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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 117 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 117

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
सप्तदशाधिकशततमः सर्गः (सर्ग 117)

श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना तथा अनसूया द्वारा सीता का सत्कार

 

राघवस्त्वपयातेषु सर्वेष्वनुविचिन्तयन्।
न तत्रारोचयद् वासं कारणैर्बहुभिस्तदा ॥१॥

उन सब ऋषियों के चले जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने जब बारंबार विचार किया, तब उन्हें बहुत-से ऐसे कारण ज्ञात हुए, जिनसे उन्होंने स्वयं भी वहाँ रहना उचित न समझा॥१॥

इह मे भरतो दृष्टो मातरश्च सनागराः।
सा च मे स्मृतिरन्वेति तान् नित्यमनुशोचतः॥२॥

उन्होंने मन-ही-मन सोचा, ‘इस आश्रम में मैं भरत से, माताओं से तथा पुरवासी मनुष्यों से मिल चुका हूँ। वह स्मृति मुझे बराबर बनी रहती है और मैं प्रतिदिन उन सब लोगों का चिन्तन करके शोकमग्न हो जाता हूँ॥

स्कन्धावारनिवेशेन तेन तस्य महात्मनः।
हयहस्तिकरीषैश्च उपमर्दः कृतो भृशम्॥३॥

‘महात्मा भरत की सेना का पड़ाव पड़ने के कारण हाथी और घोड़ों की लीदों से यहाँ की भूमि अधिक अपवित्र कर दी गयी है॥३॥

तस्मादन्यत्र गच्छाम इति संचिन्त्य राघवः।
प्रातिष्ठत स वैदेह्या लक्ष्मणेन च संगतः॥४॥

‘अतः हमलोग भी अन्यत्र चले जायँ’ ऐसा सोचकर श्रीरघुनाथ जी सीता और लक्ष्मण के साथ वहाँ से चल दिये॥

सोऽत्रेराश्रममासाद्य तं ववन्दे महायशाः।
तं चापि भगवानत्रिः पुत्रवत् प्रत्यपद्यत॥५॥

वहाँ से अत्रि के आश्रम पर पहुँचकर महायशस्वी श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया तथा भगवान् अत्रि ने भी उन्हें अपने पुत्र की भाँति स्नेहपूर्वक अपनाया॥५॥

स्वयमातिथ्यमादिश्य सर्वमस्य सुसत्कृतम्।
सौमित्रिं च महाभागं सीतां च समसान्त्वयत्॥

उन्होंने स्वयं ही श्रीराम का सम्पूर्ण आतिथ्य-सत्कार करके महाभाग लक्ष्मण और सीता को भी सत्कारपूर्वक संतुष्ट किया॥६॥

पत्नीं च तामनुप्राप्तां वृद्धामामन्त्र्य सत्कृताम्।
सान्त्वयामास धर्मज्ञः सर्वभूतहिते रतः॥७॥
अनसूयां महाभागां तापसी धर्मचारिणीम्।
प्रतिगृह्णीष्व वैदेहीमब्रवीदृषिसत्तमः॥८॥

सम्पूर्ण प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले धर्मज्ञ मुनिश्रेष्ठ अत्रि ने अपने समीप आयी हुई सबके द्वारा सम्मानित तापसी एवं धर्मपरायणा बूढ़ी पत्नी महाभागा अनसूया को सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा संतुष्ट किया और कहा—’देवि! विदेहराजनन्दिनी सीता को सत्कारपूर्वक हृदय से लगाओ’ ॥ ७-८॥

रामाय चाचचक्षे तां तापसी धर्मचारिणीम्।
दश वर्षाण्यनावृष्टया दग्धे लोके निरन्तरम्॥९॥
यया मूलफले सृष्टे जाह्नवी च प्रवर्तिता।
उग्रेण तपसा युक्ता नियमैश्चाप्यलंकृता॥१०॥
दश वर्षसहस्राणि यया तप्तं महत् तपः।
अनसूयाव्रतैस्तात प्रत्यूहाश्च निबर्हिताः॥११॥

तत्पश्चात् उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को धर्मपरायणा तपस्विनी अनसूया का परिचय देते हुए कहा—’एक समय दसवर्षों तक वृष्टि नहीं हुई, उस समय जब सारा जगत् निरन्तर दग्ध होने लगा, तब जिन्होंने उग्र तपस्या से युक्त तथा कठोर नियमों से अलंकृत होकर अपने तपके प्रभाव से यहाँ फल-मूल उत्पन्न कियेऔर मन्दाकिनीकी पवित्र धारा बहायी तथा तात! जिन्होंने दस हजार वर्षांतक बड़ी भारी तपस्या करके अपने उत्तम व्रतों के प्रभाव से ऋषियों के समस्त विघ्नों का निवारण किया था, वे ही यह अनसूया देवी हैं॥

देवकार्यनिमित्तं च यया संत्वरमाणया।
दशरात्रं कृता रात्रिः सेयं मातेव तेऽनघ॥१२॥

‘निष्पाप श्रीराम! इन्होंने देवताओं के कार्य के लिये अत्यन्त उतावली होकर दस रात के बराबर एक ही रात बनायी थी; वे ही ये अनसूया देवी तुम्हारे लिये माता की भाँति पूजनीया हैं॥ १२॥

तामिमां सर्वभूतानां नमस्कार्यां तपस्विनीम्।
अभिगच्छतु वैदेही वृद्धामक्रोधनां सदा॥१३॥

‘ये सम्पूर्ण प्राणियों के लिये वन्दनीया तपस्विनी हैं। क्रोध तो इन्हें कभी छू भी नहीं सका है। विदेहनन्दिनी सीता इन वृद्धा अनसूया देवी के पास जायँ’ ।। १३॥

एवं ब्रुवाणं तमृषि तथेत्युक्त्वा स राघवः।
सीतामालोक्य धर्मज्ञामिदं वचनमब्रवीत्॥१४॥

ऐसी बात कहते हुए अत्रि मुनि से ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने धर्मज्ञा सीता की ओर देखकर यह बात कही— ॥१४॥

राजपुत्रि श्रुतं त्वेतन्मुनेरस्य समीरितम्।
श्रेयोऽर्थमात्मनः शीघ्रमभिगच्छ तपस्विनीम्॥ १५॥

‘राजकुमारी! महर्षि अत्रि के वचन तो तुमने सुन ही लिये; अब अपने कल्याण के लिये तुम शीघ्र ही इन तपस्विनी देवी के पास जाओ॥ १५ ॥

अनसूयेति या लोके कर्मभिः ख्यातिमागता।
तां शीघ्रमभिगच्छ त्वमभिगम्यां तपस्विनीम्॥ १६॥

‘जो अपने सत्कर्मों से संसार में अनसूया के नाम से विख्यात हुई हैं, वे तपस्विनी देवी तुम्हारे आश्रय लेने योग्य हैं; तुम शीघ्र उनके पास जाओ’ ॥ १६ ॥

सीता त्वेतद् वचः श्रुत्वा राघवस्य यशस्विनी।
तामत्रिपत्नी धर्मज्ञामभिचक्राम मैथिली॥१७॥

श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर यशस्विनी मिथिलेश-कुमारी सीता धर्म को जानने वाली अत्रिपत्नी अनसूया के पास गयीं ॥ १७॥

शिथिलां वलितां वृद्धां जरापाण्डुरमूर्धजाम्।
सततं वेपमानाङ्गी प्रवाते कदलीमिव ॥१८॥

अनसूया वृद्धावस्था के कारण शिथिल हो गयी थीं; उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयीं थीं तथा सिर के बाल सफेद हो गये थे। अधिक हवा चलने पर हिलते हुए कदली-वृक्ष के समान उनके सारे अङ्ग निरन्तर काँप रहे थे॥१८॥

तां तु सीता महाभागामनसूयां पतिव्रताम्।
अभ्यवादयदव्यग्रा स्वं नाम समुदाहरत्॥१९॥

सीता ने निकट जाकर शान्तभाव से अपना नाम बताया और उन महाभागा पतिव्रता अनसूया को प्रणाम किया॥ १९॥

अभिवाद्य च वैदेही तापसी तां दमान्विताम्।
बद्धाञ्जलिपुटा हृष्टा पर्यपृच्छदनामयम्॥२०॥

उन संयमशीला तपस्विनी को प्रणाम करके हर्ष से भरी हुई सीता ने दोनों हाथ जोड़कर उनका कुशलसमाचार पूछा ॥ २०॥

ततः सीतां महाभागां दृष्ट्वा तां धर्मचारिणीम्।
सान्त्वयन्त्यब्रवीद् वृद्धा दिष्ट्या धर्ममवेक्षसे॥ २१॥

धर्म का आचरण करने वाली महाभागा सीता को देखकर बूढ़ी अनसूया देवी उन्हें सान्त्वना देती हुई बोलीं—’सीते! सौभाग्य की बात है कि तुम धर्म पर ही दृष्टि रखती हो॥ २१॥

त्यक्त्वा ज्ञातिजनं सीते मानवृद्धिं च मानिनि।
अवरुद्धं वने रामं दिष्ट्या त्वमनुगच्छसि ॥२२॥

‘मानिनी सीते! बन्धु-बान्धवों को छोड़कर और उनसे प्राप्त होने वाली मान-प्रतिष्ठा का परित्याग करके तुम वन में भेजे हुए श्रीराम का अनुसरण कर रही हो —यह बड़े सौभाग्य की बात है।॥ २२॥

नगरस्थो वनस्थो वा शुभो वा यदि वाशुभः।
यासां स्त्रीणां प्रियो भर्ता तासां लोका महोदयाः॥२३॥

‘अपने स्वामी नगर में रहें या वन में, भले हों या बुरे, जिन स्त्रियों को वे प्रिय होते हैं, उन्हें महान् अभ्युदयशाली लोकों की प्राप्ति होती है।॥ २३॥

दुःशीलः कामवृत्तो वा धनैर्वा परिवर्जितः।
स्त्रीणामार्यस्वभावानां परमं दैवतं पतिः॥२४॥

‘पति बुरे स्वभाव का, मनमाना बर्ताव करने वाला अथवा धनहीन ही क्यों न हो, वह उत्तम स्वभाववाली नारियों के लिये श्रेष्ठ देवता के समान है। २४॥

नातो विशिष्टं पश्यामि बान्धवं विमृशन्त्यहम्।
सर्वत्र योग्यं वैदेहि तपःकृतमिवाव्ययम्॥२५॥

‘विदेहराजनन्दिनि! मैं बहुत विचार करने पर भी पति से बढ़कर कोई हितकारी बन्धु नहीं देखती। अपनी की हुई तपस्या के अविनाशी फल की भाँति वह इस लोक में और परलोक में सर्वत्र सुख पहुँचाने में समर्थ होता है॥२५॥

न त्वेवमनुगच्छन्ति गुणदोषमसत्स्त्रियः।
कामवक्तव्यहृदया भर्तृनाथाश्चरन्ति याः॥२६॥

‘जो अपने पति पर भी शासन करती हैं, वे काम के अधीन चित्तवाली असाध्वी स्त्रियाँ इस प्रकार पति का अनुसरण नहीं करतीं। उन्हें गुण-दोषों का ज्ञान नहीं होता; अतः वे इच्छानुसार इधर-उधर विचरती रहती हैं।॥ २६॥

प्राप्नुवन्त्ययशश्चैव धर्मभ्रंशं च मैथिलि।
अकार्यवशमापन्नाः स्त्रियो याः खलु तद्विधाः॥ २७॥

‘मिथिलेशकुमारी! ऐसी नारियाँ अवश्य ही अनुचित कर्म में फँसकर धर्म से भ्रष्ट हो जाती हैं और संसार में उन्हें अपयश की प्राप्ति होती है॥ २७॥

त्वद्विधास्तु गुणैर्युक्ता दृष्टलोकपरावराः।
स्त्रियः स्वर्गे चरिष्यन्ति यथा पुण्यकृतस्तथा॥ २८॥

‘किंतु जो तुम्हारे समान लोक-परलोक को जानने वाली साध्वी स्त्रियाँ हैं, वे उत्तम गुणों से युक्त होकर पुण्यकर्मों में संलग्न रहती हैं; अतः वे दूसरे पुण्यात्माओं की भाँति स्वर्गलोक में विचरण करेंगी।२८॥

तदेवमेतं त्वमनुव्रता सती पतिप्रधाना समयानुवर्तिनी।
भव स्वभर्तुः सहधर्मचारिणी यशश्च धर्मं च ततः समाप्स्यसि ॥२९॥

‘अतः तुम इसी प्रकार अपने इन पतिदेव श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में लगी रहो—सतीधर्म का पालन करो, पति को प्रधान देवता समझो और प्रत्येक समय उनका अनुसरण करती हुई अपने स्वामी की सहधर्मिणी बनो, इससे तुम्हें सुयश और धर्म दोनों की प्राप्ति होगी’ ॥ २९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तदशाधिकशततमः सर्गः॥११७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एक सौ सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥११७॥


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Shivangi

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