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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 40 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 40

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 40)

सीता, राम और लक्ष्मण का दशरथ की परिक्रमा करके कौसल्या आदि को प्रणाम करना, सीतासहित श्रीराम और लक्ष्मण का रथमें बैठकर वन की ओर प्रस्थान

 

अथ रामश्च सीता च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः।
उपसंगृह्य राजानं चक्रुर्दीनाः प्रदक्षिणम्॥१॥

तदनन्तर राम, लक्ष्मण और सीता ने हाथ जोड़कर दीनभाव से राजा दशरथ के चरणों का स्पर्श करके उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की॥१॥

तं चापि समनुज्ञाप्य धर्मज्ञः सह सीतया।
राघवः शोकसम्मूढो जननीमभ्यवादयत्॥२॥

उनसे विदा लेकर सीतासहित धर्मज्ञ रघुनाथजी ने माता का कष्ट देखकर शोक से व्याकुल हो उनके चरणों में प्रणाम किया॥२॥

अन्वक्षं लक्ष्मणो भ्रातुः कौसल्यामभ्यवादयत्।
अपि मातुः सुमित्राया जग्राह चरणौ पुनः॥३॥

श्रीराम के बाद लक्ष्मण ने भी पहले माता कौसल्या को प्रणाम किया, फिर अपनी माता सुमित्रा के भी दोनों पैर पकड़े॥३॥

तं वन्दमानं रुदती माता सौमित्रिमब्रवीत्।।
हितकामा महाबाहं मूर्युपाघ्राय लक्ष्मणम्॥४॥

अपने पुत्र महाबाहु लक्ष्मण को प्रणाम करते देख उनका हित चाहने वाली माता सुमित्रा ने बेटे का मस्तक सूंघकर कहा- ॥४॥

सृष्टस्त्वं वनवासाय स्वनुरक्तः सुहृज्जने।
रामे प्रमादं मा कार्षीः पुत्र भ्रातरि गच्छति॥५॥

‘वत्स! तुम अपने सुहृद् श्रीराम के परम अनुरागी हो, इसलिये मैं तुम्हें वनवास के लिये विदा करती हूँ। अपने बड़े भाई के वन में इधर-उधर जाते समय तुम उनकी सेवा में कभी प्रमाद न करना॥ ५॥

व्यसनी वा समृद्धो वा गतिरेष तवानघ।
एष लोके सतां धर्मो यज्ज्येष्ठवशगो भवेत्॥६॥

ये संकट में हों या समृद्धि में, ये ही तुम्हारी परम गति हैं। निष्पाप लक्ष्मण! संसार में सत्पुरुषों का यही धर्म है कि सर्वदा अपने बड़े भाई की आज्ञा के अधीन रहें॥

इदं हि वृत्तमुचितं कुलस्यास्य सनातनम्।
दानं दीक्षा च यज्ञेषु तनुत्यागो मृधेषु हि॥७॥

‘दान देना, यज्ञ में दीक्षा ग्रहण करना और युद्ध में शरीर त्यागना—यही इस कुल का उचित एवं सनातन आचार है’ ॥ ७॥

लक्ष्मणं त्वेवमुक्त्वासौ संसिद्धं प्रियराघवम्।
सुमित्रा गच्छ गच्छेति पुनः पुनरुवाच तम्॥८॥

अपने पुत्र लक्ष्मण से ऐसा कहकर सुमित्रा ने वनवास के लिये निश्चित विचार रखने वाले सर्वप्रिय श्रीरामचन्द्रजी से कहा—’बेटा! जाओ, जाओ (तुम्हारा मार्ग मङ्गलमय हो)।’ इसके बाद वे लक्ष्मण से फिर बोलीं- ॥ ८॥

रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छ तात यथासुखम्॥ ९॥

बेटा! तुम श्रीराम को ही अपने पिता महाराज दशरथ समझो, जनकनन्दिनी सीता को ही अपनी माता सुमित्रा मानो और वन को ही अयोध्या जानो। अब सुखपूर्वक यहाँ से प्रस्थान करो’ ॥९॥

ततः सुमन्त्रः काकुत्स्थं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्।
विनीतो विनयज्ञश्च मातलिसवं यथा ॥१०॥

इसके बाद जैसे मातलि इन्द्र से कोई बात कहते हैं, उसी प्रकार विनय के ज्ञाता सुमन्त्र ने ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम से विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा— ॥१०॥

रथमारोह भद्रं ते राजपुत्र महायशः।
क्षिप्रं त्वां प्रापयिष्यामि यत्र मां राम वक्ष्यसे॥ ११॥

‘महायशस्वी राजकुमार श्रीराम! आपका कल्याण हो। आप इस रथ पर बैठिये। आप मुझसे जहाँ कहेंगे, वहीं मैं शीघ्र आपको पहुँचा दूंगा॥ ११॥

चतुर्दश हि वर्षाणि वस्तव्यानि वने त्वया।
तान्युपक्रमितव्यानि यानि देव्या प्रचोदितः॥ १२॥

आपको जिन चौदह वर्षों तक वन में रहना है, उनकी गणना आज से ही आरम्भ हो जानी चाहिये; क्योंकि देवी कैकेयी ने आज ही आपको वन में जाने के लिये प्रेरित किया है’ ॥ १२ ॥

तं रथं सूर्यसंकाशं सीता हृष्टेन चेतसा।
आरुरोह वरारोहा कृत्वालंकारमात्मनः॥१३॥

तब सुन्दरी सीता अपने अङ्गों में उत्तम अलंकार धारण करके प्रसन्न चित्त से उस सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हुईं। १३ ।।

वनवासं हि संख्याय वासांस्याभरणानि च।
भर्तारमनुगच्छन्त्यै सीतायै श्वशुरो ददौ ॥१४॥

पति के साथ जाने वाली सीता के लिये उनके श्वशुर ने वनवास की वर्षसंख्या गिनकर उसके अनुसार ही वस्त्र और आभूषण दिये थे॥१४॥

तथैवायुधजातानि भ्रातृभ्यां कवचानि च।
रथोपस्थे प्रविन्यस्य सचर्म कठिनं च यत्॥१५॥

इसी प्रकार महाराज ने दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण के लिये जो बहुत-से अस्त्र-शस्त्र और कवच प्रदान किये थे, उन्हें रथ के पिछले भाग में रखकर उन्होंने चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी और खन्ती या कुदारी भी उसी पर रख दी॥ १५॥

अथो ज्वलनसंकाशं चामीकरविभूषितम्।
तमारुरुहतुस्तूर्णं भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१६॥

इसके बाद दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उस अग्नि के समान दीप्तिमान् सुवर्णभूषित रथ पर शीघ्र ही आरूढ़ हो गये॥ १६॥

सीतातृतीयानारूढान् दृष्ट्वा रथमचोदयत्।
सुमन्त्रः सम्मतानश्वान् वायुवेगसमाजवे॥१७॥

जिनमें सीता की संख्या तीसरी थी, उन श्रीराम आदि को रथ पर आरूढ़ हुआ देख सारथि सुमन्त्र ने रथ को आगे बढ़ाया। उसमें जुते हुए वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों को हाँका॥१७॥

प्रयाते तु महारण्यं चिररात्राय राघवे।
बभूव नगरे मूर्छा बलमूर्छा जनस्य च ॥१८॥

जब श्रीरामचन्द्र जी सुदीर्घकाल के लिये महान् वन की ओर जाने लगे, उस समय समस्त पुरवासियों, सैनिकों तथा दर्शक रूप में आये हुए बाहरी लोगों को भी मूर्छा आ गयी॥ १८ ॥

तत् समाकुलसम्भ्रान्तं मत्तसंकुपितद्विपम्।
हयसिञ्जितनिर्घोषं पुरमासीन्महास्वनम्॥१९॥

उस समय सारी अयोध्या में महान् कोलाहल मच गया। सब लोग व्याकुल होकर घबरा उठे। मतवाले हाथी श्रीराम के वियोग से कुपित हो उठे और इधर उधर भागते हुए घोड़ों के हिनहिनाने एवं उनके आभूषणों के खनखनाने की आवाज सब ओर गूंजने लगी॥ १९॥

ततः सबालवृद्धा सा पुरी परमपीडिता।
राममेवाभिदुद्राव घर्तिः सलिलं यथा॥२०॥

अयोध्यापुरी के आबाल वृद्ध सब लोग अत्यन्त पीड़ित होकर श्रीराम के ही पीछे दौड़े, मानो धूप से पीडित हुए प्राणी पानी की ओर भागे जाते हों।॥ २० ॥

पार्श्वतः पृष्ठतश्चापि लम्बमानास्तदुन्मुखाः।
बाष्पपूर्णमुखाः सर्वे तमच शनिःस्वनाः॥२१॥

उनमें से कुछ लोग रथ के पीछे और अगल-बगल में लटक गये। सभी श्रीराम के लिये उत्कण्ठित थे और सबके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। वे सबके-सब उच्चस्वर से कहने लगे- ॥२१॥

संयच्छ वाजिनां रश्मीन् सूत याहि शनैः शनैः।
मुखं द्रक्ष्याम रामस्य दुर्दर्शं नो भविष्यति॥२२॥

सूत! घोड़ों की लगाम खींचो। रथ को धीरे-धीरे ले चलो। हम श्रीराम का मुख देखेंगे; क्योंकि अब इस मुख का दर्शन हमलोगों के लिये दुर्लभ हो जायगा॥ २२॥

आयसं हृदयं नूनं राममातुरसंशयम्।
यद् देवगर्भप्रतिमे वनं याति न भिद्यते॥२३॥

निश्चय ही श्रीरामचन्द्रजी की माता का हृदय लोहे का बना हुआ है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। तभी तो देवकुमार के समान तेजस्वी पुत्र के वन की ओर जाते समय फट नहीं जाता है।॥ २३॥

कृतकृत्या हि वैदेही छायेवानुगता पतिम्।
न जहाति रता धर्मे मेरुमर्कप्रभा यथा॥२४॥

‘विदेहनन्दिनी सीता कृतार्थ हो गयीं; क्योंकि वे पतिव्रत-धर्म में तत्पर रहकर छाया की भाँति पति के पीछे-पीछे चली जा रही हैं। वे श्रीराम का साथ उसी प्रकार नहीं छोड़ती हैं, जैसे सूर्य की प्रभा मेरुपर्वत का त्याग नहीं करती है॥ २४॥

अहो लक्ष्मण सिद्धार्थः सततं प्रियवादिनम्।
भ्रातरं देवसंकाशं यस्त्वं परिचरिष्यसि ॥ २५॥

अहो लक्ष्मण! तुम भी कृतार्थ हो गये; क्योंकि तुम सदा प्रिय वचन बोलने वाले अपने देवतुल्य भाई की वन में सेवा करोगे॥ २५॥

महत्येषा हि ते बुद्धिरेष चाभ्युदयो महान्।
एष स्वर्गस्य मार्गश्च यदेनमनुगच्छसि ॥२६॥

‘तुम्हारी यह बुद्धि विशाल है। तुम्हारा यह महान् अभ्युदय है और तुम्हारे लिये यह स्वर्ग का मार्ग मिल गया है; क्योंकि तुम श्रीराम का अनुसरण कर रहे हो’ ॥ २६॥

एवं वदन्तस्ते सोढुं न शेकुर्बाष्पमागतम्।
नरास्तमनुगच्छन्ति प्रियमिक्ष्वाकुनन्दनम्॥२७॥

ऐसी बातें कहते हुए वे पुरवासी मनुष्य उमड़े हुए आँसुओं का वेग न सह सके। वे लोग सबके प्रेमपात्र इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्रजी के पीछे-पीछे चले जा रहे थे॥२७॥

अथ राजा वृतः स्त्रीभिर्दीनाभिर्दीनचेतनः।
निर्जगाम प्रियं पुत्रं द्रक्ष्यामीति ब्रुवन् गृहात्॥ २८॥

उसी समय दयनीय दशा को प्राप्त हुई अपनी स्त्रियों से घिरे हुए राजा दशरथ अत्यन्त दीन होकर मैं अपने प्यारे पुत्र श्रीराम को देखूगा’ ऐसा कहते हुए महल से बाहर निकल आये॥ २८॥

शुश्रुवे चाग्रतः स्त्रीणां रुदतीनां महास्वनः।
यथा नादः करेणूनां बद्धे महति कुञ्जरे॥२९॥

उन्होंने अपने आगे रोती हुई स्त्रियों का महान् आर्तनाद सुना। वह वैसा ही जान पड़ता था, जैसे बड़े हाथी यूथपति के बाँध लिये जाने पर हथिनियों का चीत्कार सुनायी देता है॥ २९॥

पिता हि राजा काकुत्स्थः श्रीमान् सन्नस्तदा बभौ।
परिपूर्णः शशी काले ग्रहेणोपप्लुतो यथा॥३०॥

उस समय श्रीराम के पिता ककुत्स्थवंशी श्रीमान् राजा दशरथ उसी तरह खिन्न जान पड़ते थे, जैसे पर्व के समय राहु से ग्रस्त होने पर पूर्ण चन्द्रमा श्रीहीन प्रतीत होते हैं॥३०॥

स च श्रीमानचिन्त्यात्मा रामो दशरथात्मजः।
सूतं संचोदयामास त्वरितं वाह्यतामिति॥३१॥

यह देख अचिन्त्यस्वरूप दशरथनन्दन श्रीमान् भगवान् राम ने सुमन्त्र को प्रेरित करते हुए कहा —’आप रथ को तेजीसे चलाइये’ ॥ ३१॥

रामो याहीति तं सूतं तिष्ठेति च जनस्तथा।
उभयं नाशकत् सूतः कर्तुमध्वनि चोदितः॥ ३२॥

एक ओर श्रीरामचन्द्रजी सारथि से रथ हाँकने के लिये कहते थे और दूसरी ओर सारा जनसमुदाय उन्हें ठहर जाने के लिये कहता था। इस प्रकार दुविधा में पड़कर सारथि सुमन्त्र उस मार्गपर दोनों में से कुछ न कर सके न तो रथ को आगे बढ़ा सके और न सर्वथा रोक ही सके॥३२॥

निर्गच्छति महाबाहौ रामे पौरजनाश्रुभिः।
पतितैरभ्यवहितं प्रणनाश महीरजः॥ ३३॥

महाबाहु श्रीराम के नगर से निकलते समय पुरवासियों के नेत्रों से गिरे हुए आँसुओं द्वारा भीगकर धरती की उड़ती हुई धूल शान्त हो गयी॥ ३३॥

रुदिताश्रुपरिघुनं हाहाकृतमचेतनम्।
प्रयाणे राघवस्यासीत् पुरं परमपीडितम्॥३४॥

श्रीरामचन्द्रजी के प्रस्थान करते समय सारा नगर अत्यन्त पीड़ित हो गया। सब रोने और आँसू बहाने लगे तथा सभी हाहाकार करते-करते अचेत-से हो गये॥ ३४॥

सुस्राव नयनैः स्त्रीणामस्रमायाससम्भवम्।
मीनसंक्षोभचलितैः सलिलं पङ्कजैरिव॥ ३५॥

नारियों के नेत्रों से उसी तरह खेदजनित अश्रु झर रहे थे, जैसे मछलियों के उछलने से हिले हुए कमलों द्वारा जलकणों की वर्षा होने लगती है॥ ३५ ॥

दृष्ट्वा तु नृपतिः श्रीमानेकचित्तगतं पुरम्।
निपपातैव दुःखेन कृत्तमूल इव द्रुमः॥३६॥

श्रीमान् राजा दशरथ सारी अयोध्यापुरी के लोगों को एक-सा व्याकुलचित्त देखकर अत्यन्त दुःख के कारण जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति भूमिपर गिर पड़े॥३६॥

ततो हलहलाशब्दो जज्ञे रामस्य पृष्ठतः।
नराणां प्रेक्ष्य राजानं सीदन्तं भृशदुःखितम्॥ ३७॥

उस समय राजा को अत्यन्त दुःख में मग्न हो कष्ट पाते देख श्रीराम के पीछे जाते हुए मनुष्यों का पुनः महान् कोलाहल प्रकट हुआ॥ ३७॥

हा रामेति जनाः केचिद् राममातेति चापरे।
अन्तःपुरसमृद्धं च क्रोशन्तं पर्यदेवयन्॥३८॥

अन्तःपुरकी रानियों के सहित राजा दशरथ को उच्चस्वर से विलाप करते देख कोई ‘हा राम!’ कहकर और कोई ‘हा राममाता!’ की पुकार मचाकर करुणक्रन्दन करने लगे॥ ३८ ॥

अन्वीक्षमाणो रामस्तु विषण्णं भ्रान्तचेतसम्।
राजानं मातरं चैव ददर्शानुगतौ पथि॥३९॥

उस समय श्रीरामचन्द्रजी ने पीछे घूमकर देखा तो उन्हें विषादग्रस्त तथा भ्रान्तचित्त पिता राजा दशरथ और दुःख में डूबी हुई माता कौसल्या दोनों ही मार्ग पर अपने पीछे आते हुए दिखायी दिये॥ ३९॥ ।

स बद्ध इव पाशेन किशोरो मातरं यथा।
धर्मपाशेन संयुक्तः प्रकाशं नाभ्युदैक्षत॥४०॥

जैसे रस्सी में बँधा हुआ घोड़े का बच्चा अपनी मा को नहीं देख पाता, उसी प्रकार धर्म के बन्धन में बँधे हुए श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता की ओर स्पष्ट रूप से न देख सके॥ ४०॥

पदातिनौ च यानाविदुःखाही सुखोचितौ।
दृष्ट्वा संचोदयामास शीघ्रं याहीति सारथिम्॥ ४१॥

जो सवारीपर चलने योग्य, दुःख भोगनेके अयोग्य और सुख भोगने के ही योग्य थे, उन माता-पिता को पैदल ही अपने पीछे-पीछे आते देख श्रीरामचन्द्रजी ने सारथि को शीघ्र रथ हाँकने के लिये प्रेरित किया। ४१॥

नहि तत् पुरुषव्याघ्रो दुःख दर्शनं पितुः।
मातुश्च सहितुं शक्तस्तोत्नैर्नुन्न इव द्विपः॥४२॥

जैसे अंकुश से पीड़ित किया हुआ गजराज उस कष्ट को नहीं सहन कर पाता है, उसी प्रकार पुरुषसिंह श्रीराम के लिये माता-पिता को इस दुःखद अवस्था में देखना असह्य हो गया॥४२॥

प्रत्यगारमिवायान्ती सवत्सा वत्सकारणात्।
बद्धवत्सा यथा धेनू राममाताभ्यधावत॥४३॥

जैसे बँधे हुए बछड़े वाली सवत्सा गौ शाम को घर की ओर लौटते समय बछड़े के स्नेह से दौड़ी चली आती है, उसी प्रकार श्रीराम की माता कौसल्या उनकी ओर दौड़ी आ रही थीं॥ ४३॥

तथा रुदन्तीं कौसल्यां रथं तमनुधावतीम्।
क्रोशन्तीं राम रामेति हा सीते लक्ष्मणेति च॥ ४४॥
रामलक्ष्मणसीतार्थं सवन्तीं वारि नेत्रजम्।
असकृत् प्रैक्षत स तां नृत्यन्तीमिव मातरम्॥ ४५॥

हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण !’ की रट लगाती और रोती हुई कौसल्या उस रथ के पीछे दौड़ रही थीं। वे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के लिये नेत्रों से आँसू बहा रही थीं एवं इधर-उधर नाचती–चक्कर लगाती-सी डोल रही थीं। इस अवस्था में माता कौसल्या को श्रीरामचन्द्रजी ने बारंबार देखा। ४४-४५॥

तिष्ठेति राजा चुक्रोश याहि याहीति राघवः।
सुमन्त्रस्य बभूवात्मा चक्रयोरिव चान्तरा॥४६॥

राजा दशरथ चिल्लाकर कहते थे—’सुमन्त्र ! ठहरो।’ किंतु श्रीरामचन्द्रजी कहते थे—’आगे बढ़िये, शीघ्र आगे बढ़िये।’ उन दो प्रकार के आदेशों में पड़े हुए बेचारे सुमन्त्र का मन उस समय दो पहियों के बीच में फंसे हुए मनुष्यका-सा हो रहा था॥ ४६॥

नाश्रौषमिति राजानमपालब्धोऽपि वक्ष्यसि।
चिरं दुःखस्य पापिष्ठमिति रामस्तमब्रवीत्॥४७॥

उस समय श्रीराम ने सुमन्त्र से कहा—’यहाँ अधिक विलम्ब करना मेरे और पिताजी के लिये दुःख ही नहीं, महान् दुःख का कारण होगा; इसलिये रथ आगे बढ़ाइये। लौटने पर महाराज उलाहना दें तो कह दीजियेगा, मैंने आपकी बात नहीं सुनी’ ॥ ४७॥

स रामस्य वचः कुर्वन्ननुज्ञाप्य च तं जनम्।
व्रजतोऽपि हयान् शीघ्रं चोदयामास सारथिः॥ ४८॥

अन्त में श्रीराम के ही आदेश का पालन करते हुए सारथि ने पीछे से आने वाले लोगों से जाने की आज्ञा ली और स्वतः चलते हुए घोड़ों को भी तीव्रगति से चलने के लिये हाँका॥४८॥

न्यवर्तत जनो राज्ञो रामं कृत्वा प्रदक्षिणम्।
मनसाप्याशुवेगेन न न्यवर्तत मानुषम्॥४९॥

राजा दशरथ के साथ आने वाले लोग मन-ही-मन श्रीराम की परिक्रमा करके शरीर मात्र से लौटे (मन से नहीं लौटे); क्योंकि वह उनके रथ की अपेक्षा भी तीव्रगामी था। दूसरे मनुष्यों का समुदाय शीघ्रगामी मन और शरीर दोनों से ही नहीं लौटा (वे सब लोग श्रीराम के पीछे-पीछे दौड़े चले गये) ॥ ४९॥

यमिच्छेत् पुनरायातं नैनं दूरमनुव्रजेत्।
इत्यमात्या महाराजमूचुर्दशरथं वचः॥५०॥

इधर मन्त्रियों ने महाराज दशरथ से कहा—’राजन् ! जिसके लिये यह इच्छा की जाय कि वह पुनः शीघ्र लौट आये, उसके पीछे दूर तक नहीं जाना चाहिये’। ५०॥

तेषां वचः सर्वगुणोपपन्नः प्रस्विन्नगात्रः प्रविषण्णरूपः।
निशम्य राजा कृपणः सभार्यो व्यवस्थितस्तं सुतमीक्षमाणः॥५१॥

सर्वगुणसम्पन्न राजा दशरथ का शरीर पसीने से भीग रहा था। वे विषाद के मूर्तिमान् स्वरूप जान पड़ते थे। अपने मन्त्रियों की उपर्युक्त बात सुनकर वे वहीं खड़े हो गये और रानियों सहित अत्यन्त दीनभाव से पुत्र की ओर देखने लगे॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः॥४०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४०॥


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Shivangi

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