RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 30 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 30

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अरण्यकाण्डम्
त्रिंशः सर्गः (सर्ग 30)

श्रीराम के व्यङ्ग करने पर खर का उनके ऊपर साल वृक्ष का प्रहार करना, श्रीराम का तेजस्वी बाण से खर को मार गिराना

 

भित्त्वा तु तां गदां बाणै राघवो धर्मवत्सलः।
स्मयमान इदं वाक्यं संरब्धमिदमब्रवीत्॥१॥

धर्म प्रेमी भगवान् श्रीराम ने अपने बाणों द्वारा खर की उस गदा को विदीर्ण करके मुसकराते हुए यह रोषसूचक बात कही— ॥१॥

एतत् ते बलसर्वस्वं दर्शितं राक्षसाधम।
शक्तिहीनतरो मत्तो वृथा त्वमुपगर्जसि॥२॥

‘राक्षसाधम! यही तेरा सारा बल है, जिसे तूने इस गदा के साथ दिखाया है। अब सिद्ध हो गया कि तू मुझसे अत्यन्त शक्तिहीन है व्यर्थ ही अपने बल की डींग हाँक रहा था॥२॥

एषा बाणविनिर्भिन्ना गदा भूमितलं गता।
अभिधानप्रगल्भस्य तव प्रत्ययघातिनी॥३॥

‘मेरे बाणों से छिन्न-भिन्न होकर तेरी यह गदा पृथ्वी पर पड़ी हुई है। तेरे मन में जो यह विश्वास था कि मैं इस गदा से शत्रु का वध कर डालूँगा, इसका खण्डन तेरी इस गदा ने ही कर दिया। अब यह स्पष्ट हो गया कि तू केवल बातें बनाने में ढीठ है (तुझसे कोई पराक्रम नहीं हो सकता) ॥ ३॥

यत् त्वयोक्तं विनष्टानामिदमश्रुप्रमार्जनम्।
राक्षसानां करोमीति मिथ्या तदपि ते वचः॥४॥

‘तूने जो यह कहा था कि मैं तुम्हारा वध करके तुम्हारे हाथ से मारे गये राक्षसों का अभी आँसू पोछूगा, तेरी वह बात भी झूठी हो गयी॥ ४॥

नीचस्य क्षुद्रशीलस्य मिथ्यावृत्तस्य रक्षसः।
प्राणानपहरिष्यामि गरुत्मानमृतं यथा॥५॥

‘तू नीच, क्षुद्रस्वभाव से युक्त और मिथ्याचारी राक्षस है। मैं तेरे प्राणों को उसी प्रकार हर लूँगा, जैसे गरुड़ने देवताओं के यहाँ से अमृत का अपहरण किया था॥५॥

अद्य ते भिन्नकण्ठस्य फेनबुबुदभूषितम्।
विदारितस्य मद्बाणैर्मही पास्यति शोणितम्॥

‘अब मैं अपने बाणों से तेरे शरीर को विदीर्ण करके तेरा गला भी काट डालूँगा। फिर यह पृथ्वी फेन और बुदबुदों से युक्त तेरे गरम-गरम रक्त का पान करेगी।

पांसुरूषितसर्वाङ्गः स्रस्तन्यस्तभुजदयः।
स्वप्स्यसे गां समाश्लिष्य दुर्लभां प्रमदामिव॥ ७॥

‘तेरे सारे अङ्ग धूल से धूसर हो जायेंगे, तेरी दोनों भुजाएँ शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिर जायँगी और उस दशा में तू दुर्लभ युवती के समान इस पृथ्वी का आलिङ्गन करके सदा के लिये सो जायगा॥ ७॥

प्रवृद्धनिद्रे शयिते त्वयि राक्षसपांसने।
भविष्यन्ति शरण्यानां शरण्या दण्डका इमे॥ ८॥

‘तेरे-जैसे राक्षसकुलकलङ्क के सदा के लिये महानिद्रा में सो जाने पर ये दण्डकवन के प्रदेश शरणार्थियों को शरण देने वाले हो जायेंगे॥ ८॥

जनस्थाने हतस्थाने तव राक्षस मच्छरैः।
निर्भया विचरिष्यन्ति सर्वतो मुनयो वने॥९॥

‘राक्षस! मेरे बाणों से जनस्थान में बने हुए तेरे निवासस्थान के नष्ट हो जाने पर मुनिगण इस वन में सब ओर निर्भय विचर सकेंगे॥९॥

अद्य विप्रसरिष्यन्ति राक्षस्यो हतबान्धवाः।
बाष्पार्द्रवदना दीना भयादन्यभयावहाः॥१०॥

‘जो अबतक दूसरों को भय देती थीं, वे राक्षसियाँ आज अपने बान्धवजनों के मारे जाने से दीन हो आँसुओं से भींगे मुँह लिये जनस्थान से स्वयं ही भय के कारण भाग जायँगी॥१०॥

अद्य शोकरसज्ञास्ता भविष्यन्ति निरर्थिकाः।
अनुरूपकुलाः पत्न्यो यासां त्वं पतिरीदृशः॥ ११॥

‘जिनका तुझ-जैसा दुराचारी पति है, वे तदनुरूप कुलवाली तेरी पत्नियाँ आज तेरे मारे जाने पर काम आदि पुरुषार्थों से वञ्चित हो शोकरूपी स्थायी भाव वाले करुण रस का अनुभव करने वाली होंगी॥ ११॥

नृशंसशील क्षुद्रात्मन् नित्यं ब्राह्मणकण्टक।
त्वत्कृते शङ्कितैरग्नौ मुनिभिः पात्यते हविः॥ १२॥

‘क्रूरस्वभाववाले निशाचर ! तेरा हृदय सदा ही क्षुद्र विचारों से भरा रहता है। तू ब्राह्मणों के लिये कण्टकरूप है। तेरे ही कारण मुनिलोग शङ्कित रहकर ही अग्नि में हविष्य की आहुतियाँ डालते हैं’ ॥ १२॥

तमेवमभिसंरब्धं ब्रुवाणं राघवं वने।
खरो निर्भर्त्सयामास रोषात् खरतरस्वरः॥१३॥

वन में श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार रोषपूर्ण बातें कह रहे थे, उस समय क्रोध के कारण खर का भी स्वर अत्यन्त कठोर हो गया और उसने उन्हें फटकारते हुए कहा- ॥ १३॥

दृढं खल्ववलिप्तोऽसि भयेष्वपि च निर्भयः।
वाच्यावाच्यं ततो हि त्वं मृत्योर्वश्यो न बुध्यसे॥ १४॥

‘अहो! निश्चय ही तुम बड़े घमंडी हो, भय के अवसरों पर भी निर्भय बने हुए हो। जान पड़ता है कि तुम मृत्यु के अधीन हो गये हो, इस कारण से ही तुम्हें यह भी पता नहीं है कि कब क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये? ॥ १४ ॥

कालपाशपरिक्षिप्ता भवन्ति पुरुषा हि ये।
कार्याकार्यं न जानन्ति ते निरस्तषडिन्द्रियाः॥

‘जो पुरुष काल के फन्दे में फँस जाते हैं, उनकी छहों इन्द्रियाँ बेकाम हो जाती हैं; इसीलिये उन्हें कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान नहीं रह जाता है’। १५॥

एवमुक्त्वा ततो रामं संरुध्य भृकुटिं ततः।
स ददर्श महासालमविदूरे निशाचरः॥१६॥
रणे प्रहरणस्यार्थे सर्वतो ह्यवलोकयन्।
स तमुत्पाटयामास संदष्टदशनच्छदम्॥१७॥

ऐसा कहकर उस निशाचर ने एक बार श्रीराम की ओर भौहें टेढ़ी करके देखा और रणभूमि में उनपर प्रहार करने के लिये वह चारों ओर दृष्टिपात करने लगा। इतने में ही उसे एक विशाल साखू का वृक्ष दिखायी दिया, जो निकट ही था। खर ने अपने होठों को दाँतों से दबाकर उस वृक्ष को उखाड़ लिया। १६-१७॥

तं समुत्क्षिप्य बाहुभ्यां विनर्दित्वा महाबलः।
राममुद्दिश्य चिक्षेप हतस्त्वमिति चाब्रवीत्॥१८॥

फिर उस महाबली निशाचर ने विकट गर्जना करके दोनों हाथों से उस वृक्ष को उठा लिया और श्रीराम पर दे मारा। साथ ही यह भी कहा—’लो, अब तुम मारे गये’ ॥ १८॥

तमापतन्तं बाणौधैश्छित्त्वा रामः प्रतापवान्।
रोषमाहारयत् तीव्र निहन्तुं समरे खरम्॥१९॥

परमप्रतापी भगवान् श्रीराम ने अपने ऊपर आते हुए उस वृक्ष को बाण-समूहों से काट गिराया और उस समरभूमि में खर को मार डालने के लिये अत्यन्त क्रोध प्रकट किया॥ १९॥

जातस्वेदस्ततो रामो रोषरक्तान्तलोचनः।
निर्बिभेद सहस्रेण बाणानां समरे खरम्॥२०॥

उस समय श्रीराम के शरीर में पसीना आ गया। उनके नेत्रप्रान्त रोष से रक्तवर्ण के हो गये। उन्होंने सहस्रों बाणों का प्रहार करके समराङ्गण में खर को क्षत-विक्षत कर दिया॥२०॥

तस्य बाणान्तराद् रक्तं बहु सुस्राव फेनिलम्।
गिरेः प्रस्रवणस्येव धाराणां च परिस्रवः ॥२१॥

उनके बाणों के आघात से उस निशाचर के शरीर में जो घाव हुए थे, उनसे अधिक मात्रा में फेनयुक्त रक्त प्रवाहित होने लगा, मानो पर्वत के झरने से जल की धाराएँ गिर रही हों॥ २१॥

विकलः स कृतो बाणैः खरो रामेण संयुगे।
मत्तो रुधिरगन्धेन तमेवाभ्यद्रवद् द्रुतम्॥२२॥

श्रीराम ने युद्धस्थल में अपने बाणों की मार से खर को व्याकुल कर दिया; तो भी (उसका साहस कम नहीं हुआ।) वह खून की गन्ध से उन्मत्त होकर बड़े वेग से श्रीराम की ओर ही दौड़ा॥२२॥

तमापतन्तं संक्रुद्धं कृतास्त्रो रुधिराप्लुतम्।
अपासर्पद द्वित्रिपदं किंचित्त्वरितविक्रमः॥ २३॥

अस्त्र-विद्या के ज्ञाता भगवान् श्रीराम ने देखा कि यह राक्षस खून से लथपथ होने पर भी अत्यन्त क्रोधपूर्वक मेरी ही ओर बढ़ा आ रहा है तो वे तुरंत चरणों का संचालन करके दो-तीन पग पीछे हट गये (क्योंकि बहुत निकट होने पर बाण चलाना सम्भव नहीं हो सकता था) ॥ २३॥

ततः पावकसंकाशं वधाय समरे शरम्।
खरस्य रामो जग्राह ब्रह्मदण्डमिवापरम्॥२४॥

तदनन्तर श्रीराम ने समराङ्गण में खर का वध करने के लिये एक अग्नि के समान तेजस्वी बाण हाथ में लिया, जो दूसरे ब्रह्मदण्ड के समान भयंकर था॥ २४ ॥

स तद् दत्तं मघवता सुरराजेन धीमता।
संदधे च स धर्मात्मा मुमोच च खरं प्रति॥२५॥

वह बाण बुद्धिमान् देवराज इन्द्र का दिया हुआ था। धर्मात्मा श्रीराम ने उसे धनुष पर रखा और खर को लक्ष्य करके छोड़ दिया॥ २५॥

स विमुक्तो महाबाणो निर्घातसमनिःस्वनः।
रामेण धनुरायम्य खरस्योरसि चापतत्॥ २६॥

उस महाबाण के छूटते ही वज्रपात के समान भयानक शब्द हुआ। श्रीराम ने अपने धनुष को कान तक खींचकर उसे छोड़ा था। वह खर की छाती में जा लगा॥ २६॥

स पपात खरो भूमौ दह्यमानः शराग्निना।
रुद्रेणेव विनिर्दग्धः श्वेतारण्ये यथान्धकः॥२७॥

जैसे श्वेतवन में भगवान् रुद्र ने अन्धकासुर को जलाकर भस्म किया था, उसी प्रकार दण्डकवन में श्रीराम के उस बाण की आग में जलता हुआ निशाचर खर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ २७॥

स वृत्र इव वज्रेण फेनेन नमुचिर्यथा।
बलो वेन्द्राशनिहतो निपपात हतः खरः॥२८॥

जैसे वज्र से वृत्रासुर, फेन से नमुचि और इन्द्र की अशनि से बलासुर मारा गया था, उसी प्रकार श्रीराम के उस बाण से आहत होकर खर धराशायी हो गया॥२८॥

एतस्मिन्नन्तरे देवाश्चारणैः सह संगताः।
दुन्दुभीश्चाभिनिघ्नन्तः पुष्पवर्षं समन्ततः॥२९॥
रामस्योपरि संहृष्टा ववर्षुर्विस्मितास्तदा।
अर्धाधिकमुहूर्तेन रामेण निशितैः शरैः॥३०॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां कामरूपिणाम्।
खरदूषणमुख्यानां निहतानि महामृधे॥३१॥

इसी समय देवता चारणों के साथ मिलकर आये और हर्ष में भरकर दुन्दुभि बजाते हुए वहाँ श्रीराम के ऊपर चारों ओर से फूलों की वर्षा करने लगे। उस समय उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था कि श्रीराम ने अपने पैने बाणों से डेढ़ मुहूर्त में ही इच्छानुसार रूप धारण करने वाले खर-दूषण आदि चौदह हजार राक्षसों का इस महासमर में संहार कर डाला॥ २९–३१॥

अहो बत महत्कर्म रामस्य विदितात्मनः।
अहो वीर्यमहो दाढयं विष्णोरिव हि दृश्यते॥ ३२॥

वे बोले—’अहो! अपने स्वरूप को जानने वाले भगवान् श्रीराम का यह कर्म महान् और अद्भुत है, इनका बल-पराक्रम भी अद्भुत है और इनमें भगवान् विष्णु की भाँति आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखायी देती है ॥ ३२॥

इत्येवमुक्त्वा ते सर्वे ययुर्देवा यथागतम्।
ततो राजर्षयः सर्वे संगताः परमर्षयः॥३३॥
सभाज्य मुदिता रामं सागस्त्या इदमब्रुवन्।

ऐसा कहकर वे सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। तदनन्तर बहुत-से राजर्षि और अगस्त्य आदि महर्षि मिलकर वहाँ आये तथा प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम का सत्कार करके उनसे इस प्रकार बोले- ॥ ३३ १/२॥

एतदर्थं महातेजा महेन्द्रः पाकशासनः॥ ३४॥
शरभङ्गाश्रमं पुण्यमाजगाम पुरंदरः।
आनीतस्त्वमिमं देशमुपायेन महर्षिभिः॥ ३५॥

‘रघुनन्दन! इसीलिये महातेजस्वी पाकशासन पुरंदर इन्द्र शरभङ्ग मुनि के पवित्र आश्रम पर आये थे और इसी कार्य की सिद्धि के लिये महर्षियों ने विशेष उपाय करके आपको पञ्चवटी के इस प्रदेश में पहुँचाया था। ३४-३५॥

एषां वधार्थं शत्रूणां रक्षसां पापकर्मणाम्।
तदिदं नः कृतं कार्यं त्वया दशरथात्मज ॥३६॥
स्वधर्मं प्रचरिष्यन्ति दण्डकेषु महर्षयः।

‘मुनियों के शत्रुरूप इन पापाचारी राक्षसों के वध के लिये ही आपका यहाँ शुभागमन आवश्यक समझा गया था। दशरथनन्दन! आपने हमलोगोंका यह बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया। अब बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दण्डकारण्य के विभिन्न प्रदेशों में निर्भय होकर अपने धर्म का अनुष्ठान करेंगे’॥ ३६ १/२ ॥

एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणः सह सीतया।
गिरिदुर्गाद् विनिष्क्रम्य संविवेशाश्रमे सुखी॥ ३७॥

इसी बीच में वीर लक्ष्मण भी सीता के साथ पर्वत की कन्दरा से निकलकर प्रसन्नतापूर्वक आश्रम में आ गये॥

ततो रामस्तु विजयी पूज्यमानो महर्षिभिः॥ ३८॥
प्रविवेशाश्रमं वीरो लक्ष्मणेनाभिपूजितः।

तत्पश्चात् महर्षियों से प्रशंसित और लक्ष्मण से पूजित विजयी वीर श्रीराम ने आश्रम में प्रवेश किया। ३८ १/२॥

तं दृष्ट्वा शत्रुहन्तारं महर्षीणां सुखावहम्॥३९॥
बभूव हृष्टा वैदेही भर्तारं परिषस्वजे।
मुदा परमया युक्ता दृष्ट्वा रक्षोगणान् हतान्।
रामं चैवाव्ययं दृष्ट्वा तुतोष जनकात्मजा॥४०॥

महर्षियों को सुख देने वाले अपने शत्रुहन्ता पति का दर्शन करके विदेहराजनन्दिनी सीता को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने परमानन्द में निमग्न होकर अपने स्वामी का आलिङ्गन किया। राक्षस-समूह मारे गये
और श्रीराम को कोई क्षति नहीं पहँची—यह देख और जानकर जानकी जीको बहुत संतोष हुआ॥ ३९-४०॥

ततस्तु तं राक्षससङ्घमर्दनं सम्पूज्यमानं मुदितैर्महात्मभिः।
पुनः परिष्वज्य मुदान्वितानना बभूव हृष्टा जनकात्मजा तदा॥४१॥

प्रसन्नता से भरे हुए महात्मा मुनि जिनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे तथा जिन्होंने राक्षसों के समुदाय को कुचल डाला था, उन प्राणवल्लभ, श्रीराम का बारम्बार आलिङ्गन करके उस समय जनकनन्दिनी सीता को बड़ा हर्ष हुआ उनका मुख प्रसन्नता से खिल उठा॥ ४१॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिंशः सर्गः॥३०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३०॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड सर्ग 30 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Aranyakanda Chapter 30

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: