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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 35 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 35

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
पञ्चत्रिंशः सर्गः (35)

(सीताजी के पूछने पर हनुमान जी का श्रीराम के शारीरिक चिह्नों और गुणों का वर्णन करना तथा नर-वानर की मित्रता का प्रसङ्ग सुनाकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न करना)

तां तु रामकथां श्रुत्वा वैदेही वानरर्षभात्।
उवाच वचनं सान्त्वमिदं मधुरया गिरा॥१॥

वानरश्रेष्ठ हनुमान जी के मुख से श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा सुनकर विदेहराजकुमारी सीता शान्तिपूर्वक मधुर वाणी में बोलीं- ॥१॥

क्व ते रामेण संसर्गः कथं जानासि लक्ष्मणम्।
वानराणां नराणां च कथमासीत् समागमः ॥२॥

‘कपिवर! तुम्हारा श्रीरामचन्द्रजी के साथ सम्बन्ध कहाँ हुआ? तुम लक्ष्मण को कैसे जानते हो? मनुष्यों और वानरों का यह मेल किस प्रकार सम्भव हुआ? ॥ २॥

यानि रामस्य चिह्नानि लक्ष्मणस्य च वानर।
तानि भूयः समाचक्ष्व न मां शोकः समाविशेत्॥३

‘वानर! श्रीराम और लक्ष्मण के जो चिह्न हैं, उनका फिर से वर्णन करो, जिससे मेरे मन में किसी प्रकार के शोक का समावेश न हो॥३॥

कीदृशं तस्य संस्थानं रूपं तस्य च कीदृशम्।
कथारू कथं बाहू लक्ष्मणस्य च शंस मे॥४॥

‘मुझे बताओ भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण की आकृति कैसी है? उनका रूप किस तरह का है? उनकी जाँघे और भुजाएँ कैसी हैं?’ ॥ ४॥

एवमुक्तस्तु वैदेह्या हनूमान् मारुतात्मजः।
ततो रामं यथातत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे॥५॥

विदेहराजकुमारी सीता के इस प्रकार पूछने पर पवनकुमार हनुमान जी ने श्रीरामचन्द्रजी के स्वरूप का यथावत् वर्णन आरम्भ किया— ॥ ५॥

जानन्ती बत दिष्ट्या मां वैदेहि परिपृच्छसि।
भर्तुः कमलपत्राक्षि संस्थानं लक्ष्मणस्य च॥६॥

‘कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाली विदेहराजकुमारी! आप अपने पतिदेव श्रीराम के तथा देवर लक्ष्मणजी के शरीर के विषय में जानती हई भी जो मुझसे पूछ रही हैं, यह मेरे लिये बड़े सौभाग्य की बात है॥६॥

यानि रामस्य चिह्नानि लक्ष्मणस्य च यानि वै।
लक्षितानि विशालाक्षि वदतः शृणु तानि मे॥७॥

‘विशाललोचने! श्रीराम और लक्ष्मण के जिन-जिन चिह्नों को मैंने लक्ष्य किया है, उन्हें बताता हूँ मुझसे सुनिये॥७॥

रामः कमलपत्राक्षः पूर्णचन्द्रनिभाननः।
रूपदाक्षिण्यसम्पन्नः प्रसूतो जनकात्मजे॥८॥

‘जनकनन्दिनि! श्रीरामचन्द्रजी के नेत्र प्रफुल्लकमलदल के समान विशाल एवं सुन्दर हैं। मुख पूर्णिमा के चन्द्रमाके समान मनोहर है। वे जन्मकाल से ही रूप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न हैं॥८॥

तेजसाऽऽदित्यसंकाशः क्षमया पृथिवीसमः।
बृहस्पतिसमो बुद्ध्या यशसा वासवोपमः॥९॥
रक्षिता जीवलोकस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
रक्षिता स्वस्य वृत्तस्य धर्मस्य च परंतपः॥१०॥

‘वे तेज में सूर्य के समान, क्षमा में पृथ्वी के तुल्य, बुद्धि में बृहस्पति के सदृश और यश में इन्द्र के समान हैं। वे सम्पूर्ण जीव-जगत् के तथा स्वजनों के भी रक्षक हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम अपने सदाचार और धर्म की रक्षा करते हैं। ९-१० ॥

रामो भामिनि लोकस्य चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता।
मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः॥

‘भामिनि! श्रीरामचन्द्रजी जगत् के चारों वर्गों की रक्षा करते हैं। लोक में धर्म की मर्यादाओं को बाँधकर उनका पालन करने और कराने वाले भी वे ही हैं। ११॥

अर्चिष्मानर्चितोऽत्यर्थं ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः।
साधूनामुपकारज्ञः प्रचारज्ञश्च कर्मणाम्॥१२॥

‘सर्वत्र अत्यन्त भक्तिभाव से उनकी पूजा होती है। ये कान्तिमान् एवं परम प्रकाशस्वरूप हैं, ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में लगे रहते हैं, साधु पुरुषों का उपकार मानते और आचरणों द्वारा सत्कर्मो के प्रचार का ढंग जानते हैं॥ १२॥

राजनीत्यां विनीतश्च ब्राह्मणानामुपासकः।
ज्ञानवान शीलसम्पन्नो विनीतश्च परंतपः॥१३॥

‘वे राजनीति में पूर्ण शिक्षित, ब्राह्मणों के उपासक, ज्ञानवान्, शीलवान्, विनम्र तथा शत्रुओं को संताप देने में समर्थ हैं॥ १३॥

यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः।
धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः॥१४॥

‘उन्हें यजुर्वेद की भी अच्छी शिक्षा मिली है। वेदवेत्ता विद्वानों ने उनका बड़ा सम्मान किया है। वे चारों वेद, धनुर्वेद और छहों वेदाङ्गों के भी परिनिष्ठित विद्वान् हैं ॥ १४॥

विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवः शुभाननः।
गूढजत्रुः सुताम्राक्षो रामो नाम जनैः श्रुतः॥१५॥

‘उनके कंधे मोटे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, गला शङ्ख के समान और मुख सुन्दर है। गले की हँसली मांस से ढकी हुई है तथा नेत्रों में कुछ-कुछ लालिमा है। वे लोगों में ‘श्रीराम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं॥ १५ ॥

दुन्दुभिस्वननिर्घोषः स्निग्धवर्णः प्रतापवान्।
समश्च सुविभक्ताङ्गो वर्णं श्यामं समाश्रितः॥१६॥

‘उनका स्वर दुन्दुभि के समान गम्भीर और शरीर का रंग सुन्दर एवं चिकना है। उनका प्रताप बहुत बढ़ा-चढ़ा है। उनके सभी अङ्ग सुडौल और बराबर हैं। उनकी कान्ति स्याम है॥ १६ ॥

त्रिस्थिरस्त्रिप्रलम्बश्च त्रिसमस्त्रिषु चोन्नतः।
त्रिताम्रस्त्रिषु च स्निग्धो गम्भीरस्त्रिषु नित्यशः॥१७॥

‘उनके तीन अङ्ग (वक्षःस्थल, कलाई और मुट्ठी) स्थिर (सुदृढ़) हैं। भौहें, भुजाएँ और मेढ—ये तीन अङ्ग लंबे हैं। केशों का अग्रभाग, अण्डकोष और घुटने—ये तीन समान–बराबर हैं। वक्षःस्थल, नाभि के किनारे का भाग और उदर—ये तीन उभरे हुए हैं। नेत्रों के कोने, नख और हाथ-पैर के तलवे—ये तीन लाल हैं शिश्न के अग्रभाग, दोनों पैरों की रेखाएँ और सिर के बाल—ये तीन चिकने हैं तथा स्वर, चाल और नाभि-ये तीन गम्भीर हैं॥ १७ ॥

त्रिवलीमांस्त्र्यवनतश्चतुर्व्यङ्गस्त्रिशीर्षवान्।
चतुष्कलश्चतुर्लेखश्चतुष्किष्कुश्चतुःसमः॥१८॥

‘उनके उदर तथा गले में तीन रेखाएँ हैं। तलवों के मध्यभाग, पैरों की रेखाएँ और स्तनों के अग्रभाग—ये तीन धंसे हुए हैं। गला, पीठ तथा दोनों पिण्डलियाँये चार अङ्ग छोटे हैं। मस्तक में तीन भँवरें हैं। पैरों के अँगूठे के नीचे तथा ललाट में चार-चार रेखाएँ हैं। वे चार हाथ ऊँचें हैं। उनके कपोल, भुजाएँ, जाँचे और घुटने—ये चार अङ्ग बराबर हैं॥ १८॥

चतुर्दशसमद्वन्द्वश्चतुर्दष्टश्चतुर्गतिः।
महोष्ठहनुनासश्च पञ्चस्निग्धोऽष्टवंशवान्॥१९॥

‘शरीर में जो दो-दो की संख्या में चौदह* अङ्ग होते हैं, वे भी उनके परस्पर सम हैं। उनकी चारों कोनों की चारों दाढ़ें शास्त्रीय लक्षणों से युक्त हैं। वे सिंह, बाघ, हाथी और साँड़-इन चार के समान चार प्रकार की गति से चलते हैं। उनके ओठ, ठोढ़ी और नासिका सभी प्रशस्त हैं। केश, नेत्र, दाँत, त्वचा और पैर के तलवे—इन पाँचों अङ्गों में स्निग्धता भरी है। दोनों भुजाएँ, दोनों जाँघे, दोनों पिण्डलियाँ, हाथ और पैरों की अँगुलियाँ—ये आठ अङ्ग उत्तम लक्षणों से सम्पन्न (लंबे) हैं॥ १९ ॥
* भौंह, नथुने, नेत्र, कान, ओठ, स्तन, कोहनी, कलाई, जाँघ, घुटने, अण्डकोष, कमर के दोनों भाग, हाथ और पैर

दशपद्मो दशबृहत् त्रिभिर्व्याप्तो द्विशुक्लवान्।
षडुन्नतो नवतनुस्त्रिभिर्व्याप्नोति राघवः॥२०॥

‘उनके नेत्र, मुख-विवर, मुख-मण्डल, जिह्वा,ओठ,तालु, स्तन, नख, हाथ और पैर—ये दस अङ्ग कमल के समान हैं। छाती, मस्तक, ललाट, गला, भुजाएँ, कंधे, नाभि, चरण, पीठ और कान—ये दस अङ्ग विशाल हैं। वे श्री, यश और प्रताप–इन तीनों से व्याप्त हैं। उनके मातृकुल और पितृकुल दोनों अत्यन्त शुद्ध हैं। पार्श्वभाग, उदर, वक्षःस्थल, नासिका, कंधे और ललाट—ये छः अङ्ग ऊँचे हैं। केश, नख, लोम, त्वचा, अंगुलियों के पोर, शिश्न, बुद्धि और दृष्टि आदि नौ सूक्ष्म (पतले) हैं तथा वे श्रीरघुनाथजी पूर्वाण, मध्याह्न और अपराण-इन तीन कालों द्वारा क्रमशः धर्म, अर्थ और काम का अनुष्ठान करते हैं।॥ २०॥

सत्यधर्मरतः श्रीमान् संग्रहानुग्रहे रतः।
देशकालविभागज्ञः सर्वलोकप्रियंवदः॥ २१॥

‘श्रीरामचन्द्रजी सत्यधर्म के अनुष्ठान में संलग्न, श्रीसम्पन्न, न्यायसङ्गत धन का संग्रह और प्रजापर अनुग्रह करने में तत्पर, देश और काल के विभाग को समझने वाले तथा सब लोगों से प्रिय वचन बोलने वाले हैं।॥ २१॥

भ्राता चास्य च वैमात्रः सौमित्रिरमितप्रभः।
अनुरागेण रूपेण गुणैश्चापि तथाविधः ॥२२॥

“उनके सौतेले भाई सुमित्राकुमार लक्ष्मण भी बड़े तेजस्वी हैं। अनुराग, रूप और सद्गुणों की दृष्टि से भी वे श्रीरामचन्द्रजी के ही समान हैं॥ २२॥

स सुवर्णच्छविः श्रीमान् रामः श्यामो महायशाः।
तावुभौ नरशार्दूलौ त्वदर्शनकृतोत्सवौ॥२३॥
विचिन्वन्तौ महीं कृत्स्नामस्माभिः सह संगतौ।

“उन दोनों भाइयों में अन्तर इतना ही है कि लक्ष्मण के शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान गौर है और महायशस्वी श्रीरामचन्द्रजी का विग्रह श्यामसुन्दर है। वे दोनों नरश्रेष्ठ आपके दर्शन के लिये उत्कण्ठित हो सारी पृथ्वी पर आपकी ही खोज करते हुए हमलोगों से मिले थे॥ २३ १/२॥

त्वामेव मार्गमाणौ तौ विचरन्तौ वसुन्धराम्॥२४॥
ददर्शतुर्मूगपतिं पूर्वजनावरोपितम्।

‘आपको ही ढूँढ़ने के लिये पृथ्वी पर विचरते हुए उन दोनों भाइयों ने वानरराज सुग्रीव का साक्षात्कार किया, जो अपने बड़े भाई के द्वारा राज्य से उतार दिये गये थे॥ २४ १/२॥

ऋष्यमूकस्य मूले तु बहुपादपसंकुले॥२५॥
भ्रातुर्भयार्तमासीनं सुग्रीवं प्रियदर्शनम्।

‘ऋष्यमूक पर्वत के मूलभाग में जो बहुत-से वृक्षों द्वारा घिरा हुआ है, भाई के भय से पीड़ित हो बैठे हुए प्रियदर्शन सुग्रीव से वे दोनों भाई मिले॥ २५ १/२॥

वयं च हरिराजं तं सुग्रीवं सत्यसङ्गरम्॥२६॥
परिचर्यामहे राज्यात् पूर्वजेनावरोपितम्।

‘उन दिनों जिन्हें बड़े भाई ने राज्य से उतार दिया था, उन सत्यप्रतिज्ञ वानरराज सुग्रीव की सेवा में हम सब लोग रहा करते थे॥ २६ १/२ ॥

ततस्तौ चीरवसनौ धनुःप्रवरपाणिनौ ॥२७॥
ऋष्यमूकस्य शैलस्य रम्यं देशमुपागतौ।
स तौ दृष्ट्वा नरव्याघ्रौ धन्विनौ वानरर्षभः॥२८॥
अभिप्लुतो गिरेस्तस्य शिखरं भयमोहितः।

‘शरीर पर वल्कलवस्त्र तथा हाथ में धनुष धारण किये वे दोनों भाई जब ऋष्यमूक पर्वत के रमणीय प्रदेश में आये, तब धनुष धारण करने वाले उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों को वहाँ उपस्थित देख वानरशिरोमणि सुग्रीव भय से घबरा उठे और उछलकर उस पर्वत के उच्चतम शिखर पर जा चढ़े॥ २७-२८ १/२॥

ततः स शिखरे तस्मिन् वानरेन्द्रो व्यवस्थितः॥२९॥
तयोः समीपं मामेव प्रेषयामास सत्वरम्।

‘उस शिखर पर बैठने के पश्चात् वानरराज सुग्रीव ने मुझे ही शीघ्रतापूर्वक उन दोनों बन्धुओं के पास भेजा। २९ १/२॥

तावहं पुरुषव्याघ्रौ सुग्रीववचनात् प्रभू॥३०॥
रूपलक्षणसम्पन्नौ कृताञ्जलिरुपस्थितः।

‘सुग्रीव की आज्ञा से उन प्रभावशाली रूपवान् तथा शुभलक्षणसम्पन्न दोनों पुरुषसिंह वीरों की सेवा में मैं हाथ जोड़कर उपस्थित हुआ॥३० १/२॥

तौ परिज्ञाततत्त्वार्थी मया प्रीतिसमन्वितौ ॥ ३१॥
पृष्ठमारोप्य तं देशं प्रापितौ पुरुषर्षभौ।

‘मुझसे यथार्थ बातें जानकर उन दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर मैं अपनी पीठ पर चढ़ाकर उन दोनों पुरुषोत्तम बन्धुओं को उस स्थान पर ले गया (जहाँ वानरराज सुग्रीव थे) ॥ ३१ १/२॥

निवेदितौ च तत्त्वेन सुग्रीवाय महात्मने ॥ ३२॥
तयोरन्योन्यसम्भाषाद् भृशं प्रीतिरजायत।

‘वहाँ महात्मा सुग्रीव को मैंने इन दोनों बन्धुओं का यथार्थ परिचय दिया। तत्पश्चात् श्रीराम और सुग्रीव ने परस्पर बातें कीं, इससे उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया॥

तत्र तौ कीर्तिसम्पन्नौ हरीश्वरनरेश्वरौ॥ ३३॥
परस्परकृताश्वासौ कथया पूर्ववृत्तया।

‘वहाँ उन दोनों यशस्वी वानरेश्वर और नरेश्वरों ने अपने ऊपर बीती हुई पहले की घटनाएँ सुनायीं तथा दोनों ने दोनों को आश्वासन दिया॥३३ १/२॥

तं ततः सान्त्वयामास सुग्रीवं लक्ष्मणाग्रजः॥३४॥
स्त्रीहेतोलिना भ्रात्रा निरस्तं पुरुतेजसा।

‘उस समय लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीरघुनाथजी ने स्त्री के लिये अपने महातेजस्वी भाई वाली द्वारा घर से निकाले हुए सुग्रीव को सान्त्वना दी॥ ३४ १/२॥

ततस्त्वन्नाशजं शोकं रामस्याक्लिष्टकर्मणः॥३५॥
लक्ष्मणो वानरेन्द्राय सुग्रीवाय न्यवेदयत्।

‘तत्पश्चात् अनायास ही महान् कर्म करने वाले भगवान् श्रीराम को आपके वियोग से जो शोक हो रहा था, उसे लक्ष्मण ने वानरराज सुग्रीव को सुनाया।। ३५ १/२॥

स श्रुत्वा वानरेन्द्रस्तु लक्ष्मणेनेरितं वचः॥ ३६॥
तदासीन्निष्प्रभोऽत्यर्थं ग्रहग्रस्त इवांशुमान्।

‘लक्ष्मणजी की कही हुई वह बात सुनकर वानरराज सुग्रीव उस समय ग्रहग्रस्त सूर्य के समान अत्यन्त कान्तिहीन हो गये॥ ३६ १/२ ॥

ततस्त्वद्गात्रशोभीनि रक्षसा ह्रियमाणया॥३७॥
यान्याभरणजालानि पातितानि महीतले।
तानि सर्वाणि रामाय आनीय हरियूथपाः॥३८॥
संहृष्टा दर्शयामासुर्गतिं तु न विदुस्तव।
प्रादीपयद् दाशरथेस्तदा शोकहुताशनम्॥४२॥
शायितं च चिरं तेन दुःखार्तेन महात्मना।
मयापि विविधैर्वाक्यैः कृच्छ्रादुत्थापितः पुनः॥४३॥

‘उन आभूषणों को बारंबार देखते, रोते और तिलमिला उठते थे। उस समय दशरथनन्दन श्रीराम की शोकाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उस दुःख से आतुर हो वे महात्मा रघुवीर बहुत देर तक मूर्च्छित अवस्था में पड़े रहे। तब मैंने नाना प्रकार के सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर बड़ी कठिनाई से उन्हें उठाया॥ ४१-४३॥

तानि दृष्ट्वा महार्हाणि दर्शयित्वा मुहुर्मुहुः।
राघवः सहसौमित्रिः सुग्रीवे संन्यवेशयत्॥४४॥

‘लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी ने उन बहुमूल्य आभूषणों को बारंबार देखा और दिखाया। फिर वे सब सुग्रीव को दे दिये॥४४॥

स तवादर्शनादार्ये राघवः परितप्यते।
महता ज्वलता नित्यमग्निनेवाग्निपर्वतः॥४५॥

‘आर्ये! आपको न देख पाने के कारण श्रीरघुनाथजी को बड़ा दुःख और संताप हो रहा है जैसे ज्वालामुखी पर्वत जलती हुई बड़ी भारी आग से सदा तपता रहता है, उसी प्रकार वे आपकी विरहाग्नि से जल रहे हैं॥ ४५ ॥

त्वत्कृते तमनिद्रा च शोकश्चिन्ता च राघवम्।
तापयन्ति महात्मानमग्न्यगारमिवाग्नयः॥४६॥

‘आपके लिये महात्मा श्रीरघुनाथजी को अनिद्रा (निरन्तर जागरण), शोक और चिन्ता—ये तीनों उसी प्रकार संताप देते हैं, जैसे आहवनीय आदि त्रिविध अग्नियाँ अग्निशाला को तपाती रहती हैं। ४६॥

तवादर्शनशोकेन राघवः परिचाल्यते।
महता भूमिकम्पेन महानिव शिलोच्चयः॥४७॥

‘देवि! आपको न देख पाने का शोक श्रीरघुनाथजी को उसी प्रकार विचलित कर देता है, जैसे भारी भूकम्प से महान् पर्वत भी हिल जाता है। ४७॥

काननानि सुरम्याणि नदीप्रस्रवणानि च।
चरन् न रतिमाप्नोति त्वामपश्यन् नृपात्मजे॥४८॥

‘राजकुमारि! आपको न देखने के कारण रमणीय काननों, नदियों और झरनों के पास विचरने पर भी श्रीराम को सुख नहीं मिलता है॥ ४८॥

स त्वां मनुजशार्दूलः क्षिप्रं प्राप्स्यति राघवः।
समित्रबान्धवं हत्वा रावणं जनकात्मजे॥४९॥

‘जनकनन्दिनि! पुरुषसिंह भगवान् श्रीराम रावण को उसके मित्र और बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर शीघ्र ही आपसे मिलेंगे॥ ४९॥

सहितौ रामसुग्रीवावुभावकुरुतां तदा।
समयं वालिनं हन्तुं तव चान्वेषणं प्रति॥५०॥

‘उन दिनों श्रीराम और सुग्रीव जब मित्रभाव से मिले, तब दोनों ने एक-दूसरे की सहायता के लिये प्रतिज्ञा की। श्रीरामने वाली को मारने का और सुग्रीव ने आपकी खोज कराने का वचन दिया॥५०॥

ततस्ताभ्यां कुमाराभ्यां वीराभ्यां स हरीश्वरः।
किष्किन्धां समुपागम्य वाली युद्धे निपातितः॥५१॥

‘इसके बाद उन दोनों वीर राजकुमारों ने किष्किन्धा में जाकर वानरराज वाली को युद्ध में मार गिराया। ५१॥

ततो निहत्य तरसा रामो वालिनमाहवे।
सर्वद॑हरिसङ्घानां सुग्रीवमकरोत् पतिम्॥५२॥

‘युद्ध में वेगपूर्वक वाली को मारकर श्रीराम ने सुग्रीव को समस्त भालुओं और वानरों का राजा बना दिया॥५२॥

रामसुग्रीवयोरैक्यं देव्येवं समजायत।
हनूमन्तं च मां विद्धि तयोर्दूतमुपागतम्॥५३॥

‘देवि! श्रीराम और सुग्रीव में इस प्रकार मित्रता हुई है। मैं उन दोनों का दूत बनकर यहाँ आया हूँ। आप मुझे हनुमान् समझें ॥ ५३॥

स्वं राज्यं प्राप्य सुग्रीवः स्वानानीय महाकपीन्।
त्वदर्थं प्रेषयामास दिशो दश महाबलान्॥५४॥

‘अपना राज्य पाने के अनन्तर सुग्रीव ने अपने आश्रय में रहने वाले बड़े-बड़े बलवान् वानरों को बुलाया और उन्हें आपकी खोज के लिये दसों दिशाओं में भेजा॥ ५४॥

आदिष्टा वानरेन्द्रेण सुग्रीवेण महौजसः।
अद्रिराजप्रतीकाशाः सर्वतः प्रस्थिता महीम्॥५५॥

‘वानरराज सुग्रीव की आज्ञा पाकर गिरिराज के समान विशालकाय महाबली वानर पृथ्वी पर सब ओर चल दिये॥ ५५॥

ततस्ते मार्गमाणा वै सुग्रीववचनातुराः।
चरन्ति वसुधां कृत्स्नां वयमन्ये च वानराः॥५६॥

‘सुग्रीव की आज्ञा से  भयभीत हो हम तथा अन्य वानर आपकी खोज करते हुए समस्त भूमण्डल में विचर रहे हैं॥५६॥

अङ्गदो नाम लक्ष्मीवान् वालिसूनुर्महाबलः।
प्रस्थितः कपिशार्दूलस्त्रिभागबलसंवृतः॥५७॥

‘वाली के शोभाशाली पुत्र महाबली कपिश्रेष्ठ अंगद वानरों की एक तिहाई सेना साथ लेकर आपकी खोज में निकले थे (उन्हीं के दल में मैं भी था) ॥ ५७॥

तेषां नो विप्रणष्टानां विन्ध्ये पर्वतसत्तमे।
भृशं शोकपरीतानामहोरात्रगणा गताः॥५८॥

‘पर्वतश्रेष्ठ विन्ध्य में आकर खो जाने के कारण हमने वहाँ बड़ा कष्ट उठाया और वहीं हमारे बहुत दिन बीत गये॥ ५८॥

ते वयं कार्यनैराश्यात् कालस्यातिक्रमेण च।
भयाच्च कपिराजस्य प्राणांस्त्यक्तुमुपस्थिताः॥

‘अब हमें कार्य-सिद्धि की कोई आशा नहीं रह गयी और निश्चित अवधि से भी अधिक समय बिता देने के कारण वानरराज सुग्रीव का भी भय था, इसलिये हम सब लोग अपने प्राण त्याग देने के लिये उद्यत हो गये॥ ५९॥

विचित्य गिरिदुर्गाणि नदीप्रस्रवणानि च।
अनासाद्य पदं देव्याः प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिताः॥६०॥

‘पर्वत के दर्गम स्थानों में, नदियों के तटों पर और झरनों के आस-पास की सारी भूमि छान डाली तो भी जब हमें देवी सीता-(आप-) के स्थान का पता न चला, तब हम प्राण त्याग देने को तैयार हो गये। ६०॥

ततस्तस्य गिरेर्मूर्ध्नि वयं प्रायमुपास्महे।
दृष्ट्वा प्रायोपविष्टांश्च सर्वान् वानरपुङ्गवान्॥६१॥
भृशं शोकार्णवे मग्नः पर्यदेवयदङ्गदः।

‘मरणान्त उपवास का निश्चय करके हम सब-के सब उस पर्वत के शिखर पर बैठ गये। उस समय समस्त वानर-शिरोमणियों को प्राण त्याग देने के लिये बैठे देख कुमार अङ्गद अत्यन्त शोक के समुद्र में डूब गये और विलाप करने लगे॥६१ १/२ ॥

तव नाशं च वैदेहि वालिनश्च तथा वधम्॥६२॥
प्रायोपवेशमस्माकं मरणं च जटायुषः।

‘विदेहनन्दिनि! आपका पता न लगने, वाली के मारे जाने, हमलोगों के मरणान्त उपवास करने तथा जटायु के मरने की बात पर विचार करके कुमार अङ्गद को बड़ा दुःख हुआ था॥ ६२ १/२ ॥

तेषां नः स्वामिसंदेशान्निराशानां मुमूर्षताम्॥
कार्यहेतोरिहायातः शकुनिर्वीर्यवान् महान्।
गृध्रराजस्य सोदर्यः सम्पातिर्नाम गृध्रराट् ॥ ६४॥

‘स्वामी के आज्ञापालन से निराश होकर हम मरना ही चाहते थे कि दैववश हमारा कार्य सिद्ध करने के लिये गृध्रराज जटायु के बड़े भाई सम्पाति, जो स्वयं भी गीधों के राजा और महान् बलवान् पक्षी हैं, वहाँ आ पहुँचे॥ ६३-६४॥

श्रुत्वा भ्रातृवधं कोपादिदं वचनमब्रवीत्।
यवीयान् केन मे भ्राता हतः क्व च निपातितः॥६५॥
एतदाख्यातुमिच्छामि भवद्भिर्वानरोत्तमाः।

‘हमारे मुँह से अपने भाई के वध की चर्चा सुनकर वे कुपित हो उठे और बोले—’वानरशिरोमणियो! बताओ, मेरे छोटे भाई जटायु का वध किसने किया है? वह कहाँ मारा गया है? यह सब वृत्तान्त मैं तुमलोगों से सुनना चाहता हूँ’॥ ६५ १/२ ॥

अङ्गदोऽकथयत् तस्य जनस्थाने महदधम्॥६६॥
रक्षसा भीमरूपेण त्वामुद्दिश्य यथार्थतः।

‘तब अंगद ने जनस्थान में आपकी रक्षा के उद्देश्य से जूझते समय जटायु का उस भयानक रूपधारी राक्षस के द्वारा जो महान् वध किया गया था, वह सब प्रसंग ज्यों-का-त्यों कह सुनाया॥ ६६ १/२ ॥

जटायोस्तु वधं श्रुत्वा दुःखितः सोऽरुणात्मजः॥६७॥
त्वामाह स वरारोहे वसन्तीं रावणालये।

‘जटायु के वध का वृत्तान्त सुनकर अरुणपुत्र सम्पाति को बड़ा दुःख हुआ। वरारोहे ! उन्होंने ही हमें बताया कि आप रावण के घर में निवास कर रही हैं।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सम्पातेः प्रीतिवर्धनम्॥६८॥
अङ्गदप्रमुखाः सर्वे ततः प्रस्थापिता वयम्।
विन्ध्यादुत्थाय सम्प्राप्ताः सागरस्यान्तमुत्तमम्॥६९॥
त्वदर्शने कृतोत्साहा हृष्टाः पुष्टाः प्लवङ्गमाः।
अङ्गदप्रमुखाः सर्वे वेलोपान्तमुपागताः॥७०॥

‘सम्पाति का वह वचन वानरों के लिये बड़ा हर्षवर्धक था। उसे सुनकर उन्हीं के भेजने से अङ्गद आदि हम सभी वानर आपके दर्शन की आशा से उत्साहित हो विन्ध्यपर्वत से उठकर समुद्र के उत्तम तट पर आये। इस प्रकार अङ्गद आदि सभी हृष्ट-पुष्ट वानर समुद्र के किनारे आ पहुँचे॥

चिन्तां जग्मुः पुनर्भीमां त्वदर्शनसमुत्सुकाः।
अथाहं हरिसैन्यस्य सागरं दृश्य सीदतः॥ ७१॥
व्यवधूय भयं तीन योजनानां शतं प्लुतः।

‘आपके दर्शन के लिये उत्सुक होने पर भी सामने अपार समुद्र को देखकर सब वानर फिर भयानक चिन्ता में पड़ गये। समुद्र को देखकर वानर-सेना कष्ट में पड़ गयी है, यह जानकर मैं उन सबके तीव्र भय को दूर करता हुआ सौ योजन समुद्र को लाँघकर यहाँ आ गया। ७१ १/२ ॥

लङ्का चापि मया रात्रौ प्रविष्टा राक्षसाकुला॥७२॥
 रावणश्च मया दृष्टस्त्वं च शोकनिपीडिता।

‘राक्षसों से भरी हुई लङ्का में मैंने रात में ही प्रवेश किया है। यहाँ आकर रावण को देखा है और शोक से पीड़ित हुई आपका भी दर्शन किया है॥ ७२ १/२ ॥

एतत् ते सर्वमाख्यातं यथावृत्तमनिन्दिते॥७३॥
अभिभाषस्व मां देवि दूतो दाशरथेरहम्।

‘सतीशिरोमणे! यह सारा वृत्तान्त मैंने ठीक-ठीक आपके सामने रखा है। देवि! मैं दशरथनन्दन श्रीराम का दूत हूँ, अतः आप मुझसे बात कीजिये। ७३ १/२॥

तन्मां रामकृतोद्योगं त्वन्निमित्तमिहागतम्॥७४॥
सुग्रीवसचिवं देवि बुद्ध्यस्व पवनात्मजम्।

‘मैंने श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि के लिये ही यह सारा उद्योग किया है और आपके दर्शन के निमित्त मैं यहाँ आया हूँ। देवि! आप मुझे सुग्रीव का मन्त्री तथा वायुदेवता का पुत्र हनुमान् समझें।। ७४ १/२॥

कुशली तव काकुत्स्थः सर्वशस्त्रभृतां वरः॥७५॥
गुरोराराधने युक्तो लक्ष्मणः शुभलक्षणः।
तस्य वीर्यवतो देवि भर्तस्तव हिते रतः॥७६॥

‘देवि! आपके पतिदेव समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी सकुशल हैं तथा बड़े भाई की सेवा में संलग्न रहने वाले शुभलक्षण लक्ष्मण भी प्रसन्न हैं। वे आपके उन पराक्रमी पतिदेव के हित-साधन में ही तत्पर रहते हैं।। ७५-७६॥

अहमेकस्तु सम्प्राप्तः सुग्रीववचनादिह।
मयेयमसहायेन चरता कामरूपिणा॥७७॥
दक्षिणा दिगनुक्रान्ता त्वन्मार्गविचयैषिणा।

‘मैं सुग्रीव की आज्ञा से अकेला ही यहाँ आया हूँ। इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति रखता हूँ। आपका पता लगाने की इच्छा से मैंने बिना किसी सहायक के अकेले ही घूम-फिरकर इस दक्षिणदिशा का अनुसंधान किया है॥ ७७ १/२ ॥

दिष्टयाहं हरिसैन्यानां त्वन्नाशमनुशोचताम्॥७८॥
अपनेष्यामि संतापं तवाधिगमशासनात्।

‘आपके विनाश की सम्भावना से जो निरन्तर शोक में डूबे रहते हैं, उन वानर सैनिकों को यह बताकर कि आप मिल गयीं, मैं उनका संताप दूर करूँगा। यह मेरे लिये बड़े हर्ष की बात होगी॥ ७८ १/२ ॥

दिष्टया हि न मम व्यर्थं सागरस्येह लङ्घनम्॥७९॥
प्राप्स्याम्यहमिदं देवि त्वद्दर्शनकृतं यशः।

‘देवि! मेरा समुद्र को लाँघकर यहाँ तक आना व्यर्थ नहीं हुआ। सबसे पहले आपके दर्शन का यह यश मुझे ही मिलेगा। यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। । ७९ १/२॥

राघवश्च महावीर्यः क्षिप्रं त्वामभिपत्स्यते॥८०॥
सपुत्रबान्धवं हत्वा रावणं राक्षसाधिपम्।

‘महापराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी राक्षसराज रावण को उसके पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर शीघ्र ही आपसे आ मिलेंगे। ८० १/२॥

माल्यवान् नाम वैदेहि गिरीणामुत्तमो गिरिः॥८१॥
ततो गच्छति गोकर्णं पर्वतं केसरी हरिः।
स च देवर्षिभिर्दिष्टः पिता मम महाकपिः।
तीर्थे नदीपतेः पुण्ये शम्बसादनमुद्धरन्॥८२॥
यस्याहं हरिणः क्षेत्रे जातो वातेन मैथिलि।
हनूमानिति विख्यातो लोके स्वेनैव कर्मणा॥८३॥

‘विदेहनन्दिनि! पर्वतों में माल्यवान् नाम से प्रसिद्ध एक उत्तम पर्वत है। वहाँ केसरी नामक वानर निवास करते थे। एक दिन वे वहाँ से गोकर्ण पर्वत पर गये। महाकपि केसरी मेरे पिता हैं। उन्होंने समुद्र के तट पर विद्यमान उस पवित्र गोकर्ण-तीर्थ में देवर्षियों की आज्ञा से शम्बसादन नामक दैत्य का संहार किया था। मिथिलेशकुमारी! उन्हीं कपिराज केसरी की स्त्री के गर्भ से वायुदेवता के द्वारा मेरा जन्म हुआ है। मैं लोक में अपने ही कर्मद्वारा ‘हनुमान्’ नाम से विख्यात हूँ॥८१-८३॥

विश्वासार्थं तु वैदेहि भर्तुरुक्ता मया गुणाः।
अचिरात् त्वामितो देवि राघवो नयिता ध्रुवम्॥८४॥

‘विदेहनन्दनि! आपको विश्वास दिलाने के लिये मैंने आपके स्वामी के गुणों का वर्णन किया है। देवि! श्रीरघुनाथजी शीघ्र ही आपको यहाँ से ले चलेंगे—यह निश्चित बात है’।। ८४॥

एवं विश्वासिता सीता हेतुभिः शोककर्शिता।
उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमधिगच्छति॥८५॥

इस प्रकार युक्तियुक्त एवं विश्वसनीय कारणों तथा पहचान के रूप में बताये गये श्रीराम और लक्ष्मण के शारीरिक चिह्नों द्वारा हनुमान् जी ने शोक से दुर्बल हुई सीता को अपना विश्वास दिलाया। तब उन्होंने हनुमान् जी को श्रीराम का दूत समझा॥ ८५ ॥

अतुलं च गता हर्षं प्रहर्षेण तु जानकी।
नेत्राभ्यां वक्रपक्ष्माभ्यां मुमोचानन्दजं जलम्॥८६॥

उस समय जनकनन्दिनी सीता को अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ। उस महान् हर्ष के कारण वे कुटिल बरौनियों वाले दोनों नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाने लगीं॥८६॥

चारु तद् वदनं तस्यास्ताम्रशुक्लायतेक्षणम्।
अशोभत विशालाक्ष्या राहुमुक्त इवोडुराट्॥८७॥

उस अवसर पर विशाललोचना सीता का मनोहर मुख, जो लाल, सफेद और बड़े-बड़े नेत्रों से युक्त था, राहु के ग्रहण से मुक्त हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था।

हनूमन्तं कपिं व्यक्तं मन्यते नान्यथेति सा।
अथोवाच हनूमांस्तामुत्तरं प्रियदर्शनाम्॥८८॥

अब वे हनुमान् को वास्तविक वानर मानने लगीं। इसके विपरीत मायामय रूपधारी राक्षस नहीं। तदनन्तर हनुमान जी ने प्रियदर्शना सीता से फिर कहा – ॥ ८८॥

एतत् ते सर्वमाख्यातं समाश्वसिहि मैथिलि।
किं करोमि कथं वा ते रोचते प्रतियाम्यहम्॥८९॥

‘मिथिलेशकुमारी! इस प्रकार आपने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। अब आप धैर्य धारण करें बताइये, मैं आपकी कैसी और क्या सेवा करूँ। इस समय आपकी रुचि क्या है, आज्ञा हो तो अब मैं लौट जाऊँ॥ ८९॥

हतेऽसुरे संयति शम्बसादने कपिप्रवीरेण महर्षिचोदनात्।
ततोऽस्मि वायुप्रभवो हि मैथिलि प्रभावतस्तत्प्रतिमश्च वानरः॥९०॥

‘महर्षियों की प्रेरणा से कपिवर केसरी द्वारा युद्ध में शम्बसादन नामक असुर के मारे जाने पर मैंने पवनदेवता के द्वारा जन्म ग्रहण किया। अतः मैथिलि! मैं उन वायुदेवता के समान ही प्रभावशाली वानर हूँ’। ९०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चत्रिंशः सर्गः॥ ३५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३५॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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