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श्रीमद् भागवत महापुराण नवम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 18

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः १८
ययातिचरितम् –

श्रीशुक उवाच ।
यतिर्ययातिः संयातिः आयतिर्वियतिः कृतिः ।
षडिमे नहुषस्यासन् इन्द्रियाणीव देहिनः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जैसे शरीरधारियोंके छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुषके छः पुत्र थे। उनके नाम थे—यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति ।।१।।

राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।
यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥ २ ॥

नहुष अपने बड़े पुत्र यतिको राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पानेका परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदिमें भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूपको नहीं समझसकता ।।२।।

पितरि भ्रंशिते स्थानाद् इन्द्राण्या धर्षणाद्‌ द्विजैः ।
प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥ ३ ॥

जब इन्द्रपत्नी शचीसे सहवास करनेकी चेष्टा करनेके कारण नहुषको ब्राह्मणोंने इन्द्रपदसे गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजाके पदपर ययाति बैठे ।।३।।

चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः ।
कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः ॥ ४ ॥

ययातिने अपने चार छोटे भाइयोंको चार दिशाओंमें नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको पत्नीके रूपमें स्वीकार करके पृथ्वीकी रक्षा करने लगा ।।४।।

श्रीराजोवाच ।
ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः ।
राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः ॥ ५ ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! भगवान् शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वरका प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ? ||५||

श्रीशुक उवाच ।
एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका ।
सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥ ६ ॥

देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले ।
व्यचरत् कलगीतालि नलिनीपुलिनेऽबला ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा-राजन्! दानवराज वृषपर्वाकी एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियोंके साथ अपनी राजधानीके श्रेष्ठ उद्यानमें टहल रही थी। उस उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवरमें कमल खिले हुए थे और उनपर बड़े ही मधुर स्वरसे भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनिसे सरोवरका तट गँज रहा था ।।६-७।।

ता जलाशयम आसाद्य कन्याः कमललोचनाः ।
तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः ॥ ८ ॥

जलाशयके पास पहुँचनेपर उन सुन्दरी कन्याओंने अपने-अपने वस्त्र तो घाटपर रख दिये और उस तालाबमें प्रवेश करके वे एक-दूसरेपर जल उलीच-उलीचकर क्रीडा करने लगीं ।।८।।

वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम् ।
सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः ॥ ९ ॥

उसी समय उधरसे पार्वतीजीके साथ बैलपर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवरसे निकलकर अपनेअपने वस्त्र पहन लिये ।।९।।

शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत् ।
स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानी इदमब्रवीत् ॥ १० ॥

शीघ्रताके कारण शर्मिष्ठाने अनजानमें देवयानीके वस्त्रको अपना समझकर पहन लिया। इसपर देवयानी क्रोधके मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा – ||१०||

अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम् ।
अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥ ११ ॥

‘अरे, देखो तो सही, इस दासीने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञका हविष्य उठा ले जाय, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं ।।११।।

यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये ।
धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाः प्रदर्शितः ॥ १२ ॥

यान् वन्दन्ति उपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः ।
भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः ॥ १३ ॥

वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः ।
अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती ॥ १४ ॥

जिन ब्राह्मणोंने अपने तपोबलसे इस संसारकी सृष्टि की है, जो परम पुरुष परमात्माके मुखरूप हैं, जो अपने हृदयमें निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्माको धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये वैदिक मार्गका निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना और सेवा करते हैं और तो क्या, लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय परम पावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं उन्हीं ब्राह्मणोंमें हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं। और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इसपर भी इस दुष्टाने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ोंको पहन लिया है’ ||१२-१४।।

एवं क्षिपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीं अभाषत ।
रुषा श्वसन्ति उरंगीघ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा ॥ १५ ॥

जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोधसे तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिनके समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतोंसे होठ दबाकर कहा- ||१५||

आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि ।
किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा ॥ १६ ॥

‘भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बातका भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजेपर रोटीके टुकड़ोंके लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरोंकी ओर नहीं ताकती रहतीं’ ||१६||

एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम् ।
शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वासे आदाय मन्युना ॥ १७ ॥

शर्मिष्ठाने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानीका तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कुएँमें ढकेल दिया ।।१७।।

तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन् ।
प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥ १८ ॥

शर्मिष्ठाके चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कूएँमें पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देख लिया ।।१८।।

दत्त्वा स्वमुत्तरं वासः तस्यै राजा विवाससे ।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं उज्जहार दयापरः ॥ १९ ॥

उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया ।।१९।।

तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।
राजन् त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय ॥ २० ॥

हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे ।
एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः ।
यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम ॥ २१ ॥

देवयानीने प्रेमभरी वाणीसे वीर ययातिसे कहा—’वीरशिरोमणे राजन्! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ! कूऍमें गिर जानेपर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान्का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगोंकी या और किसी मनुष्यकी कोई चेष्टा नहीं है ।।२०-२१।।

न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।
कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा ॥ २२ ॥

वीरश्रेष्ठ! पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दे दिया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’* ||२२||

ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः ।
मनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः ॥ २३ ॥

ययातिको शास्त्रप्रतिकूल होनेके कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्धने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययातिने उसकी बात मान ली ।।२३।।

गते राजनि सा धीरे तत्र स्म रुदती पितुः ।
न्यवेदयत् ततः सर्वं उक्तं शर्मिष्ठया कृतम् ॥ २४ ॥

वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्यके पास पहुँची और शर्मिष्ठाने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया ||२४||

दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् ।
स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥ २५ ॥

शर्मिष्ठाके व्यवहारसे भगवान् शुक्राचार्यजीका भी मन उचट गया। वे पुरोहिताईकी निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजारमेंसे कबूतरकी तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानीको साथ लेकर वे नगरसे निकल पड़े ||२५||

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीक विवक्षितम् ।
गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि ॥ २६ ॥

जब वृषपर्वाको यह मालूम हुआ तो उनके मनमें यह शंका हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओंकी जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करनेके लिये पीछे-पीछे गये और रास्तेमें उनके चरणोंपर सिरके बल गिर गये ।।२६।।

क्षणार्ध मन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः ।
कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ २७ ॥

भगवान् शुक्राचार्यजीका क्रोध तो आधे ही क्षणका था। उन्होंने वृषपर्वासे कहा-‘राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानीको नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलनेमें कोई आपत्ति न होगी’ ||२७||

तथेति अवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम् ।
पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥ २८ ॥

जब वृषपर्वाने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानीने अपने मनकी बात कही। उसने कहा-‘पिताजी मझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ; शर्मिष्ठा अपनी सहेलियोंके साथ मेरी सेवाके लिये वहीं चले’ ।।२८।।

स्वानां तत् संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् ।
देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत् ॥ २९ ॥

शर्मिष्ठाने अपने परिवारवालोंका संकट और उनके कार्यका गौरव देखकर देवयानीकीबात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियोंके साथ दासीके समान उसकी सेवा करने लगी ||२९||

नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना ।
तमाह राजन् शर्मिष्ठां आधास्तल्पे न कर्हिचित् ॥ ३० ॥

शुक्राचार्यजीने देवयानीका विवाह राजा ययातिके साथ कर दिया और शर्मिष्ठाको दासीके रूपमें देकर उनसे कह दिया–’राजन्! इसको अपनी सेजपर कभी न आने देना’ ||३०||

विलोक्यौशनसीं राजन् शर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित् ।
तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती ॥ ३१ ॥

परीक्षित! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठाने भी अपने ऋतुकालमें देवयानीके पति ययातिसे एकान्तमें सहवासकी याचना की ||३१||

राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित् ।
स्मरन् शुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥ ३२ ॥

शर्मिष्ठाकी पत्रके लिये प्रार्थना धर्मसंगत है—यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययातिने शुक्राचार्यकी बात याद रहनेपर भी यही निश्चय किया कि समयपर प्रारब्धके अनुसार जो होना होगा, हो जायगा ||३२||

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ३३ ॥

देवयानीके दो पुत्र हुए-यदु और तुर्वस। तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके तीन पुत्र हुए—द्रा, अनु और पूरु ||३३||

गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी ।
देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता ॥ ३४ ॥

जब मानिनी देवयानीको यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठाको भी मेरे पतिके द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोधसे बेसुध होकर अपने पिताके घर चली गयी ।।३४।।

प्रियां अनुगतः कामी वचोभिः उपमन्त्रयन् ।
न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः ॥ ३५ ॥

कामी ययातिने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदिके द्वारा देवयानीको मनानेकी चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँतक गये भी; परन्तु मना न सके ||३५||

शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष ।
त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम् ॥ ३६ ॥

शुक्राचार्यजीने भी क्रोधमें भरकर ययातिसे कहा-‘तू अत्यन्त स्त्रीलम्पट, मन्दबुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीरमें वह बुढ़ापा आ जाय, जो मनुष्योंको कुरूप कर देता है’ ||३६।।
श्रीययातिरुवाच ।
अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते ।
व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति ॥ ३७ ॥

ययातिने कहा-‘ब्रह्मन्! आपकी पुत्रीके साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शापसे तो आपकी पुत्रीका भी अनिष्ट ही है।’ इसपर शुक्राचार्यजीने कहा -‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नतासे तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’ ||३७।।

इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत ।
यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥ ३८ ॥

मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् ।
वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥ ३९ ॥

शुक्राचार्यजीने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानीमें आकर ययातिने अपने बड़े पुत्र यदुसे कहा-‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नानाका दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र! मैं अभी विषयोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षोंतक और आनन्द भोगूंगा’ ||३८-३९||

श्रीयदुरुवाच ।
नोत्सहे जरसा स्थातुं अन्तरा प्राप्तया तव ।
अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः ॥ ४० ॥

यदुने कहा-‘पिताजी! बिना समयके ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक विषय-सुखका अनुभव नहीं कर लेता, तबतक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’ ।।४०।।

तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत ।
प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः ॥ ४१ ॥

परीक्षित्! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुने भी पिताकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रोंको धर्मका तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीरको ही नित्य माने बैठे थे ।।४१।।

अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।
न त्वं अग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि ॥ ४२ ॥

अब ययातिने अवस्थामें सबसे छोटे किन्तु गुणोंमें बड़े अपने पुत्र पूरुको बुलाकर पूछा और कहा–’बेटा! अपने बड़े भाइयोंके समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये’ ||४२||

श्रीपूरुरुवाच ।
को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान् ।
प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम् ॥ ४३ ॥

पुरुने कहा-‘पिताजी! पिताकी कपासे मनुष्यको परमपदकी प्राप्ति हो सकती है। वास्तवमें पुत्रका शरीर पिताका ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन है, जो इस संसारमें पिताके उपकारोंका बदला चुका सके? ||४३।।

उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः ।
अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितुः ॥ ४४ ॥

उत्तम पुत्र तो वह है जो पिताके मनकी बात बिना कहे ही कर दे। कहनेपर श्रद्धाके साथ आज्ञापालन करनेवाले पुत्रको मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होनेपर भी अश्रद्धासे उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है। और जो किसी प्रकार भी पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिताका मल-मूत्र ही है ।।४४।।

इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः ।
सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप ॥ ४५ ॥

परीक्षित्! इस प्रकार कहकर पूरुने बड़े आनन्दसे अपने पिताका बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयोंका सेवन करने लगे ।।४५||

सप्तद्वीपपतिः सम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः ।
यथोपजोषं विषयान् जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः ॥ ४६ ॥

वे सातों द्वीपोंके एकच्छत्र सम्राट थे। पिताके समान भलीभाँति प्रजाका पालन करते थे। उनकी इन्द्रियोंमें पूरी शक्ति थी
और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयोंका यथेच्छ उपभोग करते थे ||४६||

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग् देहवस्तुभिः ।
प्रेयसः परमां प्रीतिं उवाह प्रेयसी रहः ॥ ४७ ॥

देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययातिको अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओंके द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी; और एकान्तमें सुख देने लगी ||४७||

अयजद् यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ॥ ४८ ॥

राजा ययातिने समस्त वेदोंके प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरिका बहुत-से बड़ीबड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे यजन किया ।।४८।।

यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः ।
नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः ॥ ४९ ॥

जैसे आकाशमें दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्माके स्वरूपमें यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्यके समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपोंके रूपमें प्रतीत होता है और कभी नहीं भी ।।४९।।

तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् ।
नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम् ॥ ५० ॥

वे परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायणको अपने हृदयमें स्थापित करके राजा ययातिने निष्काम भावसे उनका यजन किया ।।५०||

एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम् ।
विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥ ५१ ॥

इस प्रकार एक हजार वर्षतक उन्होंने अपनी उच्छृखल इन्द्रियोंके साथ मनको जोड़कर उसके प्रिय विषयोंको भोगा। परन्तु इतनेपर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययातिकी भोगोंसे तृप्ति न हो सकी ।।५१।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥


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Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

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