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श्रीमद् भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 14

Spread the Glory of Sri SitaRam!

14 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः १४
भक्तेर्महत्त्वं ध्यानयोगवर्णनं च –

श्रीउद्धव उवाच –
( अनुष्टुप् )
वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ।
तेषां विकल्पप्राधान्यं उताहो एकमुख्यता ॥ १ ॥

उद्धवजीने पूछा-श्रीकृष्ण! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याणके अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एककी प्रधानता है? ||१।।

भवता उदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः ।
निरस्य सर्वतः सङ्गं येन त्वय्याविशेन्मनः ॥ २ ॥

मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोगको ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओरसे आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ।।२।।

श्रीभगवानुवाच –
कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।
मयाऽऽदौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ ३ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समयके फेरसे प्रलयके अवसरपर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टिका समय आया, तब मैंने अपने संकल्पसे ही इसे ब्रह्माको उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्मका ही वर्णन है ।।३||

तेन प्रोक्ता स्वपुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।
ततो भृग्वादयोऽगृह्णन् सप्त ब्रह्ममहर्षयः ॥ ४ ॥

ब्रह्माने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनुको उपदेश किया और उनसे भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु-इन सात प्रजापति-महर्षियोंने ग्रहण किया ।।४।।

तेभ्यः पितृभ्यः तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः ।
मनुष्याः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः ॥ ५ ॥

किन्देवाः किन्नरा नागा रक्षः किम्पुरुषादयः ।
बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वतमोभुवः ॥ ६ ॥

याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां मतयस्तथा ।
यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवन्ति हि ॥ ७ ॥

तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियोंकी सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव*, किन्नर, नाग, राक्षस और किम्पुरुष आदिने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रह्मर्षियोंसे प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियोंके स्वभाव-उनकी वासनाएँ सत्त्व, रज और तमोगणके कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धि-वृत्तियोंमें भी अनेकों भेद हैं। इसीलिये वे सभी अपनी-अपनीप्रकृतिके अनुसार उस वेदवाणीका भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है ||५-७।।

एवं प्रकृतिवैचित्र्याद् भिद्यन्ते मतयो नृणाम् ।
पारम्पर्येण केषाञ्चित् पाषण्डमतयोऽपरे ॥ ८ ॥

इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेशके भेदसे मनुष्योंकी बुद्धिमें भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचारके वेदविरुद्ध पाखण्डमतावलम्बी हो जाते हैं ||८||

मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ।
श्रेयो वदंति अनेकांतं यथाकर्म यथारुचि ॥ ९ ॥

प्रिय उद्धव! सभीकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनीअपनी रुचिके अनुसार आत्मकल्याणके साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं ||९||

धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम् ।
अन्ये वदंति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम् ॥ १० ॥

पूर्वमीमांसक धर्मको, साहित्याचार्य यशको, कामशास्त्री कामको, योगवेत्ता सत्य और शमदमादिको, दण्डनीतिकार ऐश्वर्यको, त्यागी त्यागको और लोकायतिक भोगको ही मनुष्यजीवनका स्वार्थ-परम लाभ बतलाते हैं ||१०||

केचिद् यज्ञतपो दानं व्रतानि नियमान् यमान् ।
आद्यंतवंत एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः ।
दुःखोदर्काः तमोनिष्ठाः क्षुद्रानंदाः शुचार्पिताः ॥ ११ ॥

कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदिको पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं। कर्मोंका फल समाप्त हो जानेपर उनसे दुःख ही
मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोगके समय भी असूया आदि दोषोंके कारण शोकसे परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनोंके फेरमें न पड़ना चाहिये) ।।११।।

मय्यर्पितात्मनः सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः ।
मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम् ॥ १२ ॥

प्रिय उद्धव! जो सब ओरसे निरपेक्ष–बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदिकी आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरणको सब प्रकारसे मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्माके रूपमें स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुखका अनुभव करता है, वह विषय-लोलुप प्राणियोंको किसी प्रकार मिल नहीं सकता ।।१२।।

अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः ।
मया सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १३ ॥

जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित-अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एकएक कोना आनन्दसे भरा हुआ है ।।१३।।

( उपेंद्रवज्रा )
न पारमेष्ठ्यं न महेंद्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीः अपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत् ॥ १४ ॥

जियने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है। वह योगकी बड़ी बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता ।।१४।।

( अनुष्टुप् )
न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः ।
न च सङ्कर्षणो न श्रीः नैवात्मा च यथा भवान् ॥ १५ ॥

उद्धव! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शंकर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ।।१५||

निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्‌‍घ्रिरेणुभिः ॥ १६ ॥

जिसे किसीकी अपेक्षा नहीं, जो जगत्के चिन्तनसे सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तनमें
तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ ||१६||

( इंद्रवंशा )
निष्किञ्चना मय्यनुरक्तचेतसः
शांता महांतोऽखिलजीववत्सलाः ।
कामैरनालब्धधियो जुषन्ति यत्
नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम ॥ १७ ॥

जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित हैंयहाँतक कि शरीर आदिमें भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेमके रंगमें रँग गया है, जो संसारकी वासनाओंसे शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ताउदारताके कारण स्वभावसे ही समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेमका भाव रखते हैं, किसी प्रकारकी कामना जिनकी बुद्धिका स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरूपका अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षतासे ही प्राप्त होता है ।।१७।।

( अनुष्टुप् )
बाध्यमानोऽपि मद्‍भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः ।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते ॥ १८ ॥

उद्धवजी! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहँचाते रहते हैं अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षणमें बढ़नेवाली मेरी प्रगल्भ भक्तिके प्रभावसे प्रायः विषयोंसे पराजित नहीं होता ||१८||

यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात् ।
तथा मद्विषया भक्तिः उद्धवैनांसि कृत्स्नशः ॥ १९ ॥

उद्धव! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियोंके बड़े ढेरको भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशिको पूर्णतया जला डालती है ||१९||

न साधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव ।
न स्वाध्यायः तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥ २० ॥

उद्धव! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनोंदिन बढ़नेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ||२०||

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकान् अपि संभवात् ॥ २१ ॥

मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र-जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं ।।२१।।

धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।
मद्‍भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥ २२ ॥

इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वञ्चित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त, धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करने में असमर्थ है ||२२||

कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।
विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः ॥ २३ ॥

जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गदगद नहीं हो जाता, आनन्दके आँसू आँखोंसे छलकने नहीं लगते तथा अन्तरंग और बहिरंग भक्तिकी बाढ़में चित्त डूबनेउतराने नहीं लगता, तबतक इसके शुद्ध होनेकी कोई सम्भावना नहीं है ।।२३।।

( मिश्र )
वाग्-गद्-गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचित्-च ।
विलज्ज उद्‌गायति नृत्यते च
मद्‍भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥ २४ ॥

जिसकी वाणी प्रेमसे गदगद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षणके लिये भी रोनेका ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिल-खिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कहीं नाचने लगता है, भैया उद्धव! मेरा वह भक्त न केवल अपनेको बल्कि सारे संसारको पवित्र कर देता है ।।२४।।

यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम् ।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद्‍भक्तियोगेन भजत्यथो माम् ॥ २५ ॥

जैसे आगमें तपानेपर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोगके द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओंसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ ।।२५।।

यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथा श्रवणाभिधानैः ।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर्यथैवाञ्जनसंप्रयुक्तम् ॥ २६ ॥

उद्धवजी! मेरी परमपावन लीलाकथाके श्रवण-कीर्तनसे ज्यों-ज्यों चित्तका मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सक्ष्म-वस्तकेवास्तविक तत्त्वके दर्शन होने लगते हैं—जैसे अंजनके द्वारा नेत्रोंका दोष मिटनेपर उनमें सूक्ष्म वस्तुओंको देखनेकी शक्ति आने लगती है ।।२६।।

( अनुष्टुप् )
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मां अनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते ॥ २७ ॥

जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ।।२७।।

तस्मात् असदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथम् ।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्‍भावभावितम् ॥ २८ ॥

इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथका राज्य। इसलिये मेरे चिन्तनसे तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे—एकाग्रतासे मुझमें ही लगा दो ||२८||

स्त्रीणां स्त्रीसङ्‌‍गिनां सङ्गं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान् ।
क्षेमे विविक्त आसीनः चिन्तयेत् मां अतन्द्रितः ॥ २९ ॥

संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका संग दूरसे ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर बडी सावधानीसे मेरा ही चिन्तन करे ||२९||

न तथास्य भवेत्क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित् सङ्गात् यथा पुंसो यथा तत् सङ्‌गिसङ्गतः ॥ ३० ॥

प्यारे उद्धव! स्त्रियोंके संगसे और स्त्रीसंगियोंके-लम्पटोंके संगसे पुरुषको जैसे क्लेश और बन्धनमें पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फँसावट और किसीके भी संगसे नहीं होती ।।३०।।

श्रीउद्धव उवाच –
यथा त्वां अरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम् ।
ध्यायेत् मुमुक्षुः एतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि ॥ ३१ ॥

उद्धवजीने पूछा-कमलनयन श्यामसुन्दर! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भावसे ध्यान करे? ||३१।।

श्रीभगवानुवाच –
सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम् ।
हस्तौ उत्सङ्ग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः ॥ ३२ ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही -ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर आरामसे बैठ जाय, हाथोंको अपनी गोदमें रख लेऔर दृष्टि अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमावे ||३२।।

प्राणस्य शोधयेत् मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः ।
विपर्ययेणापि शनैः अभ्यसेत् निर्जितेन्द्रियः ॥ ३३ ॥

इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक-इन प्राणायामोंके द्वारा नाड़ियोंका शोधन करे। प्राणायामका अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियोंको जीतनेका भी अभ्यास करना चाहिये ।।३३।।

हृद्यविच्छिन्न-मोंकारं घण्टानादं विसोर्णवत् ।
प्राणेन-उदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम् ॥ ३४ ॥

हृदयमें कमलनालगत पतले सूतके समान ॐकारका चिन्तन करे, प्राणके द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानादके समान स्वर स्थिर करे। उस स्वरका ताँता टूटने न पावे ||३४||

एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत् ।
दशकृत्वस्त्रिषवणं मासाद्-अर्वाग् जितानिलः ॥ ३५ ॥

इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकार-सहित प्राणायामका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही प्राणवायु वशमें हो जाता है ||३५||

हृत्पुण्डरीकमन्तस्थं ऊर्ध्वनालमधोमुखम् ।
ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्निद्रं अष्टपत्रं सकर्णिकम् ॥ ३६ ॥

इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपरकी ओर है और मुँह नीचेकी ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपरकी ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पँखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है ।।३६।।

कर्णिकायां न्यसेत् सूर्य सोमाग्नीन् उत्तरोत्तरम् ।
वह्निमध्ये स्मरेद्‌ रूपं ममैतद् ध्यानमङ्गलम् ॥ ३७ ॥

कर्णिकापर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्निका न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्निके अंदर मेरे इस रूपका स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यानके लिये बड़ा ही मंगलमय है ।।३७।।

समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम् ।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम् ॥ ३८ ॥

समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम् ।
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्स श्रीनिकेतनम् ॥ ३९ ॥

शङ्खचक्रगदापद्म वनमालाविभूषितम् ।
नूपुरैः विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम् ॥ ४० ॥

द्युमत् किरीटकटक कटिसूत्राङ्गदायुतम् ।
सर्वाङ्गसुन्दरं हृद्यं प्रसाद सुमुखेक्षणम् ।
सुकुमारमभिध्यायेत् सर्वाङ्गेषु मनो दधत् ॥ ४१ ॥

मेरे अवयवोंकी गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शान्ति टपकती है। मुखकमलअत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनोंतक लंबी मनोहर चार भुजाएँ हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकत-मणिके समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुखपर मन्द-मन्द मुसकानकी अनोखी ही छटा है। दोनों ओरके कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिलझिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजीका चिह्न वक्षःस्थलपर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हए हैं। गलेमें वनमाला लटक रही है। चरणोंमें नपुर शोभा दे रहे हैं, गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थानपर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कपा-प्रसादकी वर्षा कर रही है। उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूपका ध्यान करना चाहिये और अपने मनको एक-एक अंगमें लगाना चाहिये ।।३८-४१।।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः ।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन् मयि सर्वतः ॥ ४२ ॥

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच ले और मनको बुद्धिरूप सारथिकी सहायतासे मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंगमें क्यों न लगे ||४२||

तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेत् मुखम् ॥ ४३ ॥

जब सारे शरीरका ध्यान होने लगे, तब अपने चित्तको खींचकर एक स्थानमें स्थिर करे और अन्य अंगोंका चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकानकी छटासे युक्त मेरे मुखका ही ध्यान करे ||४३।।

तत्र लब्धपदं चित्तं आकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ ४४ ॥

जब चित्त मुखारविन्दमें ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर आकाशमें स्थिर करे। तदनन्तर आकाशका चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूपमें आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे ||४४||

एवं समाहितमतिः मां एवात्मानमात्मनि ।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम् ॥ ४५ ॥

जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योतिसे मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मामें अपनेको अनुभव करने लगता है ।।४५||

ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः ।
संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्य ज्ञानक्रियाभ्रमः ॥ ४६ ॥

जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोगके द्वारा मुझमें ही अपने चित्तका संयम करता है, उसके चित्तसे वस्तुकी अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्तिके लिये होनेवाले कर्मोंका भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ।।४६।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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