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वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग 98 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Ayodhyakanda Chapter 98

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
अयोध्याकाण्डम्
अष्टनवतितमः सर्गः (सर्ग 98)

भरत के द्वारा श्रीराम के आश्रम की खोज का प्रबन्ध तथा उन्हें आश्रम का दर्शन

 

निवेश्य सेनां तु विभुः पद्भ्यां पादवतां वरः।
अभिगन्तुं स काकुत्स्थमियेष गुरुवर्तकम्॥१॥
निविष्टमात्रे सैन्ये तु यथोद्देशं विनीतवत्।
भरतो भ्रातरं वाक्यं शत्रुघ्नमिदमब्रवीत्॥२॥

इस प्रकार सेना को ठहराकर जंगम प्राणियों में श्रेष्ठ एवं प्रभावशाली भरत ने गुरुसेवापरायण (एवं पिता के आज्ञा पालक) श्रीरामचन्द्रजी के पास जाने का विचार किया। जब सारी सेना विनीत भाव से यथास्थान ठहर गयी, तब भरत ने अपने भाई शत्रुघ्न से इस प्रकार कहा- ॥ १-२॥

क्षिप्रं वनमिदं सौम्य नरसंधैः समन्ततः।
लुब्धैश्च सहितैरेभिस्त्वमन्वेषितुमर्हसि ॥३॥

‘सौम्य! बहुत-से मनुष्यों के साथ इन निषादों को भी साथ लेकर तुम्हें शीघ्र ही इस वन में चारों ओर श्रीरामचन्द्रजी की खोज करनी चाहिये॥३॥

गुहो ज्ञातिसहस्रेण शरचापासिपाणिना।
समन्वेषतु काकुत्स्थावस्मिन् परिवृतः स्वयम्॥ ४॥

‘निषादराज गुह स्वयं भी धनुष-बाण और तलवार धारण करने वाले अपने सहस्रों बन्धु-बान्धवों से घिरे हुए जायँ और इस वन में ककुत्स्थवंशी श्रीराम और लक्ष्मण का अन्वेषण करें॥४॥

अमात्यैः सह पौरैश्च गुरुभिश्च द्विजातिभिः।
सह सर्वं चरिष्यामि पद्भ्यां परिवृतः स्वयम्॥

‘मैं स्वयं भी मन्त्रियों, पुरवासियों, गुरुजनों तथा ब्राह्मणों के साथ उन सबसे घिरा रहकर पैदल ही सारे वन में विचरण करूँगा॥ ५॥

यावन्न रामं द्रक्ष्यामि लक्ष्मणं वा महाबलम्।
वैदेहीं वा महाभागां न मे शान्तिर्भविष्यति॥६॥

‘जबतक श्रीराम, महाबली लक्ष्मण अथवा महाभागा विदेहराजकुमारी सीता को न देख लूँगा, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी॥६॥

यावन्न चन्द्रसंकाशं तद् द्रक्ष्यामि शुभाननम्।
भ्रातः पद्मविशालाक्षं न मे शान्तिर्भविष्यति॥ ७॥

‘जब तक अपने पूज्य भ्राता श्रीराम के कमलदल के सदृश विशाल नेत्रों वाले सुन्दर मुखचन्द्र का दर्शन न कर लूँगा, तब तक मेरे मन को शान्ति नहीं प्राप्त होगी॥ ७॥

सिद्धार्थः खलु सौमित्रिर्यश्चन्द्रविमलोपमम्।
मुखं पश्यति रामस्य राजीवाक्षं महाद्युतिम्॥८॥

‘निश्चय ही सुमित्राकुमार लक्ष्मण कृतार्थ हो गये, जो श्रीरामचन्द्रजी के उस कमलसदृश नेत्र वाले महातेजस्वी मुख का निरन्तर दर्शन करते हैं, जो चन्द्रमा के समान निर्मल एवं आह्लाद प्रदान करने वाला है॥८॥

यावन्न चरणौ भ्रातुः पार्थिवव्यञ्जनान्वितौ।
शिरसा प्रग्रहीष्यामि न मे शान्तिर्भविष्यति॥९॥

‘जबतक भाई श्रीराम के राजोचित लक्षणों से युक्त चरणारविन्दों को अपने सिर पर नहीं रखुंगा, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी॥९॥

यावन्न राज्ये राज्याहः पितृपैतामहे स्थितः।
अभिषिक्तो जलक्लिन्नो न मे शान्तिर्भविष्यति॥ १०॥

‘जब तक राज्य के सच्चे अधिकारी आर्य श्रीराम पिता-पितामहों के राज्य पर प्रतिष्ठित हो अभिषेक के जल से आर्द्र नहीं हो जायँगे, तबतक मेरे मन को शान्ति नहीं प्राप्त होगी॥ १०॥

कृतकृत्या महाभागा वैदेही जनकात्मजा।
भर्तारं सागरान्तायाः पृथिव्या यानुगच्छति॥ ११॥

‘जो समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी अपने पतिदेव श्रीरामचन्द्रजी का अनुसरण करती हैं, वे जनककिशोरी विदेहराजनन्दिनी महाभागा सीता अपने इस सत्कर्म से कृतार्थ हो गयीं॥ ११॥

सुशुभश्चित्रकूटोऽसौ गिरिराजसमो गिरिः।
यस्मिन् वसति काकुत्स्थः कुबेर इव नन्दने॥ १२॥

‘जैसे नन्दनवन में कुबेर निवास करते हैं, उसी प्रकार जिसके वन में ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी विराज रहे हैं, वह चित्रकूट परममङ्गलकारी तथा गिरिराज हिमालय एवं वेंकटाचल के समान श्रेष्ठ पर्वत है॥ १२॥

कृतकार्यमिदं दुर्गवनं व्यालनिषेवितम्।
यदध्यास्ते महाराजो रामः शस्त्रभृतां वरः॥१३॥

‘यह सर्पसेवित दुर्गम वन भी कृतार्थ हो गया, जहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाराज श्रीराम निवास करते हैं’।

एवमुक्त्वा महाबाहुर्भरतः पुरुषर्षभः।
पद्भ्यामेव महातेजाः प्रविवेश महद् वनम्॥ १४॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी पुरुषप्रवर महाबाहु भरत ने उस विशाल वन में पैदल ही प्रवेश किया। १४॥

स तानि द्रुमजालानि जातानि गिरिसानुषु।
पुष्पिताग्राणि मध्येन जगाम वदतां वरः॥१५॥

वक्ताओं में श्रेष्ठ भरत पर्वतशिखरों पर उत्पन्न हुए वृक्षसमूहों के, जिनकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से भरे थे, बीच से निकले॥ १५ ॥

स गिरेश्चित्रकूटस्य सालमारुह्य सत्वरम्।
रामाश्रमगतस्याग्नेर्ददर्श ध्वजमुच्छ्रितम्॥१६॥

आगे जाकर वे बड़ी तेजी से चित्रकूट पर्वत के एक शाल-वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम पर सुलगती हुई आग का ऊपर उठता हुआ धुआँ देखा ॥ १६॥ ।

तं दृष्ट्वा भरतः श्रीमान् मुमोद सहबान्धवः।
अत्र राम इति ज्ञात्वा गतः पारमिवाम्भसः ॥ १७॥

उस धूम को देखकर श्रीमान् भरत को अपने भाई शत्रुघ्न-सहित बड़ी प्रसन्नता हुई और ‘यहीं श्रीराम हैं’ यह जानकर उन्हें अथाह जल से पार हो जाने के समान संतोष प्राप्त हआ॥ १७॥

स चित्रकूटे तु गिरौ निशम्य रामाश्रमं पुण्यजनोपपन्नम्।
गुहेन सार्धं त्वरितो जगाम पुनर्निवेश्यैव चमूं महात्मा॥१८॥

इस प्रकार चित्रकूट पर्वत पर पुण्यात्मा महर्षियों से युक्त श्रीरामचन्द्रजी का आश्रम देखकर महात्मा भरत ने ढूँढ़ने के लिये आयी हुई सेना को पुनः पूर्व स्थान पर ठहरा दिया और वे स्वयं गुह के साथ शीघ्रतापूर्वक आश्रम की ओर चल दिये॥ १८ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टनवतितमः सर्गः॥ ९८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अट्ठानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ९८॥


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