RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 29

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (सर्ग 29)

सीता का श्रीराम के समक्ष उनके साथ अपने वनगमन का औचित्य बताना

 

एतत् तु वचनं श्रुत्वा सीता रामस्य दुःखिता।
प्रसक्ताश्रुमुखी मन्दमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥

श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर सीता को बड़ा दुःख हुआ, उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली और वे धीरे-धीरे इस प्रकार कहने लगीं- ॥१॥

ये त्वया कीर्तिता दोषा वने वस्तव्यतां प्रति।
गुणानित्येव तान् विद्धि तव स्नेहपुरस्कृता॥२॥

‘प्राणनाथ! आपने वन में रहने के जो-जो दोष बताये हैं, वे सब आपका स्नेह पाकर मेरे लिये गुणरूप हो जायँगे। इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें॥

मृगाः सिंहा गजाश्चैव शार्दूलाः शरभास्तथा।
चमराः सृमराश्चैव ये चान्ये वनचारिणः॥३॥
अदृष्टपूर्वरूपत्वात् सर्वे ते तव राघव।
रूपं दृष्ट्वापसपैयुस्तव सर्वे हि बिभ्यति॥४॥

‘रघुनन्दन! मृग, सिंह, हाथी, शेर, शरभ. चमरी गाय, नीलगाय तथा जो अन्य जंगली जीव हैं, वे सब-के-सब आपका रूप देखकर भाग जायँगे; क्योंकि ऐसा प्रभावशाली स्वरूप उन्होंने पहले कभी नहीं देखा होगा। आपसे तो सभी डरते हैं; फिर वे पशु क्यों नहीं डरेंगे? ॥ ३-४॥

त्वया च सह गन्तव्यं मया गुरुजनाज्ञया।
त्वद्वियोगेन मे राम त्यक्तव्यमिह जीवितम्॥५॥

‘श्रीराम! मुझे गुरुजनों की आज्ञा से निश्चय ही आपके साथ चलना है; क्योंकि आपका वियोग हो जाने पर मैं यहाँ अपने जीवन का परित्याग कर दूँगी॥

नहि मां त्वत्समीपस्थामपि शक्रोऽपि राघव।
सुराणामीश्वरः शक्तः प्रधर्षयितुमोजसा॥६॥

‘रघुनाथजी! आपके समीप रहने पर देवताओं के राजा इन्द्र भी बलपूर्वक मेरा तिरस्कार नहीं कर सकते॥६॥

पतिहीना तु या नारी न सा शक्ष्यति जीवितुम्।
काममेवंविधं राम त्वया मम निदर्शितम्॥७॥

श्रीराम ! पतिव्रता स्त्री अपने पति से वियोग होने पर जीवित नहीं रह सकेगी; ऐसी बात आपने भी मुझे भलीभाँति दर्शायी है॥७॥

अथापि च महाप्राज्ञ ब्राह्मणानां मया श्रुतम्।
पुरा पितृगृहे सत्यं वस्तव्यं किल मे वने॥८॥

‘महाप्राज्ञ! यद्यपि वन में दोष और दुःख ही भरे हैं, तथापि अपने पिता के घर पर रहते समय मैं ब्राह्मणों के मुख से पहले यह बात सुन चुकी हूँ कि ‘मुझे अवश्य ही वन में रहना पड़ेगा’ यह बात मेरे जीवन में सत्य होकर रहेगी॥८॥

लक्षणिभ्यो द्विजातिभ्यः श्रुत्वाहं वचनं गृहे।
वनवासकृतोत्साहा नित्यमेव महाबल॥९॥

‘महाबली वीर! हस्तरेखा देखकर भविष्य की बातें जान लेने वाले ब्राह्मणों के मुख से अपने घर पर ऐसी बात सुनकर मैं सदा ही वनवास के लिये उत्साहित रहती हूँ॥

आदेशो वनवासस्य प्राप्तव्यः स मया किल।
सा त्वया सह भाहं यास्यामि प्रिय नान्यथा॥ १०॥

‘प्रियतम! ब्राह्मण से ज्ञात हुआ वन में रहने का आदेश एक-न-एक दिन मुझे पूरा करना ही पड़ेगा, यह किसी तरह पलट नहीं सकता। अतः मैं अपने स्वामी आपके साथ वन में अवश्य चलूँगी॥ १० ॥

कृतादेशा भविष्यामि गमिष्यामि त्वया सह।
कालश्चायं समुत्पन्नः सत्यवान् भवतु द्विजः॥ ११॥

‘ऐसा होने से मैं उस भाग्य के विधान को भोग लूंगी। उसके लिये यह समय आ गया है, अतः आपके साथ मुझे चलना ही है; इससे उस ब्राह्मण की बात भी सच्ची हो जायगी॥ ११॥

वनवासे हि जानामि दुःखानि बहुधा किल।
प्राप्यन्ते नियतं वीर पुरुषैरकृतात्मभिः॥१२॥

‘वीर! मैं जानती हूँ कि वनवास में अवश्य ही बहुत-से दुःख प्राप्त होते हैं; परंतु वे उन्हीं को दुःख जान पड़ते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ और मन अपने वश में नहीं हैं ॥ १२॥

कन्यया च पितुर्गेहे वनवासः श्रुतो मया।
भिक्षिण्याः शमवृत्ताया मम मातुरिहाग्रतः॥१३॥

‘पिता के घर पर कुमारी अवस्था में एक शान्तिपरायणा भिक्षुकी के मुख से भी मैंने अपने वनवास की बात सुनी थी। उसने मेरी माता के सामने ही ऐसी बात कही थी॥

प्रसादितश्च वै पूर्वं त्वं मे बहुतिथं प्रभो।
गमनं वनवासस्य कांक्षितं हि सह त्वया॥१४॥

‘प्रभो! यहाँ आने पर भी मैंने पहले ही कई बार आपसे कुछ कालतक वन में रहने के लिये प्रार्थना की थी और आपको राजी भी कर लिया था। इससे आप निश्चितरूप से जान लें कि आपके साथ वन को चलना मुझे पहले से ही अभीष्ट है॥ १४ ॥

कृतक्षणाहं भद्रं ते गमनं प्रति राघव।
वनवासस्य शूरस्य मम चर्या हि रोचते॥१५॥

‘रघुनन्दन! आपका भला हो। मैं वहाँ चलने के लिये पहले से ही आपकी अनुमति प्राप्त कर चुकी हूँ। अपने शूरवीर वनवासी पति की सेवा करना मेरे लिये अधिक रुचिकर है॥ १५ ॥

शुद्धात्मन् प्रेमभावाद्धि भविष्यामि विकल्मषा।
भर्तारमनुगच्छन्ती भर्ता हि परदैवतम्॥१६॥

‘शुद्धात्मन्! आप मेरे स्वामी हैं, आपके पीछे प्रेमभाव से वन में जाने पर मेरे पाप दूर हो जायेंगे; क्योंकि स्वामी ही स्त्री के लिये सबसे बड़ा देवता है॥ १६॥

प्रेत्यभावे हि कल्याणः संगमो मे सदा त्वया।
श्रुतिर्हि श्रूयते पुण्या ब्राह्मणानां यशस्विनाम्॥ १७॥

‘आपके अनुगमन से परलोक में भी मेरा कल्याण होगा और सदा आपके साथ मेरा संयोग बना रहेगा। इस विषय में यशस्वी ब्राह्मणों के मुख से एक पवित्र – श्रुति सुनी जाती है (जो इस प्रकार है-)॥१७॥

इहलोके च पितृभिर्या स्त्री यस्य महाबल।
अद्भिर्दत्ता स्वधर्मेण प्रेत्यभावेऽपि तस्य सा॥ १८॥

‘महाबली वीर! इस लोक में पिता आदि के द्वारा जो कन्या जिस पुरुष को अपने धर्म के अनुसार जल से संकल्प करके दे दी जाती है, वह मरने के बाद परलोक में भी उसी की स्त्री होती है॥ १८॥

एवमस्मात् स्वकां नारी सुवृत्तां हि पतिव्रताम्।
नाभिरोचयसे नेतुं त्वं मां केनेह हेतुना ॥१९॥

‘मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ, उत्तम व्रत का पालन करने वाली और पतिव्रता हूँ, फिर क्या कारण है कि आप मुझे यहाँ से अपने साथ ले चलना नहीं चाहतेहैं।॥ १९॥

भक्तां पतिव्रतां दीनां मां समां सुखदुःखयोः।
नेतुमर्हसि काकुत्स्थ समानसुखदुःखिनीम्॥२०॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण! मैं आपकी भक्त हूँ, पातिव्रत्य का पालन करती हूँ, आपके बिछोह के भय से दीन हो रही हूँ तथा आपके सुख-दुःख में समान रूप से हाथ बँटाने वाली हूँ। मुझे सुख मिले या दुःख, मैं दोनों अवस्थाओं में सम रहूँगी हर्ष या शोक के वशीभूत नहीं होऊँगी। अतः आप अवश्य ही मुझे साथ ले चलने की कृपा करें॥ २०॥

यदि मां दुःखितामेवं वनं नेतुं न चेच्छसि।
विषमग्निं जलं वाहमास्थास्ये मृत्युकारणात्॥ २१॥

‘यदि आप इस प्रकार दुःख में पड़ी हुई मुझ सेविका को अपने साथ वन में ले जाना नहीं चाहते हैं तो मैं मृत्यु के लिये विष खा लूँगी, आगमें कूद पडूंगी अथवा जल में डूब जाऊँगी’ ॥ २१॥

एवं बहुविधं तं सा याचते गमनं प्रति।
नानुमेने महाबाहुस्तां नेतुं विजनं वनम्॥ २२॥

इस तरह अनेक प्रकार से सीताजी वन में जाने के लिये याचना कर रही थीं तथापि महाबाहु श्रीराम ने उन्हें अपने साथ निर्जन वन में ले जाने की अनुमति नहीं दी।

एवमुक्ता तु सा चिन्तां मैथिली समुपागता।
स्नापयन्तीव गामुष्णैरश्रुभिर्नयनच्युतैः॥२३॥

इस प्रकार उनके अस्वीकार कर देने पर मिथिलेशकुमारी सीता को बड़ी चिन्ता हुई और वे अपने नेत्रों से गरम-गरम आँसू बहाकर धरती को भिगोने-सी लगीं॥ २३॥

चिन्तयन्तीं तदा तां तु निवर्तयितुमात्मवान्।
क्रोधाविष्टां तु वैदेहीं काकुत्स्थो बह्वसान्त्वयत्॥ २४॥

उस समय विदेहनन्दिनी जानकी को चिन्तित और कुपित देख मन को वश में रखने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें वनवास के विचार से निवृत्त करने के लिये भाँति
भाँति की बातें कहकर समझाया॥ २४ ॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः ॥२९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२९॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 29

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: