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श्रीमद् भागवत महापुराण नवम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 13

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श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः १३

निमिवंशवर्णनं – निमेर्देहत्यागो विदेहवंशश्च –

श्रीशुक उवाच ।
निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठं अवृतर्त्विजम् ।
आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! इक्ष्वाकुके पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठको ऋत्विज्के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि ‘राजन्! इन्द्र अपने यज्ञके लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं ||१||

तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय ।
तूष्णीं आसीद् गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन् मखम् ॥ २ ॥

उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तबतक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्रका यज्ञ कराने चले गये ।।२।।

निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतामात्मवान् ।
ऋत्विग्भिः अपरैस्तावत् नागमद्यावता गुरुः ॥ ३ ॥

विचारवान् निमिने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभंगुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जबतक गुरु वसिष्ठजी न लौटें, तबतकके लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजोंको वरण कर लिया ।।३।।

शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य तं निर्वर्त्य गुरुरागतः ।
अशपत् पतताद् देहो निमेः पण्डितमानिनः ॥ ४ ॥

गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्रका यज्ञ सम्पन्न करके लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमिने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय’ ||४||

निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने ।
तवापि पतताद् देहो लोभाद् धर्ममजानतः ॥ ५ ॥

निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका यह शाप धर्मके अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय’ ||५||

इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः ।
मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः ॥ ६ ॥

यह कहकर आत्मविद्यामें निपुण निमिने अपने शरीरका त्याग कर दिया। परीक्षित्! इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजीने भी अपना शरीर त्यागकर मित्रावरुणके द्वारा उर्वशीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया ।।६।।

गन्धवस्तुषु तद् देहं निधाय मुनिसत्तमाः ।
समाप्ते सत्रयागेऽथ देवान् ऊचुः समागतान् ॥ ७ ॥

राजा निमिके यज्ञमें आये हुए श्रेष्ठ मुनियोंने राजाके शरीरको सुगन्धित वस्तुओंमें रख दिया। जब सत्रयागकी समाप्ति हई और देवतालोग आये, तब उन लोगोंने उनसे प्रार्थना की ||७||

राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि ।
तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम् ॥ ८ ॥

‘महानुभावो! आपलोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमिका यह शरीर पुनः जीवित हो उठे।’ देवताओंने कहा—’ऐसा ही हो।’ उस समय निमिने कहा—’मुझे देहका बन्धन नहीं चाहिये ।।८।।

यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः ।
भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः ॥ ९ ॥

विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धिको पूर्णरूपसे श्रीभगवान्में ही लगा देते हैं और उन्हींके चरणकमलोंका भजन करते हैं। एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा-इस भयसे भीत होनेके कारण वे इस शरीरका कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं ।।९।।

देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम् ।
सर्वत्रास्य यतो मृत्युं मत्स्यानां उदके यथा ॥ १० ॥

अतः मैं अब दुःख, शोक और भयके मूल कारण इस शरीरको धारण करना नहीं चाहता। जैसे जलमें मछलीके लिये सर्वत्र ही मृत्युके अवसर हैं, वैसे ही इस शरीरके लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’ ||१०||

देवा ऊचुः ।
विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् ।
उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः ॥ ११ ॥

देवताओंने कहा-‘मुनियो! राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंमें अपनी इच्छाके अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीरसे भगवान्का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके अस्तित्वका पता चलता रहेगा ।।११।।

अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः ।
देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत ॥ १२ ॥

इसके बाद महर्षियोंने यह सोचकर कि ‘राजाके न रहनेपर लोगोंमें अराजकता फैल जायगी’ निमिके शरीरका मन्थन किया। उस मन्थनसे एक कुमार उत्पन्न हुआ ।।१२।।

जन्मना जनकः सोऽभूद् वैदेहस्तु विदेहजः ।
मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥ १३ ॥

जन्म लेनेके कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेहसे उत्पन्न होनेके कारण ‘वैदेह’ और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण उसी बालकका नाम ‘मिथिल’ हुआ। उसीने मिथिलापुरी बसायी ।।१३।।

तस्माद् उदावसुस्तस्य पुत्रोऽभूत् नन्दिवर्धनः ।
ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते ॥ १४ ॥

तस्माद् बृहद्रथस्तस्य महावीर्यः सुधृत्पिता ।
सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः ॥ १५ ॥

परीक्षित! जनकका उदावस, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धनका सुकेतु, उसका देवरात, देवरातका बृहद्रथ, बृहद्रथका महावीर्य, महावीर्यका सुधृति, सुधृतिका धृष्टकेतु, धृष्टकेतुका हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ ।।१४-१५||

मरोः प्रतीपकस्तस्मात् जातः कृतरथो यतः ।
देवमीढस्तस्य पुत्रो विश्रुतोऽथ महाधृतिः ॥ १६ ॥

मरुसे प्रतीपक, प्रतीपकसे कृतिरथ, कृतिरथसे देवमीढ, देवमीढसे विश्रुत और विश्रुतसे महाधुतिका जन्म हुआ ।।१६।।

कृतिरातः ततस्तस्मात् महारोमा च तत्सुतः ।
स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत ॥ १७ ॥

महाधुतिका कृतिरात, कृतिरातका महारोमा, महारोमाका स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमाका पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा ||१७||

ततः शीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम् ।
सीता शीराग्रतो जाता तस्मात् सीरध्वजः स्मृतः ॥ १८ ॥

इसी ह्रस्वरोमाके पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञके लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाग (फाल)-से सीताजीकी उत्पत्ति हुई। इसीसे उनका नाम ‘सीरध्वज’ पड़ा ।।१८।।

कुशध्वजस्तस्य पुत्रः ततो धर्मध्वजो नृपः ।
धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजौ ॥ १९ ॥

सीरध्वजके कुशध्वज, कुशध्वजके धर्मध्वज और धर्मध्वजके दो पुत्र हुए-कृतध्वज और मितध्वज ||१९||

कृतध्वजात् केशिध्वजः खाण्डिक्यस्तु मितध्वजात् ।
कृतध्वजसुतो राजन् आत्मविद्याविशारदः ॥ २० ॥

कृतध्वजके केशिध्वज और मितध्वजके खाण्डिक्य हुए। परीक्षित्! केशिध्वज आत्मविद्यामें बड़ा प्रवीण था ।।२०।।

खाण्डिक्यः कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजाद् द्रुतः ।
भानुमांस्तस्य पुत्रोऽभूत् शतद्युम्नस्तु तत्सुतः ॥ २१ ॥

खाण्डिक्य था कर्मकाण्डका मर्मज्ञ। वह केशिध्वजसे भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वजका पुत्र भानुमान् और भानुमान्का शतद्युम्न था ।।२१।।

शुचिस्तु तनयस्तस्मात् सनद्वाजः सुतोऽभवत् ।
ऊर्जकेतुः सनद्वाजाद् अजोऽथ पुरुजित्सुतः ॥ २२ ॥

अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुः तत्सुपार्श्वकः ।
ततश्चित्ररथो यस्य क्षेमाधिर्मिथिलाधिपः ॥ २३ ॥

शतद्युम्नसे शुचि, शुचिसे सनद्वाज, सनद्वाजसे ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतुसे अज, अजसे पुरुजित्, पुरुजित्से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमिसे श्रुतायु, श्रुतायुसे सुपार्श्वक, सुपार्श्वकसे चित्ररथ और चित्ररथसे मिथिलापति क्षेमधिका जन्म हुआ ।।२२-२३।।

तस्मात् समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः ।
आसीद् उपगुरुस्तस्माद् उपगुप्तोऽग्निसंभवः ॥ २४ ॥

क्षेमधिसे समरथ, समरथसे सत्यरथ, सत्यरथसे उपगुरु और उपगुरुसे उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्निका अंश था ।।२४।।

वस्वनन्तोऽथ तत्पुत्रो युयुधो यत् सुभाषणः ।
श्रुतस्ततो जयस्तस्माद् विजयोऽस्मादृतः सुतः ॥ २५ ॥

उपगुप्तका वस्वनन्त, वस्वनन्तका युयुध, युयुधका सुभाषण, सुभाषणका श्रुत, श्रुतका जय, जयका विजय और विजयका ऋत नामक पुत्र हुआ ||२५||

शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः ।
बहुलाश्वो धृतेस्तस्य कृतिरस्य महावशी ॥ २६ ॥

ऋतका शुनक, शुनकका वीतहव्य, वीतहव्यका धृति, धृतिका बहुलाश्व, बहुलाश्वका कृति और कृतिका पुत्र हुआ महावशी ।।२६।।

एते वै मैथिला राजन् आत्मविद्याविशारदाः ।
योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि ॥ २७ ॥

परीक्षित्! ये मिथिलके वंशमें उत्पन्न सभी नरपति ‘मैथिल’ कहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञानसे सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे मुक्त थे। क्यों न । हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरोंकी इनपर महान् कृपा जो थी ।।२७।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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