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श्रीमद् भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 11 अध्याय 31

Spread the Glory of Sri SitaRam!

31 CHAPTER
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ३१
भगवतः परमधामगमनम् –

श्रीशुक उवाच –
( अनुष्टुप् )
अथ तत्रागमद् ब्रह्मा भवान्या च समं भवः ।
महेंद्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः ॥ १ ॥

पितरः सिद्धगंधर्वा विद्याधरमहोरगाः ।
चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः ॥ २ ॥

द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः ।
गायंतश्च गृणंतश्च शौरेः कर्माणि जन्म च ॥ ३ ॥

ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः ।
कुर्वंतः सङ्‌कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! दारुकके चले जानेपर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएँ तथा गरुड़लोकके विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम-प्रस्थानको देखनेके लिये बड़ी उत्सुकतासे वहाँ आये। वे सभी भगवान् श्रीकृष्णके जन्म और लीलाओंका गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानोंसे सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्तिसे भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ।।१-४।।

भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः ।
संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत् ॥ ५ ॥

सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओंको देखकर अपने आत्माको स्वरूपमें स्थित किया और कमलके समान नेत्र बंद कर लिये ।।५।।।

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणा ध्यान मङ्गलम् ।
योगधारणयाऽऽग्नेय्या दग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ ६ ॥

भगवान्का श्रीविग्रह उपासकोंके ध्यान और धारणाका मंगलमय आधार और समस्त लोकोंके लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियोंके समान) अग्निदेवतासम्बन्धी योगधारणाके द्वारा असको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाममें चले गये ||६||

दिवि दुंदुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात् ।
सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः ॥ ७ ॥

उस समय स्वर्गमें नगारे बजने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे इस लोकसे सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ।।७।।

देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशंतं स्वधामनि ।
अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः ॥ ८ ॥

भगवान श्रीकष्णकी गति मन और वाणीके परे है। तभी तो जब भगवान अपने धाममें प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटनासे उन्हें बड़ा ही विस्मय हआ ||८||

सौदामन्या यथाऽऽकाशे यांत्या हित्वाभ्रमण्डलम् ।
गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैः तथा कृष्णस्य दैवतैः ॥ ९ ॥

जैसे बिजली मेघमण्डलको छोडकर जब आकाशमें प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्णकी गतिके सम्बन्धमें कुछ न जान सके ।।९।।

ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः ।
विस्मितास्तां प्रशंसंतः स्वं स्वं लोकं ययुस्तदा ॥ १० ॥

ब्रह्माजी और भगवान् शंकर आदि देवता भगवान्की यह परमयोगमयी गति देखकर बड़े विस्मयके साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोकमें चले गये ।।१०।।

( वसंततिलका )
राजन् परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा
मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य ।
सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चांते
संहृत्य चात्ममहिनोपरतः स आस्ते ॥ ११ ॥

परीक्षित्! जैसे नट अनेकों प्रकारके स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान्का मनुष्योंके समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी मायाका विलासमात्र है-अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत्की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्तमें संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूपमें ही स्थित हो जाते हैं ।।११।।

मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं
त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम् ।
जिग्येंऽतकांतकमपीशमसावनीशः
किं स्वावने स्वरनयन् मृगयुं सदेहम् ॥ १२ ॥

सान्दीपनि गुरुका पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तुउसे वे मनुष्य-शरीरके साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तवमें उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालोंके महाकाल भगवान शंकरको भी यद्धमें जीत लिया और अत्यन्त अपराधी-अपने शरीरपर ही प्रहार करनेवाले व्याधको भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित्! ऐसी स्थितिमें क्या वे अपने शरीरको सदाके लिये यहाँ नहीं रख सकते थे? अवश्य ही रख सकते थे ।।१२।।

( मिश्र )
तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्ययेषु
अनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक् ।
नैच्छत् प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं
मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन् ॥ १३ ॥

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारके निरपेक्ष कारण हैं और सम्पूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीरको इस संसारमें बचा रखनेकी इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीरसे मुझे क्या प्रयोजन है? आत्मनिष्ठ पुरुषों के लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखनेकी चेष्टा न करें ||१३||

( अनुष्टुप् )
य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम् ।
प्रयतः कीर्तयेद् भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ १४ ॥

जो पुरुष प्रातःकाल उठकर भगवान् श्रीकृष्णके परमधामगमनकी इस कथाका एकाग्रता और भक्तिके साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान्का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा ।।१४।।

दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः ।
पतित्वा चरणावस्रैः न्यषिञ्चत् कृष्णविच्युतः ॥ १५ ॥

इधर दारुक भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेनके चरणोंपर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओंसे भिगोने लगा ||१५||

कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप ।
तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविर्मूर्च्छिताः ॥ १६ ॥

परीक्षित्! उसने अपनेको सँभालकर यदुवंशियोंके विनाशका पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोकके मूर्च्छित हो गये ।।१६।।

तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः ।
व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नंत आननम् ॥ १७ ॥

भगवान् श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे ।।१७।।

देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ ।
कृष्णरामावपश्यंतः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम् ॥ १८ ॥

देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलरामको न देखकर शोककी पीड़ासे बेहोश हो गये ।।१८।।

प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद् विरहातुराः ।
उपगुह्य पतींस्तात चितां आरुरुहुः स्त्रियः ॥ १९ ॥

उन्होंने भगवद्विरहसे व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंके शव पहचानकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनके साथ चितापर बैठकर भस्म हो गयीं ||१९||

रामपत्न्यश्च तद्देहं उपगुह्याग्निमाविशन् ।
वसुदेवपत्‍न्यस्तद्‍गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः स्नुषाः ।
कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्याः तदात्मिकाः ॥ २० ॥

बलरामजीकी पत्नियाँ उनके शरीरको, वसुदेवजीकी पत्नियाँ उनके शवको और भगवान्की पुत्रवधुएँ अपने पतियोंकी लाशोंको लेकर अग्निमें प्रवेश कर गयीं। भगवान् श्रीकृष्णकी रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यानमें मग्न होकर अग्निमें प्रविष्ट हो गयीं ।।२०।।

अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः ।
आत्मानं सांत्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः ॥ २१ ॥

परीक्षित! अर्जन अपने प्रियतम और सखा भगवान श्रीकष्णके विरहसे पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हींके गीतोक्त सदुपदेशोंका स्मरण करके अपने मनको सँभाला ।।२१।।

बंधूनां नष्टगोत्राणां अर्जुनः सांपरायिकम् ।
हतानां कारयामास यथावद् अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥

यदुवंशके मृत व्यक्तियोंमें जिनको कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुनने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया ।।२२।।

द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत् क्षणात् ।
वर्जयित्वा महाराज श्रीमद् भगवदालयम् ॥ २३ ॥

महाराज! भगवान्के न रहनेपर समुद्रने एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णका निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षणमें सारी द्वारका डुबो दी ।।२३।।

नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः ।
स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ २४ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्रसे ही सारे पाप-तापोंका नाश करनेवाला और सर्वमंगलोंको भी मंगल बनानेवाला है ।।२४।।

स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः ।
इंद्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ॥ २५ ॥

प्रिय परीक्षित! पिण्डदानके अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढोंको लेकर अर्जन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्धके पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कर दिया ।।२५।।

श्रुत्वा सुहृद् वधं राजन् अर्जुनात्ते पितामहाः ।
त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम् ॥ २६ ॥

राजन्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंको अर्जुनसे ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियोंका संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपदपर अभिषिक्त करके हिमालयकी वीरयात्रा की ।।२६।।

य एतद् देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च ।
कीर्तयेत् श्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २७ ॥

मैंने तुम्हें देवताओंके भी आराध्यदेव भगवान् श्रीकृष्णकी जन्मलीला और कर्मलीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।२७।।

( वसंततिलका )
इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार
वीर्याणि बालचरितानि च शंतमानि ।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन् मनुष्यो
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत ॥ २८ ॥

परीक्षित्! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य-माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रके अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवतमहापुराणमें तथा दूसरे पुराणोंमें वर्णित परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला आदिका संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रोंके अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णके चरणोंमें पराभक्ति प्राप्त करता है ।।२८।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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