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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 56

Spread the Glory of Sri SitaRam!

56 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ५६
अथ षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

श्रीशुक उवाच
सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः
स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान् १

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! सत्राजित्ने श्रीकृष्णको झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराधका मार्जन करनेके लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णको सौंप दी ।।१।।

श्रीराजोवाच
सत्राजितः किमकरोद्ब्रह्मन्कृष्णस्य किल्बिषः
स्यमन्तकः कुतस्तस्य कस्माद्दत्ता सुता हरेः २

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! सत्राजित्ने भगवान् श्रीकृष्णका क्या अपराध किया था? उसे स्यमन्तकमणि कहाँसे मिली? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी? ||२||

श्रीशुक उवाच
आसीत्सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा
प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्स च तुष्टः स्यमन्तकम् ३

श्रीशुकदेवजीने कहा-परीक्षित्! सत्राजित् भगवान् सूर्यका बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवानने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उसे स्यमन्तकमणि दी थी ।।३।।

स तं बिभ्रन्मणिं कण्ठे भ्राजमानो यथा रविः
प्रविष्टो द्वारकां राजन्तेजसा नोपलक्षितः ४

सत्राजित् उस मणिको गलेमें धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित्! जब सत्राजित् द्वारकामें आया, तब अत्यन्त तेजस्विताके कारण लोग उसे पहचान न सके ।।४।।

तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः
दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशङ्किताः ५

दूरसे ही उसे देखकर लोगोंकी आँखें उसके तेजसे चौंधिया गयीं। लोगोंने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगोंने भगवान्के पास आकर उन्हें इस बातकी सूचना दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे ||५||

नारायण नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर
दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन ६

लोगोंने कहा—’शंख-चक्रगदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द! आपको नमस्कार है ।।६।।

एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते
मुष्णन्गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः ७

जगदीश्वर! देखिये! अपनी चमकीली किरणोंसे लोगोंके नेत्रोंको चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं ||७||

नन्वन्विच्छन्ति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः
ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो ८

प्रभो! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकीमें आपकी प्राप्तिका मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंशमें छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’ ।।८।।

श्रीशुक उवाच
निशम्य बालवचनं प्रहस्याम्बुजलोचनः
प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन् ९

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अनजान पुरुषोंकी यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—’अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित् है, जो मणिके कारण इतना चमक रहा है ।।९।।

सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमङ्गलम्
प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत् १०

इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घरमें चला आया। घरपर उसके शुभागमनके उपलक्ष्यमें मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणोंके द्वारा स्यमन्तकमणिको एक देवमन्दिरमें स्थापित करा दिया ।।१०।।

दिने दिने स्वर्णभारानष्टौ स सृजति प्रभो
दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः
न सन्ति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः ११

परीक्षित! वह मणि प्रतिदिन आठ भार* सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा माया-वियोंका उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था ।।११।।

स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा
नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभङ्गमतर्कयन् १२

एक बार भगवान् श्रीकृष्णने प्रसंगवश कहा—’सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेनको दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि भगवान्की आज्ञाका उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।।१२।।

तमेकदा मणिं कण्ठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्
प्रसेनो हयमारुह्य मृगायां व्यचरद्वने १३

एक दिन सत्राजित्के भाई प्रसेनने उस परम प्रकाशमयी मणिको अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़ेपर सवार होकर शिकार खेलने वनमें चला गया ||१३||

प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केशरी
गिरिं विशन्जाम्बवता निहतो मणिमिच्छता १४

वहाँ एक सिंहने घोड़े सहित प्रसेनको मार डाला और उस मणिको छीन लिया। वह अभी पर्वतकी गुफामें प्रवेश कर ही रहा था कि मणिके लिये ऋक्षराज जाम्बवान्ने उसे मार डाला ।।१४।।

सोऽपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले
अपश्यन्भ्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत १५

उन्होंने वह मणि अपनी गुफामें ले जाकर बच्चेको खेलनेके लिये दे दी। अपने भाई प्रसेनके न लौटनेसे उसके भाई सत्राजित्को बड़ा दुःख हुआ ||१५||

प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः
भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णे कर्णेऽजपन्जनाः १६

वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्णने ही मेरे भाईको मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गलेमें डालकर वनमें गया था।’ सत्राजित्की यह बात सुनकर लोग आपसमें काना-फूसी करने लगे ||१६||

भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि
मार्ष्टुं प्रसेनपदवीमन्वपद्यत नागरैः १७

जब भगवान् श्रीकृष्णने सुना कि यह कलंकका टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहानेके उद्देश्यसे नगरके कुछ सभ्य पुरुषोंको साथ लेकर प्रसेनको ढूँढ़नेके लिये वनमें गये ।।१७।।

हतं प्रसेनं अश्वं च वीक्ष्य केशरिणा वने
तं चाद्रि पृष्ठे निहतमृक्षेण ददृशुर्जनाः १८

वहाँ खोजतेखोजते लोगोंने देखा कि घोर जंगलमें सिंहने प्रसेन और उसके घोड़ेको मार डाला है। जब वे लोग सिंहके पैरोंका चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगोंने यह भी देखा कि पर्वतपर एक रीछने सिंहको भी मार डाला है ।।१८।।

ऋक्षराजबिलं भीममन्धेन तमसावृतम्
एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः १९

भगवान् श्रीकृष्णने सब लोगोंको बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकारसे भरी हुई ऋक्षराजकी भयंकर गुफामें प्रवेश किया ।।१९।।

तत्र दृष्ट्वा मणिप्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्
हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकान्तिके २०

भगवान्ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तकको बच्चोंका खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेनेकी इच्छासे बच्चेके पास जा खड़े हुए ।।२०।।

तमपूर्वं नरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत्
तच्छ्रुत्वाभ्यद्रवत्क्रुद्धो जाम्बवान्बलिनां वरः २१

उस गुफामें एक अपरिचित मनुष्यको देखकर बच्चेकी धाय भयभीतकी भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये ||२१||

स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः
पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित् २२

परीक्षित्! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान्की महिमा, उनके प्रभावका पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध करने लगे ।।२२।।

द्वन्द्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः
आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे श्येनयोरिव २३

जिस प्रकार मांसके लिये दो बाज आपसमें लडते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपसमें घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार किया, फिर शिलाओंका, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरेपर फेंकने लगे। अन्तमें उनमें बाहुयुद्ध होने लगा ।।२३।।

आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः
वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम् २४

परीक्षित्! वज्र-प्रहारके समान कठोर घूसोंसे आपसमें वे अट्ठाईस दिनतक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे ||२४||

कृष्णमुष्टिविनिष्पात निष्पिष्टाङ्गोरु बन्धनः
क्षीणसत्त्वः स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मितः २५

अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके घुसोंकी चोटसे जाम्बवानके शरीरकी एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित–चकित होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा- ||२५||

जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्
विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम् २६

‘प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियोंके स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान् विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ।।२६।।

त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृष्टानामपि यच्च सत्
कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथात्मनाम् २७

आप विश्वके रचयिता ब्रह्मा आदिको भी बनानेवाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूपसे आप ही विराजमान हैं। कालके जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओंके परम आत्मा भी आप ही हैं ।।२७।।

यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षैर्
वर्त्मादिशत्क्षुभितनक्रतिमिङ्गलोऽब्धिः
सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लङ्का
रक्षःशिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि २८

प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोधका भाव लेकर तिरछी दृष्टिसे समुद्रकी ओर देखा था। उस समय समुद्रके अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्रने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उसपर सेतु बाँधकर सुन्दर यशकी स्थापना की तथा लंकाका विध्वंस किया।
आपके बाणोंसे कट-कटकर राक्षसोंके सिर पृथ्वीपर लोट रहे थे (अवश्य ही आप मेरे वे
ही ‘रामजी’ श्रीकृष्णके रूपमें आये हैं)’ ||२८||

इति विज्ञातविज्ञानमृक्षराजानमच्युतः
व्याजहार महाराज भगवान्देवकीसुतः २९

अभिमृश्यारविन्दाक्षः पाणिना शंकरेण तम्
कृपया परया भक्तं मेघगम्भीरया गिरा ३०

परीक्षित! जब ऋक्षराज जाम्बवानने । भगवान्को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्णने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमलको उनके शरीरपर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपासे भरकर प्रेम-गम्भीर वाणीसे अपने भक्त जाम्बवान्जीसे कहा- ||२९-३०।।

मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम्
मिथ्याभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनामुना ३१

‘ऋक्षराज! हम मणिके लिये ही तुम्हारी इस गुफामें आये हैं। इस मणिके द्वारा मैं अपनेपर लगे झूठे कलंकको मिटाना चाहता हूँ’ ||३१||

इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जाम्बवतीं मुदा
अर्हणार्थं स मणिना कृष्णायोपजहार ह ३२

भगवान्के ऐसा कहनेपर जाम्बवान्ने बड़े आनन्दसे उनकी पूजा करनेके लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवतीको मणिके साथ उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।।३२।।

अदृष्ट्वा निर्गमं शौरेः प्रविष्टस्य बिलं जनाः
प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः ३३

भगवान् श्रीकृष्ण जिन लोगोंको गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिनतक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अबतक वे गुफामेंसे नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर द्वारकाको लौट गये ।।३३।।

निशम्य देवकी देवी रुक्मिण्यानकदुन्दुभिः
सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन्बिलात्कृष्णमनिर्गतम् ३४

वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफामेंसे नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ ||३४।।

सत्राजितं शपन्तस्ते दुःखिता द्वारकौकसः
उपतस्थुश्चन्द्र भागां दुर्गां कृष्णोपलब्धये ३५

सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित्को भला-बुरा कहने लगे और भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये महामाया दुर्गादेवीकी शरणमें गये, उनकी उपासना करने लगे ||३५||

तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च
प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन्हरिः ३६

उनकी उपासनासे दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में
मणि और अपनी नववधू जाम्बवतीके साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये ।।३६।।

उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्
सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः ३७

सभी द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्णको पत्नीके साथ और गलेमें मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ।।३७।।

सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ
प्राप्तिं चाख्याय भगवान्मणिं तस्मै न्यवेदयत् ३८

तदनन्तर भगवान्ने सत्राजित्को राजसभा महाराज उग्रसेनके पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित्को सौंप दी ||३८||

स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वावाङ्मुखस्ततः
अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना ३९

सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचेकी ओर लटक गया। अपने अपराधपर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।।३९।।

सोऽनुध्यायंस्तदेवाघं बलवद्विग्रहाकुलः
कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद्वाच्युतः कथम् ४०

उसके मनकी आँखोंके सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान्के साथ विरोध करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराधका मार्जन कैसे करूँ? मुझपर भगवान् श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ।।४०।।

किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद्वा जनो यथा
अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम् ४१

मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धनके लोभसे मैं बड़ी मूढताका काम कर बैठा ||४१||

दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च
उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शान्तिर्न चान्यथा ४२

अब मैं रमणियोंमें रत्नके समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्णको दे दूं। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसीसे मेरे अपराधका मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’ ||४२||

एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम्
मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह ४३

सत्राजित्ने अपनी विवेक-बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्णको अर्पण कर दीं ।।४३।।

तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि
बहुभिर्याचितां शील रूपौदार्यगुणान्विताम् ४४

सत्यभामाशील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न थीं। बहुत-से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगोंने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्रीकृष्णने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ।।४४||

भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप
तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः ४५

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने सत्राजित्से कहा-‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्यभगवान्के भक्त हैं, इसलिये
वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अर्थात् उससे निकले हुए सोनेके अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’ ।।४५||

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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