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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 54 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 54

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
चतुःपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 54)

लक्ष्मण और सीता सहित श्रीराम का भरद्वाज-आश्रम में जाना, मुनि का उन्हें चित्रकूट पर्वत पर ठहरने का आदेश तथा चित्रकूट की महत्ता एवं शोभा का वर्णन

 

ते तु तस्मिन् महावृक्षे उषित्वा रजनी शुभाम्।
विमलेऽभ्युदिते सूर्ये तस्माद् देशात् प्रतस्थिरे॥

उस महान् वृक्ष के नीचे वह सुन्दर रात बिताकर वे सब लोग निर्मल सूर्योदयकाल में उस स्थान से आगे को प्रस्थित हुए॥१॥

यत्र भागीरथीं गङ्गां यमुनाभिप्रवर्तते।
जग्मुस्तं देशमुद्दिश्य विगाह्य सुमहद् वनम्॥२॥

जहाँ भागीरथी गङ्गा से यमुना मिलती हैं, उस स्थान पर जाने के लिये वे महान् वन के भीतर से होकर यात्रा करने लगे॥२॥

ते भूमिभागान् विविधान् देशांश्चापि मनोहरान्।
अदृष्टपूर्वान् पश्यन्तस्तत्र तत्र यशस्विनः॥३॥

वे तीनों यशस्वी यात्री मार्ग में जहाँ-तहाँ जो पहले कभी देखने में नहीं आये थे, ऐसे अनेक प्रकार के भूभाग तथा मनोहर प्रदेश देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। ३॥

यथा क्षेमेण सम्पश्यन् पुष्पितान् विविधान् दुमान्।
निर्वृत्तमात्रे दिवसे रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥४॥

सुखपूर्वक आराम से उठते-बैठते यात्रा करते हुए उन तीनों ने फूलों से सुशोभित भाँति-भाँति के वृक्षों का दर्शन किया। इस प्रकार जब दिन प्रायः समाप्त हो चला, तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- ॥४॥

प्रयागमभितः पश्य सौमित्रे धूममुत्तमम्।
अग्नेर्भगवतः केतुं मन्ये संनिहितो मुनिः॥५॥

‘सुमित्रानन्दन! वह देखो, प्रयाग के पास भगवान् अग्निदेव की ध्वजारूप उत्तम धूम उठ रहा है। मालूम होता है, मुनिवर भरद्वाज यहीं हैं।॥ ५॥

नूनं प्राप्ताः स्म सम्भेदं गङ्गायमुनयोर्वयम्।
तथाहि श्रूयते शब्दो वारिणोरिघर्षजः॥६॥

‘निश्चय ही हमलोग गङ्गा-यमुना के सङ्गम के पास आ पहुँचे हैं; क्योंकि दो नदियों के जलों के परस्पर टकराने से जो शब्द प्रकट होता है, वह सुनायी दे रहा है॥६॥

दारूणि परिभिन्नानि वनजैरुपजीविभिः ।
छिन्नाश्चाप्याश्रमे चैते दृश्यन्ते विविधा द्रुमाः॥ ७॥

‘वन में उत्पन्न हुए फल-मूल और काष्ठ आदि से जीविका चलाने वाले लोगों ने जो लकड़ियाँ काटी हैं, वे दिखायी देती हैं तथा जिनकी लकड़ियाँ काटी गयी हैं, वे नाना प्रकार के वृक्ष भी आश्रम के समीप दृष्टिगोचर हो रहे हैं’ ॥ ७॥

धन्विनौ तौ सुखं गत्वा लम्बमाने दिवाकरे।
गङ्गायमुनयोः संधौ प्रापतुर्निलयं मुनेः॥८॥

इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों धनुर्धर वीर श्रीराम और लक्ष्मण सूर्यास्त होते-होते गङ्गा-यमुना के सङ्गम के समीप मुनिवर भरद्वाज के आश्रम पर जा पहुँचे॥८॥

रामस्त्वाश्रममासाद्य त्रासयन् मृगपक्षिणः।
गत्वा मुहूर्तमध्वानं भरद्वाजमुपागमत्॥९॥

श्रीरामचन्द्रजी आश्रम की सीमा में पहुँचकर अपने धनुर्धर वेश के द्वारा वहाँ के पशु-पक्षियों को डराते हुएदो ही घड़ी में तै करने योग्य मार्ग से चलकर भरद्वाज मुनि के समीप जा पहुँचे॥९॥

ततस्त्वाश्रममासाद्य मुनेर्दर्शनकांक्षिणौ।
सीतयानुगतौ वीरौ दूरादेवावतस्थतुः॥१०॥

आश्रममें पहुँचकर महर्षिके दर्शनकी इच्छावाले सीतासहित वे दोनों वीर कुछ दूरपर ही खड़े हो गये।

स प्रविश्य महात्मानमृषि शिष्यगणैर्वृतम्।
संशितव्रतमेकाग्रं तपसा लब्धचक्षुषम्॥११॥
हुताग्निहोत्रं दृष्ट्वैव महाभागः कृताञ्जलिः।
रामः सौमित्रिणा सार्धं सीतया चाभ्यवादयत्॥ १२॥

(दूर खड़े हो महर्षि के शिष्य से अपने आगमन की सूचना दिलवाकर भीतर आने की अनुमति प्राप्त कर लेने के बाद) पर्णशाला में प्रवेश करके उन्होंने तपस्या के प्रभाव से तीनों कालों की सारी बातें देखने की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेने वाले एकाग्रचित्त तथा तीक्ष्ण व्रतधारी महात्मा भरद्वाज ऋषिका दर्शन किया, जो अग्निहोत्र करके शिष्यों से घिरे हुए आसन पर विराजमान थे। महर्षि को देखते ही लक्ष्मण और सीतासहित महाभाग श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम किया॥ ११-१२ ॥

न्यवेदयत चात्मानं तस्मै लक्ष्मणपूर्वजः।
पुत्रौ दशरथस्यावां भगवन् रामलक्ष्मणौ ॥१३॥
भार्या ममेयं कल्याणी वैदेही जनकात्मजा।
मां चानुयाता विजनं तपोवनमनिन्दिता॥१४॥

तत्पश्चात् लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीरघुनाथजी ने उनसे इस प्रकार अपना परिचय दिया—’भगवन् ! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं। मेरा नाम राम और इनका लक्ष्मण है तथा ये विदेहराज जनक की पुत्री और मेरी कल्याणमयी पत्नी सती साध्वी सीता हैं, जो निर्जन तपोवन में भी मेरा साथ देने के लिये आयी हैं। १३-१४॥

पित्रा प्रव्राज्यमानं मां सौमित्रिरनुजः प्रियः।
अयमन्वगमद् भ्राता वनमेव धृतव्रतः॥१५॥

‘पिता की आज्ञा से मुझे वन की ओर आते देख ये । मेरे प्रिय अनुज भाई सुमित्राकुमार लक्ष्मण भी वन में ही रहने का व्रत लेकर मेरे पीछे-पीछे चले आये हैं। १५॥

पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम्।
धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मूलफलाशनाः॥१६॥

‘भगवन्! इस प्रकार पिता की आज्ञा से हम तीनों तपोवन में जायँगे और वहाँ फल-मूल का आहार करते हुए धर्म का ही आचरण करेंगे’ ।। १६ ॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः।
उपानयत धर्मात्मा गामर्थ्यमुदकं ततः॥१७॥

परम बुद्धिमान् राजकुमार श्रीराम का वह वचन सुनकर धर्मात्मा भरद्वाज मुनि ने उनके लिये आतिथ्यसत्कार के रूप में एक गौ तथा अर्घ्य-जल समर्पित किये॥१७॥

नानाविधानन्नरसान् वन्यमूलफलाश्रयान्।
तेभ्यो ददौ तप्ततपा वासं चैवाभ्यकल्पयत्॥ १८॥

उन तपस्वी महात्माने उन सबको नाना प्रकार के अन्न, रस और जंगली फल-मूल प्रदान किये। साथ ही उनके ठहरने के लिये स्थान की भी व्यवस्था की॥ १८॥

मृगपक्षिभिरासीनो मुनिभिश्च समन्ततः।
राममागतमभ्यर्च्य स्वागतेनागतं मुनिः॥१९॥
प्रतिगृह्य तु ताम मुपविष्टं स राघवम्।
भरद्वाजोऽब्रवीद् वाक्यं धर्मयुक्तमिदं तदा ॥२०॥

महर्षि के चारों ओर मृग, पक्षी और ऋषि-मुनि बैठेथे और उनके बीच में वे विराजमान थे। उन्होंने अपने आश्रमपर अतिथि रूप में पधारे हुए श्रीराम का स्वागतपूर्वक सत्कार किया। उनके उस सत्कार को ग्रहण करके श्रीरामचन्द्रजी जब आसन पर विराजमान हुए, तब भरद्वाजजी ने उनसे यह धर्मयुक्त वचन कहा ॥

चिरस्य खलु काकुत्स्थ पश्याम्यहमुपागतम्।
श्रुतं तव मया चैव विवासनमकारणम्॥२१॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! मैं इस आश्रम पर दीर्घकाल से तुम्हारे शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ । (आज मेरा मनोरथ सफल हुआ है)। मैंने यह भी सुना है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दे दिया गया है॥ २१॥

अवकाशो विविक्तोऽयं महानद्योः समागमे।
पुण्यश्च रमणीयश्च वसत्विह भवान् सुखम्॥ २२॥

‘गङ्गा और यमुना-इन दोनों महानदियों के संगम के पास का यह स्थान बड़ा ही पवित्र और एकान्त है। यहाँ की प्राकृतिक छटा भी मनोरम है, अतः तुम यहीं सुखपूर्वक निवास करो’ ।। २२॥

एवमुक्तस्तु वचनं भरद्वाजेन राघवः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं रामः सर्वहिते रतः॥२३॥

भरद्वाज मुनि के ऐसा कहने पर समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले रघुकुलनन्दन श्रीराम ने इन शुभ वचनों के द्वारा उन्हें उत्तर दिया- ॥२३॥

भगवन्नित आसन्नः पौरजानपदो जनः।
सुदर्शमिह मां प्रेक्ष्य मन्येऽहमिममाश्रमम्॥२४॥
आगमिष्यति वैदेहीं मां चापि प्रेक्षको जनः।
अनेन कारणेनाहमिह वासं न रोचये॥२५॥

‘भगवन्! मेरे नगर और जनपद के लोग यहाँ से बहुत निकट पड़ते हैं, अतः मैं समझता हूँ कि यहाँ मुझसे मिलना सुगम समझकर लोग इस आश्रम पर मुझे और सीता को देखने के लिये प्रायः आते-जाते रहेंगे; इस कारण यहाँ निवास करना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता॥

एकान्ते पश्य भगवन्नाश्रमस्थानमुत्तमम्।
रमते यत्र वैदेही सुखार्दा जनकात्मजा॥२६॥

‘भगवन! किसी एकान्त प्रदेश में आश्रम के योग्य उत्तम स्थान देखिये (सोचकर बताइये), जहाँ सुख भोगने के योग्य विदेहराजकुमारी जानकी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें’॥ २६॥

एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं भरद्वाजो महामुनिः।
राघवस्य तु तद् वाक्यमर्थग्राहकमब्रवीत्॥२७॥

श्रीरामचन्द्रजी का यह शुभ वचन सुनकर महामुनि भरद्वाजजी ने उनके उक्त उद्देश्य की सिद्धि का बोध कराने वाली बात कही— ॥२७॥

दशक्रोश इतस्तात गिरिर्यस्मिन् निवत्स्यसि।
महर्षिसेवितः पुण्यः पर्वतः शुभदर्शनः॥ २८॥

‘तात! यहाँ से दस कोस (अन्य व्याख्या के अनुसार ३० कोस)* की दूरी पर एक सुन्दर और महर्षियों द्वारा सेवित परम पवित्र पर्वत है, जिस पर तुम्हें निवास करना होगा॥ २८॥
* रामायणशिरोमणिकार दस कोस का अर्थ तीस कोस करते हैं और ‘दश च दश च दश च’ ऐसी व्युत्पत्ति करके एक शेष के नियमानुसार एक ही दश का प्रयोग होने पर भी उसे ३० संख्या का बोधक मानते हैं। प्रयाग से चित्रकूट की दूरी लगभग २८ कोस मानी जाती है, जो उपर्युक्त संख्या से मिलती-जुलती ही है। आधुनिक माप के अनुसार प्रयाग से चित्रकूट ८० मील है। इस हिसाब से चालीस कोस की दूरी हुई। परंतु पहले का क्रोशमान आधुनिक मान से कुछ बड़ा रहा होगा, तभी यह अन्तर है।

गोलाङ्गलानुचरितो वानरर्भनिषेवितः।
चित्रकूट इति ख्यातो गन्धमादनसंनिभः॥२९॥

‘उस पर बहुत-से लंगूर विचरते रहते हैं। वहाँ वानर और रीछ भी निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट नाम से विख्यात है और गन्धमादन के समान मनोहरहै॥२९॥

यावता चित्रकूटस्य नरः शृङ्गाण्यवेक्षते।
कल्याणानि समाधत्ते न पापे कुरुते मनः॥३०॥

‘जब मनुष्य चित्रकूट के शिखरों का दर्शन कर लेता है, तब कल्याणकारी पुण्य कर्मों का फल पा लेता है और कभी पाप में मन नहीं लगाता है॥३०॥

ऋषयस्तत्र बहवो विहृत्य शरदां शतम्।
तपसा दिवमारूढाः कपालशिरसा सह ॥३१॥

वहाँ बहुत-से ऋषि, जिनके सिर के बाल वृद्धावस्था के कारण खोपड़ी की भाँति सफेद हो गये थे, तपस्या द्वारा सैकड़ों वर्षों तक क्रीड़ा करके स्वर्गलोक को चले गये हैं।

प्रविविक्तमहं मन्ये तं वासं भवतः सुखम्।
इह वा वनवासाय वस राम मया सह ॥ ३२॥

‘उसी पर्वत को मैं तुम्हारे लिये एकान्तवास के योग्य और सुखद मानता हूँ अथवा श्रीराम! तुम वनवास के उद्देश्य से मेरे साथ इस आश्रम पर ही रहो’ ॥ ३२ ॥

स रामं सर्वकामैस्तं भरद्वाजः प्रियातिथिम्।
सभार्यं सह च भ्रात्रा प्रतिजग्राह हर्षयन्॥३३॥

ऐसा कहकर भरद्वाजजी ने पत्नी और भ्रातासहित प्रिय अतिथि श्रीराम का हर्ष बढ़ाते हुए सब प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं द्वारा उन सबका आतिथ्य सत्कार किया॥ ३३॥

तस्य प्रयागे रामस्य तं महर्षिमुपेयुषः।
प्रपन्ना रजनी पुण्या चित्राः कथयतः कथाः॥ ३४॥

प्रयाग में श्रीरामचन्द्रजी महर्षि के पास बैठकर विचित्र बातें करते रहे, इतने में ही पुण्यमयी रात्रि का आगमन हुआ॥ ३४॥

सीतातृतीयः काकुत्स्थः परिश्रान्तः सुखोचितः।
भरद्वाजाश्रमे रम्ये तां रात्रिमवसत् सुखम्॥३५॥

वे सुख भोगने योग्य होने पर भी परिश्रम से बहुत थक गये थे, इसलिये भरद्वाज मुनि के उस मनोहर आश्रम में श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता के साथ सुखपूर्वक वह रात्रि व्यतीत की॥ ३५ ॥

प्रभातायां तु शर्वर्यां भरद्वाजमुपागमत्।
उवाच नरशार्दूलो मुनिं ज्वलिततेजसम्॥३६॥

तदनन्तर जब रात बीती और प्रातःकाल हुआ, तब पुरुषसिंह श्रीराम प्रज्वलित तेज वाले भरद्वाज मुनि के पास गये और बोले- ॥ ३६॥

शर्वरीं भगवन्नद्य सत्यशील तवाश्रमे।
उषिताः स्मोऽह वसतिमनुजानातु नो भवान्॥ ३७॥

‘भगवन्! आप स्वभावतः सत्य बोलने वाले हैं। आज हमलोगों ने आपके आश्रम में बड़े आराम से रात बितायी है, अब आप हमें आगे के गन्तव्य-स्थान पर जाने के लिये आज्ञा प्रदान करें’॥ ३७॥

रात्र्यां तु तस्यां व्युष्टायां भरद्वाजोऽब्रवीदिदम्।
मधुमूलफलोपेतं चित्रकूटं व्रजेति ह॥ ३८॥
वासमौपयिकं मन्ये तव राम महाबल।

रात बीतने और सबेरा होने पर श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर भरद्वाजजी ने कहा–’महाबली श्रीराम! तुम मधुर फल-मूल से सम्पन्न चित्रकूट पर्वत पर जाओ। मैं उसी को तुम्हारे लिये उपयुक्त निवास स्थान मानता हु॥

नानानगगणोपेतः किन्नरोरगसेवितः॥ ३९॥
मयूरनादाभिरतो गजराजनिषेवितः।।
गम्यतां भवता शैलश्चित्रकूटः स विश्रुतः॥ ४०॥

‘वह सुविख्यात चित्रकूट पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा है। वहाँ बहुत-से किन्नर और सर्प निवास करते हैं। मोरों के कलरवों से वह और भी रमणीय प्रतीत होता है। बहुत-से गजराज उस पर्वत का सेवन करते हैं तुम वहीं चले जाओ। ३९-४०॥

पुण्यश्च रमणीयश्च बहुमूलफलायुतः।
तत्र कुञ्जरयूथानि मृगयूथानि चैव हि ॥४१॥
विचरन्ति वनान्तेषु तानि द्रक्ष्यसि राघव।
सरित्प्रस्रवणप्रस्थान् दरीकन्दरनिर्झरान्।
चरतः सीतया सार्धं नन्दिष्यति मनस्तव॥४२॥

‘वह पर्वत परम पवित्र, रमणीय तथा बहुसंख्यक फल-मूलों से सम्पन्न है। वहाँ झुंड-के-झुंड हाथी और हिरन वन के भीतर विचरते रहते हैं। रघुनन्दन! तुम । उन सबको प्रत्यक्ष देखोगे। मन्दाकिनी नदी,
अनेकानेक जलस्रोत, पर्वतशिखर, गुफा, कन्दरा और झरने भी तुम्हारे देख नेमें आयेंगे। वह पर्वत सीता के साथ विचरते हुए तुम्हारे मन को आनन्द प्रदान करेगा॥ ४१-४२॥

प्रहृष्टकोयष्टिभकोकिलस्वनैविनोदयन्तं च सुखं परं शिवम्।
मृगैश्च मत्तैर्बहुभिश्च कुञ्जरैः सुरम्यमासाद्य समावसाश्रयम्॥४३॥

‘हर्ष में भरे हुए टिट्टिभ और कोकिलों के कलरवों द्वारा वह पर्वत यात्रियों का मनोरञ्जन-सा करता है। वह परम सुखद एवं कल्याणकारी है, मदमत्त मृगों और बहुसंख्यक मतवाले हाथियों ने उसकी रमणीयता को और बढ़ा दिया है तुम उसी पर्वत पर जाकर डेरा डालो और उसमें निवास करो’ । ४३॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः॥ ५४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौवनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५४॥


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Shivangi

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