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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 75 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 75

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 75)

कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना

 

दीर्घकालात् समुत्थाय संज्ञां लब्ध्वा स वीर्यवान्।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां दीनामुद्रीक्ष्य मातरम्॥१॥
सोऽमात्यमध्ये भरतो जननीमभ्यकुत्सयत्।

बहुत देर के बाद होश में आने पर जब पराक्रमी भरत उठे, तब आँसू भरे नेत्रों से दीन बनी बैठी हुई माता की ओर देखकर मन्त्रियों के बीच में उसकी निन्दा करते हुए बोले- ॥११/२॥

राज्यं न कामये जातु मन्त्रये नापि मातरम्॥२॥
अभिषेकं न जानामि योऽभूद् राज्ञा समीक्षितः।
विप्रकृष्ट ह्यहं देशे शत्रुघ्नसहितोऽभवम्॥३॥

‘मन्त्रिवरो! मैं राज्य नहीं चाहता और न मैंने कभी माता से इसके लिये बातचीत ही की है। महाराज ने जिस अभिषेक का निश्चय किया था, उसका भी मुझे पता नहीं था; क्योंकि उस समय मैं शत्रुघ्न के साथ दूर देश में था॥२-३॥

वनवासं न जानामि रामस्याहं महात्मनः।
विवासनं च सौमित्रेः सीतायाश्च यथाभवत्॥ ४ ॥

‘महात्मा श्रीराम के वनवास और सीता तथा लक्ष्मण के निर्वासन का भी मुझे ज्ञान नहीं है कि वह कब और कैसे हुआ?’॥४॥

तथैव क्रोशतस्तस्य भरतस्य महात्मनः।
कौसल्या शब्दमाज्ञाय सुमित्रां चेदमब्रवीत्॥५॥

महात्मा भरत जब इस प्रकार अपनी माता को कोस रहे थे, उस समय उनकी आवाज को पहचानकर कौसल्या ने सुमित्रा से इस प्रकार कहा— ॥५॥

आगतः क्रूरकार्यायाः कैकेय्या भरतः सुतः।
तमहं द्रष्टमिच्छामि भरतं दीर्घदर्शिनम्॥६॥

‘क्रूर कर्म करने वाली कैकेयी के पुत्र भरत आ गये हैं। वे बड़े दूरदर्शी हैं, अतः मैं उन्हें देखना चाहती॥६॥

एवमुक्त्वा सुमित्रां तां विवर्णवदना कृशा।
प्रतस्थे भरतो यत्र वेपमाना विचेतना॥७॥

सुमित्रा से ऐसा कहकर उदास मुखवाली, दुर्बल और अचेत-सी हुई कौसल्या जहाँ भरत थे, उस स्थान पर जाने के लिये काँपती हुई चलीं॥ ७॥

स तु राजात्मजश्चापि शत्रुघ्नसहितस्तदा।
प्रतस्थे भरतो येन कौसल्याया निवेशनम्॥८॥

उसी समय उधर से राजकुमार भरत भी शत्रुघ्न को साथ लिये उसी मार्ग से चले आ रहे थे, जिससे कौसल्या के भवन में आना-जाना होता था॥ ८॥

ततः शत्रुघ्नभरतौ कौसल्या प्रेक्ष्य दुःखितौ।
पर्यष्वजेतां दुःखार्ता पतितां नष्टचेतनाम्॥९॥
रुदन्तौ रुदती दुःखात् समेत्यार्या मनस्विनी।
भरतं प्रत्युवाचेदं कौसल्या भृशदुःखिता॥१०॥

तदनन्तर शत्रुघ्न और भरत ने दूर से ही देखा कि माता कौसल्या दुःख से व्याकुल और अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी हैं। यह देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे दौड़कर उनकी गोदी से लग गये तथा
फूट-फूटकर रोने लगे। आर्या मनस्विनी कौसल्या भी दुःख से रो पड़ीं और उन्हें छाती से लगाकर अत्यन्त दुःखित हो भरत से इस प्रकार बोलीं- ॥९-१०॥

इदं ते राज्यकामस्य राज्यं प्राप्तमकण्टकम्।
सम्प्राप्तं बत कैकेय्या शीघ्रं क्रूरेण कर्मणा॥ ११॥

“बेटा ! तुम राज्य चाहते थे न? सो यह निष्कण्टक राज्य तुम्हें प्राप्त हो गया; किंतु खेद यही है कि कैकेयी ने जल्दी के कारण बड़े क्रूर कर्म के द्वारा इसे पाया है।

प्रस्थाप्य चीरवसनं पुत्रं मे वनवासिनम्।
कैकेयी कं गुणं तत्र पश्यति क्रूरदर्शिनी॥१२॥

‘क्रूरतापूर्ण दृष्टि रखनेवाली कैकेयी न जाने इसमें कौन-सा लाभ देखती थी कि उसने मेरे बेटे को चीर वस्त्र पहनाकर वन में भेज दिया और उसे वनवासी बना दिया॥१२॥

क्षिप्रं मामपि कैकेयी प्रस्थापयितुमर्हति।
हिरण्यनाभो यत्रास्ते सुतो मे सुमहायशाः॥१३॥

‘अब कैकेयी को चाहिये कि मुझे भी शीघ्र ही उसी स्थान पर भेज दे, जहाँ इस समय सुवर्णमयी नाभि से सुशोभित मेरे महायशस्वी पुत्र श्रीराम हैं।॥ १३॥

अथवा स्वयमेवाहं सुमित्रानुचरा सुखम्।
अग्निहोत्रं पुरस्कृत्य प्रस्थास्ये यत्र राघवः॥१४॥

‘अथवा सुमित्रा को साथ लेकर और अग्निहोत्र को आगे करके मैं स्वयं ही सुखपूर्वक उस स्थान को प्रस्थान करूँगी, जहाँ श्रीराम निवास करते हैं ॥ १४ ॥

कामं वा स्वयमेवाद्य तत्र मां नेतुमर्हसि।
यत्रासौ पुरुषव्याघ्रस्तप्यते मे सुतस्तपः॥ १५॥

‘अथवा तुम स्वयं ही अपनी इच्छा के अनुसार अब मुझे वहीं पहुँचा दो, जहाँ मेरे पुत्र पुरुषसिंह श्रीराम तप करते हैं॥ १५॥

इदं हि तव विस्तीर्णं धनधान्यसमाचितम्।
हस्त्यश्वरथसम्पूर्ण राज्यं निर्यातितं तया॥१६॥

‘यह धन-धान्य से सम्पन्न तथा हाथी, घोड़े एवं रथों से भरा-पूरा विस्तृत राज्य कैकेयी ने (श्रीराम से छीनकर) तुम्हें दिलाया है’ ॥ १६ ॥

इत्यादिबहुभिर्वाक्यैः क्रूरैः सम्भर्त्तितोऽनघः।
विव्यथे भरतोऽतीव व्रणे तुद्येव सूचिना॥१७॥

इस तरह की बहुत-सी कठोर बातें कहकर जब कौसल्या ने निरपराध भरत की भर्त्सना की, तब उनको बड़ी पीड़ा हुई; मानो किसी ने घाव में सूई चुभो दी हो॥ १७॥

पपात चरणौ तस्यास्तदा सम्भ्रान्तचेतनः।
विलप्य बहुधासंज्ञो लब्धसंज्ञस्तदाभवत्॥१८॥

वे कौसल्या के चरणों में गिर पड़े, उस समय उनके चित्त में बड़ी घबराहट थी। वे बारम्बार विलाप करके अचेत हो गये। थोड़ी देर बाद उन्हें फिर चेत हुआ॥ १८॥

एवं विलपमानां तां प्राञ्जलिर्भरतस्तदा।
कौसल्या प्रत्युवाचेदं शोकैर्बहभिरावृताम्॥१९

तब भरत अनेक प्रकार के शोकों से घिरी हुई और पूर्वोक्त रूप से विलाप करती हुई माता कौसल्या से हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले- ॥१९॥

आर्ये कस्मादजानन्तं गर्हसे मामकल्मषम्।
विपुलां च मम प्रीतिं स्थितां जानासि राघवे॥ २०॥

‘आर्ये! यहाँ जो कुछ हुआ है, इसकी मुझे बिलकुल जानकारी नहीं थी। मैं सर्वथा निरपराध हूँ, । तो भी आप क्यों मुझे दोष दे रही हैं? आप तो जानती हैं कि श्रीरघुनाथजी में मेरा कितना प्रगाढ़ प्रेम
है॥२०॥

कृतशास्त्रानुगा बुद्धिर्मा भूत् तस्य कदाचन।
सत्यसंधः सतां श्रेष्ठो यस्यार्योऽनुमते गतः॥२१॥

‘जिसकी अनुमति से सत्पुरुषों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, आर्य श्रीरामजी वन में गये हों, उस पापी की बुद्धि कभी गुरु से सीखे हुए शास्त्रों में बताये गये मार्ग का अनुसरण करने वाली न हो॥ २१ ॥

प्रैष्यं पापीयसां यातु सूर्यं च प्रति मेहतु।
हन्तु पादेन गाः सुप्ता यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २२॥

‘जिसकी सलाह से बड़े भाई श्रीराम को वन में जाना पड़ा हो, वह अत्यन्त पापियों-हीन जातियों का सेवक हो। सूर्य की ओर मुँह करके मल-मूत्र का त्याग करे और सोयी हुई गौओं को लात से मारे (अर्थात् वह इन पापकर्मो के दुष्परिणाम का भागी हो) ॥ २२ ॥

कारयित्वा महत् कर्म भर्ता भृत्यमनर्थकम्।
अधर्मो योऽस्य सोऽस्यास्तु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २३॥

‘जिसकी सम्मति से भैया श्रीराम ने वन को प्रस्थान किया हो, उसको वही पाप लगे, जो सेवक से भारी काम कराकर उसे समुचित वेतन न देने वाले स्वामी को लगता है॥ २३॥

परिपालयमानस्य राज्ञो भूतानि पुत्रवत्।
ततस्तु द्रुह्यतां पापं यस्यार्योऽनुमते गतः॥२४॥

‘जिसके कहने से आर्य श्रीराम को वन में भेजा गया हो, उसको वही पाप लगे, जो समस्त प्राणियों का पुत्र की भाँति पालन करने वाले राजा से द्रोह करने वाले लोगों को लगता है॥ २४॥

बलिषड्भागमुद्धृत्य नृपस्यारक्षितुः प्रजाः।
अधर्मो योऽस्य सोऽस्यास्तु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २५॥

‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह उसी अधर्म का भागी हो, जो प्रजा से उसकी आय का छठा भाग लेकर भी प्रजा वर्ग की रक्षा न करने वाले राजा को प्राप्त होता है॥ २५॥

संश्रुत्य च तपस्विभ्यः सत्रे वै यज्ञदक्षिणाम्।
तां चापलपतां पापं यस्यार्योऽनुमते गतः॥२६॥

‘जिसकी सलाह से भैया श्रीराम को वन में जाना पड़ा हो, उसे वही पाप लगे, जो यज्ञ में कष्ट सहने वाले ऋत्विजों को दक्षिणा देने की प्रतिज्ञा करके पीछे इनकार कर देने वाले लोगों को लगता है।॥ २६ ॥

हस्त्यश्वरथसम्बाधे युद्धे शस्त्रसमाकुले।
मा स्म कार्षीत् सतां धर्मं यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २७॥

‘हाथी, घोड़े और रथों से भरे एवं अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा से व्याप्त संग्राम में सत्पुरुषों के धर्म का पालन न करने वाले योद्धाओं को जो पाप लगता है, वही उस मनुष्य को भी प्राप्त हो, जिसकी सम्मति से आर्य श्रीरामजी को वन में भेजा गया हो॥२७॥

उपदिष्टं सुसूक्ष्मार्थं शास्त्रं यत्नेन धीमता।
स नाशयतु दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २८॥

‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीराम को वन में प्रस्थान करना पड़ा है, वह दुष्टात्मा बुद्धिमान् गुरु के द्वारा यत्नपूर्वक प्राप्त हुआ शास्त्र के सूक्ष्म विषय का उपदेश भुला दे॥ २८॥

मा च तं व्यूढबाह्नसं चन्द्रभास्करतेजसम्।
द्राक्षीद् राज्यस्थमासीनं यस्यार्योऽनुमते गतः॥ २९॥

‘जिसकी सलाह से बड़े भैया श्रीराम को वन में भेजा गया हो, वह चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी तथा विशाल भुजाओं और कंधों से सुशोभित श्रीरामचन्द्रजी को राज्यसिंहासन पर विराजमान न देख सके—वह राजा श्रीराम के दर्शन से वञ्चित रह जाय॥ २९॥

पायसं कृसरं छागं वृथा सोऽश्नातु निघृणः।
गुरूंश्चाप्यवजानातु यस्यार्योऽनुमते गतः॥३०॥

‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीरामचन्द्रजी वन में गये हों, वह निर्दय मनुष्य खीर, खिचड़ी और बकरी के दूध को देवताओं, पितरों एवं भगवान् को निवेदन किये बिना व्यर्थ करके खाय॥ ३०॥

गाश्च स्पृशतु पादेन गुरून् परिवदेत च।
मित्रे द्रुह्येत सोऽत्यर्थं यस्यार्योऽनुमते गतः॥३१॥

‘जिसकी सम्मति से श्रीरामचन्द्रजी को वन में जाना पड़ा हो, वह पापी मनुष्य गौओं के शरीर का पैर से स्पर्श, गुरुजनों की निन्दा तथा मित्र के प्रति अत्यन्त द्रोह करे॥३१॥

विश्वासात् कथितं किंचित् परिवादं मिथः क्वचित्।
विवृणोतु स दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥३२॥

‘जिसके कहने से बड़े भैया श्रीराम वन में गये हों, वह दुष्टात्मा गुप्त रखने के विश्वास पर एकान्त में कहे हुए किसी के दोष को दूसरों पर प्रकट कर दे (अर्थात् उसे विश्वासघात करने का पाप लगे) ॥ ३२॥

अकर्ता चाकृतज्ञश्च त्यक्तात्मा निरपत्रपः।
लोके भवतु विद्रिष्टो यस्यार्योऽनुमते गतः॥३३॥

‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह मनुष्य उपकार न करनेवाला, कृतघ्न, सत्पुरुषों द्वारा परित्यक्त, निर्लज्ज और जगत् में सबके द्वेष का पात्र हो॥

पुत्रैर्दासैश्च भृत्यैश्च स्वगृहे परिवारितः।
स एको मृष्टमश्नातु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३४॥

‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह अपने घर में पुत्रों, दासों और भृत्यों से घिरा रहकर भी अकेले ही मिष्टान्न भोजन करने के पाप का भागी हो॥

अप्राप्य सदृशान् दाराननपत्यः प्रमीयताम्।
अनवाप्य क्रियां धां यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३५॥

‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम का वनगमन हुआ हो, वह अपने अनुरूप पत्नी को न पाकर अग्निहोत्रआदि धार्मिक कर्मो का अनुष्ठान किये बिना संतान हीन अवस्था में ही मर जाय॥ ३५॥

माऽऽत्मनः संततिं द्राक्षीत् स्वेषु दारेषु दुःखितः।
आयुःसमग्रमप्राप्य यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३६॥

जिसकी सम्मति से मेरे बड़े भाई श्रीराम वन में गये हों, वह सदा दुःखी रहकर अपनी धर्मपत्नी से होने वाली संतान का मुँह न देखे तथा सम्पूर्ण आयु का उपभोग किये बिना ही मर जाय॥३६॥

राजस्त्रीबालवृद्धानां वधे यत् पापमुच्यते।
भृत्यत्यागे च यत् पापं तत् पापं प्रतिपद्यताम्॥ ३७॥

‘राजा, स्त्री, बालक और वृद्धों का वध करने तथा भृत्यों को त्याग देने में जो पाप होता है, वही पाप उसे भी लगे॥३७॥

लाक्षया मधुमांसेन लोहेन च विषेण च।
सदैव बिभृयाद् भृत्यान् यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३८॥

‘जिसकी सम्मति से श्रीराम का वनगमन हुआ हो, वह सदैव लाह, मधु, मांस, लोहा और विष आदि निषिद्ध वस्तुओं को बेचकर कमाये हुए धन से अपने भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों का पालन करे॥३८॥

संग्रामे समुपोढे च शत्रुपक्षभयंकरे।
पलायमानो वध्येत यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ३९॥

जिसकी राय से श्रीराम वन में जाने को विवश हुए हों, वह शत्रुपक्ष को भय देने वाले युद्ध के प्राप्त होने पर उसमें पीठ दिखाकर भागता हुआ मारा जाय॥ ३९॥

कपालपाणिः पृथिवीमटतां चीरसंवृतः।
भिक्षमाणो यथोन्मत्तो यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ४०॥

‘जिसकी सम्मति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह फटे-पुराने, मैले-कुचैले वस्त्र से अपने शरीर को ढककर हाथ में खप्पर ले भीख माँगता हुआ उन्मत्त की भाँति पृथ्वी पर घूमता फिरे॥ ४०॥

मद्यप्रसक्तो भवतु स्त्रीष्वक्षेषु च नित्यशः।
कामक्रोधाभिभूतश्च यस्यार्योऽनुमते गतः॥४१॥

‘जिसकी सलाह से श्रीरामचन्द्रजी को वन में जाना पड़ा हो, वह काम-क्रोध के वशीभूत होकर सदा ही मद्यपान, स्त्रीसमागम और द्यूतक्रीड़ा में आसक्त रहे।४१॥

मास्य धर्मे मनो भूयादधर्मं स निषेवताम्।
अपात्रवर्षी भवतु यस्यार्योऽनुमते गतः॥४२॥

‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, उसका मन कभी धर्म में न लगे, वह अधर्म का ही सेवन करे और अपात्र को धन दान करे॥ ४२ ॥

संचितान्यस्य वित्तानि विविधानि सहस्रशः।
दस्युभिर्विप्रलुप्यन्तां यस्यार्योऽनुमते गतः॥४३॥

‘जिसकी सलाह से आर्य श्रीराम का वन-गमन हुआ हो, उसके द्वारा सहस्रों की संख्या में संचित किये गये नाना प्रकार के धन-वैभवों को लुटेरे लूट ले जायँ। ४३॥

उभे संध्ये शयानस्य यत् पापं परिकल्प्यते।
तच्च पापं भवेत् तस्य यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ४४॥
यदग्निदायके पापं यत् पापं गुरुतल्पगे।
मित्रद्रोहे च यत् पापं तत् पापं प्रतिपद्यताम्॥ ४५॥

‘जिसके कहने से भैया श्रीराम को वन में भेजा गया हो, उसे वही पाप लगे, जो दोनों संध्याओं के समय सोये हुए पुरुष को प्राप्त होता है। आग लगाने वाले मनुष्य को जो पाप लगता है, गुरुपत्नीगामी को जिस पाप की प्राप्ति होती है तथा मित्रद्रोह करने से जो पाप प्राप्त होता है, वही पाप उसे भी लगे॥ ४४-४५ ॥

देवतानां पितॄणां च मातापित्रोस्तथैव च।
मा स्म कार्षीत् स शुश्रूषां यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ४६॥

“जिसकी सम्मतिसे आर्य श्रीरामको वनमें जाना पड़ा है, वह देवताओं, पितरों और माता-पिताकी सेवा कभी न करे (अर्थात् उनकी सेवाके पुण्यसे वञ्चित रह जाय) ॥ ४६॥

सतां लोकात् सतां कीर्त्याः सज्जुष्टात् कर्मणस्तथा।
भ्रश्यतु क्षिप्रमद्यैव यस्यार्योऽनुमते गतः॥४७॥

‘जिसकी अनुमति से विवश होकर भैया श्रीराम ने वन में पदार्पण किया है, वह पापी आज ही सत्पुरुषों के लोक से, सत्पुरुषों की कीर्ति से तथा सत्पुरुषों द्वारा सेवित कर्म से शीघ्र भ्रष्ट हो जाय॥ ४७॥

अपास्य मातृशुश्रूषामनर्थे सोऽवतिष्ठताम्।
दीर्घबाहर्महावक्षा यस्यार्योऽनुमते गतः॥४८॥

‘जिसकी सम्मति से बड़ी-बड़ी बाँह और विशाल वक्ष वाले आर्य श्रीराम को वन में जाना पड़ा है, वह माता की सेवा छोड़कर अनर्थ के पथ में स्थित रहे। ४८॥

बहुभृत्यो दरिद्रश्च ज्वररोगसमन्वितः।
समायात् सततं क्लेशं यस्यार्योनुमते गतः॥४९॥

‘जिसकी सलाह से श्रीराम का वनगमन हुआ हो, वह दरिद्र हो, उसके यहाँ भरण-पोषण पाने के योग्य पुत्र आदि की संख्या बहुत अधिक हो तथा वह ज्वररोग से पीड़ित होकर सदा क्लेश भोगता रहे ॥ ४९॥

आशामाशंसमानानां दीनानामूर्ध्वचक्षुषाम्।
अर्थिनां वितथां कुर्याद् यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५०॥

‘जिसकी अनुमति पाकर आर्य श्रीराम वन में गये हों,वह आशा लगाये ऊपर की ओर आँख उठाकर दाता के मुँह की ओर देखने वाले दीन याचकों की आशा को निष्फल कर दे॥५०॥

मायया रमतां नित्यं पुरुषः पिशुनोऽशुचिः।
राज्ञो भीतस्त्वधर्मात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५१॥

‘जिसके कहने से भैया श्रीराम ने वन को प्रस्थान किया हो, वह पापात्मा पुरुष चुगला, अपवित्र तथा राजा से भयभीत रहकर सदा छल-कपट में ही रचापचा रहे ॥ ५१॥

ऋतुस्नातां सती भार्यामृतुकालानुरोधिनीम्।
अतिवर्तेत दुष्टात्मा यस्यार्योऽनुमते गतः॥५२॥

‘जिसके परामर्श से आर्य का वनमगन हुआ हो, वह दुष्टात्मा ऋतु-स्नानकाल प्राप्त होने के कारण अपने पास आयी हुई सती-साध्वी ऋतुस्नाता पत्नी को ठुकरा दे (उसकी इच्छा न पूर्ण करने के पाप का भागी हो) । ५२॥

विप्रलुप्तप्रजातस्य दुष्कृतं ब्राह्मणस्य यत्।
तदेतत् प्रतिपद्येत यस्यार्योऽनुमते गतः॥५३॥

‘जिसकी सलाह से मेरे बड़े भाई को वन में जाना पड़ा हो, उसको वही पाप लगे, जो (अन्न आदि का दान न करने अथवा स्त्री से द्वेष रखने के कारण) नष्ट हुई संतान वाले ब्राह्मण को प्राप्त होता है॥ ५३॥

ब्राह्मणायोद्यतां पूजां विहन्तु कलुषेन्द्रियः।
बालवत्सां च गां दोग्धु यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५४॥

‘जिसकी राय से आर्य ने वन में पदार्पण किया हो, वह मलिन इन्द्रियवाला पुरुष ब्राह्मण के लिये की जाती हुई पूजा में विघ्न डाल दे और छोटे बछड़े वाली (दस दिन के भीतर की ब्यायी हुई) गाय का दूध दुहे॥ ५४॥

धर्मदारान् परित्यज्य परदारान् निषेवताम्।
त्यक्तधर्मरतिर्मूढो यस्यार्योऽनुमते गतः॥५५॥

‘जिसने आर्य श्रीराम के वनमगन की अनुमति दी हो, वह मूढ़ धर्मपत्नी को छोड़कर परस्त्री का सेवन करे तथा धर्मविषयक अनुराग को त्याग दे॥५५॥

पानीयदूषके पापं तथैव विषदायके।
यत्तदेकः स लभतां यस्यार्योऽनुमते गतः॥५६॥

‘पानी को गन्दा करने वाले तथा दूसरों को जहर देने वाले मनुष्य को जो पाप लगता है, वह सारा पाप अकेला वही प्राप्त करे, जिसकी अनुमति से विवश होकर आर्य श्रीराम को वन में जाना पड़ा है॥५६॥

तृषार्तं सति पानीये विप्रलम्भेन योजयन्।
यत् पापं लभते तत् स्याद् यस्यार्योऽनुमते गतः॥ ५७॥

‘जिसकी सम्मति से आर्य का वनगमन हुआ हो, उसे वही पाप प्राप्त हो, जो पानी होते हुए भी प्यासे को उससे वञ्चित कर देने वाले मनुष्य को लगता है॥ ५७॥

भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यतः।
तेन पापेन युज्येत यस्यार्योऽनुमते गतः॥५८॥

‘जिसकी अनुमति से आर्य श्रीराम वन में गये हों, वह उस पाप का भागी हो, जो परस्पर झगड़ते हुए मनुष्यों में से किसी एक के प्रति पक्षपात रखकर मार्ग में खड़ा हो उनका झगड़ा देखने वाले कलहप्रिय मनुष्य को प्राप्त होता है’ ॥ ५८॥

एवमाश्वासयन्नेव दुःखार्तोऽनुपपात ह।
विहीनां पतिपुत्राभ्यां कौसल्या पार्थिवात्मजः॥ ५९॥

इस प्रकार पति और पुत्र से बिछुड़ी हुई कौसल्या को शपथ के द्वारा आश्वासन देते हुए ही राजकुमार भरत दुःख से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ५९॥

तदा तं शपथैः कष्टैः शपमानमचेतनम्।
भरतं शोकसंतप्तं कौसल्या वाक्यमब्रवीत्॥ ६०॥

उस समय दुष्कर शपथों द्वारा अपनी सफाई देते हुए शोकसंतप्त एवं अचेत भरत से कौसल्या ने इस प्रकार कहा- ॥६०॥

मम दुःखमिदं पुत्र भूयः समुपजायते।
शपथैः शपमानो हि प्राणानुपरुणत्सि मे॥६१॥

‘बेटा! तुम अनेकानेक शपथ खाकर जो मेरे प्राणों को पीड़ा दे रहे हो, इससे मेरा यह दुःख और भी बढ़ता जा रहा है॥ ६१॥

दिष्ट्या न चलितो धर्मादात्मा ते सहलक्षणः।
वत्स सत्यप्रतिज्ञो हि सतां लोकानवाप्स्यसि॥ ६२॥

‘वत्स! सौभाग्य की बात है कि शुभ लक्षणों से सम्पन्न तुम्हारा चित्त धर्म से विचलित नहीं हुआ है। तुम सत्यप्रतिज्ञ हो, इसलिये तुम्हें सत्पुरुषों के लोक प्राप्त होंगे’ ॥ ६२॥

इत्युक्त्वा चाङ्कमानीय भरतं भ्रातृवत्सलम्।
परिष्वज्य महाबाहुं रुरोद भृशदुःखिता॥६३॥

ऐसा कहकर कौसल्या ने भ्रातृभक्त महाबाहु भरत को गोद में खींच लिया और अत्यन्त दुःखी हो उन्हें गले से लगाकर वे फूट-फूटकर रोने लगीं। ६३॥

एवं विलपमानस्य दुःखार्तस्य महात्मनः।
मोहाच्च शोकसंरम्भाद् बभूव लुलितं मनः॥ ६४॥

महात्मा भरत भी दुःख से आर्त होकर विलाप कर रहे थे। उनका मन मोह और शोक के वेग से व्याकुल हो गया था॥ ६४॥

लालप्यमानस्य विचेतनस्य प्रणष्टबुद्धेः पतितस्य भूमौ।
मुहुर्मुहुर्निःश्वसतश्च दीर्घ सा तस्य शोकेन जगाम रात्रिः॥६५॥

पृथ्वी पर पड़े हुए भरत की बुद्धि (विवेकशक्ति) नष्ट हो गयी थी। वे अचेत-से होकर विलाप करते और बारंबार लंबी साँस खींचते थे। इस तरह शोक में ही उनकी वह रात बीत गयी॥६५॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चसप्ततितमः सर्गः॥ ७५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ७५॥


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Shivangi

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