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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 58 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 58

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अष्टपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 58)

महाराज दशरथ की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम और लक्ष्मण के संदेश सुनाना

 

प्रत्याश्वस्तो यदा राजा मोहात् प्रत्यागतस्मृतिः।
तदाजुहाव तं सूतं रामवृत्तान्तकारणात्॥१॥

मूर्छा दूर होने पर जब राजा को चेत हुआ तब सुस्थिर चित्त होकर उन्होंने श्रीराम का वृत्तान्त सुनने के लिये सारथि सुमन्त्र को सामने बुलाया॥१॥

तदा सूतो महाराजं कृताञ्जलिरुपस्थितः।
राममेवानुशोचन्तं दुःखशोकसमन्वितम्॥२॥

उस समय सुमन्त्र श्रीराम के ही शोक और चिन्ता में निरन्तर डूबे रहने वाले दुःख-शोक से व्याकुल महाराज दशरथ के पास हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥२॥

वृद्धं परमसंतप्तं नवग्रहमिव द्विपम्।
विनिःश्वसन्तं ध्यायन्तमस्वस्थमिव कुञ्जरम्॥ ३॥
राजा तु रजसा सूतं ध्वस्ताङ्गं समुपस्थितम्।
अश्रुपूर्णमुखं दीनमुवाच परमार्तवत्॥४॥

जैसे जंगल से तुरंत पकड़कर लाया हुआ हाथी अपने यूथपति गजराज का चिन्तन करके लंबी साँस खींचता और अत्यन्त संतप्त तथा अस्वस्थ हो जाता है, उसी प्रकार बूढ़े राजा दशरथ श्रीराम के लिये अत्यन्त संतप्त हो लंबी साँस खींचकर उन्हीं का ध्यान करते हुए अस्वस्थ-से हो गये थे। राजा ने देखा, सारथि का सारा शरीर धूल से भर गया है। यह सामने खड़ा है इसके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही है और यह अत्यन्त दीन दिखायी देता है। उस अवस्था में राजा ने अत्यन्त आर्त होकर उससे पूछा-॥

क्व नु वत्स्यति धर्मात्मा वृक्षमूलमुपाश्रितः।
सोऽत्यन्तसुखितः सूत किमशिष्यति राघवः॥

‘सूत! धर्मात्मा श्रीराम वृक्ष की जड़का सहारा ले कहाँ निवास करेंगे? जो अत्यन्त सुख में पले थे, वे मेरे लाडले राम वहाँ क्या खायेंगे? ॥ ५॥

दुःखस्यानुचितो दुःखं सुमन्त्र शयनोचितः।
भूमिपालात्मजो भूमौ शेते कथमनाथवत्॥६॥

‘सुमन्त्र! जो दुःख भोगने के योग्य नहीं हैं, उन्हीं श्रीराम को भारी दुःख प्राप्त हुआ है। जो राजोचित शय्यापर शयन करने योग्य हैं, वे राजकुमार श्रीराम अनाथ की भाँति भूमि पर कैसे सोते होंगे?॥६॥

यं यान्तमनुयान्ति स्म पदातिरथकुञ्जराः।
स वत्स्यति कथं रामो विजनं वनमाश्रितः॥७॥

‘जिनके यात्रा करते समय पीछे-पीछे पैदलों, रथियों और हाथी सवारों की सेना चलती थी, वे ही श्रीराम निर्जन वन में पहुँचकर वहाँ कैसे निवास करेंगे?॥

व्यालैर्मृगैराचरितं कृष्णसर्पनिषेवितम्।
कथं कुमारौ वैदेह्या सार्धं वनमुपाश्रितौ॥८॥

‘जहाँ अजगर और व्याघ्र-सिंह आदि हिंसक पशु विचरते हैं तथा काले सर्प जिसका सेवन करते हैं, उसी वनका आश्रय लेने वाले मेरे दोनों कुमार सीता के साथ वहाँ कैसे रहेंगे? ॥ ८॥

सुकुमार्या तपस्विन्या सुमन्त्र सह सीतया।
राजपुत्रौ कथं पादैरवरुह्य रथाद् गतौ॥९॥

‘सुमन्त्र! परम सुकुमारी तपस्विनी सीता के साथ वे दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण रथ से उतरकर पैदल कैसे गये होंगे?॥९॥

सिद्धार्थः खलु सूत त्वं येन दृष्टौ ममात्मजौ।
वनान्तं प्रविशन्तौ तावश्विनाविव मन्दरम्॥१०॥

‘सारथे! तुम कृतकृत्य हो गये; क्योंकि जैसे दोनों अश्विनीकुमार मन्दराचल के वन में जाते हैं, उसी प्रकार वन के भीतर प्रवेश करते हुए मेरे दोनों पुत्रों को तुमने अपनी आँखों से देखा है॥ १०॥

किमुवाच वचो रामः किमुवाच च लक्ष्मणः।
सुमन्त्र वनमासाद्य किमुवाच च मैथिली॥११॥

‘सुमन्त्र! वन में पहुँचकर श्रीराम ने तुमसे क्या कहा? लक्ष्मण ने भी क्या कहा? तथा मिथिलेशकुमारी सीता ने क्या संदेश दिया? ॥११॥

आसितं शयितं भुक्तं सूत रामस्य कीर्तय।
जीविष्याम्ययमेतेन ययातिरिव साधुषु॥१२॥

‘सूत! तुम श्रीराम के बैठने, सोने और खाने-पीने से सम्बन्ध रखने वाली बातें बताओ। जैसे स्वर्ग से गिरे हुए राजा ययाति सत्पुरुषों के बीच में उपस्थित होने पर सत्संग के प्रभाव से पुनः सुखी हो गये थे, उसी प्रकार तुम-जैसे साधुपुरुष के मुख से पुत्र का वृत्तान्त सुनने से मैं सुखपूर्वक जीवन धारण कर सकूँगा’ ॥ १२ ॥

इति सूतो नरेन्द्रेण चोदितः सज्जमानया।
उवाच वाचा राजानं स बाष्पपरिबद्धया॥१३॥

महाराज के इस प्रकार पूछने पर सारथि सुमन्त्र ने आँसुओं से रूंधी हुई गद्गद वाणी द्वारा उनसे कहा- ॥

अब्रवीन्मे महाराज धर्ममेवानुपालयन्।
अञ्जलिं राघवः कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य च॥ १४॥
सूत मद्वचनात् तस्य तातस्य विदितात्मनः।
शिरसा वन्दनीयस्य वन्द्यौ पादौ महात्मनः॥ १५॥
सर्वमन्तःपुरं वाच्यं सूत मद्रचनात् त्वया।
आरोग्यमविशेषेण यथार्हमभिवादनम्॥१६॥

‘महाराज! श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म का ही निरन्तर पालन करते हुए दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर कहा है—’सूत! तुम मेरी ओर से आत्मज्ञानी तथा वन्दनीय मेरे महात्मा पिता के दोनों चरणों में प्रणाम कहना तथा अन्तःपुर में सभी माताओं को मेरे आरोग्य का समाचार देते हुए उनसे विशेष रूप से मेरा यथोचित प्रणाम निवेदन करना॥ १४–१६ ॥

माता च मम कौसल्या कुशलं चाभिवादनम्।
अप्रमादं च वक्तव्या ब्रूयाश्चैनामिदं वचः॥१७॥
धर्मनित्या यथाकालमग्न्यगारपरा भव।
देवि देवस्य पादौ च देववत् परिपालय॥१८॥

‘इसके बाद मेरी माता कौसल्या से मेरा प्रणाम करके बताना कि ‘मैं कुशल से हूँ और धर्मपालन में सावधान रहता हूँ।’ फिर उनको मेरा यह संदेश सुनाना कि ‘माँ! तुम सदा धर्म में तत्पर रहकर यथा समय अग्निशाला के सेवन (अग्निहोत्र-कार्य) में संलग्न रहना। देवि! महाराज को देवता के समान मानकर उनके चरणों की सेवा करना।

अभिमानं च मानं च त्यक्त्वा वर्तस्व मातृषु।
अनुराजानमार्यां च कैकेयीमम्ब कारय॥१९॥

‘अभिमान’ और मान को त्यागकर सभी माताओं के प्रति समान बर्ताव करना उनके साथ हिल-मिलकर रहना। अम्बे! जिसमें राजा का अनुराग है, उस कैकेयी को भी श्रेष्ठ मानकर उसका सत्कार करना।१९॥

१. मुख्य पटरानी होने का अहङ्कार। २. अपने बड़प्पन के घमंड में आकर दूसरों के तिरस्कार करने की भावना।

कुमारे भरते वृत्तिर्वर्तितव्या च राजवत्।
अप्यज्येष्ठा हि राजानो राजधर्ममनुस्मर ॥२०॥

‘कुमार भरत के प्रति राजोचित बर्ताव करना। राजा छोटी उम्र के हों तो भी वे आदरणीय ही होते हैं इस राजधर्म को याद रखना’ ॥ २० ॥

भरतः कुशलं वाच्यो वाच्यो मद्रचनेन च।
सर्वास्वेव यथान्यायं वृत्तिं वर्तस्व मातृषु॥२१॥

‘कुमार भरत से भी मेरा कुशल-समाचार बताकर उनसे मेरी ओर से कहना—’भैया! तुम सभी माताओं के प्रति न्यायोचित बर्ताव करते रहना॥ २१॥

वक्तव्यश्च महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः।
पितरं यौवराज्यस्थो राज्यस्थमनुपालय॥ २२॥

‘इक्ष्वाकुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले महाबाहु भरत से यह भी कहना चाहिये कि युवराज पद पर अभिषिक्त होने के बाद भी तुम राज्यसिंहासन पर ।विराजमान पिताजी की रक्षा एवं सेवा में संलग्न रहना। २२॥

अतिक्रान्तवया राजा मा स्मैनं व्यपरोरुधः।
कुमारराज्ये जीवस्व तस्यैवाज्ञाप्रवर्तनात्॥२३॥

‘राजा बहुत बूढ़े हो गये हैं—ऐसा मानकर तुम उनका विरोध न करना-उन्हें राजसिंहासन से न उतारना। युवराज-पद पर ही प्रतिष्ठित रहकर उनकी आज्ञा का पालन करते हुए ही जीवन-निर्वाह करना॥ २३॥

ब्रवीच्चापि मां भूयो भृशमश्रूणि वर्तयन्।
मातेव मम माता ते द्रष्टव्या पुत्रगर्धिनी ॥ २४॥
इत्येवं मां महाबाहुब्रुवन्नेव महायशाः।
रामो राजीवपत्राक्षो भृशमश्रूण्यवर्तयत्॥२५॥

‘फिर उन्होंने नेत्रों से बहुत आँसू बहाते हुए मुझसे भरत से कहने के लिये ही यह संदेश दिया—’भरत! मेरी पुत्रवत्सला माता को अपनी ही माता के समान समझना।’ मुझसे इतना ही कहकर महाबाहु महायशस्वी कमलनयन श्रीराम बड़े वेग से आँसुओं की वर्षा करने लगे।

लक्ष्मणस्तु सुसंक्रुद्धो निःश्वसन् वाक्यमब्रवीत्।
केनायमपराधेन राजपुत्रो विवासितः॥२६॥

‘परंतु लक्ष्मण उस समय अत्यन्त कुपित हो लंबी साँस खींचते हुए बोले—’सुमन्त्रजी! किस अपराध के  करण महाराज ने इन राजकुमार श्रीराम को देश निकाला दे दिया है ? ॥ २६ ॥

राज्ञा तु खलु कैकेय्या लघु चाश्रुत्य शासनम्।
कृतं कार्यमकार्यं वा वयं येनाभिपीडिताः॥२७॥

‘राजा ने कैकेयी का आदेश सुनकर झट से उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। उनका यह कार्य उचित हो या अनुचित, परंतु हमलोगों को उसके कारण कष्ट भोगना ही पड़ता है॥२७॥

यदि प्रताजितो रामो लोभकारणकारितम्।
वरदाननिमित्तं वा सर्वथा दुष्कृतं कृतम्॥२८॥

‘श्रीराम को वनवास देना कैकेयी के लोभ के कारण हुआ हो अथवा राजा के दिये हुए वरदान के कारण, मेरी दृष्टि में यह सर्वथा पाप ही किया गया है॥२८॥

इदं तावद् यथाकाममीश्वरस्य कृते कृतम्।
रामस्य तु परित्यागे न हेतुमुपलक्षये॥२९॥

‘यह श्रीराम को वनवास देने का कार्य राजा की स्वेच्छाचारिता के कारण किया गया हो अथवा ईश्वर की प्रेरणा से, परंतु मुझे श्रीराम के परित्याग का कोई समुचित कारण नहीं दिखायी देता है॥ २९॥

असमीक्ष्य समारब्धं विरुद्धं बुद्धिलाघवात्।
जनयिष्यति संक्रोशं राघवस्य विवासनम्॥३०॥

‘बुद्धि की कमी अथवा तुच्छता के कारण उचित अनुचित का विचार किये बिना ही जो यह राम वनवासरूपी शास्त्रविरुद्ध कार्य आरम्भ किया गया है, यह अवश्य ही निन्दा और दुःख का जनक होगा। ३०॥

अहं तावन्महाराजे पितत्वं नोपलक्षये।
भ्राता भर्ता च बन्धुश्च पिता च मम राघवः॥ ३१॥

‘मुझे इस समय महाराज में पिता का भाव नहीं दिखायी देता। अब तो रघुकुलनन्दन श्रीराम ही मेरे भाई, स्वामी, बन्धु-बान्धव तथा पिता हैं ॥ ३१॥

सर्वलोकप्रियं त्यक्त्वा सर्वलोकहिते रतम्।
सर्वलोकोऽनुरज्येत कथं चानेन कर्मणा॥३२॥

‘जो सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्पर होने के कारण सब लोगों के प्रिय हैं, उन श्रीराम का परित्याग करके राजा ने जो यह क्रूरतापूर्ण पापकृत्य किया है, इसके कारण अब सारा संसार उनमें कैसे अनुरक्त रह सकता है? (अब उनमें राजोचित गुण कहाँ रह गया है?) ॥ ३२॥

सर्वप्रजाभिरामं हि रामं प्रव्रज्य धार्मिकम्।
सर्वलोकविरोधेन कथं राजा भविष्यति॥३३॥

‘जिनमें समस्त प्रजाका मन रमता है, उन धर्मात्मा श्रीराम को देशनिकाला देकर समस्त लोकों का विरोध करने के कारण अब वे कैसे राजा हो सकेंगे? ॥ ३३॥

जानकी तु महाराज निःश्वसन्ती तपस्विनी।
भूतोपहतचित्तेव विष्ठिता विस्मृता स्थिता ॥ ३४॥

‘महाराज! तपस्विनी जनकनन्दिनी सीता तो लंबी साँस खींचती हुई इस प्रकार निश्चेष्ट खड़ी थीं, मानो उनमें किसी भूत का आवेश हो गया हो। वे भूली-सी जान पड़ती थीं॥ ३४॥

अदृष्टपूर्वव्यसना राजपुत्री यशस्विनी।
तेन दुःखेन रुदती नैव मां किंचिदब्रवीत्॥ ३५॥

“उन यशस्विनी राजकुमारी ने पहले कभी ऐसा संकट नहीं देखा था। वे पति के ही दुःख से दुःखी होकर रो रही थीं। उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा॥ ३५॥

उदीक्षमाणा भर्तारं मुखेन परिशुष्यता।
मुमोच सहसा बाष्पं प्रयान्तमुपवीक्ष्य सा॥३६॥

‘मुझे इधर आने के लिये उद्यत देख वे सूखे मुंह से पति की ओर देखती हुई सहसा आँसू बहाने लगी थीं॥

तथैव रामोऽश्रुमुखः कृताञ्जलिः स्थितोऽब्रवील्लक्ष्मणबाहुपालितः।
तथैव सीता रुदती तपस्विनी निरीक्षते राजरथं तथैव माम्॥३७॥

‘इसी प्रकार लक्ष्मण की भुजाओं से सुरक्षित श्रीराम उस समय हाथ जोड़े खड़े थे। उनके मुखपर आँसुओं की धारा बह रही थी। मनस्विनी सीता भी रोती हुई कभी आपके इस रथ की ओर देखती थीं और कभी मेरी ओर’ ॥ ३७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टपञ्चाशः सर्गः॥५८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५८॥


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Shivangi

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