RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

श्रीमद् भागवत महापुराण नवम स्कन्ध

श्रीमद् भागवत महापुराण स्कन्ध 9 अध्याय 5

Spread the Glory of Sri SitaRam!

श्रीमद्भागवतपुराणम्
स्कन्धः ९/अध्यायः ५

अंबरीषानुग्रहेण दुर्वाससो दुःखनिवृत्तिः, अंबरीशप्रशंसा, तस्य भगवाद्‌रूपतापत्तीश्च –

श्रीशुक उवाच ।
एवं भगवताऽऽदिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापितः ।
अंबरीषं उपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत् ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब भगवान्ने इस प्रकार आज्ञा दी तब सुदर्शन चक्रकी ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजाके पैर पकड़ लिये ।।१।।

तस्य सोद्यमनं वीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जितः ।
अस्तावीत् तत् हरेः अस्त्रं कृपया पीडितो भृशम् ॥ २ ॥

दुर्वासाजीकी यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़नेसे लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान्के चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था ।।२।।

अंबरीष उवाच ।
त्वमग्निर्भगवान् सूर्यः त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः ।
त्वं आपस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेन्द्रियाणि च ॥ ३ ॥

अम्बरीषने कहा-प्रभो सुदर्शन! आप अग्निस्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डलके अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके रूपमें भी आप ही हैं ।।३।।

सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय ।
सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते ॥ ४ ॥

भगवान्के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्रशस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वीके रक्षक! आप इन ब्राह्मणकी रक्षा कीजिये ।।४।।

त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक् ।
त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम् ॥ ५ ॥

आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञोंके अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकोंके रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परमात्माके श्रेष्ठ तेज हैं ||५||

नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे
ह्यधर्मशीलासुरधूमकेतवे ।
त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे
मनोजवायाद्‍भुतकर्मणे गृणे ॥ ६ ॥

सुनाभ! आप समस्त धर्मोंकी मर्यादाके रक्षक हैं। अधर्मका आचरण करनेवाले असुरोंको भस्म करनेके लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकोंके रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मनके वेगके समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ ।।६।।

त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं
तमः प्रकाशश्च दृशो महात्मनाम् ।
दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पते
त्वद् रूपमेतत् सदसत् परावरम् ॥ ७ ॥

वेदवाणीके अधीश्वर! आपके धर्ममय तेजसे अन्धकारका नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषों के प्रकाशकी रक्षा होती है। आपकी महिमाका पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचेनीचे और छोटे-बड़ेके भेदभावसे युक्त यह समस्त कार्य-कारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है ||७||

यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै
बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम् ।
बाहूदरोर्वङ्‌घ्रिशिरोधराणि
वृक्णन् अजस्रं प्रधने विराजसे ॥ ८ ॥

सुदर्शन चक्र! आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजनभगवान आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवोंकी सेनामें प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमिमें उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं ।।८।।

स त्वं जगत्त्राण खलप्रहाणये
निरूपितः सर्वसहो गदाभृता ।
विप्रस्य चास्मत् कुलदैवहेतवे
विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः ॥ ९ ॥

विश्वके रक्षक! आप रणभूमिमें सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्ने दुष्टोंके नाशके लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भाग्योदयके लिये दर्वासाजीका कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा ।।९।।

यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।
कुलं नो विप्रदैवं चेद् द्विजो भवतु विज्वरः ॥ १० ॥

यदि मैंने कुछ भी दान किया अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजीकी जलन मिट जाय ।।१०||

यदि नो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः ।
सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः ॥ ११ ॥

भगवान् समस्त गुणोंके एक-मात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें उन्हें देखा हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजीके हृदयकी सारी जलन मिट जाय ।।११।।

श्रीशुक उवाच ।
इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम् ।
अशाम्यत् सर्वतो विप्रं प्रदहद् राजयाच्ञया ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब राजा अम्बरीषने दुर्वासाजीको सब ओरसे जलानेवाले भगवान्के सुदर्शन चक्रकी इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थनासे चक्र शान्त हो गया ||१२||

स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमान् ततः ।
प्रशशंस तमुर्वीशं युञ्जानः परमाशिषः ॥ १३ ॥

जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ।।१३।।
दुर्वासा उवाच ।
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे ।
कृतागसोऽपि यद् राजन् मंगलानि समीहसे ॥ १४ ॥

दुर्वासाजीने कहा-धन्य है! आज मैंने भगवान्के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं ।।१४।।

दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् ।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतां ऋषभो हरिः ॥ १५ ॥

जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिके चरण-कमलोंको दृढ़ प्रेमभावसे पकड़ लिया हैउन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते? ||१५||

यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः ।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानां अवशिष्यते ॥ १६ ॥

जिनके मंगलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता है—उन्हीं तीर्थपाद भगवान्के चरणकमलोंके जो दास हैं, उनके लिये कौनसा कर्तव्य शेष रह जाता है? ||१६||

राजन् अनुगृहीतोऽहं त्वयातिकरुणात्मना ।
मद् अघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः ॥ १७ ॥

महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है! ।।१७।।

राजा तं अकृताहारः प्रत्यागमनकांक्षया ।
चरणौ उवुपसंगृह्य प्रसाद्य समभोजयत् ॥ १८ ॥

परीक्षित्! जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया ।।१८।।

सोऽशित्वादृतमानीतं आतिथ्यं सार्वकामिकम् ।
तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतां इति सादरम् ॥ १९ ॥

राजा अम्बरीष बड़े आदरसे अतिथिके योग्य सब प्रकारकी भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासाजी भोजन करके तप्त हो गये। अब उन्होंने आदरसे कहा-‘राजन्! अब आप भी भोजन कीजिये ।।१९।।

प्रीतोऽस्मि अनुगृहीतोऽस्मि तव भागवतस्य वै ।
दर्शनस्पर्शनालापैः आतिथ्येनात्ममेधसा ॥ २० ॥

अम्बरीष! आप भगवानके परम प्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मनको भगवानकी ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ ||२०||

कर्मावदातं एतत् ते गायन्ति स्वःस्त्रियो मुहुः ।
कीर्तिं परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम् ॥ २१ ॥

स्वर्गकी देवांगनाएँ बार-बार आपके इस उज्ज्वल चरित्रका गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्तिका संकीर्तन करती रहेगी’ ||२१||

श्रीशुक उवाच ।
एवं संकीर्त्य राजानं दुर्वासाः परितोषितः ।
ययौ विहायसाऽऽमंत्र्य ब्रह्मलोकमहैतुकम् ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-दुर्वासाजीने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीषके गुणोंकी प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्गसे उस ब्रह्मलोककी यात्रा की जो केवल निष्काम कर्मसे ही प्राप्त होता है ।।२२।।

संवत्सरोऽत्यगात् तावद् यावता नागतो गतः ।
मुनिस्तद्दर्शनाकांक्षो राजाऽब्भक्षो बभूव ह ॥ २३ ॥

परीक्षित्! जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटनेतक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकांक्षासे केवल जल पीकर ही रहे ।।२३।।

गतेऽथ दुर्वाससि सोऽम्बरीषो
द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत् ।
ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्ध्वा
मेने स्ववीर्यं च परानुभावम् ॥ २४ ॥

जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्नका उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजीका दुःखमें पड़ना और फिर अपनी ही प्रार्थनासे उनका छूटना-इन दोनों बातोंको उन्होंने अपने द्वारा होनेपर भी भगवान्की ही महिमा समझा ।।२४।।

एवं विधानेकगुणः स राजा
परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे ।
क्रियाकलापैः समुवाह भक्तिं
ययाऽऽविरिञ्च्यान् निरयांश्चकार ॥ २५ ॥

राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवानमें भक्तिभावकी अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्तिके प्रभावसे उन्होंने ब्रह्मलोकतकके समस्त भोगोंको नरकके समान समझा ।।२५||

श्रीशुक उवाच ।
अथाम्बरीषस्तनयेषु राज्यं
समानशीलेषु विसृज्य धीरः ।
वनं विवेशात्मनि वासुदेवे
मनो दधद् ध्वस्तगुणप्रवाहः ॥ २६ ॥

तदनन्तर राजा अम्बरीषने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरताके साथ आत्मस्वरूप भगवान्में अपना मन लगाकर गुणोंके प्रवाहरूप संसारसे मुक्त हो गये ||२६||

इत्येतत् पुण्यमाख्यानं अंबरीषस्य भूपतेः ।
संकीर्तयन् अनुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत् ॥ २७ ॥

परीक्षित्! महाराज अम्बरीषका यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्का भक्त हो जाता है ।।२७।।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shweta Srinet

गरिमा जी संस्कृत भाषा में परास्नातक एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण हैं। यह RamCharit.in हेतु 2018 से सतत पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कार्य कर रही हैं। धार्मिक ग्रंथों को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सरलता से उपलब्ध कराने का कार्य इसके द्वारा ही निष्पादित होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: