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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 79

Spread the Glory of Sri SitaRam!

79 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ७९

बल्वलवधः, सूतहत्यामार्जनाय बलभद्रस्य तीर्थेषु भ्रमणं च –
अथैकोनाशीतितमोऽध्यायः
श्रीशुक उवाच
ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांशुवर्षणः
भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगन्धस्तु सर्वशः १

श्रीशकदेवजी कहते हैं परीक्षित! पर्वका दिन आनेपर बडा भयंकर अंधड चलने लगा। धूलकी वर्षा होने लगी और चारों ओरसे पीबकी दुर्गन्ध आने लगी ।।१।।

ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्
अभवद्यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक् २

इसके बाद यज्ञशालामें बल्वल दानवने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंकी वर्षा की। तदनन्तर हाथमें त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा ||२||

तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम्
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम् ३

सस्मार मूषलं रामः परसैन्यविदारणम्
हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः ४

उसका डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकट्ठा कर दिया गया हो। उसकी चोटी और दाढ़ी-मूंछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थीं। बड़ी-बड़ी दाढों और भौंहोंके कारण उसका मुँह बड़ा भयावना लगता था। उसे देखकर भगवान् बलरामजीने शत्रुसेनाकी कुंदी करने-वाले मूसल और दैत्योंको चीर-फाड़ डालनेवाले हलका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे ।।३-४।।

तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्
मूषलेनाहनत्क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः ५

सोऽपतद्भुवि निर्भिन्न ललाटोऽसृक्समुत्सृजन्
मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः ६

बलरामजीने आकाशमें विचरनेवाले बल्वल दैत्यको अपने हलके अगले भागसे खींचकर उस ब्रह्मद्रोहीके सिरपर बड़े क्रोधसे एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वरसे चिल्लाता हआ धरतीपर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्रकी चोट खाकर गेरू आदिसे लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो ।।५-६।।

संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः
अभ्यषिञ्चन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा ७

नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियोंने बलरामजीकी स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होनेवाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवतालोग देवराज इन्द्रका अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया ।।७।।

वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजां
रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च ८

इसके बाद ऋषियोंने बलरामजीको दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजयन्ती माला भी दी, जो सौन्दर्यका आश्रय एवं कभी न मुरझानेवाले कमलके पुष्पोंसे युक्त थी ।।८।।

अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः
स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयूरास्रवत् ९

तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियोंसे विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलरामजी ब्राह्मणोंके साथ कौशिकी नदीके तटपर आये। वहाँ स्नान करके वे उस सरोवरपर गये, जहाँसे सरय नदी निकली है ||९||

अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः
स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन्जगाम पुलहाश्रमम् १०

वहाँसे सरयके किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोडकर प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करके वहाँसे पुलहाश्रमगये ||१०||

गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः
गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे ११

उपस्पृश्य महेन्द्रा द्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च
सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः १२

स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्
द्र विडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः १३

कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम्
श्रीरन्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः १४

वहाँसे गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियोंमें स्नान करके वे सोननदके तटपर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गयामें जाकर पितरोंका वसुदेवजीके आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गंगासागर-संगमपर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्योंसे निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वतपर गये। वहाँ परशरामजीका दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदिमें स्नान करते हुए स्वामिकार्तिकका दर्शन करने गये तथा वहाँसे महादेवजीके निवासस्थान श्रीशैलपर पहुँचे। इसके बाद भगवान् बलरामने द्रविड़ देशके परम पुण्यमय स्थान वेंकटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँसे वे कामाक्षी–शिवकांची, विष्णुकांची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमें स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्रमें पहुँचे। श्रीरंगक्षेत्रमें भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ।।११-१४।।

ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा
सामुद्रं सेतुमगमत्महापातकनाशनम् १५

वहाँसे उन्होंने विष्णुभगवान्के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापोंको नष्ट करनेवाले सेतुबन्धकी यात्रा की ।।१५।।

तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः
कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम् १६

वहाँ बलरामजीने ब्राह्मणोंको दस हजार गौएँ दान की। फिर वहाँसे कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियोंमें स्नान करते हुए वे मलयपर्वतपर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतोंमेंसे एक है ।।१६।।

तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च
योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम् १७

वहाँपर विराजमान अगस्त्य मुनिको उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजीने दक्षिण समुद्रकी यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवीका कन्याकुमारीके रूपमें दर्शन किया ।।१७।।

दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः
ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम्
विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद्गवायुतम् १८

इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ-अनन्तशयन क्षेत्रमें गये और वहाँके सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थमें स्नान किया। उस तीर्थमें सर्वदा विष्णुभगवान्का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान की ।।१८।।

ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्
गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः १९

अब भगवान् बलराम वहाँसे चलकर केरल और त्रिगत देशोंमें होकर भगवान् शंकरके क्षेत्र गोकर्णतीर्थमें आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान शंकर विराजमान रहते हैं ।।१९।।

आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः
तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम् २०

वहाँसे जलसे घिरे द्वीपमें निवास करनेवाली आर्यादेवीका दर्शन करने गये और फिर उस द्वीपसे चलकर शूपरिक-क्षेत्रकी यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियोंमें स्नान करके वे दण्डकारण्यमें आये ।।२०।।

प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी
मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत् २१

वहाँ होकर वे नर्मदाजीके तटपर गये। परीक्षित! इस पवित्र नदीके तटपर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थमें स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्रमें चले आये ।।२१।।

श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे
सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः २२

वहीं उन्होंने ब्राह्मणोंसे सुना कि कौरव और पाण्डवोंके यद्धमें अधिकांश क्षत्रियोंका संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वीका बहुत-सा भार उतर गया ।।२२।।

स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे
वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनन्दनः २३

जिस दिन रणभूमिमें भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकनेके लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ।।२३।।

युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि
अभिवाद्याभवंस्तुष्णीं किं विवक्षुरिहागतः २४

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने बलरामजीको देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहनेके लिये यहाँ पधारे हैं? ।।२४।।

गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ
मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत् २५

उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथमें गदा लेकर एक-दूसरेको जीतनेके लिये क्रोधसे भरकर भाँति-भाँतिके पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजीने कहा- ||२५||

युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर
एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम् २६

‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनोंमें बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेनमें बल अधिक है और दुर्योधनने गदायुद्धमें शिक्षा अधिक पायी है ||२६||

तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः
न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः २७

इसलिये तुमलोगों-जैसे समान बलशालियोंमें किसी एककी जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुमलोग व्यर्थका युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ ||२७||

न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्
अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च २८

परीक्षित्! बलरामजीकी बात दोनोंके लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनोंका वैरभाव इतना दृढमूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजीकी बात न मानी। वे एक-दूसरेकी कटुवाणी और दुर्व्यवहारोंका स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे ।।२८।।

दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ
उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः २९

भगवान् बलरामजीने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्धमें विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये। द्वारकामें उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियोंने बड़े प्रेमसे आगे आकर उनका स्वागत किया ||२९||

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन्मुदा
क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम् ३०

वहाँसे बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। वहाँ ऋषियोंने विरोधभावसे—युद्धादिसे निवृत्त बलरामजीके द्वारा बड़े प्रेमसे सब प्रकारके यज्ञ कराये। परीक्षित! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजीके अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रहके लिये ही था ||३०||

तेभ्यो विशुद्धं विज्ञानं भगवान्व्यतरद्विभुः
येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः ३१

सर्वसमर्थ भगवान् बलरामने उन ऋषियोंको विशुद्ध तत्त्वज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्वको अपने-आपमें और अपने-आपको सारे विश्वमें अनुभव करने लगे ।।३१।।

स्वपत्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्वृतः
रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः ३२

इसके बाद बलरामजीने अपनी पत्नी रेवतीके साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका
एवं नक्षत्रोंके साथ चन्द्रदेव होते हैं ||३२||

ईदृग्विधान्यसङ्ख्यानि बलस्य बलशालिनः
अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि ३३

परीक्षित्! भगवान् बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणीके परे है। उन्होंने लीलाके लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलरामजीके ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी गिनती भी नहीं की जा सकती ।।३३।।

योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः
सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत् ३४

जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान् बलरामजीके चरित्रोंका सायं-प्रातः स्मरण करता है, वह भगवान्का अत्यन्त प्रिय हो जाता है ।।३४।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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