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श्रीमद् भागवत महापुराण दशम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 90

Spread the Glory of Sri SitaRam!

90 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ९०

श्रीकृष्णलीलानां संक्षेपतोऽवर्णनं, तन्महिषीणां तस्मिन्
अनुरागाधिक्यं यदुवंशीयानामसख्येयत्व प्रतिपादनं च –

श्रीशुक उवाच
( अनुष्टुप् )
सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः ।
सर्वसम्पत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः ॥ १ ॥

स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिः नवयौवनकान्तिभिः ।
कन्दुकादिभिर्हर्म्येषु क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभिः ॥ २ ॥

नित्यं सङ्कुलमार्गायां मदच्युद्‌भिर्मतङ्गजैः ।
स्वलङ्कृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः ॥ ३ ॥

उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु ।
निर्विशद्‌भृङ्गविहगैः नादितायां समन्ततः ॥ ४ ॥

रेमे षोडशसाहस्र पत्‍नीनां एकवल्लभः ।
तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्‌गेहेषु महर्द्धिषु ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! द्वारका-नगरीकी छटा अलौकिक थी। उसकी सड़कें, मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथोंकी भीड़से सदा-सर्वदा भरी रहती थीं। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं। पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलोंसे लदे हुए हैं। उनपर बैठकर भौंरे गुनगुना रहे हैं और तरहतरहके पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे भरपूर थी। जगत्के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँकी स्त्रियाँ सुन्दर वेषभूषासे विभूषित थीं और उनके अंग-अंगसे जवानीकी छटा छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलोंमें गेंद आदिके खेल खेलतीं और उनका कोई अंग कभी दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान्की यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसीमें वे निवास करते थे। भगवान् श्रीकृष्ण सोलह हजारसे अधिक पत्नियोंके एकमात्र प्राण-वल्लभ थे। उन पत्नियोंके अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे ।।१-५।।

प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लार कुमुदाम्भोजरेणुभिः ।
वासितामलतोयेषु कूजद्‌द्विजकुलेषु च ॥ ६ ॥

विजहार विगाह्याम्भो ह्रदिनीषु महोदयः ।
कुचकुङ्कुमलिप्ताङ्गः परिरब्धश्च योषिताम् ॥ ७ ॥

सभी पत्नियोंके महलोंमें सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँतिके कमलोंके परागसे मँहकता रहता था। उनमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान् श्रीकृष्ण उन जलाशयोंमें तथा कभी-कभी नदियोंके जलमें भी प्रवेश कर अपनी पत्नियों के साथ जल-विहार करते थे। भगवानके साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लेतीं, आलिंगन करतीं, तब भगवानके श्रीअंगोंमें उनके वक्षःस्थलकी केसर लग जाती थी ।।६-७।।

उपगीयमानो गन्धर्वैः मृदङ्गपणवानकान् ।
वादयद्‌भिर्मुदा वीणां सूतमागधवन्दिभिः ॥ ८ ॥

उस समय गन्धर्व उनके यशका गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्दसे मृदंग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते ।।८।।

सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिः हसन्तीभिः स्म रेचकैः ।
प्रतिषिञ्चन् विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव ॥ ९ ॥

भगवान्की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियोंसे उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर कर देते। इस प्रकार भगवान् अपनी पत्नियोंके साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियोंके साथ विहार कर रहे हों ।।९।।

( वसंततिलका )
ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः
सिञ्चन्त्य उद्धृतबृहत्कवरप्रसूनाः ।
कान्तं स्म रेचकजिहीर्षययोपगुह्य
जातस्मरोत्स्मयलसद् वदना विरेजुः ॥ १० ॥

उस समय भगवान्की पत्नियोंके वक्षःस्थल और जंघा आदि अंग वस्त्रोंके भीग जानेके कारण उनमेंसे झलकने लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जूड़ोंमेंसे गुंथे हुए फूल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेनेके लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसीबहाने अपने प्रियतमका आलिंगन कर लेतीं। उनके स्पर्शसे पत्नियोंके हृदयमें प्रेम-भावकी अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरोंपर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती ||१०||

कृष्णस्तु तत्स्तनविषत् जितकुङ्कुमस्रक्
क्रीडाभिषङ्गधुतकुन्तलवृन्दबन्धः ।
सिञ्चन् मुन्मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो
रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः ॥ ११ ॥

उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी वनमाला उन रानियोंके वक्षःस्थलपर लगी हुई केसरके रंगसे रँग जाती। विहारमें अत्यन्त मग्न हो जानेके कारण घुघराली अलकें उन्मुक्त भावसे लहराने लगतीं। वे अपनी रानियोंको बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान् श्रीकृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियोंसे घिरकर उनके साथ क्रीड़ा कर रहा हो ।।११।।

( अनुष्टुप् )
नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम् ।
क्रीडालङ्कारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः ॥ १२ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करनेके बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियोंको दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है ।।१२।।

कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः ।
नर्मक्ष्वेलिपरिष्वङ्गैः स्त्रीणां किल हृता धियः ॥ १३ ॥

परीक्षित्! भगवान् इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिंगन आदिसे रानियोंकी चित्तवृत्तिउन्हींकी ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बातका स्मरण ही न होता ||१३||

ऊचुर्मुकुन्दैकधियो गिर उन्मत्तवज्जडम् ।
चिन्तयन्त्योऽरविन्दाक्षं तानि मे गदतः श्रृणु ॥ १४ ॥

परीक्षित्! रानियोंके जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दरके चिन्तनमें ही इतनी मग्न हो जातीं कि कई देरतक चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्तके समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान् श्रीकृष्णकी उपस्थितिमंप ही प्रेमोन्मादके कारण उनके विरहका अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्याक्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ।।१४।।

महिष्य ऊचुः –
( मालिनी )
कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः ।
वयमिव सखि कच्चिद्‌गाढनिर्विद्धचेता
नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन ॥ १५ ॥

रानियाँ कहतीं-अरी कुररी! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसारमें सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान् अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं आती? तू इस तरह रात-रातभर जगकर विलाप क्यों कर रही है? सखी! कहीं कमलनयन भगवान्के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवनसे तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है? ||१५||

( वसंततिलका )
नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धुः
त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि ।
दास्यं गत वयमिवाच्युतपादजुष्टां
किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम् ॥ १६ ॥

अरी चकवी! तूने रातके समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वरसे पुकार रही है? हाय-हाय! तब तो तू बड़ी दुःखिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदयमें भी हमारे ही समान भगवान्की दासी होनेका भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणोंपर चढ़ायी हुई पुष्पोंकी माला अपनी चोटियोंमें धारण करना चाहती है? ||१६||

( मिश्र )
भो भोः सदा निष्टनसे उदन्वन्
अलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः ।
किं वा मुकुन्दापहृतात्मलाञ्छनः
प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम् ॥ १७ ॥

अहो समुद्र! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहनेका रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसीसे तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधिके शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है? ||१७।।

( वसंततिलका )
त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दो
क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोषि ।
कच्चिन् गकुन्दगदितानि यथा वयं त्वं
विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः ॥ १८ ॥

चन्द्रदेव! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसीसे तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणोंसे अँधेरा भी नहीं हटा सकते! क्या हमारी ही भाँति हमारे प्यारे श्यामसुन्दरकी मीठी-मीठी रहस्यकी बातें भूल जानेके कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है? क्या उसीकी चिन्तासे तुम मौन हो रहे हो? ।।१८।।

( अनुष्टुप् )
किं न्वाचरितमस्माभिः मलयानिल तेऽप्रियम् ।
गोविन्दापाङ्गनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम् ॥ १९ ॥

मलयानिल! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदयमें कामका संचार कर रहा है? अरे तू नहीं जानता क्या? भगवान्की तिरछी चितवनसे हमारा हृदय तो पहलेसे ही घायल हो गया है ।।१९।।

( मंदाक्रान्ता )
मेघ श्रीमन् त्वमसि दयितो यादवेन्द्रस्य नूनं
श्रीवत्साङ्कं वयमिव भवान् ध्यायति प्रेमबद्धः ।
अत्युत्कण्ठः शबलहृदयोऽस्मद्विधो बाष्पधाराः
स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहुर्दुःखदस्तत्प्रसङ्गः ॥ २० ॥

श्रीमन् मेघ! तुम्हारे शरीरका सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि भगवान्के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाशमें बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो! देखो-देखो! तुम्हारा हृदय चिन्तासे भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसूकी धारा बहा रहे हो। श्यामघन! सचमुच घनश्यामसे नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना है ||२०||

( वियोगिनि )
प्रियरावपदानि भाषसे मृत
सञ्जीविकयानया गिरा
करवाणि किमद्य ते प्रियं
वद मे वल्गितकण्ठ कोकिल ॥ २१ ॥

री कोयल! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठी बोली बोलनेवाले हमारे प्राणप्यारेके समान ही मधुर स्वरसे तू बोलती है। सचमुच तेरी बोलीमें सुधा घोली हुई है, जो प्यारेके विरहसे मरे हए प्रेमियोंको जिलानेवाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करें? ||२१||

( पुष्पिताग्रा )
न चलसि न वदस्युदारबुद्धे
क्षितिधर चिन्तयसे महान्तमर्थम् ।
अपि बत वसुदेवनन्दनाङ्‌घ्रिं
वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम् ॥ २२ ॥

प्रिय पर्वत! तुम तो बड़े उदार विचारके हो। तुमने ही पृथ्वीको भी धारण कर रखा है। न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बातकी चिन्तामें मग्न हो रहे हो। ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनोंके समान बहुत-से शिखरोंपर मैं भी भगवान् श्यामसुन्दरके चरण-कमल धारण करूँ ||२२||

( वसंततिलका )
शुष्यद्ध्रदाः करशिता बत सिन्धुपत्‍न्यः
सम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः ।
यद्वद् वयं मधुपतेः प्रणयावलोकम्
अप्राप्य मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म ॥ २३ ॥

समुद्रपत्नी नदियो! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलोंका सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दरकी प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली-पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघोंके द्वारा अपने प्रियतम समुद्रका जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो ||२३||

( शार्दूलविक्रिडित )
हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो ब्रूह्यङ्ग शौरेः कथां
दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा ।
किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं कस्माद्‌भजामो वयं
क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम् ॥ २४ ॥

हंस! आओ, आओ! भले आये, स्वागत है। आसनपर बैठो; लो, दूध पियो। प्रिय हंस! श्यामसुन्दरकी कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो। किसीके वशमें न होनेवाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न? अरे भाई! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभंगुर है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्ही हमारी परम प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें? क्षुद्रके दूत! हम उनके पास नहीं जातीं। क्या कहा? वे हमारी इच्छा पूर्ण करनेके लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हमसे बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मीको साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मीको छोड़कर यहाँ नहीं आना चाहते? यह कैसी बात है? क्या स्त्रियोंमें लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवानसे अनन्य प्रेम है? क्या हमसे कोई एक भी वैसी नहीं है? ||२४।।

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।
क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम् ॥ २५ ॥

परीक्षित्! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें ऐसा ही अनन्य प्रेम-भाव रखती थीं। इसीसे उन्होंने परमपद प्राप्त किया ।।२५।।

श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः ।
उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः ॥ २६ ॥

भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाएँ अनेकों प्रकारसे अनेकों गीतोंद्वारा गान की गयी हैं। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनकेसुननेमात्रसे स्त्रियोंका मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है। फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रोंसे देखती थीं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।२६।।

याः सम्पर्यचरन् प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः ।
जगद्‌गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः ॥ २७ ॥

जिन बड़भागिनी स्त्रियोंने जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णको अपना पति मानकर परम प्रेमसे उनके चरण-कमलोंको सहलाया, उन्हें नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, तरह-तरहसे उनकी सेवा की, उनकी तपस्याका वर्णन तो भला, किया ही कैसे जा सकता है ।।२७।।

एवं वेदोदितं धर्मं अनुतिष्ठन् सतां गतिः ।
गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत् पदम् ॥ २८ ॥

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्मका बारबार आचरण करके लोगोंको यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम–साधनका स्थान है ।।२८।।

आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम् ।
आसन् षोडशसाहस्रं महिष्यश्च शताधिकम् ॥ २९ ॥
इसीलिये वे गृहस्थोचित श्रेष्ठ धर्मका आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे।

परीक्षित! मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि उनकी रानियोंकी संख्या थी सोलह हजार एक सौ आठ ।।२९।।

तासां स्त्रीरत्‍नभूतानां अष्टौ याः प्रागुदाहृताः ।
रुक्मिणीप्रमुखा राजन् तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः ॥ ३० ॥

उन श्रेष्ठ स्त्रियोंमेंसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रोंका तो मैं पहले ही क्रमसे वर्णन कर चुका हूँ ||३०||

एकैकस्यां दश दश कृष्णोऽजीजनदात्मजान् ।
यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः ॥ ३१ ॥

उनके अतिरिक्त भगवान् श्रीकृष्णकी और जितनी पत्नियाँ थीं, उनसे भी प्रत्येकके दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि भगवान सर्वशक्तिमान और सत्यसंकल्प हैं ||३१||

तेषां उद्दामवीर्याणां अष्टादश महारथाः ।
आसन्नुदारयशसः तेषां नामानि मे शृणु ॥ ३२ ॥

भगवानके परम पराक्रमी पत्रोंमें अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत्में फैला हुआ था। उनके नाम मुझसे
सुनो ||३२|

प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान् भानुरेव च ।
साम्बो मधुर्बृहद्‌भानुः चित्रभानुर्वृकोऽरुणः ॥ ३३ ॥

पुष्करो वेदबाहुश्च श्रुतदेवः सुनन्दनः ।
चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च ॥ ३४ ॥

प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध ।।३३-३४।।

एतेषां अपि राजेन्द्र तनुजानां मधुद्विषः ।
प्रद्युम्न आसीत् प्रथमः पितृवद् रुक्मिणीसुतः ॥ ३५ ॥

राजेन्द्र! भगवान् श्रीकृष्णके इन पुत्रोंमें भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नजी थे। वे सभी गुणोंमें अपने पिताके समान ही थे ।।३५।।

स रुक्मिणो दुहितरं उपयेमे महारथः ।
तस्यां ततोऽनिरुद्धोऽभूत् नागायतबलान्वितः ॥ ३६ ॥

महारथी प्रद्युम्नने रुक्मीकी कन्यासे अपना विवाह किया था। उसीके गर्भसे अनिरुद्धजीका जन्म हुआ। उनमें दस हजार हाथियोंका बल था ।।३६।।

स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः ।
वज्रस्तस्याभवद् यस्तु मौषलादवशेषितः ॥ ३७ ॥

रुक्मीके दौहित्र अनिरुद्धजीने अपने नानाकी पोतीसे विवाह किया। उसके गर्भसे
वज्रका जन्म हुआ। ब्राह्मणोंके शापसे पैदा हुए मूसलके द्वारा यदुवंशका नाश हो जानेपर एकमात्र वे ही बच रहे थे ।।३७।।

प्रतिबाहुरभूत्तस्मात् सुबाहुस्तस्य चात्मजः ।
सुबाहोः शान्तसेनोऽभूत् शतसेनस्तु तत्सुतः ॥ ३८ ॥

वज्रके पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहुके सुबाहु, सुबाहुके शान्तसेन और शान्तसेनके शतसेन ||३८||

न ह्येतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजाः ।
अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे ॥ ३९ ॥

परीक्षित्! इस वंशमें कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तानवाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो। वे सभी ब्राह्मणोंके भक्त थे ।।३९।।

यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम् ।
सङ्ख्या न शक्यते कर्तुं अपि वर्षायुतैर्नृप ॥ ४० ॥

परीक्षित्! यदुवंशमें ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी । हजारों वर्षों में पूरी नहीं हो सकती ।।४०।।

तिस्रः कोट्यः सहस्राणां अष्टाशीतिशतानि च ।
आसन्यदुकुलाचार्याः कुमाराणां इति श्रुतम् ॥ ४१ ॥

मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंशके बालकोंको शिक्षा
देनेके लिये तीन करोड़ अट्ठासी लाख आचार्य थे ।।४१।।

सङ्ख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम् ।
यत्रायुतानां अयुत लक्षेणास्ते स आहुकः ॥ ४२ ॥

ऐसी स्थितिमें महात्मा यदुवंशियोंकी संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है! स्वयं महाराज उग्रसेनके साथ एक नील (१०००००००००००००) के लगभग सैनिक रहते थे ।।४२।।

देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः ।
ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे ॥ ४३ ॥

परीक्षित्! प्राचीन कालमें देवासुरसंग्रामके समय बहत-से भयंकर असुर मारे गये थे। वे ही मनुष्योंमें उत्पन्न हए और बड़े घमंडसे जनताको सताने लगे ||४३।।

तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषां एकाधिकं नृप ॥ ४४ ॥

उनका दमन करनेके लिये भगवान्की आज्ञासे देवताओंने ही यदुवंशमें अवतार लिया था। परीक्षित्! उनके कुलोंकी संख्या एक सौ एक थी ।।४४||

तेषां प्रमाणं भगवान् प्रभुत्वेनाभवद्धरिः ।
ये चानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः ॥ ४५ ॥

वे सब भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे। जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकारसे उन्नति हुई ।।४५।।

शय्यासनाटनालाप क्रीडास्नानादिकर्मसु ।
न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः ॥ ४६ ॥

यदुवंशियोंका चित्त इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णमें लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेलने और नहाने-धोने आदि कामोंमें अपने शरीरकी भी सधि न रहती थी। वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्रकी भाँति अपने-आप होती रहती थीं ।।४६।।

( स्रग्धरा )
तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु
स्वःसरित्पादशौचं ।
विद्विट्‌स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपरा
श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्‍नः ।
यन्नामामङ्गलघ्नं श्रुतमथ गदितं
यत्कृतो गोत्रधर्मः
कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं
कालचक्रायुधस्य ॥ ४७ ॥

परीक्षित्! भगवान्का चरणधोवन गंगाजी अवश्य ही समस्त तीर्थों में महान् एवं पवित्र हैं। परन्तु जब स्वयं परमतीर्थस्वरूप भगवान्ने ही यदुवंशमें अवतार ग्रहण किया, तब तो गंगाजलकी महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थकी अपेक्षा कम हो गयी। भगवान्के स्वरूपकी यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करनेवाले भक्त और द्वेष करनेवाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूपको प्राप्त हुए। जिस लक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान्की सेवामें नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं। भगवान्का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करनेसे ही सारे अमंगलोंको नष्ट कर देता है। ऋषियोंके वंशजोंमें जितने भी धर्म प्रचलित हैं, सबके संस्थापक भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। वे अपने हाथमें कालस्वरूप चक्र लिये रहते हैं। परीक्षित! ऐसी स्थितिमें वे पृथ्वीका भार उतार देते हैं, यह कौनबड़ी बात है ।।४७।।

( मालिनी )
जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो
यदुवरपरिषत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम् ।
स्थिरचरवृजिनघ्नः सुस्मितश्रीमुखेन
व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम् ॥ ४८ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त जीवोंके आश्रयस्थान हैं। यद्यपि वे सदासर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कहनेके लिये उन्होंने देवकीजीके गर्भसे जन्म लिया है। यदुवंशी वीर पार्षदोंके रूपमें उनकी सेवा करते रहते हैं। उन्होंने अपने भुजबलसे अधर्मका अन्त कर दिया है। परीक्षित्! भगवान् स्वभावसे ही चराचर जगत्का दुःख मिटाते रहते हैं। उनका मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजस्त्रियों और पुरस्त्रियोंके हृदयमें प्रेम-भावका संचार करता रहता है। वास्तवमें सारे जगत्पर वही विजयी हैं। उन्हींकी जय हो! जय हो!! ||४८||

( वसंततिलका )
इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयात्त
लीलातनोस्तदनुरूपविडम्बनानि ।
कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्य
श्रूयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन् ॥ ४९ ॥

परीक्षित्! प्रकृतिसे अतीत परमात्माने अपने द्वारा स्थापित धर्म-मर्यादाकी रक्षाके लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उसके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रोंका अभिनय किया। उनका एक-एक कर्म स्मरण करनेवालोंके कर्मबन्धनोंको काट डालनेवाला है। जो यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाका अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओंका ही श्रवण करना चाहिये ।।४९।।

मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द
श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति ।
तद्धाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गं
ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः ॥ ५० ॥

परीक्षित्! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान् श्रीकृष्णकी मनोहारिणी लीला-कथाओंका अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान्के परमधाममें पहुँचा देती है। यद्यपि कालकी गतिके परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान्के धाममें कालकी दाल नहीं गलती। वह वहाँतक पहुँच ही नहीं पाता। उसी धामकी प्राप्तिके लिये अनेक सम्राटोंने अपना राजपाट छोड़कर तपस्या करनेके उद्देश्यसे जंगलकी यात्रा की है। इसलिये मनुष्यकोउनकी लीला-कथाका ही श्रवण करना चाहिये ।।५०।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
श्रीकृष्णचरितानुवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

One thought on “श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 10 अध्याय 90

  • Gorakshanath More

    Nice to read this Mahapuran.

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