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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 71 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 71

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
एकसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 71)

रथ और सेनासहित भरत की यात्रा, अयोध्या की दुरवस्था देखते हुए सारथि से अपना दुःखपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश

 

स प्राङ्मुखो राजगृहादभिनिर्याय वीर्यवान्।
ततः सुदामां द्युतिमान् संतीर्यावेक्ष्य तां नदीम्॥ १॥
ह्रादिनीं दूरपारां च प्रत्यक्स्रोतस्तरङ्गिणीम्।
शतद्रुमतरच्छ्रीमान् नदीमिक्ष्वाकुनन्दनः॥२॥

राजगृह से निकलकर पराक्रमी भरत पूर्वदिशा की ओर चले।* उन तेजस्वी राजकुमार ने मार्ग में सुदामा नदी का दर्शन करके उसे पार किया। तत्पश्चात् इक्ष्वाकुनन्दन श्रीमान् भरत ने, जिसका पाट दूर तक फैला हुआ था, उस ह्रादिनी नदी को लाँघकर पश्चिमाभिमुख बहने वाली शतगु नदी (सतलज) को पार किया॥१-२॥
* अयोध्या से जो पाँच दूत चले थे, वे सीधी राह से राजगृह में आये थे; अतः उनके मार्ग में जो-जो स्थान पड़े थे, वे भरत के मार्ग में नहीं पड़े थे। भरत के साथ रथ और चतुरङ्गिणी सेना थी, अतः उसके निर्वाह के अनुकूल मार्ग से चलकर वे अयोध्या पहुँचे थे। इसलिये इनके मार्ग में सर्वथा नये ग्रामों और स्थानों का उल्लेख मिलता है।

ऐलधाने नदीं तीप्राप्य चापरपर्वतान्।
शिलामाकुर्वतीं ती आग्नेयं शल्यकर्षणम्॥

वहाँ से ऐलधान नामक गाँव में जाकर वहाँ बहने वाली नदी को पार किया। तत्पश्चात् वे अपरपर्वत नामक जनपद में गये। वहाँ शिला नाम की नदी बहती थी, जो अपने भीतर पड़ी हुई वस्तु को शिलास्वरूप बना देती थी। उसे पार करके भरत वहाँ से आग्नेय कोण में स्थित शल्यकर्षण नामक देश में गये, जहाँ शरीर से काँटे को निकालने में सहायता करने वाली ओषधि उपलब्ध होती थी॥३॥

सत्यसंधः शुचिर्भूत्वा प्रेक्षमाणः शिलावहाम्।
अभ्यगात् स महाशैलान् वनं चैत्ररथं प्रति॥४॥

तदनन्तर सत्यप्रतिज्ञ भरत ने पवित्र होकर शिलावहा नामक नदी का दर्शन किया (जो अपनी प्रखर धारा से शिलाखण्डों-बड़ी-बड़ी चट्टानों को भी बहा ले जाने के कारण उक्त नाम से प्रसिद्ध थी)। उस नदी का दर्शन करके वे आगे बढ़ गये और बड़े-बड़े पर्वतों को लाँघते हुए चैत्ररथ नामक वन में जा पहुँचे॥ ४॥

सरस्वतीं च गङ्गां च युग्मेन प्रतिपद्य च।
उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारुण्डं प्राविशद् वनम्॥

तत्पश्चात् पश्चिमवाहिनी सरस्वती तथा गङ्गा की धारा-विशेष के सङ्गम से होते हुए उन्होंने वीरमत्स्य देश के उत्तरवर्ती देशों में पदार्पण किया और वहाँ से आगे बढ़कर वे भारुण्ड वन के भीतर गये॥ ५ ॥

वेगिनीं च कुलिङ्गाख्यां ह्रादिनीं पर्वतावृताम्।
यमुनां प्राप्य संतीर्णो बलमाश्वासयत् तदा॥६॥

फिर अत्यन्त वेग से बहने वाली तथा पर्वतों से घिरी होने के कारण अपने प्रखर प्रवाह के द्वारा कलकल नाद करने वाली कुलिङ्गा नदी को पार करके यमुना के तटपर पहुँचकर उन्होंने सेना को विश्राम कराया॥६॥

शीतीकृत्य तु गात्राणि क्लान्तानाश्वास्य वाजिनः।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्रायादादाय चोदकम्॥ ७॥
राजपुत्रो महारण्यमनभीक्ष्णोपसेवितम्।
भद्रो भद्रेण यानेन मारुतः खमिवात्यगात्॥८॥

थके हुए घोड़ों को नहलाकर उनके अङ्गों को शीतलता प्रदान करके उन्हें छाया में घास आदि देकर आराम करने का अवसर दे राजकुमार भरत स्वयं भी स्नान और जलपान करके रास्ते के लिये जल साथ ले आगे बढ़े। मङ्गलाचार से युक्त हो माङ्गलिक रथ के द्वारा उन्होंने, जिसमें मनुष्यों का बहुधा आना-जाना या रहना नहीं होता था, उस विशाल वन को उसी प्रकार वेगपूर्वक पार किया, जैसे वायु आकाश को लाँघ जाती है । ७-८॥

भागीरथीं दुष्प्रतरां सोंऽशुधाने महानदीम्।
उपायाद् राघवस्तूर्णं प्राग्वटे विश्रुते पुरे॥९॥

तत्पश्चात् अंशुधान नामक ग्राम के पास महानदी भागीरथी गङ्गा को दुस्तर जानकर रघुनन्दन भरत तुरंत ही प्राग्वट नाम से विख्यात नगर में आ गये॥९॥

स गङ्गां प्राग्वटे तीर्वा समायात् कुटिकोष्टिकाम्।
सबलस्तां स तीथि समगाद् धर्मवर्धनम्॥१०॥

प्राग्वट नगर में गङ्गा को पार करके वे कुटिकोष्टिका नाम वाली नदी के तटपर आये और सेनासहित उसको भी पार करके धर्मवर्धन नामक ग्राम में जा पहुँचे॥ १०॥

तोरणं दक्षिणार्धेन जम्बूप्रस्थं समागमत्।
वरूथं च ययौ रम्यं ग्रामं दशरथात्मजः॥११॥

वहाँ से तोरण ग्राम के दक्षिणार्ध भाग में होते हुए जम्बूप्रस्थ में गये। तदनन्तर दशरथकुमार भरत एक रमणीय ग्राम में गये, जो वरूथ के नाम से विख्यात था॥

तत्र रम्ये वने वासं कृत्वासौ प्राङ्मुखो ययौ।
उद्यानमज्जिहानायाः प्रियका यत्र पादपाः॥ १२॥

वहाँ एक रमणीय वन में निवास करके वे प्रातःकाल पूर्व दिशा की ओर गये। जाते-जाते उज्जिहाना नगरी के उद्यान में पहुँच गये, जहाँ कदम्ब नाम वाले वृक्षों की बहुतायत थी॥ १२॥

स तांस्तु प्रियकान् प्राप्य शीघ्रानास्थाय वाजिनः।
अनुज्ञाप्याथ भरतो वाहिनीं त्वरितो ययौ॥१३॥

उन कदम्बों के उद्यान में पहुँचकर अपने रथ में शीघ्रगामी घोड़ों को जोतकर सेना को धीरे-धीरे आने की आज्ञा दे भरत तीव्रगति से चल दिये॥ १३॥

वासं कृत्वा सर्वतीर्थे तीर्वा चोत्तानिकां नदीम्।
अन्या नदीश्च विविधैः पार्वतीयैस्तुरङ्गमैः॥१४॥
हस्तिपृष्ठकमासाद्य कुटिकामप्यवर्तत।
ततार च नरव्याघ्रो लोहित्ये च कपीवतीम्॥

तत्पश्चात् सर्वतीर्थ नामक ग्राम में एक रात रहकर उत्तानिका नदी तथा अन्य नदियों को भी नाना प्रकार के पर्वतीय घोड़ों द्वारा जुते हुए रथ से पार करके नरश्रेष्ठ भरत जी हस्तिपृष्ठक नामक ग्राम में जा पहुंचे।
वहाँ से आगे जाने पर उन्होंने कुटिका नदी पार की। फिर लोहित्य नामक ग्राम में पहुँचकर कपीवती नामक नदी को पार किया॥१४-१५॥

एकसाले स्थाणुमती विनते गोमती नदीम्।
कलिङ्गनगरे चापि प्राप्य सालवनं तदा ॥१६॥

फिर एकसाल नगर के पास स्थाणुमती और विनतग्राम के निकट गोमती नदी को पार करके वे तुरंत ही कलिङ्गनगर के पास सालवन में जा पहुँचे॥ १६॥

भरतः क्षिप्रमागच्छत् सुपरिश्रान्तवाहनः।
वनं च समतीत्याशु शर्वर्यामरुणोदये॥१७॥
अयोध्यां मनुना राज्ञा निर्मितां स ददर्श ह।
तां पुरी पुरुषव्याघ्रः सप्तरात्रोषितः पथि॥१८॥

वहाँ जाते-जाते भरत के घोड़े थक गये। तब उन्हें विश्राम देकर वे रातों-रात शीघ्र ही सालवन को लाँघ गये और अरुणोदयकाल में राजा मनु की बसायी हुई अयोध्यापुरी का उन्होंने दर्शन किया। पुरुषसिंह भरत मार्ग में सात रातें व्यतीत करके आठवें दिन अयोध्यापुरी का दर्शन कर सके थे॥ १७-१८॥

अयोध्यामग्रतो दृष्ट्वा सारथिं चेदमब्रवीत्।
एषा नातिप्रतीता मे पुण्योद्याना यशस्विनी॥ १९॥
अयोध्या दृश्यते दूरात् सारथे पाण्डुमृत्तिका।
यज्विभिर्गणसम्पन्नैाह्मणैर्वेदपारगैः॥ २०॥
भूयिष्ठमृद्धैराकीर्णा राजर्षिवरपालिता।

सामने अयोध्यापुरी को देखकर वे अपने सारथि से इस प्रकार बोले-‘सूत! पवित्र उद्यानों से सुशोभित यह यशस्विनी नगरी आज मुझे अधिक प्रसन्न नहीं दिखायी देती है। यह वही नगरी है, जहाँ निरन्तर यज्ञ-याग करने वाले गुणवान् और वेदों के पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण निवास करते हैं, जहाँ बहुत-से धनियों की भी बस्ती है तथा राजर्षियों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ जिसका पालन करते हैं, वही अयोध्या इस समय दूर से सफेद मिट्टी के ढूह की भाँति दीख रही है। १९-२० १/२ ॥

अयोध्यायां पुरा शब्दः श्रूयते तुमुलो महान्॥ २१॥
समन्तान्नरनारीणां तमद्य न शृणोम्यहम्।

‘पहले अयोध्या में चारों ओर नर-नारियों का महान् तुमुलनाद सुनायी पड़ता था; परंतु आज मैं उसे नहीं सुन रहा हूँ॥ २१ १/२ ॥

उद्यानानि हि सायाह्ने क्रीडित्वोपरतैनरैः॥२२॥
समन्ताद् विप्रधावद्भिः प्रकाशन्ते ममान्यथा।
तान्यद्यानुरुदन्तीव परित्यक्तानि कामिभिः॥ २३॥

‘सायंकाल के समय लोग उद्यानों में प्रवेश करके वहाँ क्रीड़ा करते और उस क्रीड़ा से निवृत्त होकर सब ओर से अपने घरों की ओर दौड़ते थे, अतः उस समय इन उद्यानों की अपूर्व शोभा होती थी, परंतु आज ये मुझे कुछ और ही प्रकार के दिखायी देते हैं। वे ही उद्यान आज कामीजनों से परित्यक्त होकर रोते हुए-से प्रतीत होते हैं।॥ २२-२३॥

अरण्यभूतेव पुरी सारथे प्रतिभाति माम्।
नह्यत्र यानैदृश्यन्ते न गजै च वाजिभिः।
निर्यान्तो वाभियान्तो वा नरमुख्या यथा पुरा॥ २४॥

‘सारथे! यह पुरी मुझे जंगल-सी जान पड़ती है। अब यहाँ पहले की भाँति घोड़ों, हाथियों तथा दूसरी दुसरी सवारियों से आते-जाते हुए श्रेष्ठ मनुष्य नहीं दिखायी दे रहे हैं।॥ २४॥

उद्यानानि पुरा भान्ति मत्तप्रमुदितानि च।
जनानां रतिसंयोगेष्वत्यन्तगुणवन्ति च ॥२५॥
तान्येतान्यद्य पश्यामि निरानन्दानि सर्वशः।
स्रस्तपर्णैरनपथं विक्रोशद्भिरिव द्रमैः॥२६॥

‘जो उद्यान पहले मदमत्त एवं आनन्दमग्न भ्रमरों, कोकिलों और नर-नारियों से भरे प्रतीत होते थे तथा लोगों के प्रेम-मिलन के लिये अत्यन्त गुणकारी (अनुकूल सुविधाओं से सम्पन्न) थे, उन्हीं को आज मैं सर्वथा आनन्द शून्य देख रहा हूँ। वहाँ माग पर वृक्षों के जो पत्ते गिर रहे हैं, उनके द्वारा मानो वे वृक्ष करुण क्रन्दन कर रहे हैं (और उनसे उपलक्षित होने के कारण वे उद्यान आनन्दहीन प्रतीत होते हैं)॥ २५-२६॥

नाद्यापि श्रूयते शब्दो मत्तानां मृगपक्षिणाम्।
सरक्तां मधुरां वाणी कलं व्याहरतां बहु॥२७॥

‘रागयुक्त मधुर कलरव करने वाले मतवाले मृगों और पक्षियों का तुमुल शब्द अभी तक सुनायी नहीं पड़ रहा है।॥ २७॥

चन्दनागुरुसम्पृक्तो धूपसम्मूर्च्छितोऽमलः।
प्रवाति पवनः श्रीमान् किं नु नाद्य यथा पुरा॥ २८॥

‘चन्दन और अगुरु की सुगन्ध से मिश्रित तथा धूप की मनोहर गन्ध से व्याप्त निर्मल मनोरम समीर आज पहले की भाँति क्यों नहीं प्रवाहित हो रहा है? ॥ २८॥

भेरीमृदङ्गवीणानां कोणसंघट्टितः पुनः।
किमद्य शब्दो विरतः सदादीनगतिः पुरा॥२९॥

‘वादनदण्डद्वारा बजायी जानेवाली भेरी, मृदङ्ग और वीणाका जो आघातजनित शब्द होता है, वह पहले अयोध्यामें सदा होता रहता था, कभी उसकी गति अवरुद्ध नहीं होती थी; परंतु आज वह शब्द न जाने क्यों बंद हो गया है ? ॥ २९॥

अनिष्टानि च पापानि पश्यामि विविधानि च।
निमित्तान्यमनोज्ञानि तेन सीदति मे मनः॥३०॥

‘मुझे अनेक प्रकारके अनिष्टकारी, क्रूर और अशुभसूचक अपशकुन दिखायी दे रहे हैं, जिससे मेरा मन खिन्न हो रहा है॥ ३०॥

सर्वथा कुशलं सूत दुर्लभं मम बन्धुषु।
तथा ह्यसति सम्मोहे हृदयं सीदतीव मे॥३१॥

‘सारथे! इससे प्रतीत होता है कि इस समय मेरे बान्धवों को कुशल-मङ्गल सर्वथा दुर्लभ है, तभी तो मोह का कोई कारण न होने पर भी मेरा हृदय बैठा जा रहा है’॥३१॥

विषण्णः श्रान्तहृदयस्त्रस्तः संलुलितेन्द्रियः।
भरतः प्रविवेशाशु पुरीमिक्ष्वाकुपालिताम्॥३२॥

भरत मन-ही-मन बहुत खिन्न थे। उनका हृदय शिथिल हो रहा था। वे डरे हुए थे और उनकी सारी इन्द्रियाँ क्षुब्ध हो उठी थीं, इसी अवस्था में उन्होंने शीघ्रतापूर्वक इक्ष्वाकुवंशी राजाओं द्वारा पालित अयोध्यापुरी में प्रवेश किया॥३२॥

द्वारेण वैजयन्तेन प्राविशच्छ्रान्तवाहनः।
द्वाःस्थैरुत्थाय विजयमुक्तस्तैः सहितो ययौ॥ ३३॥

पुरी के द्वार पर सदा वैजयन्ती पताका फहराने के कारण उस द्वार का नाम वैजयन्त रखा गया था। (यहपुरी के पश्चिम भाग में था।) उस वैजयन्त द्वार से भरत पुरी के भीतर प्रविष्ट हुए। उस समय उनके रथ के घोड़े बहुत थके हुए थे। द्वारपालों ने उठकर कहा —’महाराज की जय हो!’ फिर वे उनके साथ आगे बढ़े॥३३॥

स त्वनेकाग्रहृदयो द्वाःस्थं प्रत्यर्च्य तं जनम्।
सूतमश्वपतेः क्लान्तमब्रवीत् तत्र राघवः ॥ ३४॥

भरत का हृदय एकाग्र नहीं था—वे घबराये हुए थे। अतः उन रघुकुलनन्दन भरत ने साथ आये हुए द्वारपालों को सत्कारपूर्वक लौटा दिया और केकयराज अश्वपति के थके-माँदे सारथि से वहाँ इस प्रकार कहा- ॥ ३४॥

किमहं त्वरयाऽऽनीतः कारणेन विनानघ।
अशुभाशङ्कि हृदयं शीलं च पततीव मे॥ ३५॥

‘निष्पाप सूत! मैं बिना कारण ही इतनी उतावली के साथ क्यों बुलाया गया? इस बात का विचार करके मेरे हृदय में अशुभ की आशङ्का होती है। मेरा दीनतारहित स्वभाव भी अपनी स्थिति से भ्रष्ट-सा हो रहा है॥ ३५॥

श्रुता नु यादृशाः पूर्वं नृपतीनां विनाशने।
आकारांस्तानहं सर्वानिह पश्यामि सारथे॥३६॥

‘सारथे! अबसे पहले मैंने राजाओं के विनाश के जैसे-जैसे लक्षण सुन रखे हैं, उन सभी लक्षणों को आज मैं यहाँ देख रहा हूँ॥ ३६॥

सम्मार्जनविहीनानि परुषाण्युपलक्षये।
असंयतकवाटानि श्रीविहीनानि सर्वशः॥३७॥
बलिकर्मविहीनानि धूपसम्मोदनेन च।
अनाशितकुटुम्बानि प्रभाहीनजनानि च ॥३८॥
अलक्ष्मीकानि पश्यामि कुटुम्बिभवनान्यहम्।

‘मैं देखता हूँ—गृहस्थों के घरों में झाड़ नहीं लगी है। वे रूखे और श्रीहीन दिखायी देते हैं इनकी किवाड़ें खुली हैं। इन घरों में बलिवैश्व देवकर्म नहीं हो रहे हैं। ये धूप की सुगन्ध से वञ्चित हैं। इनमें रहने वाले कुटुम्बीजनों को भोजन नहीं प्राप्त हुआ है तथा ये सारे गृह प्रभाहीन (उदास) दिखायी देते हैं। जान पड़ता है —इनमें लक्ष्मी का निवास नहीं है॥ ३७-३८ १/२॥

अपेतमाल्यशोभानि असम्मृष्टाजिराणि च॥३९॥
देवागाराणि शून्यानि न भान्तीह यथा पुरा।

‘देवमन्दिर फूलों से सजे हुए नहीं दिखायी देते। इनके आँगन झाड़े-बुहारे नहीं गये हैं। ये मनुष्यों से सूने हो रहे हैं, अतएव इनकी पहले-जैसी शोभा नहीं हो रही है। ३९ १/२॥

देवतार्चाः प्रविद्धाश्च यज्ञगोष्ठास्तथैव च ॥४०॥
माल्यापणेषु राजन्ते नाद्य पण्यानि वा तथा।
दृश्यन्ते वणिजोऽप्यद्य न यथापूर्वमत्र वै॥४१॥
ध्यानसंविग्नहृदया नष्टव्यापारयन्त्रिताः।

‘देव प्रतिमाओं की पूजा बंद हो गयी है। यज्ञशालाओं में यज्ञ नहीं हो रहे हैं। फूलों और मालाओं के बाजार में आज बिकने की कोई वस्तुएँ नहीं शोभित हो रही हैं। यहाँ पहले के समान बनिये भी आज नहीं दिखायी देते हैं। चिन्ता से उनका हृदय उद्विग्न जान पड़ता है और अपना व्यापार नष्ट हो जाने के कारण वे संकुचित हो रहे हैं। ४०-४१ १/२॥

देवायतनचैत्येषु दीनाः पक्षिमृगास्तथा ॥४२॥
मलिनं चाश्रुपूर्णाक्षं दीनं ध्यानपरं कृशम्।
सस्त्रीपुंसं च पश्यामि जनमुत्कण्ठितं पुरे॥४३॥

‘देवालयों तथा चैत्य (देव) वृक्षों पर जिनका निवास है, वे पशु-पक्षी दीन दिखायी दे रहे हैं। मैं देखता हूँ, नगर के सभी स्त्री-पुरुषों का मुख मलिन है, उनकी आँखों में आँसू भरे हैं और वे सब-के-सब दीन, चिन्तित, दुर्बल तथा उत्कण्ठित हैं’। ४२-४३॥

इत्येवमुक्त्वा भरतः सूतं तं दीनमानसः।
तान्यनिष्टान्ययोध्यायां प्रेक्ष्य राजगृहं ययौ॥४४॥

सारथि से ऐसा कहकर अयोध्या में होने वाले उन अनिष्टसूचक चिह्नों को देखते हुए भरत मन-ही-मन दुःखी हो राजमहल में गये।। ४४ ॥

तां शून्यशृङ्गाटकवेश्मरथ्यां रजोरुणद्वारकवाटयन्त्राम्।
दृष्ट्वा पुरीमिन्द्रपुरीप्रकाशां दुःखेन सम्पूर्णतरो बभूव॥४५॥

जो अयोध्यापुरी कभी देवराज इन्द्रकी नगरी के समान शोभा पाती थी; उसी के चौराहे, घर और सड़कें आज सूनी दिखायी देती थीं तथा दरवाजों की किवाड़ें धूलि-धूसर हो रही थीं, उसकी ऐसी दुर्दशा देख भरत पूर्णतः दुःख में निमग्न हो गये॥ ४५ ॥

बभूव पश्यन् मनसोऽप्रियाणि यान्यन्यदा नास्य पुरे बभूवुः।
अवाक्शिरा दीनमना न हृष्टः पितुर्महात्मा प्रविवेश वेश्म॥४६॥

उस नगर में जो पहले कभी नहीं हुई थीं, ऐसी अप्रिय बातों को देखकर महात्मा भरत ने अपना मस्तक नीचे को झुका लिया, उनका हर्ष छिन गया और उन्होंने दीन-हृदयसे पिता के भवन में प्रवेश किया॥ ४६॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे एकसप्ततितमः सर्गः॥ ७१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इकहत्तरहवाँ सर्ग पूराहुआ॥७१॥


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Shivangi

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