RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 73 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 73

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
त्रिसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 73)

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान् रोष प्रकट करना

 

श्रुत्वा च स पितुर्वृत्तं भ्रातरौ च विवासितौ।
भरतो दुःखसंतप्त इदं वचनमब्रवीत्॥१॥

पिता के परलोकवास और दोनों भाइयों के वनवास का समाचार सुनकर भरत दुःख से संतप्त हो उठे और इस प्रकार बोले- ॥१॥

किं नु कार्यं हतस्येह मम राज्येन शोचतः।
विहीनस्याथ पित्रा च भ्रात्रा पितृसमेन च॥२॥

‘हाय! तूने मुझे मार डाला। मैं पिता से सदा के लिये बिछुड़ गया और पितृतुल्य बड़े भाई से भी बिलग हो गया। अब तो मैं शोक में डूब रहा हूँ, मुझे यहाँ राज्य लेकर क्या करना है? ॥ २॥

दुःखे मे दुःखमकरोणे क्षारमिवाददाः।
राजानं प्रेतभावस्थं कृत्वा रामं च तापसम्॥३॥

‘तूने राजा को परलोकवासी तथा श्रीराम को तपस्वी बनाकर मुझे दुःख-पर-दुःख दिया है, घाव पर नमक सा छिड़क दिया है॥३॥

कुलस्य त्वमभावाय कालरात्रिरिवागता।
अङ्गारमुपगृह्य स्म पिता मे नावबुद्धवान्॥४॥

‘तू इस कुल का विनाश करने के लिये कालरात्रि बनकर आयी थी। मेरे पिता ने तुझे अपनी पत्नी क्या बनाया, दहकते हुए अङ्गार को हृदय से लगा लिया था; किंतु उस समय यह बात उनकी समझ में नहीं आयी थी॥ ४॥

मृत्युमापादितो राजा त्वया मे पापदर्शिनि।
सुखं परिहृतं मोहात् कुलेऽस्मिन् कुलपांसनि॥

‘पाप पर ही दृष्टि रखनेवाली! कुलकलङ्किनी! तूने मेरे महाराज को काल के गाल में डाल दिया और मोहवश इस कुल का सुख सदा के लिये छीन लिया। ५॥

त्वां प्राप्य हि पिता मेऽद्य सत्यसंधो महायशाः।
तीव्रदुःखाभिसंतप्तो वृत्तो दशरथो नृपः॥६॥

‘तुझे पाकर मेरे सत्यप्रतिज्ञ महायशस्वी पिता महाराज दशरथ इन दिनों दुःसह दुःख से संतप्त होकर प्राण त्यागने को विवश हुए हैं॥ ६॥

विनाशितो महाराजः पिता मे धर्मवत्सलः।
कस्मात् प्रव्राजितो रामः कस्मादेव वनं गतः॥ ७॥

‘बता, तूने मेरे धर्मवत्सल पिता महाराज दशरथ का विनाश क्यों किया? मेरे बड़े भाई श्रीराम को क्यों घर से निकाला और वे भी क्यों (तेरे ही कहने से) वन को चले गये? ॥ ७॥

कौसल्या च सुमित्रा च पुत्रशोकाभिपीडिते।
दुष्करं यदि जीवेतां प्राप्य त्वां जननीं मम॥८॥

‘कौसल्या और सुमित्रा भी मेरी माता कहलाने वाली तुझ कैकेयी को पाकर पुत्रशोक से पीड़ित हो गयीं। अब उनका जीवित रहना अत्यन्त कठिन है॥८॥

नन्वार्योऽपि च धर्मात्मा त्वयि वृत्तिमनुत्तमाम्।
वर्तते गुरुवृत्तिज्ञो यथा मातरि वर्तते॥९॥

‘बड़े भैया श्रीराम धर्मात्मा हैं; गुरुजनों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये—इसे वे अच्छी तरह जानते हैं, इसलिये उनका अपनी माता के प्रति जैसा बर्ताव था, वैसा ही उत्तम व्यवहार वे तेरे साथ भी करते थे॥९॥

तथा ज्येष्ठा हि मे माता कौसल्या दीर्घदर्शिनी।
त्वयि धर्मं समास्थाय भगिन्यामिव वर्तते॥१०॥

‘मेरी बड़ी माता कौसल्या भी बड़ी दूरदर्शिनी हैं। वे धर्म का ही आश्रय लेकर तेरे साथ बहिन का-सा बर्ताव करती हैं ॥ १०॥

तस्याः पुत्रं महात्मानं चीरवल्कलवाससम्।
प्रस्थाप्य वनवासाय कथं पापे न शोचसे॥११॥

‘पापिनि! उनके महात्मा पुत्र को चीर और वल्कल पहनाकर तूने वन में रहने के लिये भेज दिया। फिर भी तुझे शोक क्यों नहीं हो रहा है।॥ ११॥

अपापदर्शिनं शूरं कृतात्मानं यशस्विनम्।
प्रव्राज्य चीरवसनं किं नु पश्यसि कारणम्॥ १२॥

‘श्रीराम किसी की बुराई नहीं देखते। वे शूरवीर, पवित्रात्मा और यशस्वी हैं। उन्हें चीर पहनाकर वनवास दे देने में तू कौन-सा लाभ देख रही है ? ॥ १२॥

लुब्धाया विदितो मन्ये न तेऽहं राघवं यथा।
तथा ह्यनर्थो राज्यार्थं त्वयाऽऽनीतो महानयम्॥ १३॥

‘तू लोभिन है। मैं समझता हूँ, इसीलिये तुझे यह पता नहीं है कि मेरा श्रीरामचन्द्रजी के प्रति कैसा भावहै, तभी तूने राज्य के लिये यह महान् अनर्थ कर डाला है॥ १३॥

अहं हि पुरुषव्याघ्रावपश्यन् रामलक्ष्मणौ।
केन शक्तिप्रभावेण राज्यं रक्षितमुत्सहे॥१४॥

‘मैं पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण को न देखकर किस शक्ति के प्रभाव से इस राज्य की रक्षा कर सकता हूँ ? (मेरे बल तो मेरे भाई ही हैं)॥ १४ ॥

तं हि नित्यं महाराजो बलवन्तं महौजसम्।
उपाश्रितोऽभूद् धर्मात्मा मेरुर्मेरुवनं यथा॥१५॥

‘मेरे धर्मात्मा पिता महाराज दशरथ भी सदा उनमहातेजस्वी बलवान् श्रीराम का ही आश्रय लेते थे । (उन्हीं से अपने लोक-परलोक की सिद्धि की आशा रखते थे), ठीक उसी तरह जैसे मेरु पर्वत अपनी रक्षा के लिये अपने ऊपर उत्पन्न हुए गहन वन का ही आश्रय लेता है (यदि वह दुर्गम वन से घिरा हुआ न हो तो दूसरे लोग निश्चय ही उस पर आक्रमण कर सकते हैं)॥ १५॥

सोऽहं कथमिमं भारं महाधुर्यसमुद्यतम्।
दम्यो धुरमिवासाद्य सहेयं केन चौजसा॥१६॥

‘यह राज्य का भार, जिसे किसी महाधुरंधर ने धारण किया था, मैं कैसे, किस बल से धारण कर सकताहूँ? जैसे कोई छोटा-सा बछड़ा बड़े-बड़े बैलों द्वारा ढोये जाने योग्य महान् भार को नहीं खींच सकता, उसी प्रकार यह राज्य का महान् भार मेरे लिये असह्य है। १६॥

अथवा मे भवेच्छक्तिर्योगैर्बुद्धिबलेन वा।
सकामां न करिष्यामि त्वामहं पुत्रगर्द्धिनीम्॥ १७॥

‘अथवा नाना प्रकार के उपायों तथा बुद्धिबल से मुझमें राज्य के भरण-पोषण की शक्ति हो तो भी केवल अपने बेटे के लिये राज्य चाहने वाली तुझ कैकेयी की मनःकामना पूरी नहीं होने दूंगा॥ १७॥

न मे विकांक्षा जायेत त्यक्तुं त्वां पापनिश्चयाम्।
यदि रामस्य नावेक्षा त्वयि स्यान्मातृवत् सदा॥ १८॥

‘यदि श्रीराम तुझे सदा अपनी माता के समान नहीं देखते होते तो तेरी-जैसी पापपूर्ण विचारवाली माता का त्याग करने में मुझे तनिक भी हिचक नहीं होती। १८॥

उत्पन्ना तु कथं बुद्धिस्तवेयं पापदर्शिनी।
साधुचारित्रविभ्रष्टे पूर्वेषां नो विगर्हिता॥१९॥

‘उत्तम चरित्र से गिरी हुई पापिनि! मेरे पूर्वजों ने जिसकी सदा निन्दा की है, वह पापपर ही दृष्टि रखने वाली बुद्धि तुझमें कैसे उत्पन्न हो गयी? ॥ १९॥

अस्मिन् कुले हि सर्वेषां ज्येष्ठो राज्येऽभिषिच्यते।
अपरे भ्रातरस्तस्मिन् प्रवर्तन्ते समाहिताः॥२०॥

‘इस कुल में जो सबसे बड़ा होता है, उसी का राज्याभिषेक होता है; दूसरे भाई सावधानी के साथ बड़े की आज्ञा के अधीन रहकर कार्य करते हैं॥ २० ॥

न हि मन्ये नृशंसे त्वं राजधर्ममवेक्षसे।
गतिं वा न विजानासि राजवृत्तस्य शाश्वतीम्॥ २१॥

‘क्रूर स्वभाववाली कैकेयि! मेरी समझ में तू राजधर्म पर दृष्टि नहीं रखती है अथवा उसे बिलकुल नहीं जानती। राजाओं के बर्ताव का जो सनातन स्वरूप है, उसका भी तुझे ज्ञान नहीं है ॥२१॥

सततं राजपुत्रेषु ज्येष्ठो राजाभिषिच्यते।
राज्ञामेतत् समं तत् स्यादिक्ष्वाकूणां विशेषतः॥ २२॥

‘राजकुमारों में जो ज्येष्ठ होता है, सदा उसी का राजा के पद पर अभिषेक किया जाता है। सभी राजाओं के यहाँ समान रूप से इस नियम का पालन होता है। इक्ष्वाकुवंशी नरेशों के कुल में इसका विशेष आदर है॥ २२॥

तेषां धर्मैकरक्षाणां कुलचारित्रशोभिनाम्।
अद्य चारित्रशौटीर्यं त्वां प्राप्य विनिवर्तितम्॥ २३॥

‘जिनकी एकमात्र धर्म से ही रक्षा होती आयी है तथा जो कुलोचित सदाचार के पालन से ही सुशोभितहुए हैं, उनका यह चरित्रविषयक अभियान आज तुझे पाकर तेरे सम्बन्ध के कारण दूर हो गया॥ २३॥

तवापि सुमहाभागे जनेन्द्रकुलपूर्वके।
बुद्धिमोहः कथमयं सम्भूतस्त्वयि गर्हितः॥ २४॥

‘महाभागे! तेरा जन्म भी तो महाराज केकयके कुलमें हुआ है, फिर तेरे हृदयमें यह निन्दित बुद्धिमोह कैसे उत्पन्न हो गया? ॥ २४ ॥

न तु कामं करिष्यामि तवाहं पापनिश्चये।
यया व्यसनमारब्धं जीवितान्तकरं मम॥२५॥

‘अरी! तेरा विचार बडा ही पापपूर्ण है। मैं तेरी इच्छा कदापि नहीं पूर्ण करूँगा। तूने मेरे लिये उस विपत् तिकी नींव डाल दी है, जो मेरे प्राण तक ले सकती है॥ २५॥

एष त्विदानीमेवाहमप्रियार्थं तवानघम्।
निवर्तयिष्यामि वनाद भ्रातरं स्वजनप्रियम्॥२६॥

‘यह ले, मैं अभी तेरा अप्रिय करने के लिये तुल गया हूँ। मैं वन से निष्पाप भ्राता श्रीराम को, जो स्वजनों के प्रिय हैं, लौटा लाऊँगा॥ २६॥

निवर्तयित्वा रामं च तस्याहं दीप्ततेजसः।
दासभूतो भविष्यामि सुस्थितेनान्तरात्मना ॥२७॥

श्रीराम को लौटा लाकर उद्दीप्त तेज वाले उन्हीं महापुरुष का दास बनकर स्वस्थचित्त से जीवन व्यतीत करूँगा’॥ २७॥

इत्येवमुक्त्वा भरतो महात्मा प्रियेतरैर्वाक्यगणैस्तुदंस्ताम्।
शोकार्दितश्चापि ननाद भूयः सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः॥२८॥

ऐसा कहकर महात्मा भरत शोक से पीड़ित हो पुनः जली-कटी बातों से कैकेयी को व्यथित करते हुए उसे जोर-जोरसे फटकारने लगे, मानो मन्दराचल की गुहा में बैठा हुआ सिंह गरज रहा हो॥२८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रिसप्ततितमः सर्गः॥ ७३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग पूराहुआ॥ ७३॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 73 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 73

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: