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श्रीमद् भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 4 अध्याय 4

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
चतुर्थ स्कन्ध अध्यायः ४

मैत्रेय उवाच –
एतावदुक्त्वा विरराम शङ्‌करः
पत्‍न्यङ्‌गनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन् ।
सुहृद् दिदृक्षुः परिशङ्‌किता भवान्
निष्क्रामती निर्विशती द्विधाऽऽस सा ॥ १ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदरजी! इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्षके यहाँ जाने देने अथवा जानेसे रोकने—दोनों ही अवस्थाओंमें सतीके प्राणत्यागकी सम्भावना है। इधर, सतीजी भी कभी बन्धुजनोंको देखने जानेकी इच्छासे बाहर आतीं और कभी ‘भगवान शंकर रुष्ट न हो जायँ, इस शंकासे फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकनेके कारण वे दुविधामें पड़ गयीं-चंचल हो गयीं ।।१।।

सुहृद् दिदृक्षाप्रतिघातदुर्मनाः
स्नेहाद्रुदत्यश्रुकलातिविह्वला ।
भवं भवान्यप्रतिपूरुषं रुषा
प्रधक्ष्यतीवैक्षत जातवेपथुः ॥ २ ॥

बन्धुजनोंसे मिलनेकी इच्छामें बाधा पड़नेसे वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनोंके स्नेहवशउनका हृदय भर आया और वे आँखोंमें आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थर-थर काँपने लगा और वे अप्रतिम पुरुष भगवान शंकरकी ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टिसे देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी ।।२।।

ततो विनिःश्वस्य सती विहाय तं
शोकेन रोषेण च दूयता हृदा ।
पित्रोरगात् स्त्रैणविमूढधीर्गृहान्
प्रेम्णात्मनो योऽर्धमदात्सतां प्रियः ॥ ३ ॥

शोक और क्रोधने उनके चित्तको बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभावके कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अंगतक दे दिया था, उन सत्पुरुषोंके प्रिय भगवान् शंकरको भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिताके घर चल दीं ||३||

तामन्वगच्छन् द्रुतविक्रमां सतीं
एकां त्रिनेत्रानुचराः सहस्रशः ।
सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादयः
पुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथाः ॥ ४ ॥

सतीको बड़ी फुर्तीसे अकेली जाते देख श्रीमहादेवजीके मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान्के वाहन वृषभराजको आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षोंको साथ ले बड़ी तेजीसे निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये ।।४।।

तां सारिका कन्दुकदर्पणाम्बुज
श्वेतातपत्र व्यजनस्रगादिभिः ।
गीतायनैः दुन्दुभिशङ्‌खवेणुभिः
वृषेन्द्रमारोप्य विटङ्‌किता ययुः ॥ ५ ॥

उन्होंने सतीको बैलपर सवार करा दिया तथा मैना पक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेलकी सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शंख और बाँसुरी आदि गाने-बजानेके सामानोंसे सुसज्जित हो वे । उनके साथ चल दिये ।।५।।

आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवैशसं
विप्रर्षिजुष्टं विबुधैश्च सर्वशः ।
मृद्दार्वयःकाञ्चनदर्भचर्मभिः
निसृष्टभाण्डं यजनं समाविशत् ॥ ॥ ६ ॥

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकोंके साथ दक्षकी यज्ञशालामें पहुंचीं। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणोंमें परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वरमें कौन बोले; सब ओर ब्रह्मर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्मके पात्र रखे हुए थे ।।६।।

तामागतां तत्र न कश्चनाद्रियद्
विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जनः ।
ऋते स्वसॄर्वै जननीं च सादराः
प्रेमाश्रुकण्ठ्यः परिषस्वजुर्मुदा ॥ ७ ॥

वहाँ पहुँचनेपर पिताके द्वारा सतीकी अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्षके भयसे सतीकी माता और बहनोंके सिवा किसी भी मनुष्यने उनका कुछ भी आदरसत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुईं और प्रेमसे गद्गद होकर उन्होंने सतीजीको आदरपूर्वक गले लगाया ।।७।।

सौदर्यसम्प्रश्नसमर्थवार्तया
मात्रा च मातृष्वसृभिश्च सादरम् ।
दत्तां सपर्यां वरमासनं च सा
नादत्त पित्राप्रतिनन्दिता सती ॥ ८ ॥

किन्तु सतीजीने पितासे अपमानित होनेके कारण, बहिनोंके कुशल-प्रश्नसहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियोंके सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादिको स्वीकार नहीं किया ।।८।।

अरुद्रभागं तमवेक्ष्य चाध्वरं
पित्रा च देवे कृतहेलनं विभौ ।
अनादृता यज्ञसदस्यधीश्वरी
चुकोप लोकानिव धक्ष्यती रुषा ॥ ९ ॥

सर्वलोकेश्वरी देवी सतीका यज्ञमण्डपमें तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञमें भगवान शंकरके लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोषसे सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगी ||९||

जगर्ह सामर्षविपन्नया गिरा
शिवद्विषं धूमपथश्रमस्मयम् ।
स्वतेजसा भूतगणान् समुत्थितान्
निगृह्य देवी जगतोऽभिशृण्वतः ॥ १० ॥

दक्षको कर्ममार्गके अभ्याससे बहुत घमण्ड हो गया था। उसे शिवजीसे द्वेष करते देख जब सतीके साथ आये हुए भूत उसे मारनेको तैयार हुए तो देवी सतीने उन्हें अपने तेजसे रोक दिया और सब लोगोंको सुनाकर पिताकी निन्दा करते हुए क्रोधसे लड़खड़ाती हुई वाणीमें कहा ।।१०।।

देव्युवाच –
न यस्य लोकेऽस्त्यतिशायनः प्रियः
तथाप्रियो देहभृतां प्रियात्मनः ।
तस्मिन् समस्तात्मनि मुक्तवैरके
ऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥ ११ ॥

देवी सतीने कहा—पिताजी! भगवान् शंकरसे बड़ा तो संसारमें कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियोंके प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणीसे वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा? ||११||

दोषान् परेषां हि गुणेषु साधवो
गृह्णन्ति केचिन्न भवादृशो द्विज ।
गुणांश्च फल्गून् बहुलीकरिष्णवो
महत्तमास्तेष्वविदद्‍भवानघम् ॥ १२ ॥

द्विजवर! आप-जैसे लोग दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग-दोष देखनेकी बात तो अलग रहीदूसरोंके थोड़ेसे गुणको भी बड़े रूपमें देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषोंपर भी दोषारोपण ही किया ।।१२।।

नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदा
महद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।
सेर्ष्यं महापूरुषपादपांसुभिः
निरस्ततेजःसु तदेव शोभनम् ॥ १३ ॥

जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जडशरीरको ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषोंकी निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टापर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणोंकी धूलि उनके इस अपराधको न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अतः महापुरुषोंकी निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषोंको ही शोभा देता है ।।१३।।

यद् द्व्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणां
सकृत्प्रसङ्‌गादघमाशु हन्ति तत् ।
पवित्रकीर्तिं तमलङ्‌घ्यशासनं
भवानहो द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥ १४ ॥

जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरोंका नाम प्रसंगवश एक बार भी मुखसे निकल जानेपर मनुष्यके समस्त पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञाका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता, अहो! उन्हीं पवित्रकीर्ति मंगलमय भगवान् शंकरसे आप द्वेष करते हैं! अवश्य ही आपअमंगलरूप हैं ।।१४।।

यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिभिः
निषेवितं ब्रह्मरसासवार्थिभिः ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोऽर्थिनः
तस्मै भवान् द्रुह्यति विश्वबन्धवे ॥ १५ ॥

अरे! महापुरुषोंके मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके चरणकमलोंका निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषोंको उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिवसे आप वैर करते हैं ।।१५।।

किं वा शिवाख्यमशिवं न विदुस्त्वदन्ये
ब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटाः श्मशाने ।
तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचैः
ये मूर्धभिर्दधति तच्चरणावसृष्टम् ॥ १६ ॥

वे केवल नाममात्रके शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमंगलरूप है; इस बातको आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशानभूमिस्थ नरमुण्डोंकी माला, चिताकी भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूतपिशाचोंके साथ श्मशानमें निवास करते हैं, उन्हींके चरणोंपरसे गिरे हुए निर्माल्यको ब्रह्मा आदि देवता अपने सिरपर धारण करते हैं ।।१६।।

कर्णौ पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशे
धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभुश्चेत्
जिह्वामसूनपि ततो विसृजेत्स धर्मः ॥ १७ ॥

यदि निरंकुशलोग धर्ममर्यादाकी रक्षा करनेवाले अपने पूजनीय स्वामीकी निन्दा करें तो अपने में उसे दण्ड देनेकी शक्ति न होनेपर कान बंद करके वहाँसे चला जाय और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करनेवाली अमंगलरूप दुष्ट जिह्वाको काट डाले। इस पापको रोकनेके लिये स्वयं अपने प्राणतक दे दे, यही धर्म है ।।१७।।

अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरं
न धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिणः ।
जग्धस्य मोहाद्धि विशुद्धिमन्धसो
जुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥ १८ ॥

आप भगवान् नीलकण्ठकी निन्दा करनेवाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरको अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूलसे कोई निन्दित वस्तु खा ली जाय तो उसे वमन करके निकाल देनेसे ही मनुष्यकी शुद्धि बतायी जाती है ।।१८।।

न वेदवादान् अनुवर्तते मतिः
स्व एव लोके रमतो महामुनेः ।
यथा गतिर्देवमनुष्ययोः पृथक्
स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थितः ॥ १९ ॥

जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेदके विधिनिषेधमय वाक्योंका अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्योंकी गतिमें भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी स्थिति भी एकसी नहीं होती। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्गमें स्थित रहते हुए भी दूसरोंके मार्गकी निन्दा न करे ।।१९।।

कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतं
वेदे विविच्योभयलिङ्‌गमाश्रितम् ।
विरोधि तद्यौगपदैककर्तरि
द्वयं तथा ब्रह्मणि कर्म नर्च्छति ॥ २० ॥

प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि)-रूप दोनों ही प्रकारके कर्म ठीक हैं। वेदमें उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकारके अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होनेके कारण उक्त दोनों प्रकारके कर्मोंका एक साथ एक ही पुरुषके द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा है उन्हें इन दोनोंमेंसे किसी भी प्रकारका कर्म करनेकी आवश्यकता नहीं है ।।२०।।

मा वः पदव्यः पितरस्मदास्थिता
या यज्ञशालासु न धूमवर्त्मभिः ।
तदन्नतृप्तैरसुभृद्‌भिरीडिता
अव्यक्तलिङ्‌गा अवधूतसेविताः ॥ २१ ॥

पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओंमें यज्ञान्नसे तृप्त होकर प्राणपोषण करनेवाले कर्मठलोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते ।।२१।।

नैतेन देहेन हरे कृतागसो
देहोद्‍भवेनालमलं कुजन्मना ।
व्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसङ्‌गतः
तज्जन्म धिग् यो महतामवद्यकृत् ॥ २२ ॥

आप भगवान् शंकरका अपराध करनेवाले हैं। अतः आपके शरीरसे उत्पन्न इस निन्दनीय देहको रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जनसे सम्बन्ध होनेके कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषोंका अपराध करता है, उससे होनेवाले जन्मको भी धिक्कार है ।।२२।।

गोत्रं त्वदीयं भगवान्वृषध्वजो
दाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मनाः ।
व्यपेतनर्मस्मितमाशु तद्ध्यहं
व्युत्स्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदङ्‌गजम् ॥ २३ ॥

जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसीमें ‘दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी)-के नामसे पुकारेंगे, उस समय हँसीको भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अंगसे उत्पन्न इस शवतुल्य शरीरको त्याग दूंगी ।।२३।।

मैत्रेय उवाच –
इत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्
क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।
स्पृष्ट्वा जलं पीतदुकूलसंवृता
निमील्य दृग्योगपथं समाविशत् ॥ २४ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—कामादि शत्रुओंको जीतनेवाले विदुरजी! उस यज्ञमण्डपमें दक्षसे इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशामें भूमिपर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूंदकर शरीर छोड़नेके लिये वे योगमार्गमें स्थित हो गयीं ।।२४।।

कृत्वा समानावनिलौ जितासना
सोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।
शनैर्हृदि स्थाप्य धियोरसि स्थितं
कण्ठाद् भ्रुवोर्मध्यमनिन्दितानयत् ॥ २५ ॥

उन्होंने आसनको स्थिरकर प्राणायामद्वारा प्राण और अपानको एकरूप करके नाभिचक्रमें स्थित किया; फिर उदानवायुको नाभिचक्रसे ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धिके साथ हृदयमें स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदयस्थित वायुको कण्ठमार्गसे भ्रुकुटियोंके बीचमें ले गयीं ।।२५।।

एवं स्वदेहं महतां महीयसा
मुहुः समारोपितमङ्‌कमादरात् ।
जिहासती दक्षरुषा मनस्विनी
दधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ॥ २६ ॥

इस प्रकार, जिस शरीरको महापुरुषोंके भी पूजनीय भगवान् शंकरने कई बार बड़े आदरसे अपनी गोदमें बैठाया था, दक्षपर कुपित होकर उसे त्यागनेकी इच्छासे महामनस्विनी सतीने अपने सम्पूर्ण अंगोंमें वायु और अग्निकी धारणा की ।।२६।।

ततः स्वभर्तुश्चरणाम्बुजासवं
जगद्‍गुरोश्चिन्तयती न चापरम् ।
ददर्श देहो हतकल्मषः सती
सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना ॥ २७ ॥

अपने पति जगद्गुरु भगवान् शंकरके चरण-कमल-मकरन्दका चिन्तन करतेकरते सतीने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणोंके अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्षकन्या हूँ-ऐसे अभिमानसे भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्निसे जल उठा ||२७||

तत्पश्यतां खे भुवि चाद्‍भुतं महत्
हा हेति वादः सुमहान् अजायत ।
हन्त प्रिया दैवतमस्य देवी
जहावसून्केन सती प्रकोपिता ॥ २८ ॥

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदिने जब सतीका देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयंकर कोलाहल आकाशमें एवं पृथ्वीतलपर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था-‘हाय! दक्षके दुर्व्यवहारसे कुपित होकर देवाधिदेव महादेवकी प्रिया सतीने प्राण त्याग दिये ।।२८।।

अहो अनात्म्यं महदस्य पश्यत
प्रजापतेर्यस्य चराचरं प्रजाः ।
जहावसून्यद्विमताऽऽत्मजा
सती मनस्विनी मानमभीक्ष्णमर्हति ॥ २९ ॥

देखो, सारे चराचर जीव इस दक्षप्रजापतिकी ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पानेके योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये ||२९||

सोऽयं दुर्मर्षहृदयो ब्रह्मध्रुक् च
लोकेऽपकीर्तिं महतीमवाप्स्यति ।
यदङ्‌गजां स्वां पुरुषद्‌विडुद्यतां
न प्रत्यषेधन्मृतयेऽपराधतः ॥ ३० ॥

वास्तवमें यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसारमें बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसीके अपराधसे प्राणत्याग करनेको तैयार हुई, तब भी इस शंकरद्रोहीने उसे रोकातक नहीं!’ ||३०||

(अनुष्टुप्)
वदत्येवं जने सत्या दृष्ट्वासुत्यागमद्‍भुतम् ।
दक्षं तत्पार्षदा हन्तुं उदतिष्ठन्नुदायुधाः ॥ ३१ ॥

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजीके पार्षद सतीका यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्षको मारनेके लिये उठ खड़े हुए ||३१।।

तेषां आपततां वेगं निशाम्य भगवान् भृगुः ।
यज्ञघ्नघ्नेन यजुषा दक्षिणाग्नौ जुहाव ह ॥ ३२ ॥

उनके आक्रमणका वेग देखकर भगवान् भृगुने यज्ञमें विघ्न डालनेवालोंका नाश करनेके लिये ‘अपहतं रक्ष….’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्निमें आहुति दी ।।३२।।

अध्वर्युणा हूयमाने देवा उत्पेतुरोजसा ।
ऋभवो नाम तपसा सोमं प्राप्ताः सहस्रशः ॥ ३३ ॥

अध्वर्यु भृगुने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्डसे ‘ऋभु’ नामके हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्याके प्रभावसे चन्द्रलोक प्राप्त किया था ।।३३।।

तैरलातायुधैः सर्वे प्रमथाः सहगुह्यकाः ।
हन्यमाना दिशो भेजुः उशद्‌भिर्ब्रह्मतेजसा ॥ ३४ ॥

उन ब्रह्मतेजसम्पन्न देवताओंने जलती हुई लकड़ियोंसे आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रमथगण इधरउधर भाग गये ।।३४।।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे सतीदेहोत्सर्गो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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