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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 109

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
नवाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 109)

श्रीराम के द्वारा जाबालि के नास्तिक मत का खण्डन करके आस्तिक मत का स्थापना

 

जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः।
उवाच परया सूक्त्या बुद्ध्याविप्रतिपन्नया॥१॥

जाबालि का यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी ने अपनी संशयरहित बुद्धि के द्वारा श्रुतिसम्मत सदुक्ति का आश्रय लेकर कहा- ॥१॥

भवान् मे प्रियकामार्थं वचनं यदिहोक्तवान्।
अकार्यं कार्यसंकाशमपथ्यं पथ्य संनिभम्॥२॥

‘विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से यहाँ जो बात कही है, वह कर्तव्य-सी दिखायी देती है; किंतु वास्तव में करने योग्य नहीं है। वह पथ्य-सी दीखने पर भी वास्तव में अपथ्य है॥२॥

निर्मर्यादस्तु पुरुषः पापाचारसमन्वितः।
मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शनः॥३॥

‘जो पुरुष धर्म अथवा वेद की मर्यादा को त्याग देता है, वह पापकर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उसके आचार और विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं; इसलिये वह सत्पुरुषों में कभी सम्मान नहीं पाता है॥३॥

कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्।
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाशुचिम्॥ ४॥

‘आचार ही यह बताता है कि कौन पुरुष उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है और कौन अधम कुल में, कौन वीर है और कौन व्यर्थ ही अपने को पुरुष मानता है तथा कौन पवित्र है और कौन अपवित्र?॥ ४॥

अनार्यस्त्वार्य संस्थानः शौचाद्धीनस्तथा शुचिः।
लक्षण्यवदलक्षण्यो दुःशीलः शीलवानिव॥५॥

‘आपने जो आचार बताया है, उसे अपनाने वाला पुरुष श्रेष्ठ-सा दिखायी देने पर भी वास्तव में अनार्य होगा। बाहर से पवित्र दीखने पर भी भीतर से अपवित्र होगा। उत्तम लक्षणों से युक्त-सा प्रतीत होने पर भी वास्तव में उसके विपरीत होगा तथा शीलवान्-सा दीखने पर भी वस्तुतः वह दुःशील ही होगा॥ ५॥

अधर्मं धर्मवेषेण यद्यहं लोकसंकरम्।
अभिपत्स्ये शुभं हित्वा क्रियां विधिविवर्जिताम्॥ ६॥
कश्चेतयानः पुरुषः कार्याकार्यविचक्षणः।
बहु मन्येत मां लोके दुर्वृत्तं लोकदूषणम्॥७॥

‘आपका उपदेश चोला तो धर्म का पहने हुए है, किंतु वास्तव में अधर्म है। इससे संसार में वर्ण संकरता का प्रचार होगा। यदि मैं इसे स्वीकार करके वेदोक्त शुभकर्मों का अनुष्ठान छोड़ दूँ और विधिहीन कर्मों में लग जाऊँ तो कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान रखने वाला कौन समझदार मनुष्य मुझे श्रेष्ठ समझकर आदर देगा? उस दशा में तो मैं इस जगत् में दुराचारी तथा लोक को कलङ्कित करने वाला समझा जाऊँगा। ६-७॥

कस्य यास्याम्यहं वृत्तं केन वा स्वर्गमाप्नुयाम्।
अनया वर्तमानोऽहं वृत्त्या हीनप्रतिज्ञया॥८॥

‘जहाँ अपनी की हुई प्रतिज्ञा तोड़ दी जाती है, उस वृत्ति के अनुसार बर्ताव करने पर मैं किस साधन से स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा तथा आपने जिस आचार का उपदेश दिया है, वह किसका है, जिसका मुझे अनुसरण करना होगा; क्योंकि आपके कथनानुसार मैं पिता आदि में से किसी का कुछ भी नहीं हूँ॥८॥

कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुपवर्तते।
यद्धृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ॥९॥

‘आपके बताये हुए मार्ग से चलने पर पहले तो मैं स्वेच्छाचारी हूँगा। फिर यह सारा लोक स्वेच्छाचारी हो जायगा; क्योंकि राजाओं के जैसे आचरण होते हैं, प्रजा भी वैसा ही आचरण करने लगती है।॥९॥

सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम्।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठितः॥ १०॥

‘सत्य का पालन ही राजाओं का दयाप्रधान धर्म है – सनातन आचार है, अतः राज्य सत्यस्वरूप है। सत्य में ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है॥ १० ॥

ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेव हि मेनिरे।
सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन् परं गच्छति चाक्षयम्॥ ११॥

‘ऋषियों और देवताओं ने सदा सत्य का ही आदर किया है। इस लोक में सत्यवादी मनुष्य अक्षय परम धाम में जाता है॥ ११॥

उद्विजन्ते यथा सोन्नरादनृतवादिनः।
धर्मः सत्यपरो लोके मूलं सर्वस्य चोच्यते॥१२॥

‘झूठ बोलने वाले मनुष्य से सब लोग उसी तरह डरते हैं, जैसे साँप से संसार में सत्य ही धर्म की पराकाष्ठा है और वही सबका मूल कहा जाता है। १२॥

सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्॥ १३॥

‘जगत् में सत्य ही ईश्वर है। सदा सत्य के ही आधार पर धर्म की स्थिति रहती है। सत्य ही सबकी जड़ है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई परम पद नहीं है॥ १३॥

दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च।
वेदाः सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत्॥ १४॥

‘दान, यज्ञ, होम, तपस्या और वेद-इन सबका आधार सत्य ही है; इसलिये सबको सत्यपरायण होना चाहिये॥१४॥

एकः पालयते लोकमेकः पालयते कुलम्।
मज्जत्येको हि निरय एकः स्वर्गे महीयते॥१५॥

‘एक मनुष्य सम्पूर्ण जगत् का पालन करता है, एक समूचे कुल का पालन करता है, एक नरक में डूबता है और एक स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। १५॥

सोऽहं पितुर्निदेशं तु किमर्थं नानुपालये।
सत्यप्रतिश्रवः सत्यं सत्येन समयीकृतम्॥१६॥

‘मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ और सत्य की शपथ खाकर पिता के सत्य का पालन स्वीकार कर चुका हूँ, ऐसी दशा में मैं पिता के आदेश का किसलिये पालन नहीं करूँ? ॥ १६॥

नैव लोभान्न मोहाद् वा न चाज्ञानात् तमोऽन्वितः।
सेतुं सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्यप्रतिश्रवः॥ १७॥

‘पहले सत्यपालन की प्रतिज्ञा करके अब लोभ, मोह अथवा अज्ञान से विवेकशून्य होकर मैं पिता के सत्य की मर्यादा भङ्ग नहीं करूँगा॥१७॥

असत्यसंधस्य सतश्चलस्यास्थिरचेतसः।
नैव देवा न पितरः प्रतीच्छन्तीति नः श्रुतम्॥ १८॥

‘हमने सुना है कि जो अपनी प्रतिज्ञा झूठी करने के कारण धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, उस चञ्चल चित्तवाले पुरुष के दिये हुए हव्य-कव्य को देवता और पितर नहीं स्वीकार करते हैं।॥ १८ ॥

प्रत्यगात्ममिमं धर्मं सत्यं पश्याम्यहं ध्रुवम्।
भारः सत्पुरुषैश्चीर्णस्तदर्थमभिनन्द्यते॥१९॥

‘मैं इस सत्यरूपी धर्म को समस्त प्राणियों के लिये हितकर और सब धर्मों में श्रेष्ठ समझता हूँ। सत्पुरुषों ने जटा-वल्कल आदि के धारणरूप तापस धर्म का पालन किया है, इसलिये मैं भी उसका अभिनन्दन करता हूँ॥

क्षात्रं धर्ममहं त्यक्ष्ये ह्यधर्मं धर्मसंहितम्।
क्षुद्रैर्नृशंसैलुब्धैश्च सेवितं पापकर्मभिः ॥२०॥

‘जो धर्मयुक्त प्रतीत हो रहा है, किंतु वास्तव में अधर्म रूप है, जिसका नीच, क्रूर, लोभी और पापाचारी पुरुषों ने सेवन किया है, ऐसे क्षात्र धर्म का (पिता की आज्ञा भङ्ग करके राज्य ग्रहण करने का) मैं अवश्य त्याग करूँगा (क्योंकि वह न्याययुक्त नहीं है) ॥२०॥

कायेन कुरुते पापं मनसा सम्प्रधार्य तत्।
अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम्॥ २१॥

‘मनुष्य अपने शरीरसे जो पाप करता है, उसे पहले मनके द्वारा कर्तव्यरूपसे निश्चित करता है। फिर जिह्वाकी सहायतासे उस अनृत कर्म (पाप) को वाणीद्वारा दूसरोंसे कहता है, तत्पश्चात् औरोंके सहयोगसे उसे शरीरद्वारा सम्पन्न करता है। इस तरह एक ही पातक कायिक, वाचिक और मानसिक भेदसे तीन प्रकारका होता है॥ २१॥

भूमिः कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः पुरुषं प्रार्थयन्ति हि।
सत्यं समनुवर्तन्ते सत्यमेव भजेत् ततः॥२२॥

‘पृथ्वी, कीर्ति, यश और लक्ष्मी—ये सब-की-सब सत्यवादी पुरुष को पाने की इच्छा रखती हैं और शिष्ट पुरुष सत्य का ही अनुसरण करते हैं, अतः मनुष्य को सदा सत्य का ही सेवन करना चाहिये॥ २२ ॥

श्रेष्ठं ह्यनार्यमेव स्याद् यद् भवानवधार्य माम्।
आह युक्तिकरैर्वाक्यैरिदं भद्रं कुरुष्व ह ॥ २३॥

‘आपने उचित सिद्ध करके तर्कपूर्ण वचनों के द्वारा मुझसे जो यह कहा है कि राज्य ग्रहण करने में ही कल्याण है; अतः इसे अवश्य स्वीकार करो। आपका यह आदेश श्रेष्ठ-सा प्रतीत होने पर भी सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण में लाने योग्य नहीं है (क्योंकि इसे स्वीकार करने से सत्य और न्याय का उल्लङ्घन होता है) ॥२३॥

कथं ह्यहं प्रतिज्ञाय वनवासमिमं गुरोः।
भरतस्य करिष्यामि वचो हित्वा गुरोर्वचः॥२४॥

‘मैं पिताजी के सामने इस तरह वन में रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अब उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन करके मैं भरत की बात कैसे मान लूंगा॥ २४॥

स्थिरा मया प्रतिज्ञाता प्रतिज्ञा गुरुसंनिधौ।
प्रहृष्टमानसा देवी कैकेयी चाभवत् तदा॥ २५॥

‘गुरु के समीप की हुई मेरी वह प्रतिज्ञा अटल है। किसी तरह तोड़ी नहीं जा सकती। उस समय जबकि मैंने प्रतिज्ञा की थी, देवी कैकेयी का हृदय हर्ष से खिल उठा था॥ २५॥

वनवासं वसन्नेव शुचिनियतभोजनः।
मूलपुष्पफलैः पुण्यैः पितॄन् देवांश्च तर्पयन्॥ २६॥

‘मैं वन में ही रहकर बाहर-भीतर से पवित्र हो नियमित भोजन करूँगा और पवित्र फल, मूल एवं पुष्पों द्वारा देवताओं और पितरों को तृप्त करता हुआ प्रतिज्ञा का पालन करूँगा॥ २६॥

संतुष्टपञ्चवर्गोऽहं लोकयात्रां प्रवाहये।
अकुहः श्रद्दधानः सन् कार्याकार्यविचक्षणः॥ २७॥

‘क्या करना चाहिये और क्या नहीं, इसका निश्चय मैं कर चुका हूँ। अतः फल-मूल आदि से पाँचों इन्द्रियों को संतुष्ट करके निश्छल, श्रद्धापूर्वक लोकयात्रा (पिता की आज्ञा के पालनरूप व्यवहार) का निर्वाह करूँगा॥ २७॥

कर्मभूमिमिमां प्राप्य कर्तव्यं कर्म यच्छुभम्।
अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः॥ २८॥

‘इस कर्मभूमि को पाकर जो शुभ कर्म हो, उसका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि अग्नि, वायु तथा सोम भी कर्मो के ही फल से उन-उन पदों के भागी हुए

शतं क्रतूनामाहृत्य देवराट् त्रिदिवं गतः।
तपांस्युग्राणि चास्थाय दिवं प्राप्ता महर्षयः॥ २९॥

‘देवराज इन्द्र सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं। महर्षियों ने भी उग्र तपस्या करके दिव्य लोकों में स्थान प्राप्त किया है’ ॥ २९॥

अमृष्यमाणः पुनरुग्रतेजा निशम्य तन्नास्तिकवाक्यहेतुम्।
अथाब्रवीत् तं नृपतेस्तनूजो विगर्हमाणो वचनानि तस्य॥३०॥

उग्र तेजस्वी राजकुमार श्रीराम परलोक की सत्ता का खण्डन करने वाले जाबालि के पूर्वोक्त वचनों को सुनकर उन्हें सहन न कर सकने के कारण उन वचनों की निन्दा करते हुए पुनः उनसे बोले- ॥३०॥

सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः॥ ३१॥

‘सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियों पर दया, सबसे प्रिय वचन बोलना तथा देवताओं, अतिथियों और ब्राह्मणों की पूजा करना—इन सबको साधु पुरुषों ने स्वर्गलोक का मार्ग बताया है॥३१॥

तेनैवमाज्ञाय यथावदर्थमेकोदयं सम्प्रतिपद्य विप्राः।
धर्मं चरन्तः सकलं यथावत् कांक्षन्ति लोकागममप्रमत्ताः॥ ३२॥

‘सत्पुरुषों के इस वचन के अनुसार धर्म का स्वरूप जानकर तथा अनुकूल तर्क से उसका यथार्थ निर्णय करके एक निश्चय पर पहुँचे हुए सावधान ब्राह्मण भलीभाँति धर्माचरण करते हुए उन-उन उत्तम लोकों को प्राप्त करना चाहते हैं॥ ३२॥

निन्दाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद् यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम्।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्॥३३॥

‘आपकी बुद्धि विषम-मार् गमें स्थित है—आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वारा अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ। ३३॥

यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्॥ ३४॥

जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्धिजीवी भी दण्डनीय है तथागत (यथा हि तथा हि सः बुद्धाः चोर) और नास्तिक (चार्वाक्) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिये(बुद्धः + तथागतः एवं इसके बाद शब्द आया है नास्तिकमत्र, जिसमें दो शब्द हैं नास्तिकम् + अत्र)। इसलिये प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये राजा द्वारा जिस नास्तिक को दण्ड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दण्ड दिलाया ही जाय; परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो-उससे वार्तालाप तक न करे॥ ३४॥

त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः।
छित्त्वा सदेमं च परं च लोकं तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ॥ ३५॥

‘आपके सिवा पहले के श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इहलोक और परलोक की फल-कामना का परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत-से शुभकर्मो का अनुष्ठान किया है। अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदों को ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि), कृत (तप, दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मों का सम्पादन करते हैं। ३५॥

धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेतास्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः॥३६॥

‘जो धर्म में तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषों का साथ करते  हैं, तेज से सम्पन्न हैं, जिनमें दानरूपी गुण की प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते तथा जो मलसंसर्ग से रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं’। ३६ ।।

इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं रामं महात्मानमदीनसत्त्वम्।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च सत्यं वचः सानुनयं च विप्रः॥३७॥

महात्मा श्रीराम स्वभाव से ही दैन्यभाव से रहित थे। उन्होंने जब रोष पूर्वक पूर्वोक्त बात कही, तब ब्राह्मण जाबालि ने विनयपूर्वक यह आस्तिकतापूर्ण सत्य एवं हितकर वचन कहा- ॥ ३७॥

न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किंचन।
समीक्ष्य कालं पनरास्तिकोऽभवं भवेय काले पुनरेव नास्तिकः॥ ३८॥

‘रघुनन्दन! न तो मैं नास्तिक हूँ और न नास्तिकों की बात ही करता हूँ। परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है। मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहार के समय आवश्यकता होने पर पुनः नास्तिक हो सकता हूँ-नास्तिकों की-सी बातें कर सकता हूँ॥ ३८॥

स चापि कालोऽयमुपागतः शनैर्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात् प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम्॥३९॥

‘इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकों की-सी बातें कह डालीं। श्रीराम ! मैंने जो यह बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी करके अयोध्या लौटने के लिये तैयार कर लूँ’॥ ३९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे नवाधिकशततमः सर्गः॥ १०९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ नौवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१०९॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

8 thoughts on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 109

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  • Sani Sahu

    यहां पे मुझे 34वें श्लोक के ट्रांसलेट में कुछ समझ नहीं आया।
    क्या भगवान बुद्ध, श्रीराम के समकालीन थे या उनसे भी पहले थे??
    अगर ये ट्रांसलेट त्रुटि है तो कृपया करके इसे ठीक कीजिए।

    Reply
      • कौन भगवान बुद्ध ? बुद्ध से नही राम जी के राजगुरु जाबालि से उनके दिए गए प्रिय लगने वाले अनैतिक वचनों के कारण नास्तिक बुद्धिजीवी बोला गया है।
        हो सकता है इसी गुण के कारण ही आपके भगवान का नाम बुद्धिजीवी अर्थात बुद्ध पड़ा हो। क्योंकि पीढियां बीती थी ज्ञान नहीं खत्म हुआ। आपके गौतम जी की बुद्ध शायद श्लोक 6,7,9 बोला गया उससे प्रभावित होकर अपना नाम बुद्ध रख लिए होंगे यदि ऐसा था तो उन्हें पूरा लिखना था।

        Reply
        • Viivek

          भाई सस्ता गाँजा मारना बंद करो । बुद्धिजीवी नास्तिक कब से होने लगे और ऐसे ही लोगों को बुद्ध किसने कहा ?? बुद्ध के समय में जब उनको बुद्धत्व प्राप्त हुआ तब लोगों ने उनको बुद्ध कहा था , दूसरी बात अगर बुद्ध इतने ही गये गुजरे थे तो ब्राह्मणों ने उनको विष्णु का नौवाँ अवतार क्यों बताया ?? क्यूकी अपनी बुद्धि का प्रदर्शन कर रहे हो , थोड़ा तो अक्ल लगाओ। साफ़ साफ़ समझ आ रहा है की ये सब गप्प बुद्ध को नीचा दिखाने के लिए उनके बाद लिखी गई है । बुद्ध इतने ही गये गुज़रे होते तो सारा एशिया उनके नाम की माला नहीं जप रहा होता , जो भी बाहर से आक्रमणकारी आये उनके शिष्य नहीं बन जाते ।

          Reply
          • Praduman kushwaha

            बिलकुल सही आपने बोला है.रामायण तो बुध के बाद ही लिखा गया

    • Sunil bhartiy

      Hn Aap translate mat pado Sanskrit m HI pad lo Lo Wo buddh hi h…. Pr kese

      Reply
    • Chetan yadav

      इसमे क्या समझ नहीं आया बताने का कष्ट करें 9719996999

      Reply

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