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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 112 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 112

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
द्वादशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 112)

ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना, भरत का पुनः प्रार्थना करना, श्रीराम का उन्हें चरणपादुका देकर विदा करना

 

तमप्रतिमतेजोभ्यां भ्रातृभ्यां रोमहर्षणम्।
विस्मिताः संगमं प्रेक्ष्य समुपेता महर्षयः॥१॥

उन अनुपम तेजस्वी भ्राताओं का वह रोमाञ्चकारी समागम देख वहाँ आये हुए महर्षियों को बड़ा विस्मय हुआ॥१॥

अन्तर्हिता मुनिगणाः स्थिताश्च परमर्षयः।
तौ भ्रातरौ महाभागौ काकुत्स्थौ प्रशशंसिरे ॥२॥

अन्तरिक्ष में अदृश्य भाव से खड़े हुए मुनि तथा वहाँ प्रत्यक्ष रूप में बैठे हुए महर्षि उन महान् भाग्यशाली ककुत्स्थवंशी बन्धुओं की इस प्रकार प्रशंसा करने लगे— ॥२॥

सदा? राजपुत्रौ द्वौ धर्मज्ञौ धर्मविक्रमौ।
श्रुत्वा वयं हि सम्भाषामुभयोः स्पृहयामहे ॥३॥

‘ये दोनों राजकुमार सदा श्रेष्ठ, धर्म के ज्ञाता और धर्म मार्ग पर ही चलने वाले हैं। इन दोनों की बातचीत सुनकर हमें उसे बारंबार सुनते रहने की ही इच्छा होती है ॥३॥

ततस्त्वृषिगणाः क्षिप्रं दशग्रीववधैषिणः।
भरतं राजशार्दूलमित्यूचुः संगता वचः॥४॥

तदनन्तर दशग्रीव रावण के वध की अभिलाषा रखने वाले ऋषियों ने मिलकर राजसिंह भरत से तुरंत ही यह बात कही— ॥४॥

कुले जात महाप्राज्ञ महावृत्त महायशः।
ग्राह्यं रामस्य वाक्यं ते पितरं यद्यवेक्षसे॥५॥

‘महाप्राज्ञ! तुम उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारा आचरण बहुत उत्तम और यश महान् है। यदि तुम अपने पिता की ओर देखो उन्हें सुख पहुँचाना चाहो तो तुम्हें श्रीरामचन्द्रजी की बात मान लेनी चाहिये॥ ५॥

सदानृणमिमं रामं वयमिच्छामहे पितुः।
अनृणत्वाच्च कैकेय्याः स्वर्गं दशरथो गतः॥६॥

‘हमलोग इन श्रीराम को पिता के ऋण से सदा उऋण देखना चाहते हैं। कैकेयी का ऋण चुका देने के कारण ही राजा दशरथ स्वर्ग में पहुँचे हैं’ ॥ ६॥

एतावदुक्त्वा वचनं गन्धर्वाः समहर्षयः।
राजर्षयश्चैव तथा सर्वे स्वां स्वां गतिं गताः॥ ७॥

इतना कहकर वहाँ आये हुए गन्धर्व, महर्षि और राजर्षि सब अपने-अपने स्थान को चले गये॥७॥

हह्लादितस्तेन वाक्येन शुशुभे शुभदर्शनः।
रामः संहृष्टवदनस्तानृषीनभ्यपूजयत्॥८॥

जिनके दर्शन से जगत् का कल्याण हो जाता है, वे भगवान् श्रीराम महर्षियों के वचन से बहुत प्रसन्न हुए। उनका मुख हर्षोल्लास से खिल उठा, इससे उनकी बड़ी शोभा हुई और उन्होंने उन महर्षियों की सादर प्रशंसा की॥८॥

त्रस्तगात्रस्तु भरतः स वाचा सज्जमानया।
कृताञ्जलिरिदं वाक्यं राघवं पुनरब्रवीत्॥९॥

परंतु भरत का सारा शरीर थर्रा उठा। वे लड़खड़ाती हुई जबान से हाथ जोड़कर श्रीरामचन्द्रजी से बोले- ॥ ९॥

राम धर्ममिमं प्रेक्ष्य कुलधर्मानुसंततम्।
कर्तुमर्हसि काकुत्स्थ मम मातुश्च याचनाम्॥ १०॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! हमारे कुलधर्म से सम्बन्ध रखने वाला जो ज्येष्ठ पुत्र का राज्यग्रहण और प्रजापालन रूप धर्म है, उसकी ओर दृष्टि डालकर आप मेरी तथा माता की याचना सफल कीजिये॥ १०॥

रक्षितुं सुमहद् राज्यमहमेकस्तु नोत्सहे।
पौरजानपदांश्चापि रक्तान् रञ्जयितुं तदा ॥११॥

‘मैं अकेला ही इस विशाल राज्य की रक्षा नहीं कर सकता तथा आपके चरणों में अनुराग रखने वाले इन पुरवासी तथा जनपदवासी लोगों को भी आपके बिना प्रसन्न नहीं रख सकता ॥ ११॥

ज्ञातयश्चापि योधाश्च मित्राणि सुहृदश्च नः।
त्वामेव हि प्रतीक्षन्ते पर्जन्यमिव कर्षकाः॥१२॥

‘जैसे किसान मेघ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, उसी प्रकार हमारे बन्धु-बान्धव, योद्धा, मित्र और सुहृद् सब लोग आपकी ही बाट जोहते हैं ॥ १२ ॥

इदं राज्यं महाप्राज्ञ स्थापय प्रतिपद्य हि।
शक्तिमान् स हि काकुत्स्थ लोकस्य परिपालने॥

‘महाप्राज्ञ ! आप इस राज्य को स्वीकार करके दूसरे किसी को इसके पालन का भार सौंप दीजिये। वही पुरुष आपके प्रजावर्ग अथवा लोक का पालन करने में समर्थ हो सकता है’ ॥१३॥

एवमुक्त्वापतद् भ्रातुः पादयोर्भरतस्तदा।
भृशं सम्प्रार्थयामास राघवेऽतिप्रियं वदन्॥१४॥

ऐसा कहकर भरत अपने भाई के चरणों पर गिर पड़े। उस समय उन्होंने श्रीरघुनाथजी से अत्यन्त प्रिय वचन बोलकर उनसे राज्यग्रहण करने के लिये बड़ी प्रार्थना की॥

तमङ्के भ्रातरं कृत्वा रामो वचनमब्रवीत्।
श्यामं नलिनपत्राक्षं मत्तहंसस्वरः स्वयम्॥१५॥

तब श्रीरामचन्द्रजी ने श्यामवर्ण कमलनयन भाई भरत को उठाकर गोद में बिठा लिया और मदमत्तहंस के समान मधुर स्वर में स्वयं यह बात कही-॥ १५॥

आगता त्वामियं बुद्धिः स्वजा वैनयिकी च या।
भृशमुत्सहसे तात रक्षितुं पृथिवीमपि॥१६॥

‘तात! तुम्हें जो यह स्वाभाविक विनयशील बुद्धि प्राप्त हुई है इस बुद्धि के द्वारा तुम समस्त भूमण्डल की रक्षा करने में भी पूर्णरूप से समर्थ हो सकते हो॥ १६॥

अमात्यैश्च सुहृद्भिश्च बुद्धिमद्भिश्च मन्त्रिभिः।
सर्वकार्याणि सम्मन्त्र्य महान्त्यपि हि कारय॥ १७॥

‘इसके सिवा अमात्यों, सुहृदों और बुद्धिमान् मन्त्रियों से सलाह लेकर उनके द्वारा सब कार्य, वे कितने ही बड़े क्यों न हों, करा लिया करो॥ १७ ॥

लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद् वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत्।
अतीयात् सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः॥१८॥

‘चन्द्रमा से उसकी प्रभा अलग हो जाय, हिमालय हिम का परित्याग कर दे, अथवा समुद्र अपनी सीमा को लाँघकर आगे बढ़ जाय, किंतु मैं पिताकी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता॥ १८ ॥

कामाद् वा तात लोभाद् वा मात्रा तुभ्यमिदं
कृतम्। न तन्मनसि कर्तव्यं वर्तितव्यं च मातृवत्॥१९॥

‘तात! माता कैकेयी ने कामना से अथवा लोभवश तुम्हारे लिये जो कुछ किया है, उसको मनमें न लाना और उसके प्रति सदा वैसा ही बर्ताव करना जैसा अपनी पूजनीया माता के प्रति करना उचित है’ ।। १९॥
एवं ब्रुवाणं भरतः कौसल्यासुतमब्रवीत्।
तेजसाऽऽदित्यसंकाशं प्रतिपच्चन्द्रदर्शनम्॥२०॥

जो सूर्य के समान तेजस्वी हैं तथा जिनका दर्शन प्रतिपदा (द्वितीया) के चन्द्रमा की भाँति आह्लादजनक है, उन कौसल्यानन्दन श्रीराम के इस प्रकार कहने पर भरत उनसे यों बोले- ॥ २० ॥

अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते।
एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्यतः॥२१॥

‘आर्य! ये दो सुवर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इन पर अपने चरण रखें। येही सम्पूर्ण जगत् के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी’। २१॥

सोऽधिरुह्य नरव्याघ्रः पादुके व्यवमुच्य च।
प्रायच्छत् सुमहातेजा भरताय महात्मने ॥२२॥

तब महातेजस्वी पुरुषसिंह श्रीराम ने उन पादुकाओं पर चढ़कर उन्हें फिर अलग कर दिया और महात्मा भरत को सौंप दिया।। २२।।

स पादुके सम्प्रणम्य रामं वचनमब्रवीत्।
चतुर्दश हि वर्षाणि जटाचीरधरो ह्यहम्॥२३॥
फलमूलाशनो वीर भवेयं रघुनन्दन।
तवागमनमाकांक्षन् वसन् वै नगराद् बहिः॥ २४॥
तव पादुकयोय॑स्य राज्यतन्त्रं परंतप।

उन पादुकाओं को प्रणाम करके भरत ने श्रीराम से कहा—’वीर रघुनन्दन! मैं भी चौदह वर्षों तक जटा और चीर धारण करके फल-मूल का भोजन करता हुआ आपके आगमन की प्रतीक्षा में नगर से बाहर ही रहूँगा। परंतप! इतने दिनों तक राज्य का सारा भार आपकी इन चरण-पादुकाओं पर ही रखकर मैं आपकी बाट जोहता रहूँगा॥

चतुर्दशे हि सम्पूर्णे वर्षेऽहनि रघूत्तम ॥२५॥
न द्रक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशनम्।

‘रघुकुलशिरोमणे! यदि चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर नूतन वर्ष के प्रथम दिन ही मुझे आपका दर्शन नहीं मिलेगा तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा’॥

तथेति च प्रतिज्ञाय तं परिष्वज्य सादरम्॥२६॥
शत्रुघ्नं च परिष्वज्य वचनं चेदमब्रवीत्।।

श्रीरामचन्द्रजी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकृति दे दी और बड़े आदर के साथ भरत को हृदय से लगाया। तत्पश्चात् शत्रुघ्न को भी छाती से लगाकर यह बात कही

मातरं रक्ष कैकेयीं मा रोषं कुरु तां प्रति॥ २७॥
मया च सीतया चैव शप्तोऽसि रघुनन्दन।
इत्युक्त्वाश्रुपरीताक्षो भ्रातरं विससर्ज ह॥२८॥

‘रघुनन्दन! मैं तुम्हें अपनी और सीता की शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम माता कैकेयी की रक्षा करना, उनके प्रति कभी क्रोध न करना’—इतना कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू उमड़ आये। उन्होंने व्यथित हृदय से भाई शत्रुघ्न को विदा किया। २७-२८॥

स पादुके ते भरतः स्वलंकृते महोज्ज्वले सम्परिगृह्य धर्मवित् ।
प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं चकार चैवोत्तमनागमूर्धनि॥२९॥

धर्मज्ञ भरत ने भलीभाँति अलंकृत की हुई उन परम उज्ज्वल चरणपादुकाओं को लेकर श्रीरामचन्द्रजी की परिक्रमा की तथा उन पादुकाओं को राजा की सवारी में आने वाले सर्वश्रेष्ठ गजराज के मस्तक पर स्थापित किया॥

अथानुपूर्व्या प्रतिपूज्य तं जनं गुरूंश्च मन्त्री प्रकृतीस्तथानुजौ।
व्यसर्जयद् राघववंशवर्धनः स्थितः स्वधर्मे हिमवानिवाचलः॥३०॥

तदनन्तर अपने धर्म में हिमालय की भाँति अविचल भाव से स्थित रहने वाले रघुवंशवर्धन श्रीराम ने क्रमशः वहाँ आये हुए जनसमुदाय, गुरु, मन्त्री, प्रजा तथा दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार करके उन्हें विदा किया।

तं मातरो बाष्पगृहीतकण्ठ्यो दुःखेन नामन्त्रयितुं हि शेकुः।
स चैव मातृरभिवाद्य सर्वा रुदन् कुटीं स्वां प्रविवेश रामः॥३१॥

उस समय कौसल्या आदि सभी माताओं का गला आँसुओं से रुंध गया था। वे दुःख के कारण श्रीराम को सम्बोधित भी न कर सकीं। श्रीराम भी सब माताओं को प्रणाम करके रोते हुए अपनी कुटिया में चले गये॥ ३१॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्वादशाधिकशततमः सर्गः॥११२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ बारहवाँ सर्गपूरा हुआ॥ ११२॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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