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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 33 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Kiskindhakand Chapter 33

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
किष्किन्धाकाण्डम्
त्रयस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 33)

लक्ष्मण का सुग्रीव के महल में क्रोधपूर्वक धनुष को टंकारना, सुग्रीव का तारा को उन्हें शान्त करने के लिये भेजना तथा तारा का समझा-बुझाकर उन्हें अन्तःपुर में ले आना

 

अथ प्रतिसमादिष्टो लक्ष्मणः परवीरहा।
प्रविवेश गुहां रम्यां किष्किन्धां रामशासनात्॥

इधर गुफा में प्रवेश करने के लिये अङ्गद के प्रार्थना करने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले लक्ष्मण ने श्रीराम की आज्ञा के अनुसार किष्किन्धा नामक रमणीय गुफा में प्रवेश किया॥१॥

द्वारस्था हरयस्तत्र महाकाया महाबलाः।
बभूवुर्लक्ष्मणं दृष्ट्वा सर्वे प्राञ्जलयः स्थिताः॥२॥

किष्किन्धा के द्वार पर जो विशाल शरीरवाले महाबली वानर थे, वे सब लक्ष्मण को देख हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥२॥

निःश्वसन्तं तु तं दृष्ट्वा क्रुद्धं दशरथात्मजम्।
बभूवुर्हरयस्त्रस्ता न चैनं पर्यवारयन्॥३॥

दशरथनन्दन लक्ष्मण को क्रोधपूर्वक लंबी साँस खींचते देख वे सब वानर अत्यन्त भयभीत हो गये थे। इसलिये वे उन्हें चारों ओर से घेरकर उनके साथसाथ नहीं चल सके॥३॥

स तां रत्नमयीं दिव्यां श्रीमान् पुष्पितकाननाम्।
रम्यां रत्नसमाकीर्णां ददर्श महतीं गुहाम्॥४॥

श्रीमान् लक्ष्मण ने द्वार के भीतर प्रवेश करके देखा, किष्किन्धापुरी एक बहुत बड़ी रमणीय गुफा के रूप में बसी हुई है। वह रत्नमयी पुरी नाना प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी होने के कारण दिव्य शोभा से सम्पन्न है। वहाँ के वन-उपवन फूलों से सुशोभित दिखायी दिये। ४॥

हर्म्यप्रासादसम्बाधां नानारत्नोपशोभिताम्।
सर्वकामफलैर्वृक्षैः पुष्पितैरुपशोभिताम्॥५॥

हों (धनियों की अट्टालिकाओं) तथा प्रासादों (देवमन्दिरों और राजभवनों) से वह पुरी अत्यन्तघनी दिखायी देती थी। नाना प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ाते थे। सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले फलों से युक्त खिले हुए वृक्षों से वह पुरी सुशोभित थी॥ ५॥

देवगन्धर्वपुत्रैश्च वानरैः कामरूपिभिः।
दिव्यमाल्याम्बरधरैः शोभितां प्रियदर्शनैः॥६॥

वहाँ दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करने वाले परम सुन्दर वानर, जो देवताओं और गन्धर्वो के पुत्र तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाले थे, निवास करते हुए उस नगरी की शोभा बढ़ाते थे॥६॥

चन्दनागुरुपद्मानां गन्धैः सुरभिगन्धिताम्।
मैरेयाणां मधूनां च सम्मोदितमहापथाम्॥७॥

वहाँ चन्दन, अगर और कमलों की मनोहर सुगन्ध छा रही थी। उस पुरी की लंबी-चौड़ी सड़कें भी मैरेय तथा मधु के आमोद से महक रही थीं॥७॥

विन्ध्यमेरुगिरिप्रख्यैः प्रासादै कभूमिभिः।
ददर्श गिरिनद्यश्च विमलास्तत्र राघवः॥८॥

उस पुरी में विन्ध्याचल तथा मेरु के समान ऊँचे ऊँचे महल बने थे, जो कई मंजिलके थे। लक्ष्मण ने उस गुफा के निकट ही निर्मल जल से भरी हुई पहाड़ी नदियाँ देखीं॥ ८॥

अङ्गदस्य गृहं रम्यं मैन्दस्य द्विविदस्य च।
गवयस्य गवाक्षस्य गजस्य शरभस्य च॥९॥
विद्युन्मालेश्च सम्पातेः सूर्याक्षस्य हनूमतः ।
वीरबाहोः सुबाहोश्च नलस्य च महात्मनः॥ १०॥
कुमुदस्य सुषेणस्य तारजाम्बवतोस्तथा।
दधिवक्त्रस्य नीलस्य सुपाटलसुनेत्रयोः॥११॥
एतेषां कपिमुख्यानां राजमार्गे महात्मनाम्।
ददर्श गृहमुख्यानि महासाराणि लक्ष्मणः॥१२॥

उन्होंने राजमार्ग पर अङ्गद का रमणीय भवन देखा साथ ही वहाँ मैन्द, द्विविद, गवय, गवाक्ष, गज, शरभ, विद्युन्माली, सम्पाति, सूर्याक्ष, हनुमान्, वीरबाहु, सुबाहु, महात्मा नल, कुमुद, सुषेण, तार, जाम्बवान्, दधिमुख,नील, सुपाटल और सुनेत्र–इन महामनस्वी वानरशिरोमणियों के भी अत्यन्त सुदृढ़ श्रेष्ठ भवन लक्ष्मण को दृष्टिगोचर हुए वे सब-के-सब राजमार्ग पर ही बने हुए थे॥९–१२ ॥

पाण्डुराभ्रप्रकाशानि गन्धमाल्ययुतानि च।
प्रभूतधनधान्यानि स्त्रीरत्नैः शोभितानि च॥ १३॥

वे सभी भवन श्वेत बादलों के समान प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें सुगन्धित पुष्पमालाओं से सजाया गया था। वे प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न तथा रत्नस्वरूपा रमणियों से सुशोभित थे। १३ ।।

पाण्डुरेण तु शैलेन परिक्षिप्तं दुरासदम्।
वानरेन्द्रगृहं रम्यं महेन्द्रसदनोपमम्॥१४॥

वानरराज सुग्रीवका सुन्दर भवन इन्द्रसदनके समान रमणीय दिखायी देता था। उसमें प्रवेश करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन था। वह श्वेत पर्वतकी चहार-दीवारीसे घिरा हुआ था॥१४॥

शुक्लैः प्रासादशिखरैः कैलासशिखरोपमैः।
सर्वकामफलैर्वृक्षैः पुष्पितैरुपशोभितम्॥१५॥

कैलास-शिखर के समान श्वेत प्रासाद-शिखर तथा समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले फलों से युक्त पुष्पित दिव्य वृक्ष उस राजभवन की शोभा बढ़ाते थे। १५॥

महेन्द्रदत्तैः श्रीमद्भिर्नीलजीमतसंनिभैः।
दिव्यपुष्पफलैर्वृक्षैः शीतच्छायैर्मनोरमैः॥१६॥

वहाँ इन्द्र के दिये हुए दिव्य फल-फूलों से सम्पन्न मनोरम वृक्ष लगाये गये थे, जो परम सुन्दर, नीले मेघ के समान श्याम तथा शीतल छाया से युक्त थे॥ १६॥

हरिभिः संवृतद्वारं बलिभिः शस्त्रपाणिभिः।
दिव्यमाल्यावृतं शुभ्रं तप्तकाञ्चनतोरणम्॥१७॥

अनेक बलवान् वानर हाथों में हथियार लिये उसकी ड्योढ़ी पर पहरा दे रहे थे। वह सुन्दर महल दिव्य मालाओं से अलंकृत था और उसका बाहरी फाटक पक्के सोने का बना हुआ था।॥ १७॥

सुग्रीवस्य गृहं रम्यं प्रविवेश महाबलः।
अवार्यमाणः सौमित्रिर्महाभ्रमिव भास्करः॥१८॥

महाबली सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने सुग्रीव के उस रमणीय भवन में प्रवेश किया। मानो सूर्यदेव महान् मेघ के भीतर प्रविष्ट हुए हों। उस समय किसी ने रोक टोक नहीं की॥ १८॥

स सप्त कक्ष्या धर्मात्मा यानासनसमावृताः।
ददर्श सुमहद्गुप्तं ददर्शान्तःपुरं महत्॥१९॥

धर्मात्मा लक्ष्मण ने सवारियों तथा विविध आसनों से सुशोभित उस भवन की सात ड्योढ़ियों को पार करके बहुत ही गुप्त और विशाल अन्तःपुर को देखा ॥ १९ ॥

हैमराजतपर्यज्ञैर्बहुभिश्च वरासनैः।
महार्हास्तरणोपेतैस्तत्र तत्र समावृतम्॥२०॥

उसमें जहाँ-तहाँ चाँदी और सोने के बहुत-से पलंग तथा अनेकानेक श्रेष्ठ आसन रखे हुए थे और उन सब पर बहुमूल्य बिछौने बिछे थे। उन सबसे वह अन्तःपुर सुसज्जित दिखायी देता था॥ २० ॥

प्रविशन्नेव सततं शुश्राव मधुरस्वनम्।
तन्त्रीगीतसमाकीर्णं समतालपदाक्षरम्॥२१॥

उसमें प्रवेश करते ही लक्ष्मण के कानों में संगीत की मीठी तान सुनायी पड़ी, जो वहाँ निरन्तर गूंज रही । थी। वीणा के लय पर कोई कोमल कण्ठ से गा रहा था। प्रत्येक पद और अक्षर का उच्चारण सम* ताल का प्रदर्शन करते हुए हो रहा था॥ २१॥
* संगीत में वह स्थान जहाँ गाने-बजाने वालों का सिर या हाथ आप-से-आप हिल जाता है। यह स्थान ताल के अनुसार निश्चित होता है। जैसे तिताले में दूसरे तालपर और चौताल में पहले ताल पर
सम होता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न तालों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर सम होता है। वाद्यों का आरम्भ और गीतों तथा वाद्यों का अन्त इसी सम पर होता है। परंतु गाने-बजाने के बीच-बीच में भी सम बराबर आता रहता है।

बह्वीश्च विविधाकारा रूपयौवनगर्विताः।
स्त्रियः सुग्रीवभवने ददर्श स महाबलः॥ २२॥

महाबली लक्ष्मण ने सुग्रीव के उस अन्तःपुर में अनेक रूपरंग की बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियाँ देखीं, जो रूप और यौवन के गर्व से भरी हुई थीं। २२ ।।

दृष्ट्वाभिजनसम्पन्नास्तत्र माल्यकृतस्रजः।
वरमाल्यकृतव्यग्रा भूषणोत्तमभूषिताः॥२३॥
नातृप्तान् नाति चाव्यग्रान् नानुदात्तपरिच्छदान्।
सुग्रीवानुचरांश्चापि लक्षयामास लक्ष्मणः॥२४॥

वे सब-की-सब उत्तम कुल में उत्पन्न हुई थीं, फूलों के गजरों से अलंकृत थीं, उत्तम पुष्पहारों के निर्माण में लगी हुई थीं और सुन्दर आभूषणों से । विभूषित थीं। उन सबको देखकर लक्ष्मणने सुग्रीवके
सेवकोंपर भी दृष्टिपात किया, जो अतृप्त या असंतुष्ट नहीं थे। स्वामी के कार्य सिद्ध करने के लिये अत्यन्तफुर्ती की भी उनमें कमी नहीं थी तथा उनके वस्त्र और आभूषण भी निम्न श्रेणी के नहीं थे॥ २३-२४ ॥

कूजितं नूपुराणां च काञ्चीनां निःस्वनं तथा।
स निशम्य ततः श्रीमान् सौमित्रिर्लज्जितोऽभवत्॥ २५॥

नूपुरों की झनकार और करधनी की खनखनाहट सुनकर श्रीमान् सुमित्राकुमार लज्जित हो गये (परायी स्त्रियों पर दृष्टि पड़ने के कारण उन्हें स्वभावतः संकोच हुआ) ॥२५॥

रोषवेगप्रकुपितः श्रुत्वा चाभरणस्वनम्।
चकार ज्यास्वनं वीरो दिशः शब्देन पूरयन्॥२६॥

तत्पश्चात् पुनः आभूषणों की झनकार सुनकर वीर लक्ष्मण रोष के आवेग से और भी कुपित हो उठे और उन्होंने अपने धनुष पर टंकार दी, जिसकी ध्वनि से समस्त दिशाएँ गूंज उठीं॥ २६ ॥

चारित्रेण महाबाहुरपकृष्टः स लक्ष्मणः।
तस्थावेकान्तमाश्रित्य रामकोपसमन्वितः॥२७॥

रघुकुलोचित सदाचार का खयाल करके महाबाहु लक्ष्मण कुछ पीछे हट गये और एकान्त में जाकर खड़े हो गये। श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ कोई प्रयत्न होता न देख वे मन-ही-मन कुपित हो रहे थे॥२७॥

तेन चापस्वनेनाथ सुग्रीवः प्लवगाधिपः।।
विज्ञायागमनं त्रस्तः स चचाल वरासनात्॥२८॥

धनुष की टंकार सुनकर वानरराज सुग्रीव समझ गये कि लक्ष्मण यहाँ तक आ पहुँचे हैं। फिर तो वे भय से संत्रस्त होकर अपना सिंहासन छोड़कर खड़े हो गये॥२८॥

अङ्गदेन यथा मह्यं पुरस्तात् प्रतिवेदितम्।
सुव्यक्तमेष सम्प्राप्तः सौमित्रिोतृवत्सलः॥२९॥

वे मन-ही-मन सोचने लगे कि अङ्गद ने पहले मुझे जैसा बताया था, उसके अनुसार ये भ्रातृवत्सल सुमित्राकुमार लक्ष्मण अवश्य ही यहाँ आ गये॥ २९॥

अङ्गदेन समाख्यातो ज्यास्वनेन च वानरः।
बुबुधे लक्ष्मणं प्राप्तं मुखं चास्य व्यशुष्यत॥३०॥

अङ्गद के द्वारा उनके आगमन का समाचार तो उन्हें पहले ही मिल गया था। अब धनुष की टंकार से वानर सुग्रीव को इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि लक्ष्मण ने अवश्य यहाँ पदार्पण किया है। फिर तो उनका मुख सूख गया॥ ३० ॥

ततस्तारां हरिश्रेष्ठः सुग्रीवः प्रियदर्शनाम्।।
उवाच हितमव्यग्रस्त्राससम्भ्रान्तमानसः॥३१॥

भय के कारण वे मन-ही-मन घबरा उठे (लक्ष्मण के सामने जाने का उन्हें साहस न हुआ।)तथापि किसी तरह धैर्य धारण करके वानरश्रेष्ठ सुग्रीव परम सुन्दरी तारा से हित की बात बोले- ॥३१॥

किं नु रुट्कारणं सुभ्र प्रकृत्या मृदुमानसः।
सरोष इव सम्प्राप्तो येनायं राघवानुजः॥३२॥

‘सुन्दरि! इनके रोष का क्या कारण हो सकता है? जिससे स्वभावतः कोमल चित्त होने पर भी ये श्रीरघुनाथजी के छोटे भाई रुष्ट-से होकर यहाँ पधारे हैं॥३२॥

किं पश्यसि कुमारस्य रोषस्थानमनिन्दिते।
न खल्वकारणे कोपमाहरेन्नरपुङ्गवः॥३३॥

‘अनिन्दिते! तुम्हारे देखने में कुमार लक्ष्मण के रोष का आधार क्या है? ये मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। अतः बिना किसी कारण के निश्चय ही क्रोध नहीं कर सकते॥ ३३॥

यद्यस्य कृतमस्माभिर्बुध्यसे किंचिदप्रियम्।
तबुद्ध्या सम्प्रधार्याशु क्षिप्रमेवाभिधीयताम्॥ ३४॥

‘यदि हमलोगों ने इनका कोई अपराध किया हो और तुम्हें उसका पता हो तो अपनी बुद्धि से विचारकर शीघ्र ही बताओ॥३४॥

अथवा स्वयमेवैनं द्रष्टमर्हसि भामिनि।
वचनैः सान्त्वयुक्तैश्च प्रसादयितुमर्हसि ॥ ३५॥

‘अथवा भामिनि! तुम स्वयं ही जाकर लक्ष्मण को देखो और सान्त्वनायुक्त बातें कहकर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करो॥ ३५॥

त्वदर्शने विशुद्धात्मा न स्म कोपं करिष्यति।
नहि स्त्रीषु महात्मानः क्वचित् कुर्वन्ति दारुणम्॥

‘उनका हृदय शुद्ध है। तुम्हारे सामने वे क्रोध नहीं करेंगे; क्योंकि महात्मा पुरुष स्त्रियों के प्रति कभी कठोर बर्ताव नहीं करते हैं॥ ३६॥

त्वया सान्त्वैरुपक्रान्तं प्रसन्नेन्द्रियमानसम्।
ततः कमलपत्राक्षं द्रक्ष्याम्यहमरिंदमम्॥३७॥

‘जब तुम उनके पास जाकर मीठे वचनों से उन्हें शान्त कर दोगी और जब उनका मन स्वस्थ एवं इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जायँगी, उस समय मैं उन शत्रुदमन कमलनयन लक्ष्मण का दर्शन करूँगा’॥ ३७॥

सा प्रस्खलन्ती मदविह्वलाक्षी प्रलम्बकाञ्चीगुणहेमसूत्रा।
सलक्षणा लक्ष्मणसंनिधानं जगाम तारा नमितानयष्टिः॥३८॥

सुग्रीव के ऐसा कहने पर शुभलक्षणा तारा लक्ष्मण के पास गयी। उसका पतला शरीर स्वाभाविक संकोच एवं विनय से झुका हुआ था। उसके नेत्र मद से चञ्चल हो रहे थे, पैर लड़खड़ा रहे थे और उसकी करधनी के सुवर्णमय सूत्र लटक रहे थे॥ ३८॥

स तां समीक्ष्यैव हरीशपत्नी तस्थावुदासीनतया महात्मा।
अवाङ्मखोऽभून्मनुजेन्द्रपुत्रः स्त्रीसंनिकर्षाद् विनिवृत्तकोपः॥ ३९॥

वानरराज की पत्नी तारा पर दृष्टि पड़ते ही राजकुमार महात्मा लक्ष्मण अपना मुँह नीचा करके उदासीन भाव से खड़े हो गये। स्त्री के समीप होने से उनका क्रोध दूर हो गया॥ ३९॥

सा पानयोगाच्च निवृत्तलज्जा दृष्टिप्रसादाच्च नरेन्द्रसूनोः।
उवाच तारा प्रणयप्रगल्भं वाक्यं महार्थं परिसान्त्वरूपम्॥४०॥

मधुपान के कारण तारा की नारीसुलभ लज्जा निवृत्त हो गयी थी। उसे राजकुमार लक्ष्मण की दृष्टि में कुछ प्रसन्नता का आभास मिला। इसलिये उसने स्नेहजनित निर्भीकता के साथ महान् अर्थ से युक्त यह सान्त्वनापूर्ण बात कही— ॥ ४०॥

किं कोपमूलं मनुजेन्द्रपुत्र कस्ते न संतिष्ठति वानिदेशे।
कः शुष्कवृक्षं वनमापतन्तं दावाग्निमासीदति निर्विशङ्कः॥४१॥

‘राजकुमार! आपके क्रोध का क्या कारण है?कौन आपकी आज्ञा के अधीन नहीं है? कौन निडर होकर सूखे वृक्षों से भरे हुए वन के भीतर चारों ओर फैलते हुए दावानल में प्रवेश कर रहा है ?’ ॥ ४१॥

स तस्या वचनं श्रुत्वा सान्त्वपूर्वमशङ्कितः।
भूयः प्रणयदृष्टार्थं लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्॥ ४२॥

तारा के इस वचन में सान्त्वना भरी थी। उसमें अधिक प्रेमपूर्वक हृदय का भाव प्रकट किया गया था। उसे सुनकर लक्ष्मण के हृदय की आशङ्का जाती रही। वे कहने लगे— ॥ ४२ ॥

किमयं कामवृत्तस्ते लुप्तधर्मार्थसंग्रहः।
भर्ता भर्तृहिते युक्ते न चैनमवबुध्यसे॥४३॥

‘अपने स्वामीके हितमें संलग्न रहनेवाली तारा! तुम्हारा यह पति विषय-भोगमें आसक्त होकर धर्मऔर अर्थके संग्रहका लोप कर रहा है। क्या तुम्हें इसकी इस अवस्थाका पता नहीं है? तुम इसे समझाती क्यों नहीं?॥

न चिन्तयति राज्यार्थं सोऽस्मान् शोकपरायणान्।
सामात्यपरिषत् तारे काममेवोपसेवते॥४४॥

‘तारे! सुग्रीव अपने राज्य की स्थिरता के लिये ही प्रयास करता है। हमलोग शोक में डूबे हुए हैं, परंतु हमारी इसे तनिक भी चिन्ता नहीं होती है। यह अपने मन्त्रियों तथा राज-सभा के सदस्योंसहित केवल विषय-भोगों का ही सेवन कर रहा है॥४४॥

स मासांश्चतुरः कृत्वा प्रमाणं प्लवगेश्वरः।
व्यतीतांस्तान् मदोदग्रो विहरन् नावबुध्यते॥४५॥

‘वानरराज सुग्रीव ने चार महीनों की अवधि निश्चित की थी। वे कभी बीत गये, परंतु वह मधुपान के मद से अत्यन्त उन्मत्त होकर स्त्रियों के साथ क्रीडा-विहार कर रहा है। उसे बीते हुए समय का पता ही नहीं है। ४५॥

नहि धर्मार्थसिद्ध्यर्थं पानमेवं प्रशस्यते।
पानादर्थश्च कामश्च धर्मश्च परिहीयते॥४६॥

‘धर्म और अर्थ की सिद्धि के निमित्त प्रयत्न करने वाले पुरुष के लिये इस तरह मद्यपान अच्छा नहीं माना जाता है; क्योंकि मद्यपान से अर्थ, धर्म और काम तीनों का नाश होता है॥ ४६॥

धर्मलोपो महांस्तावत् कृते ह्यप्रतिकुर्वतः।
अर्थलोपश्च मित्रस्य नाशे गुणवतो महान्॥४७॥

‘मित्र के किये हुए उपकार का यदि अवसर आने पर भी बदला न चुकाया जाय तो धर्म की हानि तो होती ही है। गुणवान् मित्र के साथ मित्रता का नाता टूट जाने पर अपने अर्थ की भी बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ती है।

मित्रं ह्यर्थगुणश्रेष्ठं सत्यधर्मपरायणम्।
तद्वयं तु परित्यक्तं न तु धर्मे व्यवस्थितम्॥ ४८॥

‘मित्र दो प्रकार के होते हैं—एक तो अपने मित्र के अर्थसाधन में तत्पर होता है और दूसरा सत्य एवं धर्म के ही आश्रित रहता है। तुम्हारे स्वामी ने मित्र के दोनों ही गुणों का परित्याग कर दिया है। वह न तो मित्र का कार्य सिद्ध करता है और न स्वयं ही धर्म में स्थित है॥४८॥

तदेवं प्रस्तुते कार्ये कार्यमस्माभिरुत्तरम्।
तत् कार्यं कार्यतत्त्वज्ञे त्वमुदाहर्तुमर्हसि॥४९॥

‘ऐसी स्थिति में प्रस्तुत कार्य की सिद्धि के लिये हमलोगों को भविष्य में क्या करना चाहिये? हमारे लिये जो समुचित कर्तव्य हो, उसे तुम्हीं बताओ; क्योंकि तुम कार्य के तत्त्व को जानती हो’। ४९॥

सा तस्य धर्मार्थसमाधियुक्तं निशम्य वाक्यं मधुरस्वभावम्।
तारा गतार्थे मनुजेन्द्रकार्येविश्वासयुक्तं तमुवाच भूयः॥५०॥

लक्ष्मण का वचन धर्म और अर्थ के निश्चय से संयुक्त था। उससे उनके मधुर स्वभाव का परिचय मिल रहा था। उसे सुनकर तारा भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के कार्य के विषय में, जिसका प्रयोजन उसे ज्ञात हो चुका था, पुनः लक्ष्मण से विश्वास के योग्य बात बोली- ॥५०॥

न कोपकालः क्षितिपालपुत्र न चापि कोपः स्वजने विधेयः।
त्वदर्थकामस्य जनस्य तस्य प्रमादमप्यर्हसि वीर सोढम्॥५१॥

‘वीर राजकुमार! यह क्रोध करने का समय नहीं है। आत्मीय जनों पर क्रोध करना भी नहीं चाहिये। सुग्रीव के मन में सदा आपका कार्य सिद्ध करने की इच्छा बनी रहती है। अतः यदि उनसे कोई भूल भी हो जाय तो उसे आपको क्षमा करना चाहिये॥५१॥

कोपं कथं नाम गुणप्रकृष्टः कुमार कुर्यादपकृष्टसत्त्वे।
कस्त्वद्विधः कोपवशं हि गच्छेत् सत्त्वावरुद्धस्तपसः प्रसूतिः॥५२॥

‘कुमार! गुणों में श्रेष्ठ पुरुष किसी हीन गुणवाले प्राणी पर क्रोध कैसे कर सकता है? जो सत्त्वगुण से अवरुद्ध होने के कारण शास्त्र-विपरीत व्यापार में लग नहीं सकता, अतएव जो सद्विचार को जन्म देने वाला है, वह आप-जैसा कौन पुरुष क्रोध के वशीभूत हो सकता है ? ।। ५२ ॥

जानामि कोपं हरिवीरबन्धोर्जानामि कार्यस्य च कालसङ्गम्।
जानामि कार्यं त्वयि यत्कृतं नस्तच्चापि जानामि यदत्र कार्यम्॥५३॥

‘वानरवीर सुग्रीव के मित्र भगवान् श्रीराम के क्रोध का कारण मैं जानती हूँ। उनके कार्य में जो विलम्ब हुआ है, उससे भी मैं अपरिचित नहीं हूँ। सुग्रीव का जो कार्य आपके अधीन था और जिसे आपलोगों ने पूरा किया है, उसका भी मुझे पता है तथा इस समय जो आपका कार्य प्रस्तुत है, उसके विषय में हमलोगों का क्या कर्तव्य है, इसका भी मुझे अच्छी तरह ज्ञान है॥ ५३॥

तच्चापि जानामि तथाविषह्यं बलं नरश्रेष्ठ शरीरजस्य।
जानामि यस्मिंश्च जनेऽवबद्धं कामेन सुग्रीवमसक्तमद्य॥५४॥

‘नरश्रेष्ठ! इस शरीर में उत्पन्न हुए काम का जो असह्य बल है, उसको भी मैं जानती हूँ तथा उस काम द्वारा आबद्ध होकर सुग्रीव जहाँ आसक्त हो रहे हैं, वह भी मुझे मालूम है। साथ ही इस बात से भी मैं परिचित हूँ कि कामासक्ति के कारण ही इन दिनों सुग्रीव का मन दूसरे किसी काम में नहीं लगता॥५४॥

न कामतन्त्रे तव बुद्धिरस्ति त्वं वै यथा मन्युवशं प्रपन्नः।
न देशकालौ हि यथार्थधर्मा ववेक्षते कामरतिर्मनुष्यः॥५५॥

‘आप जो क्रोध के वशीभूत हो गये हैं, इससे जान पड़ता है कि काम के अधीन हुए पुरुष की स्थिति का आपको बिलकुल ज्ञान नहीं है, वानर की तो बात ही क्या है ? कामासक्त मनुष्य को भी देश, काल, अर्थ और धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता—उनकी ओर उसकी दृष्टि नहीं जाती है।॥ ५५ ॥

तं कामवृत्तं मम संनिकृष्टं कामाभियोगाच्च विमुक्तलज्जम्।
क्षमस्व तावत् परवीरहन्तस्त्व द्भातरं वानरवंशनाथम्॥५६॥

‘विपक्षी वीरों का विनाश करने वाले राजकुमार! वानरराज सुग्रीव विषयभोग में आसक्त होकर इस समय मेरे ही पास थे। काम के आवेश में उन्होंने अपनी लज्जा का परित्याग कर दिया है, तो भी उन्हें अपना भाई समझकर क्षमा कीजिये॥५६॥

महर्षयो धर्मतपोऽभिरामाः कामानुकामाः प्रतिबद्धमोहाः।
अयं प्रकृत्या चपलः कपिस्तु कथं न सज्जेत सुखेषु राजा॥५७॥

‘जो निरन्तर धर्म और तपस्या में ही संलग्न रहते हैं, जिन्होंने मोह को अवरुद्ध कर दिया है-अविवेक को दूर भगा दिया है, वे महर्षि भी कभी-कभी विषयाभिलाषी हो जाते हैं; फिर जो स्वभाव से ही चञ्चल वानर हैं, वह राजा सुग्रीव सुख-भोग में क्यों न आसक्त हों?’ ॥ ५७॥

इत्येवमुक्त्वा वचनं महार्थं सा वानरी लक्ष्मणमप्रमेयम्।
पुनः सखेदं मदविह्वलाक्षीभर्तुर्हितं वाक्यमिदं बभाषे॥५८॥

अप्रमेय शक्तिशाली लक्ष्मण से इस प्रकार महान् अर्थ से युक्त बात कहकर मद से चञ्चल नेत्रवाली वानरपत्नी तारा ने पुनः खेदपूर्वक स्वामी के लिये यह हितकर वचन कहा- ॥ ५८॥

उद्योगस्तु चिराज्ञप्तः सुग्रीवेण नरोत्तम।
कामस्यापि विधेयेन तवार्थप्रतिसाधने॥५९॥

‘नरश्रेष्ठ! यद्यपि सुग्रीव इस समय काम के गुलाम हो रहे हैं, तथापि इन्होंने आपका कार्य सिद्ध करने के लिये बहुत पहले से ही उद्योग आरम्भ करने की आज्ञा दे रखी है॥ ५९॥

आगता हि महावीर्या हरयः कामरूपिणः।
कोटीः शतसहस्राणि नानानगनिवासिनः॥६०॥

‘इसके फलस्वरूप इस समय विभिन्न पर्वतो पर निवास करने वाले लाखों और करोड़ों वानर, जो इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ एवं महान् पराक्रमी हैं, यहाँ उपस्थित हुए हैं। ६० ॥

तदागच्छ महाबाहो चारित्रं रक्षितं त्वया।
अच्छलं मित्रभावेन सतां दारावलोकनम्॥६१॥

‘महाबाहो! (दूसरे की स्त्रियों को देखना अनुचित समझकर जो आप भीतर नहीं आये, बाहर ही खड़े रह गये—इसके द्वारा) आपने सदाचार की रक्षा की है; अतः अब भीतर आइये। मित्रभाव से स्त्रियों की
ओर देखना (उनके प्रति माता-बहन आदि का भाव रखकर दृष्टि डालना) सत्पुरुषों के लिये अधर्म नहीं है’॥ ६१॥

तारया चाभ्यनुज्ञातस्त्वरया वापि चोदितः।
प्रविवेश महाबाहुरभ्यन्तरमरिंदमः॥६२॥

तारा के आग्रह और कार्य की जल्दी से प्रेरित होकर शत्रुदमन महाबाहु लक्ष्मण सुग्रीव के महल के भीतर गये॥

ततः सुग्रीवमासीनं काञ्चने परमासने।
महार्हास्तरणोपेते ददर्शादित्यसंनिभम्॥६३॥

वहाँ जाकर उन्होंने देखा, एक सोने के सिंहासन पर बहुमूल्य बिछौना बिछा है और वानरराज सुग्रीव सूर्यतुल्य तेजस्वी रूप धारण किये उसके ऊपर विराजमान हैं। ६३॥

दिव्याभरणचित्राङ्गं दिव्यरूपं यशस्विनम्।
दिव्यमाल्याम्बरधरं महेन्द्रमिव दुर्जयम्॥६४॥

उस समय दिव्य आभूषणों के कारण उनके शरीर की विचित्र शोभा हो रही थी। दिव्यरूपधारी यशस्वी सुग्रीव दिव्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र धारण करके दुर्जय वीर देवराज इन्द्र के समान दिखायी दे रहे थे॥ ६४॥

दिव्याभरणमाल्याभिः प्रमदाभिः समावृतम्।
संरब्धतररक्ताक्षो बभूवान्तकसंनिभः॥६५॥

दिव्य आभूषणों और मालाओं से अलंकृत युवती स्त्रियाँ उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़ी थीं। उन्हें इस अवस्था में देख लक्ष्मण के नेत्र रोषावेश के कारण लाल हो गये। वे उस समय यमराज के समान भयंकर प्रतीत होने लगे॥६५॥

रुमां तु वीरः परिरभ्य गाढं वरासनस्थो वरहेमवर्णः।
ददर्श सौमित्रिमदीनसत्त्वं विशालनेत्रः स विशालनेत्रम्॥६६॥

सुन्दर सुवर्ण के समान कान्ति और विशाल नेत्रवाले वीर सुग्रीव अपनी पत्नी रुमा को गाढआलिङ्गनपाश में बाँधे हुए एक श्रेष्ठ आसन पर विराजमान थे। उसी अवस्था में उन्होंने उदार हृदय और विशाल नेत्रवाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण को देखा।। ६६॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रयस्त्रिंशः सर्गः॥३३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३३॥


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Shivangi

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