RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 12

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
द्वादशः सर्गः (सर्ग 12)

सुग्रीव का किष्किन्धा में आकर वाली को ललकारना और युद्ध में पराजित होना, वहाँ श्रीराम का पहचान के लिये गजपुष्पीलता डालकर उन्हें पुनः युद्ध के लिये भेजना

 

एतच्च वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य सुभाषितम्।
प्रत्ययार्थं महातेजा रामो जग्राह कार्मुकम्॥१॥

सुग्रीव के सुन्दर ढंग से कहे हुए इस वचन को सुनकर महातेजस्वी श्रीराम ने उन्हें विश्वास दिलाने के लिये धनुष हाथ में लिया॥१॥

स गृहीत्वा धनुर्घोरं शरमेकं च मानदः।
सालमुद्दिश्य चिक्षेप पूरयन् स रवैर्दिशः॥२॥

दूसरों को मान देने वाले श्रीरघुनाथजी ने वह भयंकर धनुष और एक बाण लेकर धनुष की टंकार से सम्पूर्ण दिशाओं को जाते हुए उस बाण को साल वृक्ष की ओर छोड़ दिया॥२॥

स विसृष्टो बलवता बाणः स्वर्णपरिष्कृतः।
भित्त्वा सालान् गिरिप्रस्थं सप्तं भूमि विवेश ह॥

उन बलवान् वीरशिरोमणि के द्वारा छोड़ा गया वह सुवर्णभूषित बाण उन सातों सालवृक्षों को एक ही साथ बींधकर पर्वत तथा पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया॥३॥

सायकस्तु मुहूर्तेन सालान् भित्त्वा महाजवः।
निष्पत्य च पुनस्तूणं तमेव प्रविवेश ह॥४॥

इस प्रकार एक ही मुहूर्त में उन सबका भेदन करके वह महान् वेगशाली बाण पुनः वहाँ से निकलकर उनके तरकस में ही प्रविष्ट हो गया॥४॥

तान् दृष्ट्वा सप्त निर्भिन्नान् सालान् वानरपुङ्गवः।
रामस्य शरवेगेन विस्मयं परमं गतः॥५॥

श्रीराम के बाण के वेग से उन सातों साल वृक्षों को विदीर्ण हुआ देख वानरशिरोमणि सुग्रीव को बड़ा विस्मय हुआ॥५॥

स मूर्ना न्यपतद् भूमौ प्रलम्बीकृतभूषणः।
सुग्रीवः परमप्रीतो राघवाय कृताञ्जलिः॥६॥

साथ ही उन्हें मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता हुई। सुग्रीव ने हाथ जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया और श्रीरघुनाथजी को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। प्रणाम के लिये झुकते समय उनके कण्ठहारादि भूषण लटकते हुए दिखायी देते थे॥६॥

इदं चोवाच धर्मज्ञं कर्मणा तेन हर्षितः।
रामं सर्वास्त्रविदुषां श्रेष्ठं शूरमवस्थितम्॥७॥

श्रीराम के उस महान् कर्म से अत्यन्त प्रसन्न हो उन्होंने सामने खड़े हुए सम्पूर्ण अस्त्र-वेत्ताओं में श्रेष्ठ धर्मज्ञ, शूरवीर श्रीरामचन्द्रजी से इस प्रकार कहा- ॥ ७॥

सेन्द्रानपि सुरान् सर्वांस्त्वं बाणैः पुरुषर्षभ।
समर्थः समरे हन्तुं किं पुनर्वालिनं प्रभो॥८॥

‘पुरुषप्रवर! भगवन्! आप तो अपने बाणों से समराङ्गण में इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं का वध भी करने में समर्थ हैं। फिर वाली को मारना आपके लिये कौन बड़ी बात है ? ॥ ८॥

येन सप्त महासाला गिरिभूमिश्च दारिताः।
बाणेनैकेन काकुत्स्थ स्थाता ते को रणाग्रतः॥ ९॥

‘काकुत्स्थ! जिन्होंने सात बड़े-बड़े सालवृक्ष, पर्वत और पृथ्वी को भी एक ही बाण से विदीर्ण कर डाला, उन्हीं आपके समक्ष युद्ध के मुहाने पर कौन ठहर सकता है॥९॥

अद्य मे विगतः शोकः प्रीतिरद्य परा मम।
सुहृदं त्वां समासाद्य महेन्द्रवरुणोपमम्॥१०॥

‘महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी आपको सुहृद् के रूपमें पाकर आज मेरा सारा शोक दूर हो गया। आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है॥ १० ॥

तमद्यैव प्रियार्थं मे वैरिणं भ्रातृरूपिणम्।
वालिनं जहि काकुत्स्थ मया बद्धोऽयमञ्जलिः॥ ११॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण! मैं हाथ जोड़ता हूँ। आप आज ही मेरा प्रिय करने के लिये उस वाली का, जो भाई के रूप में मेरा शत्रु है, वध कर डालिये’॥ ११॥

ततो रामः परिष्वज्य सुग्रीवं प्रियदर्शनम्।
प्रत्युवाच महाप्राज्ञो लक्ष्मणानुगतं वचः॥१२॥

सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी को लक्ष्मण के समान प्रिय हो गये थे। उनकी बात सुनकर महाप्राज्ञ श्रीराम ने अपने उस प्रिय सुहृद् को हृदय से लगा लिया और इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १२॥

अस्माद्गच्छाम किष्किन्धां क्षिप्रं गच्छ त्वमग्रतः।
गत्वा चाह्वय सुग्रीव वालिनं भ्रातृगन्धिनम्॥ १३॥

‘सुग्रीव! हमलोग शीघ्र ही इस स्थान से किष्किन्धा को चलते हैं। तुम आगे जाओ और जाकर व्यर्थ ही भाई कहलाने वाले वाली को युद्ध के लिये ललकारो’ ॥ १३॥

सर्वे ते त्वरितं गत्वा किष्किन्धां वालिनः पुरीम्।
वृक्षरात्मानमावृत्य ह्यतिष्ठन् गहने वने ॥१४॥

तदनन्तर वे सब लोग वाली की राजधानी किष्किन्धापुरी में गये और वहाँ गहन वन के भीतर वृक्षों की आड़ में छिपकर खड़े हो गये॥१४॥

सुग्रीवोऽप्यनदद् घोरं वालिनो ह्वानकारणात्।
गाढं परिहितो वेगान्नादैभिन्दन्निवाम्बरम्॥१५॥

सुग्रीव ने लँगोट से अपनी कमर खूब कस ली और वाली को बुलाने के लिये भयंकर गर्जना की। वेगपूर्वक किये हुए उस सिंहनाद से मानो वे आकाश को फाड़े डालते थे॥ १५॥

तं श्रुत्वा निनदं भ्रातुः क्रुद्धो वाली महाबलः।
निष्पपात सुसंरब्धो भास्करोऽस्ततटादिव॥१६॥

भाई का सिंहनाद सुनकर महाबली वाली को बड़ा क्रोध हुआ। वह अमर्ष में भरकर अस्ताचल से नीचे जाने वाले सूर्य के समान बड़े वेग से घर से निकला। १६॥

ततः सुतुमुलं युद्धं वालिसुग्रीवयोरभूत्।
गगने ग्रहयो?रं बुधाङ्गारकयोरिव॥१७॥

फिर तो वाली और सुग्रीव में बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया, मानो आकाश में बुध और मंगल इन दोनों ग्रहों में घोर संग्राम हो रहा हो॥१७॥

तलैरशनिकल्पैश्च वज्रकल्पैश्च मुष्टिभिः।
जनतुः समरेऽन्योन्यं भ्रातरौ क्रोधमूर्च्छितौ॥ १८॥

वे दोनों भाई क्रोध से मूर्छित हो एक-दूसरे पर वज्र और अशनिके समान तमाचों और घूसों का प्रहार करने लगे।

ततो रामो धनुष्पाणिस्तावुभौ समुदैक्षत।
अन्योन्यसदृशौ वीरावुभौ देवाविवाश्विनौ॥ १९॥

उसी समय श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष हाथ में लिया और उन दोनों की ओर देखा। वे दोनों वीर अश्विनीकुमारों की भाँति परस्पर मिलते-जुलते दिखायी दिये॥ १९॥

यन्नावगच्छत् सुग्रीवं वालिनं वापि राघवः।
ततो न कृतवान् बुद्धिं मोक्तुमन्तकरं शरम्॥ २०॥

श्रीरामचन्द्रजी को यह पता न चला कि इनमें कौन सुग्रीव है और कौन वाली; इसलिये उन्होंने अपना वह प्राणान्तकारी बाण छोड़ने का विचार स्थगित कर दिया॥

एतस्मिन्नन्तरे भग्नः सुग्रीवस्तेन वालिना।
अपश्यन् राघवं नाथमृष्यमूकं प्रदुद्रुवे॥२१॥

इसी बीच में वाली ने सुग्रीव के पाँव उखाड़ दिये। वे अपने रक्षक श्रीरघुनाथजी को न देखकर ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागे॥२१॥

क्लान्तो रुधिरसिक्ताङ्गः प्रहारैर्जर्जरीकृतः।
वालिनाभिद्रुतः क्रोधात् प्रविवेश महावनम्॥ २२॥

वे बहुत थक गये थे। उनका सारा शरीर लहूलुहान और प्रहारों से जर्जर हो रहा था। इतने पर भी वाली ने क्रोधपूर्वक उनका पीछा किया। किंतु वे मतंगमुनि के महान् वन में घुस गये॥ २२॥

तं प्रविष्टं वनं दृष्ट्वा वाली शापभयात् ततः।
मुक्तो ह्यसि त्वमित्युक्त्वा स निवृत्तो महाबलः॥ २३॥

सुग्रीव को उस वन में प्रविष्ट हुआ देख महाबली वाली शाप के भय से वहाँ नहीं गया और ‘जाओ तुम बच गये’ ऐसा कहकर वहाँ से लौट आया॥ २३ ॥

राघवोऽपि सह भ्रात्रा सह चैव हनूमता।
तदेव वनमागच्छत् सुग्रीवो यत्र वानरः॥२४॥

इधर श्रीरघुनाथजी भी अपने भाई लक्ष्मण तथा श्रीहनुमान जी के साथ उसी समय वनमें आ गये, जहाँ वानर सुग्रीव विद्यमान थे॥२४॥

तं समीक्ष्यागतं रामं सुग्रीवः सहलक्ष्मणम्।
ह्रीमान् दीनमुवाचेदं वसुधामवलोकयन्॥ २५॥

लक्ष्मणसहित श्रीराम को आया देख सुग्रीव को बड़ी लज्जा हुई और वे पृथ्वी की ओर देखते हुए दीन वाणी में उनसे बोले- ॥२५॥

आह्वयस्वेति मामुक्त्वा दर्शयित्वा च विक्रमम्।
वैरिणा घातयित्वा च किमिदानीं त्वया कृतम्॥ २६॥
तामेव वेलां वक्तव्यं त्वया राघव तत्त्वतः।
वालिनं न निहन्मीति ततो नाहमितो व्रजे॥२७॥

‘रघुनन्दन! आपने अपना पराक्रम दिखाया और मुझे यह कहकर भेज दिया कि जाओ, वाली को युद्ध के लिये ललकारो, यह सब हो जाने पर आपने शत्रु से पिटवाया और स्वयं छिप गये। बताइये, इस समय आपने ऐसा क्यों किया? आपको उसी समय सच-सच बता देना चाहिये था कि मैं वाली को नहीं मारूँगा। ऐसी दशा में मैं यहाँ से उसके पास जाता ही नहीं’ ॥ २६-२७॥

तस्य चैवं ब्रुवाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः।
करुणं दीनया वाचा राघवः पुनरब्रवीत्॥२८॥

महामना सुग्रीव जब दीन वाणी द्वारा इस प्रकार करुणाजनक बात कहने लगे, तब श्रीराम फिर उनसे बोले- ॥२८॥

सुग्रीव श्रूयतां तात क्रोधश्च व्यपनीयताम्।
कारणं येन बाणोऽयं स मया न विसर्जितः॥ २९॥

‘तात सुग्रीव! मेरी बात सुनो, क्रोध को अपने मन से निकाल दो। मैंने क्यों नहीं बाण चलाया, इसका कारण बतलाता हूँ॥ २९॥

अलंकारेण वेषेण प्रमाणेन गतेन च।
त्वं च सुग्रीव वाली च सदृशौ स्थः परस्परम्॥ ३०॥

सुग्रीव! वेशभूषा, कद और चाल-ढाल में तुम और वाली दोनों एक-दूसरे से मिलते-जुलते हो॥३०॥

स्वरेण वर्चसा चैव प्रेक्षितेन च वानर।
विक्रमेण च वाक्यैश्च व्यक्तिं वां नोपलक्षये॥३१॥

‘स्वर, कान्ति, दृष्टि, पराक्रम और बोल चाल के द्वारा भी मुझे तुम दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता॥ ३१॥

ततोऽहं रूपसादृश्यान्मोहितो वानरोत्तम।
नोत्सृजामि महावेगं शरं शत्रुनिबर्हणम्॥३२॥

‘वानरश्रेष्ठ! तुम दोनों के रूप की इतनी समानता देखकर मैं मोह में पड़ गया—तुम्हें पहचान न सका; इसलिये मैंने अपना महान् वेगशाली शत्रुसंहारक बाण नहीं छोड़ा ॥ ३२॥’

जीवितान्तकरं घोरं सादृश्यात् तु विशङ्कितः।
मूलघातो न नौ स्याद्धि द्वयोरिति कृतो मया॥ ३३॥

‘मेरा वह भयंकर बाण शत्रु के प्राण लेने वाला था, इसलिये तुम दोनों की समानता से संदेह में पड़कर मैंने उस बाण को नहीं छोड़ा। सोचा, कहीं ऐसा न हो कि हम दोनों के मूल उद्देश्य का ही विनाश हो जाय॥ ३३॥

त्वयि वीर विपन्ने हि अज्ञानाल्लाघवान्मया।
मौढ्यं च मम बाल्यं च ख्यापितं स्यात् कपीश्वर ॥३४॥

‘वीर ! वानरराज! यदि अनजान में या जल्दबाजी के कारण मेरे बाण से तुम्ही मारे जाते तो मेरी बालोचित चपलता और मूढ़ता ही सिद्ध होती॥ ३४॥’

दत्ताभयवधो नाम पातकं महदद्भुतम्।
अहं च लक्ष्मणश्चैव सीता च वरवर्णिनी॥३५॥
त्वदधीना वयं सर्वे वनेऽस्मिन् शरणं भवान्।
तस्माद् युध्यस्व भूयस्त्वं मा माशङ्कीश्च वानर ॥ ३६॥

‘जिसको अभय दान दे दिया गया हो, उसका वध करने से बड़ा भारी पाप होता है; यह एक अद्भुत पातक है। इस समय मैं, लक्ष्मण और सुन्दरी सीता सब तुम्हारे अधीन हैं। इस वन में तुम्हीं हमलोगों के आश्रय हो; इसलिये वानरराज! शङ्का न करो; पुनः चलकर युद्ध प्रारम्भ करो॥ ३५-३६॥

एतन्मुहूर्ते तु मया पश्य वालिनमाहवे।
निरस्तमिषुणैकेन चेष्टमानं महीतले॥३७॥

‘तुम इसी मुहूर्त में वाली को मेरे एक ही बाण का निशाना बनकर धरती पर लोटता देखोगे॥ ३७॥

अभिज्ञानं कुरुष्व त्वमात्मनो वानरेश्वर।
येन त्वामभिजानीयां द्वन्द्वयुद्धमुपागतम्॥३८॥

‘वानरेश्वर! अपनी पहचान के लिये तुम कोई चिह्न धारण कर लो, जिससे द्वन्द्वयुद्ध में प्रवृत्त होने पर मैं तुम्हें पहचान सकूँ’॥ ३८॥

गजपुष्पीमिमां फुल्लामुत्पाट्य शुभलक्षणाम्।
कुरु लक्ष्मण कण्ठेऽस्य सुग्रीवस्य महात्मनः॥ ३९॥

(सुग्रीव से ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण से बोले—) ‘लक्ष्मण! यह उत्तम लक्षणों से युक्त गजपुष्पीलता फूल रही है। इसे उखाड़कर तुम महामना सुग्रीव के गले में पहना दो’ ॥ ३९॥

ततो गिरितटे जातामुत्पाट्य कुसुमायुताम्।
लक्ष्मणो गजपुष्पी तां तस्य कण्ठे व्यसर्जयत्॥ ४०॥

यह आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने पर्वत के किनारे उत्पन्न हुई फूलों से भरी वह गजपुष्पी लता उखाड़कर सुग्रीव के गले में डाल दिया॥ ४० ॥

स तया शुशुभे श्रीमाँल्लतया कण्ठसक्तया।
मालयेव बलाकानां ससंध्य इव तोयदः॥४१॥

गले में पड़ी हुई उस लता से श्रीमान् सुग्रीव वकपंक्ति से अलंकृत संध्याकाल के मेघ की भाँति शोभा पाने लगे॥४१॥

विभ्राजमानो वपुषा रामवाक्यसमाहितः।
जगाम सह रामेण किष्किन्धां पुनराप सः॥४२॥

श्रीराम के वचन से आश्वासन पाकर अपने सुन्दर शरीर से शोभा पाने वाले सुग्रीव श्रीरघुनाथजी के साथ फिर किष्किन्धापुरी में जा पहुँचे॥४२॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे द्वादशः सर्गः॥१२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१२॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

One thought on “वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 12

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: