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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 23 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 23

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्रयोविंशः सर्गः (सर्ग 23)

लक्ष्मण की ओज भरी बातें, उनके द्वारा दैव का खण्डन और पुरुषार्थ का प्रतिपादन

 

इति ब्रुवति रामे तु लक्ष्मणोऽवाक् शिरा इव।
ध्यात्वा मध्यं जगामाशु सहसा दैन्यहर्षयोः॥१॥

श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय लक्ष्मण सिर झुकाये कुछ सोचते रहे; फिर सहसा शीघ्रतापूर्वक वे दुःख और हर्ष के बीच की स्थिति में आ गये (श्रीराम के राज्याभिषेक में विघ्न पड़ने के कारण उन्हें दुःख हुआ और उनकी धर्म में दृढ़ता देखकर प्रसन्नता हुई)॥

तदा तु बद्ध्वा भ्रुकुटी ध्रुवोर्मध्ये नरर्षभः।
निशश्वास महासर्पो बिलस्थ इव रोषितः॥२॥

नरश्रेष्ठ लक्ष्मण ने उस समय ललाट में भौंहों को चढ़ाकर लंबी साँस खींचना आरम्भ किया, मानो बिल में बैठा हुआ महान् सर्प रोष में भरकर फुकार मार रहा हो॥

तस्य दुष्प्रतिवीक्ष्यं तद् भृकुटीसहितं तदा।
बभौ क्रुद्धस्य सिंहस्य मुखस्य सदृशं मुखम्॥३॥

तनी हुई भौंहों के साथ उस समय उनका मुख कुपित हुए सिंह के मुख के समान जान पड़ता था, उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था॥३॥

अग्रहस्तं विधुन्वंस्तु हस्ती हस्तमिवात्मनः।
तिर्यगूर्ध्वं शरीरे च पातयित्वा शिरोधराम्॥४॥
अग्राक्ष्णा वीक्षमाणस्तु तिर्यग्भ्रातरमब्रवीत्।

जैसे हाथी अपनी सूंड हिलाया करता है, उसी प्रकार वे अपने दाहिने हाथ को हिलाते और गर्दन को शरीर में ऊपर-नीचे और अगल-बगल सब ओर घुमाते हुए नेत्रों के अग्रभाग से टेढ़ी नजरों द्वारा अपने भाई श्रीराम को देखकर उनसे बोले- ॥ ४ १/२॥

अस्थाने सम्भ्रमो यस्य जातो वै सुमहानयम्॥५॥
धर्मदोषप्रसङ्गेन लोकस्यानतिशङ्कया।
कथं ह्येतदसम्भ्रान्तस्त्वद्विधो वक्तुमर्हति॥६॥
यथा ह्येवमशौण्डीरं शौण्डीरः क्षत्रियर्षभः।
किं नाम कृपणं दैवमशक्तमभिशंससि॥७॥

‘भैया! आप समझते हैं कि यदि पिता की इस आज्ञा का पालन करने के लिये मैं वन को न जाऊँ तो धर्म के विरोध का प्रसङ्ग उपस्थित होता है, इसके सिवा लोगों के मन में यह बड़ी भारी शङ्का उठ खड़ी होगी कि जो पिता की आज्ञा का उल्लङ्घन करता है, वह यदि राजा ही हो जाय तो हमारा धर्मपूर्वक पालन कैसे करेगा? साथ ही आप यह भी सोचते हैं कि यदि मैं पिता की इस आज्ञा का पालन नहीं करूँ तो दूसरे लोग भी नहीं करेंगे। इस प्रकार धर्म की अवहेलना होने से जगत् के विनाश का भय उपस्थित होगा। इन सब दोषों और शङ्काओं का निराकरण करने के लिये आपके मन में वनगमन के प्रति जो यह बड़ा भारी सम्भ्रम (उतावलापन) आ गया है, यह सर्वथा अनुचित एवं भ्रममूलक ही है; क्योंकि आप असमर्थ ‘दैव’ नामक तुच्छ वस्तु को प्रबल बता रहे हैं। दैव का निराकरण करने में समर्थ आप-जैसा क्षत्रियशिरोमणि वीर यदि भ्रम में नहीं पड़ गया होता तो ऐसी बात कैसे कह सकता था? अतः असमर्थ पुरुषों द्वारा ही अपनाये जाने योग्य और पौरुष के निकट कुछ भी करनेमें असमर्थ ‘दैव’ की आप साधारण मनुष्य के समान इतनी स्तुति या प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? ॥ ५-७॥

पापयोस्ते कथं नाम तयोः शङ्का न विद्यते।
सन्ति धर्मोपधासक्ता धर्मात्मन् किं न बुध्यसे॥ ८॥

‘धर्मात्मन् ! आपको उन दोनों पापियों पर संदेह क्यों नहीं होता? संसार में कितने ही ऐसे पापासक्त मनुष्य हैं, जो दूसरों को ठगने के लिये धर्म का ढोंग बनाये रहते हैं, क्या आप उन्हें नहीं जानते हैं? ॥ ८॥

तयोः सुचरितं स्वार्थं शाठ्यात् परिजिहीर्षतोः।
यदि नैवं व्यवसितं स्याद्धि प्रागेव राघव।
तयोः प्रागेव दत्तश्च स्याद् वरः प्रकृतश्च सः॥ ९॥

‘रघुनन्दन! वे दोनों अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये शठतावश धर्म के बहाने आप-जैसे सच्चरित्र पुरुष का परित्याग करना चाहते हैं। यदि उनका ऐसा विचार न होता तो जो कार्य आज हुआ है, वह पहले ही हो गया होता। यदि वरदान वाली बात सच्ची होती तो आपके अभिषेक का कार्य प्रारम्भ होने से पहले ही इस तरह का वर दे दिया गया होता॥९॥

लोकविदिष्टमारब्धं त्वदन्यस्याभिषेचनम्।
नोत्सहे सहितुं वीर तत्र मे क्षन्तुमर्हसि॥१०॥

(गुणवान् ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए छोटे का अभिषेक करना) यह लोकविरुद्ध कार्य है, जिसका आज आरम्भ किया गया है। आपके सिवा दूसरे किसी का राज्याभिषेक हो, यह मुझसे सहन नहीं होग। इसके लिये आप मुझे क्षमा करेंगे॥ १० ॥

येनैवमागता द्वैधं तव बुद्धिर्महामते।
सोऽपि धर्मो मम द्वेष्यो यत्प्रसङ्गाद् विमुह्यसि॥ ११॥

‘महामते! पिता के जिस वचन को मानकर आप मोह में पड़े हुए हैं और जिसके कारण आपकी बुद्धि में दुविधा उत्पन्न हो गयी है, मैं उसे धर्म मानने का पक्षपाती नहीं हूँ; ऐसे धर्म का तो मैं घोर विरोध करता हूँ॥ ११॥

कथं त्वं कर्मणा शक्तः कैकेयीवशवर्तिनः।
करिष्यसि पितर्वाक्यमधर्मिष्ठं विगर्हितम्॥१२॥

‘आप अपने पराक्रमसे सब कुछ करनेमें समर्थ होकर भी कैकेयीके वशमें रहनेवाले पिताके अधर्मपूर्ण एवं निन्दित वचनका पालन कैसे करेंगे? ॥ १२॥

यदयं किल्बिषाद् भेदः कृतोऽप्येवं न गृह्यते।
जायते तत्र मे दुःखं धर्मसङ्गश्च गर्हितः॥१३॥

‘वरदान की झूठी कल्पना का पाप करके आपके अभिषेक में रोड़ा अटकाया गया है, फिर भी आप इस रूप में नहीं ग्रहण करते हैं। इसके लिये मेरे मन में बड़ा दुःख होता है। ऐसे कपटपूर्ण धर्म के प्रति होने वाली आसक्ति निन्दित है॥ १३॥

तवायं धर्मसंयोगो लोकस्यास्य विगर्हितः।
मनसापि कथं कामं कुर्यात् त्वां कामवृत्तयोः।
तयोस्त्वहितयोर्नित्यं शञ्चोः पित्रभिधानयोः॥ १४॥

‘ऐसे पाखण्डपूर्ण धर्म के पालन में जो आपकी प्रवृत्ति हो रही है, वह यहाँ के जनसमुदाय की दृष्टि में निन्दित है। आपके सिवा दूसरा कोई पुरुष सदा पुत्र का अहित करने वाले, पिता-माता नामधारी उन कामाचारी शत्रुओं के मनोरथ को मन से भी कैसे पूर्ण कर सकता है (उसकी पूर्ति का विचार भी मन में कैसे ला सकता है?) ॥ १४॥

यद्यपि प्रतिपत्तिस्ते दैवी चापि तयोर्मतम।
तथाप्युपेक्षणीयं ते न मे तदपि रोचते॥१५॥

‘माता-पिता के इस विचार को कि–’आपका राज्याभिषेक न हो’ जो आप दैव की प्रेरणा का फल मानते हैं, यह भी मुझे अच्छा नहीं लगता। यद्यपि वह आपका मत है, तथापि आपको उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये॥ १५ ॥

विक्लवो वीर्यहीनो यः स दैवमनुवर्तते।
वीराः सम्भावितात्मानो न दैवं पर्युपासते॥१६॥

‘जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। सारा संसार जिन्हें आदर की दृष्टि से देखता है, वे शक्तिशाली वीर पुरुष दैव की उपासना नहीं करते हैं॥ १६

दैवं पुरुषकारेण यः समर्थः प्रबाधितुम्।
न दैवेन विपन्नार्थः पुरुषः सोऽवसीदति ॥१७॥

‘जो अपने पुरुषार्थ से  दैव को दबाने में समर्थ है, वह पुरुष दैव के द्वारा अपने कार्य में बाधा पड़ने पर खेद नहीं करता—शिथिल होकर नहीं बैठता॥ १७ ॥

द्रक्ष्यन्ति त्वद्य दैवस्य पौरुषं पुरुषस्य च।
दैवमानुषयोरद्य व्यक्ता व्यक्तिर्भविष्यति॥१८॥

आज संसार के लोग देखेंगे कि दैव की शक्ति बड़ी है या पुरुष का पुरुषार्थ। आज दैव और मनुष्य में कौन बलवान् है और कौन दुर्बल—इसका स्पष्ट निर्णय हो जायगा॥१८॥

अद्य मे पौरुषहतं दैवं द्रक्ष्यन्ति वै जनाः।
यैर्दैवादाहतं तेऽद्य दृष्टं राज्याभिषेचनम्॥१९॥

‘जिन लोगों ने दैव के बलसे आज आपके राज्याभिषेक को नष्ट हुआ देखा है, वे ही आज मेरे पुरुषार्थ से अवश्य ही दैव का भी विनाश देख लेंगे। १९॥

अत्यङ्कशमिवोद्दामं गजं मदजलोद्धतम्।
प्रधावितमहं दैवं पौरुषेण निवर्तये॥२०॥

‘जो अङ्कश की परवा नहीं करता और रस्से या साँकल को भी तोड़ देता है, मद की धारा बहाने वाले उस मत्त गजराज की भाँति वेग पूर्वक दौड़ने वाले दैव को भी आज मैं अपने पुरुषार्थ से पीछे लौटा दूंगा। २०॥

लोकपालाः समस्तास्ते नाद्य रामाभिषेचनम्।
न च कृत्स्नास्त्रयो लोका विहन्युः किं पुनःपिता॥२१॥

समस्त लोकपाल और तीनों लोकों के सम्पर्ण प्राणी आज श्रीराम के राज्याभिषेक को नहीं रोक सकते, फिर केवल पिताजी की तो बात ही क्या है ? ॥ २१॥

यैर्विवासस्तवारण्ये मिथो राजन् समर्थितः।
अरण्ये ते विवत्स्यन्ति चतुर्दश समास्तथा ॥ २२॥

‘राजन् ! जिन लोगों ने आपस में आपके वनवास का समर्थन किया है, वे स्वयं चौदह वर्षों तक वन में जाकर छिपे रहेंगे॥ २२॥

अहं तदाशां धक्ष्यामि पितुस्तस्याश्च या तव।
अभिषेकविघातेन पुत्रराज्याय वर्तते॥२३॥

‘मैं पिता की और जो आपके अभिषेक में विघ्न डालकर अपने पुत्र को राज्य देने के प्रयत्न में लगी हुई है, उस कैकेयी की भी उस आशा को जलाकर भस्म कर डालूँगा ।। २३॥

मबलेन विरुद्धाय न स्याद् दैवबलं तथा।
प्रभविष्यति दुःखाय यथोग्रं पौरुषं मम॥२४॥

‘जो मेरे बल के विरोध में खड़ा होगा, उसे मेरा भयंकर पुरुषार्थ जैसा दुःख देने में समर्थ होगा, वैसा दैव बल उसे सुख नहीं पहुँचा सकेगा॥ २४ ॥

ऊर्ध्वं वर्षसहस्रान्ते प्रजापाल्यमनन्तरम्।
आर्यपुत्राः करिष्यन्ति वनवासं गते त्वयि ॥२५॥

‘सहस्रों वर्ष बीतने के पश्चात् जब आप अवस्था क्रम से वन में निवास करने के लिये जायेंगे, उस समय आपके बाद आपके पुत्र प्रजापालनरूप कार्य करेंगे (अर्थात् उस समय भी दूसरों को इस राज्य में दखल देने का अवसर नहीं प्राप्त होगा) ॥ २५॥

पूर्वराजर्षिवृत्त्या हि वनवासोऽभिधीयते।
प्रजा निक्षिप्य पुत्रेषु पुत्रवत् परिपालने॥२६॥

‘पुरातन राजर्षियों की आचारपरम्परा के अनुसार प्रजा का पुत्रवत् पालन करने के निमित्त प्रजावर्ग को पुत्रों के हाथ में सौंपकर वृद्ध राजा का वन में निवास करना उचित बताया जाता है॥२६॥

स चेद् राजन्यनेकाग्रे राज्यविभ्रमशङ्कया।
नैवमिच्छसि धर्मात्मन् राज्यं राम त्वमात्मनि॥२७॥

‘धर्मात्मा श्रीराम! हमारे महाराज वानप्रस्थधर्म के पालन में चित्त को एकाग्र नहीं कर रहे हैं, इसीलिये यदि आप यह समझते हों कि उनकी आज्ञा के विरुद्ध राज्य ग्रहण कर लेने पर समस्त जनता विद्रोही हो
जायगी, अतः राज्य अपने हाथ में नहीं रह सकेगा और इसी शङ्का से यदि आप अपने ऊपर राज्यकाभार नहीं लेना चाहते हैं अथवा वन में चले जाना चाहते हैं तो इस शङ्का को छोड़ दीजिये॥२७॥

प्रतिजाने च ते वीर मा भूवं वीरलोकभाक्।
राज्यं च तव रक्षेयमहं वेलेव सागरम्॥२८॥

‘वीर! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जैसे तटभूमि समुद्र को रोके रहती है, उसी प्रकार मैं आपकी और आपके राज्य की रक्षा करूँगा। यदि ऐसा न करूँ तो वीरलोक का भागी न होऊँ॥ २८॥

मङ्गलैरभिषिञ्चस्व तत्र त्वं व्याप्तो भव।
अहमेको महीपालानलं वारयितुं बलात्॥२९॥

‘इसलिये आप मङ्गलमयी अभिषेक-सामग्री से अपना अभिषेक होने दीजिये। इस अभिषेक के कार्य में आप तत्पर हो जाइये। मैं अकेला ही बलपूर्वक समस्त विरोधी भूपालों को रोक रखनेमें समर्थ हूँ॥ २९॥

न शोभार्थाविमौ बाहू न धनुर्भूषणाय मे।
नासिराबन्धनार्थाय न शराः स्तम्भहेतवः॥३०॥

‘ये मेरी दोनों भुजाएँ केवल शोभा के लिये नहीं हैं। मेरे इस धनुष का आभूषण नहीं बनेगा। यह तलवार केवल कमर में बाँधे रखने के लिये नहीं है तथा इन बाणों के खम्भे नहीं बनेंगे॥ ३० ॥

अमित्रमथनार्थाय सर्वमेतच्चतुष्टयम्।
न चाहं कामयेऽत्यर्थं यः स्याच्छत्रुर्मतो मम॥

‘ये सब चारों वस्तुएँ शत्रुओं का दमन करने के लिये ही हैं। जिसे मैं अपना शत्रु समझता हूँ, उसे कदापि जीवित रहने देना नहीं चाहता।। ३१॥

असिना तीक्ष्णधारेण विद्युच्चलितवर्चसा।
प्रगृहीतेन वै शत्रु वज्रिणं वा न कल्पये॥३२॥

‘जिस समय मैं इस तीखी धारवाली तलवार को हाथ में लेता हूँ, यह बिजली की तरह चञ्चल प्रभा से चमक उठती है। इसके द्वारा अपने किसी भी शत्रु को, वह वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, मैं कुछ नहीं समझता ॥ ३२॥

खड्गनिष्पेषनिष्पिष्टैर्गहना दुश्चरा च मे।
हस्त्यश्वरथिहस्तोरुशिरोभिर्भविता मही॥ ३३॥

आज मेरे खड्ग के प्रहार से पीस डाले गये हाथी,घोड़े और रथियों के हाथ, जाँघ और मस्तकों द्वारा पटी हुई यह पृथ्वी ऐसी गहन हो जायगी कि इस पर चलना-फिरना कठिन हो जायगा॥ ३३॥

खड्गधाराहता मेऽद्य दीप्यमाना इवाग्नयः।
पतिष्यन्ति द्विषो भूमौ मेघा इव सविद्युतः॥ ३४॥

‘मेरी तलवार की धार से कटकर रक्त से लथपथ हुए शत्रु जलती हुई आग के समान जान पड़ेंगे और बिजली सहित मेघों के समान आज पृथ्वी पर गिरेंगे। ३४॥

बद्धगोधाङ्गलित्राणे प्रगृहीतशरासने।
कथं पुरुषमानी स्यात् पुरुषाणां मयि स्थिते॥ ३५॥

अपने हाथों में गोह के चर्म से बने हुए दस्ताने को बाँधकर जब हाथ में धनुष ले मैं युद्ध के लिये खड़ा हो जाऊँगा, उस समय पुरुषों से कोई भी मेरे सामने कैसे अपने पौरुष पर अभिमान कर सकेगा? ॥ ३५ ॥

बहुभिश्चैकमत्यस्यन्नेकेन च बहूञ्जनान्।
विनियोक्ष्याम्यहं बाणान्नृवाजिगजमर्मसु॥३६॥

मैं बहुत-से बाणों द्वारा एक को और एक ही बाण से बहुत-से योद्धाओं को धराशायी करता हुआ मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के मर्मस्थानों पर बाण मारूँगा॥३६॥

अद्य मेऽस्त्रप्रभावस्य प्रभावः प्रभविष्यति।
राज्ञश्चाप्रभुतां कर्तुं प्रभुत्वं च तव प्रभो॥३७॥

‘प्रभो! आज राजा दशरथ की प्रभुता को मिटाने और आपके प्रभुत्व की स्थापना करने के लिये अस्त्रबल से सम्पन्न मुझ लक्ष्मण का प्रभाव प्रकट होगा॥ ३७॥

अद्य चन्दनसारस्य केयूरामोक्षणस्य च।
वसूनां च विमोक्षस्य सुहृदां पालनस्य च॥ ३८॥
अनुरूपाविमौ बाहू राम कर्म करिष्यतः।
अभिषेचनविघ्नस्य कर्तृणां ते निवारणे॥३९॥

‘श्रीराम! आज मेरी ये दोनों भुजाएँ, जो चन्दन का लेप लगाने, बाजूबंद पहनने, धन का दान करने और सुहृदों के पालन में संलग्न रहने के योग्य हैं, आपके राज्याभिषेक में विघ्न डालने वालों को रोकने के लिये अपने अनुरूप पराक्रम प्रकट करेंगी॥ ३८-३९ ॥

ब्रवीहि कोऽद्यैव मया वियुज्यतां तवासुहृत् प्राणयशःसुहृज्जनैः।
यथा तवेयं वसुधा वशा भवेत् तथैव मां शाधि तवास्मि किंकरः॥४०॥

‘प्रभो! बतलाइये, मैं आपके किस शत्रुको अभी प्राण, यश और सुहृज्जनों से सदा के लिये बिलग कर दूं। जिस उपाय से भी यह पृथ्वी आपके अधिकार में आ जाय, उसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपका दास हूँ’॥

विमृज्य बाष्पं परिसान्त्व्य चासकृत् स लक्ष्मणं राघववंशवर्धनः।
उवाच पित्रोर्वचने व्यवस्थितं निबोध मामेष हि सौम्य सत्पथः॥४१॥

रघुवंश की वृद्धि करने वाले श्रीराम ने लक्ष्मण की ये बातें सुनकर उनके आँसू पोंछे और उन्हें बारंबार सान्त्वना देते हुए कहा—’सौम्य! मुझे तो तुम माता पिता की आज्ञा के पालन में ही दृढ़तापूर्वक स्थित समझो यही सत्पुरुषों का मार्ग है’ ॥ ४१॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रयोविंशः सर्गः ॥२३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२३॥


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Shivangi

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