।।६।।

पद्‍भ्यामाक्रम्य प्रपदे द्र्यङ्‌गुल्युत्तान पाणिना ।
प्रगृह्य चिबुकेऽध्यात्मं उदनीनमदच्युतः ॥ ७ ॥

भगवान्ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक उचका दिया ।।७।।

सा तदर्जुसमानाङ्‌गी बृहच्छ्रोणिपयोधरा ।
मुकुन्दस्पर्शनात् सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा ॥ ८ ॥

उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्तिके दाता भगवान्के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम युवती बन गयी ।।८।।

ततो रूपगुणौदार्य संपन्ना प्राह केशवम् ।
उत्तरीयान् तमकृष्य स्मयन्ती जातहृच्छया ॥ ९ ॥

उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे सम्पन्न हो गयी। उसके मनमें भगवानके मिलनकी कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टेका छोर पकड़कर मुसकराते हुए कहा – ||९||

एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे ।
त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ ॥ १० ॥

‘वीरशिरोमणे! आइये, घर चलें। अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्तको मथ डाला है। पुरुषोत्तम! मुझ दासीपर प्रसन्न होइये’ ||१०||

एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः ।
मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसन् तामुवाच ह ॥ ११ ॥

जब बलरामजीके सामने ही कुब्जाने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा- ||११||

एष्यामि ते गृहं सुभ्रु पुंसामाधिविकर्शनम् ।
साधितार्थोऽगृहाणां नः पान्थानां त्वं परायणम् ॥ १२ ॥

‘सुन्दरी! तुम्हारा घर संसारी लोगोंके लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है। मैं अपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघरके बटोहियोंको तुम्हारा ही तो आसरा है’ ||१२||

विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन् मार्गे वणिक्पथैः ।
नानोपायनताम्बूल स्रग्गन्धैः साग्रजोऽर्चितः ॥ १३ ॥

इस प्रकार मीठी मीठी बातें करके भगवान श्रीकष्णने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियों के बाजारमें पहँचे, तब उन व्यापारियोंने उनका तथा बलरामजीका पान, फूलोंके हार, चन्दन और तरह तरहकी भेंट-उपहारोंसे पूजन किया ।।१३।।

तद्दर्शनस्मरक्षोभाद् आत्मानं नाविदन् स्त्रियः ।
विस्रस्तवासःकबर वलया लेख्यमूर्तयः ॥ १४ ॥

उनके दर्शनमात्रसे स्त्रियोंके हृदयमें प्रेमका आवेग, मिलनकी आकांक्षा जग उठती थी। यहाँतक कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रहती। उनके वस्त्र, जूड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियोंके समान
ज्यों-की-त्यों खडी रह जाती थीं ।।१४।।

ततः पौरान् पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः ।
तस्मिन् प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रं इवाद्‍भुतम् ॥ १५ ॥

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुष-यज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामेंपहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा ।।१५।।

पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तं अर्चितं परमर्द्धिमत् ।
वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे ॥ १६ ॥

उस धनुषमें बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लिया ।।१६।।

( वंशस्था )
करेण वामेन सलीलमुद्‌धृतं
सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम् ।
नृणां विकृष्य प्रबभञ्ज मध्यतो
यथेक्षुदण्डं मदकर्युरुक्रमः ॥ १७ ॥

उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है ।।१७।।

( अनुष्टुप् )
धनुषो भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः ।
पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत् ॥ १८ ॥

जब धनुष टा तब उसके शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया ।।१८।।

तद् रक्षिणः सानुचरं कुपिता आततायिनः ।
गृहीतुकामा आवव्रुः गृह्यतां वध्यतामिति ॥ १९ ॥

अब धनुषके रक्षक आततायी असुर अपने सहायकोंके साथ बहत ही बिगडे। वे भगवान श्रीकृष्णको घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेनेकी इच्छासे चिल्लाने लगे—’पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे’ ||१९||

अथ तान् दुरभिप्रायान् विलोक्य बलकेशवौ ।
क्रुद्धौ धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः ॥ २० ॥

उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया ।।२०।।

बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः ।
निष्क्रम्य चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसम्पदः ॥ २१ ॥

उन्हीं धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशालाके प्रधान द्वारसे होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्दसे मथुरापुरीकी शोभा देखते हुए विचरने लगे ||२१||

तयोस्तदद्‍भुतं वीर्यं निशाम्य पुरवासिनः ।
तेजः प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ ॥ २२ ॥

जब नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंके इस अद्भुत पराक्रमकी बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूपको देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं ।।२२।।

तयोर्विचरतोः स्वैरं आदित्योऽस्तमुपेयिवान् ।
कृष्णरामौ वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः ॥ २३ ॥

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी स्वतन्त्रतासे मथुरापुरीमें विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये ।।२३।।

( वसंततिलका )
गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या
आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन् ।
संपश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं
हित्वेतरान् नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः ॥ २४ ॥

तीनों लोकोंके बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परन्तु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहनेवाले भगवान्का वरण किया। उन्हींको सदाके लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णके अंग-अंगका सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य है! व्रजमें भगवान्की यात्राके समय गोपियोंने विरहातुर होकर मथुरावासियों के सम्बन्धमें जो-जो बातें कही थीं, वे सब यहाँ अक्षरशः सत्य हुईं। सचमुच वे परमानन्दमें मग्न हो गये ।।२४।।

( अनुष्टुप् )
अवनिक्ताङ्‌घ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम् ।
ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम् ॥ २५ ॥

फिर हाथ-पैर धोकर श्रीकृष्ण और बलरामजीने दूधमें बने हुए खीर आदि पदार्थोंका भोजन किया और कंस आगे क्या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस रातको वहीं आरामसे सो गये ।।२५।।

कंसस्तु धनुषो भङ्‌गं रक्षिणां स्वबलस्य च ।
वधं निशम्य गोविन्द रामविक्रीडितं परम् ॥ २६ ॥

जब कंसने सुना कि श्रीकृष्ण और बलरामने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायताके लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था-इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी ||२६||

दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः ।
बहून्यचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च ॥ २७ ॥

तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी। उसे जाग्रत्-अवस्थामें तथा स्वप्नमें भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए जो उसकी मृत्युके सूचक थे ।।२७।।

अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि ।
असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा ॥ २८ ॥

जाग्रत्-अवस्थामें उसने देखा कि जल या दर्पणमें शरीरकी परछाईं तो पड़ती है, परन्तु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदिकी आड़ न होनेपर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदिकी ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं ||२८||

छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः ।
स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम् ॥ २९ ॥

छायामें छेद दिखायी पड़ता है और कानोंमें अंगुली डालकर सननेपर भी प्राणोंका घु-घु शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़में अपने पैरोंके चिह्न नहीं दीख पड़ते ।।२९।।

स्वप्ने प्रेतपरिष्वङ्‌गः खरयानं विषादनम् ।
यायान्नलदमाल्येकः तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः ॥ ३० ॥

कंसने स्वप्नावस्थामें देखा कि वह प्रेतोंके गले लग रहा है, गधेपर चढ़कर चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेलसे तर है, गलेमें जपाकुसुम (अड़हुल)-की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है ।।३०।।

अन्यानि चेत्थं भूतानि स्वप्नजागरितानि च ।
पश्यन् मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया ॥ ३१ ॥

स्वप्न और जाग्रत-अवस्थामें उसने इसी प्रकारके और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे बड़ी चिन्ता हो गयी, वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी ।।३१।।

व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्‍भ्यः समुत्थिते ।
कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम् ॥ ३२ ॥

परीक्षित्! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्रसे ऊपर उठे, तब राजा कंसने मल्ल-क्रीड़ा (दंगल)-का महोत्सव प्रारम्भ कराया ||३२||

आनर्चुः पुरुषा रङ्‌गं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ।
मञ्चाश्चालङ्‌कृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः ॥ ३३ ॥

राजकर्मचारियोंने रंगभूमिको भलीभाँति सजाया। तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे। लोगोंके बैठनेके मंच फूलोंके गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारोंसे सजा दिये गये ।।३३।।

तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः ।
यथोपजोषं विविशू राजानश्च कृतासनाः ॥ ३४ ॥

उनपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासी—सब यथास्थान बैठ गये। राजालोग भी अपने-अपने निश्चित स्थानपर जा डटे ||३४||

कंसः परिवृतोऽमात्यै राजमञ्च उपाविशत् ।
मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता ॥ ३५ ॥

राजा कंस अपने मन्त्रियोंके साथ मण्डलेश्वरों (छोटे-छोटे राजाओं) के बीचमें सबसे श्रेष्ठ राजसिंहासनपर जा बैठा। इस समय भी अपशकुनोंके कारण उसका चित्त घबड़ाया हुआ था ||३५||

वाद्यमानेसु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च ।
मल्लाः स्वलङ्‌कृताः दृप्ताः सोपाध्यायाः समाविशन् ॥ ३६ ॥

तब पहलवानोंके ताल ठोंकनेके साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादोंके साथ अखाड़ेमें आ उतरे ||३६।।

चाणूरो मुष्टिकः कूतः शलस्तोशल एव च ।
त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः ॥ ३७ ॥

चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजोंकी सुमधुर ध्वनिसे
उत्साहित होकर अखाड़ेमें आ-आकर बैठ गये ।।३७।।

नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः ।
निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन् ॥ ३८ ॥

इसी समय भोजराज कंसने नन्द आदि गोपोंको बुलवाया। उन लोगोंने आकर उसे तरह-तरहकी भेंटें दीं और फिर जाकर वे एक मंचपर बैठ गये ।।३८।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे मल्लरङोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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