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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 77 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Balakanda Chapter 77

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
बालकाण्डम्
सप्तसप्ततितमः सर्गः (सर्ग 77)

(राजा दशरथ का पुत्रों और वधुओं के साथ अयोध्या में प्रवेश, सीता और श्रीराम का पारस्परिक प्रेम)

 

गते रामे प्रशान्तात्मा रामो दाशरथिर्धनुः ।
वरुणायाप्रमेयाय ददौ हस्ते महायशाः॥१॥

जमदग्निकुमार परशुरामजी के चले जाने पर महायशस्वी दशरथनन्दन श्रीराम ने शान्तचित्त होकर अपार शक्तिशाली वरुण के हाथ में वह धनुष दे दिया।१॥

अभिवाद्य ततो रामो वसिष्ठप्रमुखानुषीन्।
पितरं विकलं दृष्ट्वा प्रोवाच रघुनन्दनः॥२॥

तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि ऋषियों को प्रणाम करके रघुनन्दन श्रीराम ने अपने पिता को विकल देखकर उनसे कहा- ॥२॥

जामदग्न्यो गतो रामः प्रयातु चतुरंगिणी।
अयोध्याभिमुखी सेना त्वया नाथेन पालिता॥

‘पिताजी! जमदग्निकुमार परशुराम जी चले गये।अब आपके अधिनायकत्व में सुरक्षित यह चतुरंगिणी सेना अयोध्या की ओर प्रस्थान करे’ ॥३॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा दशरथः सुतम्।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य मूर्युपाघ्राय राघवम्॥ ४॥
गतो राम इति श्रुत्वा हृष्टः प्रमुदितो नृपः।
पुनर्जातं तदा मेने पुत्रमात्मानमेव च ॥५॥

श्रीराम का यह वचन सुनकर राजा दशरथ ने अपने पुत्र रघुनाथजी को दोनों भुजाओं से खींचकर छाती से लगा लिया और उनका मस्तक सूंघा। ‘परशुरामजी चले गये’ यह सुनकर राजा दशरथ को बड़ा हर्ष हुआ, वे आनन्दमग्न हो गये। उस समय उन्होंने अपना और अपने पुत्र का पुनर्जन्म हुआ माना॥४-५॥

चोदयामास तां सेनां जगामाशु ततः पुरीम्।
पताकाध्वजिनीं रम्यां तूर्योद्घष्टनिनादिताम्॥६॥

तदनन्तर उन्होंने सेना को नगर की ओर कूच करने की आज्ञा दी और वहाँ से चलकर बड़ी शीघ्रता के साथ वे अयोध्यापुरी में जा पहुँचे। उस समय उस पुरी में सब ओर ध्वजा-पताकाएँ फहरा
रही थीं। सजावट से नगर की रमणीयता बढ़ गयी थी और भाँति-भाँति के वाद्यों की ध्वनि से सारी अयोध्या गूंज उठी थी॥६॥

सिक्तराजपथारम्यां प्रकीर्णकुसुमोत्कराम्।
राजप्रवेशसुमुखैः पौरैर्मङ्गलपाणिभिः॥७॥
सम्पूर्णां प्राविशद् राजा जनौधैः समलंकृताम्।
पौरैः प्रत्युद्गतो दूरं द्विजैश्च पुरवासिभिः॥८॥

सड़कों पर जलका छिड़काव हुआ था, जिससे पुरी की सुरम्य शोभा बढ़ गयी थी। यत्र-तत्र ढेर-के ढेर फूल बिखेरे गये थे। पुरवासी मनुष्य हाथों में मांगलिक वस्तुएँ लेकर राजा के प्रवेश मार्ग पर प्रसन्नमुख होकर खड़े थे। इन सबसे भरी-पूरी तथा भारी जनसमुदाय से अलंकृत हुई अयोध्यापुरी में राजा ने प्रवेश किया। नागरिकों तथा पुरवासी ब्राह्मणों ने दूर तक आगे जाकर महाराज की अगवानी की थी॥ ७-८॥

पुत्रैरनुगतः श्रीमान् श्रीमद्भिश्च महायशाः।
प्रविवेश गृहं राजा हिमवत्सदृशं प्रियम्॥९॥

अपने कान्तिमान् पुत्रों के साथ महायशस्वी श्रीमान् राजा दशरथ ने अपने प्रिय राजभवन में, जो हिमालय के समान सुन्दर एवं गगनचुम्बी था, प्रवेश किया॥९॥

ननन्द स्वजनै राजा गृहे कामैः सुपूजितः।
कौसल्या च सुमित्रा च कैकेयी च सुमध्यमा॥ १०॥
वधप्रतिग्रहे युक्ता याश्चान्या राजयोषितः।

राजमहल में स्वजनों द्वारा मनोवाञ्छित वस्तुओं से परम पूजित हो राजा दशरथ ने बड़े आनन्द का अनुभव किया। महारानी कौसल्या, सुमित्रा, सुन्दर कटिप्रदेश वाली कैकेयी तथा जो अन्य राजपत्नियाँ थीं, वे सब बहुओं को उतारने के कार्य में जुट गयीं। १० १/२॥

ततः सीतां महाभागामूर्मिलां च यशस्विनीम्॥११॥
कुशध्वजसुते चोभे जगृहुर्नुपयोषितः।
मंगलालापनैर्हो मैः शोभिताः क्षौमवाससः॥१२॥

तदनन्तर राजपरिवार की उन स्त्रियों ने परम सौभाग्यवती सीता, यशस्विनी ऊर्मिला तथा कुशध्वजकी दोनों कन्याओं—माण्डवी और श्रुतकीर्ति को सवारी से उतारा और मंगल गीत गाती हुई सब वधुओं को घरमें ले गयीं। वे प्रवेशकालिक होमकर्म से सुशोभित तथा रेशमी साड़ियों से अलंकृत थीं॥ ११-१२॥

देवतायतनान्याशु सर्वास्ताः प्रत्यपूजयन्।
अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वा राजसुतास्तदा॥ १३॥
रेमिरे मुदिताः सर्वा भर्तृभिर्मुदिता रहः।

उन सबने देवमन्दिरों में ले जाकर उन बहुओं से देवताओं का पूजन करवाया। तदनन्तर नव-वधूरूप में आयी हुई उन सभी राजकुमारियों ने वन्दनीय सास ससुर आदि के चरणों में प्रणाम किया और अपने अपने पति के साथ एकान्त में रहकर वे सब-की-सब बड़े आनन्द से समय व्यतीत करने लगीं। १३ १/२॥

कृतदाराः कृतास्त्राश्च सधनाः ससुहृज्जनाः॥ १४॥
शुश्रूषमाणाः पितरं वर्तयन्ति नरर्षभाः।
कस्यचित्त्वथ कालस्य राजा दशरथः सुतम्॥
भरतं कैकयीपुत्रमब्रवीद् रघुनन्दनः।

श्रीराम आदि पुरुषश्रेष्ठ चारों भाई अस्त्रविद्या में निपुण और विवाहित होकर धन और मित्रों के साथ रहते हुए पिताकी सेवा करने लगे। कुछ काल के बाद रघुकुलनन्दन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरत से कहा— ॥१४-१५ १/२ ॥

अयं केकयराजस्य पुत्रो वसति पुत्रक॥१६॥
त्वां नेतुमागतो वीरो युधाजिन्मातुलस्तव।

‘बेटा! ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् तुम्हें लेने के लिये आये हैं और कई दिनों से यहाँ ठहरे हुए हैं ॥ १६ १/२॥

श्रुत्वा दशरथस्यैतद् भरतः कैकयीसुतः॥१७॥
गमनायाभिचक्राम शत्रुघ्नसहितस्तदा।

दशरथजी की यह बात सुनकर कैकेयीकुमार भरत ने उस समय शत्रुघ्न के साथ मामा के यहाँ जाने का विचार किया। १७ १/२॥

आपृच्छ्य पितरं शूरो रामं चाक्लिष्टकारिणम्॥ १८॥
मातृश्चापि नरश्रेष्ठः शत्रुघ्नसहितो ययौ।

वे नरश्रेष्ठ शूरवीर भरत अपने पिता राजा दशरथ, अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीराम तथा सभी माताओं से पूछकर उनकी आज्ञा ले शत्रुघ्नसहित वहाँसे चल दिये॥ १८१/२॥

युधाजित् प्राप्य भरतं सशत्रुघ्र प्रहर्षितः॥१९॥
स्वपुरं प्राविशद् वीरः पिता तस्य तुतोष ह।

शत्रुघ्नसहित भरत को साथ लेकर वीर युधाजित् ने बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में प्रवेश किया, इससे उनके पिताको बड़ा संतोष हुआ॥ १९ १/२॥

गते च भरते रामो लक्ष्मणश्च महाबलः॥२०॥
पितरं देवसंकाशं पूजयामासतुस्तदा।

भरत के चले जाने पर महाबली श्रीराम और लक्ष्मण उन दिनों अपने देवोपम पिताकी सेवा-पूजा में संलग्न रहने लगे॥ २० १/२॥

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य पौरकार्याणि सर्वशः॥२१॥
चकार रामः सर्वाणि प्रियाणि च हितानि च।

पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके वे नगरवासियों के सब काम देखने तथा उनके समस्त प्रिय तथा हितकर कार्य करने लगे। २१ १/२ ।।

मातृभ्यो मातृकार्याणि कृत्वा परमयन्त्रितः॥ २२॥
गुरूणां गुरुकार्याणि काले कालेऽन्ववैक्षत।

वे अपने को बड़े संयम में रखते थे और समय समय पर माताओं के लिये उनके आवश्यक कार्य पूर्ण करके गुरुजनों के भारी-से-भारी कार्यों को भी सिद्ध करने का ध्यान रखते थे॥ २२ १/२॥

एवं दशरथः प्रीतो ब्राह्मणा नैगमास्तथा ॥२३॥
रामस्य शीलवृत्तेन सर्वे विषयवासिनः।

उनके इस बर्ताव से राजा दशरथ, वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा वैश्यवर्ग बड़े प्रसन्न रहते थे; श्रीरामके उत्तम शील और सद्-व्यवहारसे उस राज्यके भीतर निवास करनेवाले सभी मनुष्य बहुत संतुष्ट रहते थे। २३१/२॥

तेषामतियशा लोके रामः सत्यपराक्रमः॥२४॥
स्वयंभूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः।

राजा के उन चारों पुत्रों में सत्यपराक्रमी श्रीराम ही लोक में अत्यन्त यशस्वी तथा महान् गुणवान् हुए ठीक उसी तरह जैसे समस्त भूतों में स्वयम्भू ब्रह्मा ही अत्यन्त यशस्वी और महान् गुणवान् हैं ।। २४ १/२॥

रामश्च सीतया सार्धं विजहार बहूनृतून्॥ २५॥
मनस्वी तद्गतमनास्तस्या हृदि समर्पितः।

श्रीरामचन्द्रजी सदा सीता के हृदयमन्दिर में विराजमान रहते थे तथा मनस्वी श्रीराम का मन भी सीता में ही लगा रहता था; श्रीराम ने सीता के साथ अनेक ऋतुओं तक विहार किया। २५ १/२ ॥

प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इति॥ २६॥
गुणाद्रूपगुणाच्चापि प्रीतिर्भूयोऽभिवर्धते।
तस्याश्च भर्ता द्विगुणं हृदये परिवर्तते॥२७॥

सीता श्रीराम को बहुत ही प्रिय थीं; क्योंकि वे अपने पिता राजा जनक द्वारा श्रीराम के हाथ में पत्नी-रूप से समर्पित की गयी थीं। सीता के पातिव्रत्य आदि गुण से तथा उनके सौन्दर्य गुण से भी श्रीराम का उनके प्रति अधिकाधिक प्रेम बढ़ता रहता था; इसी प्रकार सीता के हृदय में भी उनके पति श्रीराम अपने गुण और सौन्दर्य के कारण द्विगुण प्रीतिपात्र बनकर रहते थे। २६-२७॥

अन्तर्गतमपि व्यक्तमाख्याति हृदयं हृदा।
तस्य भूयो विशेषेण मैथिली जनकात्मजा।
देवताभिः समा रूपे सीता श्रीरिव रूपिणी॥ २८॥

जनकनन्दिनी मिथिलेश कुमारी सीता श्रीराम के हार्दिक अभिप्राय को भी अपने हृदय से ही और अधिकरूप से जान लेती थीं तथा स्पष्टरूप से बता भी देती थीं। वे रूप में देवांगनाओं के समान थीं और मूर्तिमती लक्ष्मी-सी प्रतीत होती थीं॥२८॥

तया स राजर्षिसुतोऽभिकामया समेयिवानुत्तमराजकन्यया।
अतीव रामः शुशुभे मुदान्वितो विभुः श्रिया विष्णुरिवामरेश्वरः॥२९॥

श्रेष्ठ राजकुमारी सीता श्रीराम की ही कामना रखती थीं और श्रीराम भी एकमात्र उन्हीं को चाहते थे; जैसे लक्ष्मी के साथ देवेश्वर भगवान् विष्णु की शोभा होती है, उसी प्रकार उन सीतादेवी के साथ राजर्षि दशरथकुमार श्रीराम परम प्रसन्न रहकर बड़ी शोभा पाने लगे॥२९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तसप्ततितमः सर्गः॥ ७७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें सतहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ७७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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