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श्रीमद् भागवत महापुराण षष्ठम स्कन्ध हिंदी अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 6 अध्याय 11

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
अध्यायः ११

वृत्रस्य भक्तिज्ञानवैराग्ययुक्त वीरोचितोद्‌गाराः –

श्रीशुक उवाच –

ते एवं शंसतो धर्मं वचः पत्युरचेतसः ।

नैवागृह्णन् भयत्रस्ताः पलायनपरा नृप ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! असुरसेना भयभीत होकर भाग रही थी। उसके सैनिक इतने अचेत हो रहे थे कि उन्होंने अपने स्वामीके धर्मानुकूल वचनोंपर भी ध्यान न दिया ।।१।।

विशीर्यमाणां पृतनां आसुरीं असुरर्षभः ।

कालानुकूलैः त्रिदशैः काल्यमानामनाथवत् ॥ २ ॥

वृत्रासुरने देखा कि समयकी अनुकूलताके कारण देवतालोग असुरोंकी सेनाको खदेड़ रहे हैं और वह इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो रही है, मानो बिना नायककी हो ||२||

दृष्ट्वातप्यत सङ्‌क्रुद्ध इन्द्रशत्रुरमर्षितः ।

तान्निवार्यौजसा राजन् निर्भर्त्स्येदमुवाच ह ॥ ३ ॥

राजन्! यह देखकर वृत्रासुर असहिष्णुता और क्रोधके मारे तिलमिला उठा। उसने बलपूर्वक देवसेनाको आगे बढ़नेसे रोक दिया और उन्हें डॉटकर ललकारते हुए कहा – ||३||

किं व उच्चरितैर्मातुः धावद्‌भिः पृष्ठतो हतैः ।

न हि भीतवधः श्लाघ्यो न स्वर्ग्यः शूरमानिनाम् ॥ ४ ॥

‘क्षुद्र देवताओ! रणभूमिमें पीठ दिखानेवाले कायर असुरोंपर पीछेसे प्रहार करने में क्या लाभ है। ये लोग तो अपने माँ-बापके मल-मूत्र हैं। परन्तु अपनेको शूरवीर माननेवाले तुम्हारे-जैसे पुरुषों के लिये भी तो डरपोकोंको मारना कोई प्रशंसाकी बात नहीं है और न इससे तुम्हें स्वर्ग ही मिल सकता है ।।४।।

यदि वः प्रधने श्रद्धा सारं वा क्षुल्लका हृदि ।

अग्रे तिष्ठत मात्रं मे न चेद्‍ग्राम्यसुखे स्पृहा ॥ ५ ॥

यदि तुम्हारे मन में युद्ध करनेकी शक्ति और उत्साह है तथा अब जीवित रहकर विषय-सुख भोगनेकी लालसा नहीं है, तो क्षणभर मेरे सामने डट जाओ और युद्धका मजा चख लो’ ||५||

एवं सुरगणान् क्रुद्धो भीषयन् वपुषा रिपून् ।

व्यनदत्सुमहाप्राणो येन लोका विचेतसः ॥ ६ ॥

परीक्षित्! वृत्रासुर बड़ा बली था। वह अपने डील-डौलसे ही शत्रु देवताओंको भयभीत करने लगा। उसने क्रोधमें भरकर इतने जोरका सिंहनाद किया कि बहुत-से लोग तो उसे सुनकर ही अचेत हो गये ||६||

तेन देवगणाः सर्वे वृत्रविस्फोटनेन वै ।

निपेतुर्मूर्च्छिता भूमौ यथैवाशनिना हताः ॥ ७ ॥

वृत्रासुरकी भयानक गर्जनासे सब-के-सब देवता मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो उनपर बिजली गिर गयी हो ||७||

ममर्द पद्‍भ्यां सुरसैन्यमातुरं

निमीलिताक्षं रणरङ्‌गदुर्मदः ।

गां कम्पयन् उद्यतशूल ओजसा

नालं वनं यूथपतिर्यथोन्मदः ॥ ८ ॥

अब जैसे मदोन्मत्त गजराज नरकटका वन रौंद डालता है, वैसे ही रणबाँकरा वृत्रासुर हाथमें त्रिशूल लेकर भयसे नेत्र बंद किये पड़ी हुई देवसेनाको पैरोंसे कुचलने लगा। उसके वेगसे धरती डगमगाने लगी ।।८।।

विलोक्य तं वज्रधरोऽत्यमर्षितः

स्वशत्रवेऽभिद्रवते महागदाम् ।

चिक्षेप तामापततीं सुदुःसहां

जग्राह वामेन करेण लीलया ॥ ९ ॥

वज्रपाणि देवराज इन्द्र उसकी यह करतूत सह न सके। जब वह उनकी ओर झपटा, तब उन्होंने और भी चिढ़कर अपने शत्रुपर एक बहुत बड़ी गदा चलायी। अभी वह असह्य गदा वृत्रासुरके पास पहुँची भी न थी कि उसने खेल-ही खेलमें बायें हाथसे उसे पकड़ लिया ।।९।।

स इन्द्रशत्रुः कुपितो भृशं तया

महेन्द्रवाहं गदयोरुविक्रमः ।

जघान कुम्भस्थल उन्नदन् मृधे

तत्कर्म सर्वे समपूजयन् नृप ॥ १० ॥

राजन्! परम पराक्रमी वृत्रासुरने क्रोधसे आग-बबूला होकर उसी गदासे इन्द्रके वाहन ऐरावतके सिरपर बड़े जोरसे गरजते हुए प्रहार किया। उसके इस कार्यकी सभी लोग बड़ी प्रशंसा करने लगे ||१०||

ऐरावतो वृत्रगदाभिमृष्टो

विघूर्णितोऽद्रिः कुलिशाहतो यथा ।

अपासरद्‌ भिन्नमुखः सहेन्द्रो

मुञ्चन्नसृक् सप्तधनुर्भृशार्तः ॥ ११ ॥

वृत्रासुरकी गदाके आघातसे ऐरावत हाथी वजाहत पर्वतके समान तिलमिला उठा। सिर फट जानेसे वह अत्यन्त व्याकुल हो गया और खून उगलता हुआ इन्द्रको लिये हए ही अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया ।।११।।

न सन्नवाहाय विषण्णचेतसे

प्रायुङ्‌क्त भूयः स गदां महात्मा ।

इन्द्रोऽमृतस्यन्दिकराभिमर्श

वीतव्यथक्षतवाहोऽवतस्थे ॥ १२ ॥

देवराज इन्द्र अपने वाहन ऐरावतके मूर्छित हो जानेसे स्वयं भी विषादग्रस्त हो गये। यह देखकर युद्धधर्मके मर्मज्ञ वृत्रासुरने उनके ऊपर फिरसे गदा नहीं चलायी। तबतक इन्द्रने अपने अमृतस्रावी हाथके स्पर्शसे घायल ऐरावतकी व्यथा मिटा दी और वे फिर रणभूमिमें आ डटे ||१२||

स तं नृपेन्द्राहवकाम्यया रिपुं

वज्रायुधं भ्रातृहणं विलोक्य ।

स्मरंश्च तत्कर्म नृशंसमंहः

शोकेन मोहेन हसन् जगाद ॥ १३ ॥

परीक्षित्! जब वृत्रासुरने देखा कि मेरे भाई विश्वरूपका वध करनेवाला शत्रु इन्द्र युद्धके लिये हाथमें वज्र लेकर फिर सामने आ गया है, तब उसे उनके उस क्रूर पापकर्मका स्मरण हो आया और वह शोक और मोहसे युक्त हो हँसता हुआ उनसे कहने लगा ।।१३।।

श्रीवृत्र उवाच

दिष्ट्या भवान् मे समवस्थितो रिपुः

यो ब्रह्महा गुरुहा भ्रातृहा च ।

दिष्ट्यानृणोऽद्याहमसत्तम त्वया

मच्छूलनिर्भिन्न दृषद्‌धृदाचिरात् ॥ १४ ॥

वत्रासर बोला-आज मेरे लिये बड़े सौभाग्यका दिन है कि तम्हारे-जैसा शत्र—जिसने विश्वरूपके रूपमें ब्राह्मण, अपने गुरु एवं मेरे भाईकी हत्या की है—मेरे सामने खड़ा है। अरे दुष्ट! अब शीघ्र-से-शीघ्र मैं तेरे पत्थरके समान कठोर हृदयको अपने शूलसे विदीर्ण करके भाईसे उऋण होऊँगा। अहा! यह मेरे लिये कैसे आनन्दकी बात होगी ।।१४।।

यो नोऽग्रजस्यात्मविदो द्विजातेः

गुरोरपापस्य च दीक्षितस्य ।

विश्रभ्य खड्गेन शिरांस्यवृश्चय्

पशोरिवाकरुणः स्वर्गकामः ॥ १५ ॥

इन्द्र! तूने मेरे आत्मवेत्ता और निष्पाप बड़े भाईके, जो ब्राह्मण होनेके साथ ही यज्ञमें दीक्षित और तुम्हारा गुरु था, विश्वास दिलाकर तलवारसे तीनों सिर उतार लिये-ठीक वैसे ही जैसे स्वर्गकामी निर्दय मनुष्य यज्ञमें पशुका सिर काट डालता है ||१५||

ह्रीश्रीदयाकीर्तिभिरुज्झितं त्वां

स्वकर्मणा पुरुषादैश्च गर्ह्यम् ।

कृच्छ्रेण मच्छूलविभिन्नदेहं

अस्पृष्टवह्निं समदन्ति गृध्राः ॥ १६ ॥

दया, लज्जा, लक्ष्मी और कीर्ति तुझे छोड़ चुकी है। तूने ऐसे-ऐसे नीच कर्म किये हैं, जिनकी निन्दा मनष्योंकी तो बात ही क्या-राक्षसतक करते हैं। आज मेरे त्रिशलसे तेरा शरीर ट्रक-ट्रक हो जायगा। बड़े कष्टसे तेरी मृत्यु होगी। तेरे-जैसे पापीको आग भी नहीं जलायेगी, तुझे तो गीध नोंच-नोंचकर खायेंगे ।।१६।।

अन्येऽनु ये त्वेह नृशंसमज्ञा

ये ह्युद्यतास्त्राः प्रहरन्ति मह्यम् ।

तैर्भूतनाथान् सगणान् निशात

त्रिशूलनिर्भिन्नगलैर्यजामि ॥ १७ ॥

ये अज्ञानी देवता तेरे-जैसे नीच और क्रूरके अनुयायी बनकर मुझपर शस्त्रोंसे प्रहार कर रहे हैं। मैं अपने तीखे त्रिशूलसे उनकी गरदन काट डालूँगा और उनके द्वारा गणोंके सहित भैरवादि भूतनाथोंको बलि चढ़ाऊँगा ।।१७।।

अथो हरे मे कुलिशेन वीर

हर्ता प्रमथ्यैव शिरो यदीह ।

तत्रानृणो भूतबलिं विधाय

मनस्विनां पादरजः प्रपत्स्ये ॥ १८ ॥

वीर इन्द्र! यह भी सम्भव है कि तू मेरी सेनाको छिन्न-भिन्न करके अपने वज्रसे मेरा सिर काट ले। तब तो मैं अपने शरीरकी बलि पशु-पक्षियोंको समर्पित करके, कर्म-बन्धनसे मुक्त हो महापुरुषोंकी चरणरजका आश्रय ग्रहण करूँगा–जिस लोकमें महापुरुष जाते हैं, वहाँ पहुँच जाऊँगा ||१८||

सुरेश कस्मान्न हिनोषि वज्रं

पुरः स्थिते वैरिणि मय्यमोघम् ।

मा संशयिष्ठा न गदेव वज्रः

स्यान्निष्फलः कृपणार्थेव याच्ञा ॥ १९ ॥

देवराज! मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तेरा शत्रु हूँ; अब तू मुझपर अपना अमोघ वज्र क्यों नहीं छोड़ता? तू यह सन्देह न कर कि जैसे तेरी गदा निष्फल हो गयी, कृपण पुरुषसे की हुई याचनाके समान यह वज्र भी वैसे ही निष्फल हो जायगा ||१९||

नन्वेष वज्रस्तव शक्र तेजसा

हरेर्दधीचेस्तपसा च तेजितः ।

तेनैव शत्रुं जहि विष्णुयन्त्रितो

यतो हरिर्विजयः श्रीर्गुणास्ततः ॥ २० ॥

इन्द्र! तेरा यह वज्र श्रीहरिके तेज और दधीचि ऋषिकी तपस्यासे शक्तिमान् हो रहा है। विष्णुभगवान्ने मुझे मारनेके लिये तुझे आज्ञा भी दी है। इसलिये अब तू उसी वज्रसे मुझे मार डाल। क्योंकि जिस पक्षमें भगवान् श्रीहरि हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं ।।२०।।

अहं समाधाय मनो यथाऽऽह

नः सङ्‌कर्षणस्तच्चरणारविन्दे ।

त्वद्वज्ररंहोलुलितग्राम्यपाशो

गतिं मुनेर्याम्यपविद्धलोकः ॥ २१ ॥

देवराज! भगवान् संकर्षणके आज्ञानुसार मैं अपने मनको उनके चरणकमलोंमें लीन कर दूँगा। तेरे वज्रका वेग मुझे नहीं, मेरे विषय-भोगरूप फंदेको काट डालेगा और मैं शरीर त्यागकर मुनिजनोचित गति प्राप्त करूँगा ।।२१।।

पुंसां किलैकान्तधियां स्वकानां

याः सम्पदो दिवि भूमौ रसायाम् ।

न राति यद् द्वेष उद्वेग आधिः

मदः कलिर्व्यसनं सम्प्रयासः ॥ २२ ॥

जो पुरुष भगवानसे अनन्यप्रेम करते हैंउनके निजजन हैं उन्हें वे स्वर्ग, पृथ्वी अथवा रसातलकी सम्पत्तियाँ नहीं देते। क्योंकि उनसे परमानन्दकी उपलब्धि तो होती ही नहीं; उलटे द्वेष, उद्वेग, अभिमान, मानसिक पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हात लगते हैं ।।२२।।

त्रैवर्गिकायासविघातमस्मत्

पतिर्विधत्ते पुरुषस्य शक्र ।

ततोऽनुमेयो भगवत्प्रसादो

यो दुर्लभोऽकिञ्चनगोचरोऽन्यैः ॥ २३ ॥

इन्द्र! हमारे स्वामी अपने भक्तके अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी प्रयासको व्यर्थ कर दिया करते हैं और सच पूछो तो इसीसे भगवान्की कृपाका अनुमान होता है। क्योंकि उनका ऐसा कृपा-प्रसाद अकिंचन भक्तोंके लिये ही अनुभवगम्य है, दूसरोंके लिये तो अत्यन्त दुर्लभ ही है ||२३||

अहं हरे तव पादैकमूल

दासानुदासो भवितास्मि भूयः ।

मनः स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते

गृणीत वाक्कर्म करोतु कायः ॥ २४ ॥

(भगवानको प्रत्यक्ष अनुभव करते हए त्रासरने प्रार्थना की—) ‘प्रभो! आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्यभावसे आपके चरणकमलोंके आश्रित सेवकोंकी सेवा करनेका अवसर मुझे अगले जन्ममें भी प्राप्त हो। प्राणवल्लभ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणोंका स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हींका गान करे और शरीर आपकी सेवामें ही संलग्न रहे ||२४||

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं

न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा

समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्‌क्षे ॥ २५ ॥

सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डलका साम्राज्य, रसातलका एकच्छत्र राज्य, योगकी सिद्धियाँ–यहाँतक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ||२५||

अजातपक्षा इव मातरं खगाः

स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः ।

प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा

मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥ २६ ॥

जैसे पक्षियोंके पंखहीन बच्चे अपनी माँकी बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँका दूध पीनेके लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतमसे मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती है वैसे ही कमलनयन! मेरा मन आपके दर्शनके लिये छटपटा रहा है ।।२६।।

ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं

संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः ।

त्वन्माययात्मात्मजदारगेहे

ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात् ॥ २७ ॥

प्रभो! मैं मुक्ति नहीं चाहता। मेरे कर्मोंके फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकना पड़े, इसकी परवा नहीं। परन्तु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनिमें जन्मूं, वहाँ-वहाँ भगवान्के प्यारे भक्तजनोंसे मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे। स्वामिन्! मैं केवल यही चाहता हूँ कि जो लोग आपकी मायासे देह-गेह और स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त हो रहे हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न हो’ ||२७||

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

षष्ठस्कन्धे इन्द्रवृत्रासुरयुद्धवर्णनं नाम एकादशोऽध्या‍यः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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