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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 15 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 15

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
पञ्चदशः सर्गः (सर्ग 15)

माणिभद्र तथा कुबेर की पराजय और रावण द्वारा पुष्पकविमान का अपहरण

 

ततस्ताँल्लक्ष्य वित्रस्तान् यक्षेन्द्रांश्च सहस्रशः।
धनाध्यक्षो महायक्षं माणिभद्रमथाब्रवीत्॥१॥

(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) धनाध्यक्षों ने देखा, हजारों यक्षप्रवर भयभीत होकर भाग रहे हैं; तब उन्होंने माणिभद्र नामक एक महायक्ष से कहा – ॥१॥

रावणं जहि यक्षेन्द्र दुर्वृत्तं पापचेतसम्।
शरणं भव वीराणां यक्षाणां युद्धशालिनाम्॥२॥

‘यक्षप्रवर! रावण पापात्मा एवं दुराचारी है, तुम उसे मार डालो और युद्ध में शोभा पाने वाले वीर यक्षों को शरण दो—उनकी रक्षा करो’ ॥२॥

एवमुक्तो महाबाहुर्माणिभद्रः सुदुर्जयः।
वृतो यक्षसहस्रैस्तु चतुर्भिः समयोधयत्॥३॥

महाबाहु माणिभद्र अत्यन्त दुर्जय वीर थे। कुबेर की उक्त आज्ञा पाकर वे चार हजार यक्षों की सेना साथ ले फाटक पर गये और राक्षसों के साथ युद्ध करने लगे॥३॥

ते गदामुसलप्रासैः शक्तितोमरमुद्गरैः।
अभिनन्तस्तदा यक्षा राक्षसान् समुपाद्रवन्॥४॥

उस समय यक्षयोद्धा गदा, मूसल, प्रास, शक्ति, तोमर तथा मुद्गरों का प्रहार करते हुए राक्षसों पर टूट पड़े॥४॥

कुर्वन्तस्तुमुलं युद्धं चरन्तः श्येनवल्लघु।
बाढं प्रयच्छ नेच्छामि दीयतामिति भाषिणः॥५॥

वे घोर युद्ध करते हुए बाज पक्षी की तरह तीव्रगति से सब ओर विचरने लगे। कोई कहता ‘मुझे युद्ध का अवसर दो।’ दूसरा बोलता—’मैं यहाँ से पीछे हटना नहीं चाहता।’ फिर तीसरा बोल उठता—’मुझे अपना हथियार दो’॥

ततो देवाः सगन्धर्वा ऋषयो ब्रह्मवादिनः।
दृष्ट्वा तत् तुमुलं युद्धं परं विस्मयमागमन्॥६॥

उस तुमुल युद्ध को देखकर देवता, गन्धर्व तथा ब्रह्मवादी ऋषि भी बड़े आश्चर्य में पड़ गये थे॥६॥

यक्षाणां तु प्रहस्तेन सहस्रं निहतं रणे।
महोदरेण चानिन्द्यं सहस्रमपरं हतम्॥७॥

उस रणभूमि में प्रहस्त ने एक हजार यक्षों का संहार कर डाला। फिर महोदर ने दूसरे एक सहस्र प्रशंसनीय यक्षों का विनाश किया॥७॥

क्रुद्धेन च तदा राजन् मारीचेन युयुत्सुना।
निमेषान्तरमात्रेण हे सहस्रे निपातिते॥८॥

राजन् ! उस समय कुपित हुए रणोत्सुक मारीच ने पलक मारते-मारते शेष दो हजार यक्षों को धराशायी कर दिया॥८॥

क्व च यक्षार्जवं युद्धं क्व च मायाबलाश्रयम्।
रक्षसां पुरुषव्याघ्र तेन तेऽभ्यधिका युधि॥९॥

पुरुषसिंह! कहाँ यक्षों का सरलतापूर्वक युद्ध ?और कहाँ राक्षसों का मायामय संग्राम? वे अपने मायाबल के भरोसे ही यक्षों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए॥९॥

धूम्राक्षेण समागम्य माणिभद्रो महारणे।
मुसलेनोरसि क्रोधात् ताडितो न च कम्पितः॥१०॥

उस महासमर में धूम्राक्ष ने आकर क्रोधपूर्वक माणिभद्र की छाती में मूसल का प्रहार किया; किंतु इससे वे विचलित नहीं हुए॥ १० ॥

ततो गदां समाविध्य माणिभद्रेण राक्षसः।
धूम्राक्षस्ताडितो मूर्ध्नि विह्वलः स पपात ह॥११॥

फिर माणिभद्र ने भी गदा घुमाकर उसे राक्षस धूम्राक्ष के मस्तक पर दे मारा। उसकी चोट से व्याकुल हो धूम्राक्ष धरती पर गिर पड़ा॥ ११॥

धूम्राक्षं ताडितं दृष्ट्वा पतितं शोणितोक्षितम्।
अभ्यधावत संग्रामे माणिभद्रं दशाननः॥१२॥

धूम्राक्ष को गदा की चोट से घायल एवं खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा देख दशमुख रावण ने रणभूमि में माणिभद्र पर धावा किया॥ १२ ॥

संक्रुद्धमभिधावन्तं माणिभद्रो दशाननम्।
शक्तिभिस्ताडयामास तिसृभिर्यक्षपुङ्गवः॥१३॥

‘दशानन को क्रोध में भरकर धावा करते देख यक्षप्रवर माणिभद्र ने उसके ऊपर तीन शक्तियों द्वारा प्रहार किया॥१३॥

ताडितो माणिभद्रस्य मुकुटे प्राहरद् रणे।
तस्य तेन प्रहारेण मुकुटं पार्श्वमागतम्॥१४॥

चोट खाकर रावण ने रणभूमि में माणिभद्र के मुकुट पर वार किया। उसके उस प्रहार से उनका मुकुट खिसककर बगल में आ गया॥ १४ ॥

ततः प्रभृति यक्षोऽसौ पार्श्वमौलिरभूत् किल।
तस्मिंस्तु विमुखीभूते माणिभद्रे महात्मनि।
संनादः सुमहान् राजेस्तस्मिन् शैले व्यवर्धत॥१५॥

तबसे माणिभद्र यक्ष पार्श्वमौलि के नाम से प्रसिद्ध हुए महामना माणिभद्र यक्ष युद्ध से भाग चले। राजन् ! उनके युद्ध से विमुख होते ही उस पर्वत पर राक्षसों का महान् सिंहनाद सब ओर फैल गया॥ १५ ॥

ततो दूरात् प्रददृशे धनाध्यक्षो गदाधरः।।
शुक्रप्रौष्ठपदाभ्यां च पद्मशङ्कसमावृतः॥१६॥

इसी समय धन के स्वामी गदाधारी कुबेर दूर से आते दिखायी दिये। उनके साथ शुक्र और प्रौष्ठपद नामक मन्त्री तथा शङ्क और पद्म नामक धन के अधिष्ठाता देवता भी थे॥ १६॥

स दृष्ट्वा भ्रातरं संख्ये शापाद् विभ्रष्टगौरवम्।
उवाच वचनं धीमान् युक्तं पैतामहे कुले॥१७॥

विश्रवा मुनि के शाप से क्रूर प्रकृति हो जाने के कारण जो गुरुजनों के प्रति प्रणाम आदि व्यवहार भी नहीं कर पाता था—गुरुजनोचित शिष्टाचार से भी वञ्चित था, उस अपने भाई रावण को युद्ध में उपस्थित देख बुद्धिमान् कुबेर ने ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए पुरुष के योग्य बात कही— ॥ १७ ॥

यन्मया वार्यमाणस्त्वं नावगच्छसि दुर्मतेः।
पश्चादस्य फलं प्राप्य ज्ञास्यसे निरयं गतः॥१८॥

‘दुर्बुद्धि दशग्रीव! मेरे मना करने पर भी इस समय तुम समझ नहीं रहे हो, किंतु आगे चलकर जब इस कुकर्म का फल पाओगे और नरक में पड़ोगे, उस समय मेरी बात तुम्हारी समझ में आयेगी॥ १८ ॥

यो हि मोहाद् विषं पीत्वा नावगच्छति दुर्मतिः।
स तस्य परिणामान्ते जानीते कर्मणः फलम्॥१९॥

‘जो खोटी बुद्धिवाला पुरुष मोहवश विष को पीकर भी उसे विष नहीं समझता है, उसे उसका परिणाम प्राप्त हो जाने पर अपने किये हुए उस कर्म के फल का ज्ञान होता है॥ १९॥

दैवतानि न नन्दन्ति धर्मयुक्तेन केनचित्।
येन त्वमीदृशं भावं नीतस्तच्च न बुद्ध्यसे ॥२०॥

‘तुम्हारे किसी व्यापार से, वह तुम्हारी मान्यता के अनुसार धर्मयुक्त ही क्यों न हो, देवता प्रसन्न नहीं होते हैं; इसीलिये तुम ऐसे क्रूरभाव को प्राप्त हो गये हो, परंतु यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आती है। २०॥

मातरं पितरं विप्रमाचार्यं चावमन्यते।
स पश्यति फलं तस्य प्रेतराजवशं गतः॥२१॥

‘जो माता, पिता, ब्राह्मण और आचार्य का अपमान करता है, वह यमराज के वश में पड़कर उस पाप का फल भोगता है॥२१॥

अध्रुवे हि शरीरे यो न करोति तपोऽर्जनम्।
स पश्चात् तप्यते मूढो मृतो गत्वाऽऽत्मनो गतिम्॥२२॥

‘यह शरीर क्षणभङ्गुर है। इसे पाकर जो तप का उपार्जन नहीं करता, वह मूर्ख मरने के बाद जब उसे अपने दुष्कर्मों का फल मिलता है, पश्चात्ताप करता

धर्माद् राज्यं धनं सौख्यमधर्माद् दुःखमेव च।
तस्माद् धर्मं सुखार्थाय कुर्यात् पापं विसर्जयेत्॥२३॥

‘धर्म से राज, धन और सुख की प्राप्ति होती है। अधर्म से केवल दुःख ही भोगना पड़ता है, अतः सुख के लिये धर्म का आचरण करे, पाप को सर्वथा त्याग दे॥

पापस्य हि फलं दुःखं तद् भोक्तव्यमिहात्मना।
तस्मादात्मापघातार्थं मूढः पापं करिष्यति॥२४॥

‘पाप का फल केवल दुःख है और उसे स्वयं ही यहाँ भोगना पड़ता है; इसलिये जो मूढ़ पाप करेगा, वह मानो स्वयं ही अपना वध कर लेगा॥२४॥

कस्यचिन्न हि दुर्बुद्धेश्छन्दतो जायते मतिः।
यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते॥२५॥

“किसी भी दुर्बुद्धि पुरुष को (शुभकर्म का अनुष्ठान और गुरुजनों की सेवा किये बिना) स्वेच्छामात्र से उत्तम बुद्धि की प्राप्ति नहीं होती। वह जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल भोगता है॥ २५ ॥

ऋद्धिं रूपं बलं पुत्रान् वित्तं शूरत्वमेव च।
प्राप्नुवन्ति नरा लोके निर्जितं पुण्यकर्मभिः॥२६॥

‘संसार के पुरुषों को समृद्धि, सुन्दर रूप, बल, वैभव, वीरता तथा पुत्र आदि की प्राप्ति पुण्यकर्मो के अनुष्ठान से ही होती है॥ २६॥

एवं निरयगामी त्वं यस्य ते मतिरीदृशी।
न त्वां समभिभाषिष्येऽसद्वृत्तेष्वेव निर्णयः॥२७॥

‘इसी प्रकार अपने दुष्कर्मो के कारण तुम्हें भी नरक में जाना पड़ेगा; क्योंकि तुम्हारी बुद्धि ऐसी पापासक्त हो रही है। दुराचारियों से बात नहीं करना चाहिये, यही शास्त्रों का निर्णय है; अतः मैं भी अब तुमसे कोई बात नहीं करूँगा’ ॥ २७॥

एवमुक्तास्ततस्तेन तस्यामात्याः समाहताः।
मारीचप्रमुखाः सर्वे विमुखा विप्रदुद्रुवुः ॥२८॥

इसी तरह की बात उन्होंने रावण के मन्त्रियों से भी कही। फिर उनपर शस्त्रों द्वारा प्रहार किया। इससे आहत होकर वे मारीच आदि सब राक्षस युद्ध से मुँह मोड़कर भाग गये॥२८॥

ततस्तेन दशग्रीवो यक्षेन्द्रेण महात्मना।
गदयाभिहतो मूर्ध्नि न च स्थानात् प्रकम्पितः॥२९॥

तदनन्तर महामना यक्षराज कुबेर ने अपनी गदा से रावण के मस्तक पर प्रहार किया। उससे आहत होकर भी वह अपने स्थान से विचलित नहीं हुआ॥ २९॥

ततस्तौ राम निघ्नन्तौ तदान्योन्यं महामृधे।
न विह्वलौ न च श्रान्तौ तावुभौ यक्षराक्षसौ॥३०॥

श्रीराम! तत्पश्चात् वे दोनों यक्ष और राक्षसकुबेर तथा रावण दोनों उस महासमर में एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे; परंतु दोनों में से कोई भी न तो घबराता था, न थकता ही था। ३० ।।

आग्नेयमस्त्रं तस्मै स मुमोच धनदस्तदा।
राक्षसेन्द्रो वारुणेन तदस्त्रं प्रत्यवारयत्॥ ३१॥

उस समय कुबेर ने रावण पर आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, परंतु राक्षसराज रावण ने वारुणास्त्र के द्वारा उनके उस अस्त्र को शान्त कर दिया॥३१॥

ततो मायां प्रविष्टोऽसौ राक्षसी राक्षसेश्वरः।
रूपाणां शतसाहस्रं विनाशाय चकार च॥३२॥

तत्पश्चात् उस राक्षसराज ने राक्षसी माया का आश्रय लिया और कुबेर का विनाश करने के लिये लाखों रूप धारण कर लिया॥३२॥

व्याघ्रो वराहो जीमूतः पर्वतः सागरो द्रुमः।
यक्षो दैत्यस्वरूपी च सोऽदृश्यत दशाननः॥३३॥

उस समय दशमुख रावण बाघ, सूअर, मेघ, पर्वत, समुद्र, वृक्ष, यक्ष और दैत्य सभी रूपों में दिखायी देने लगा॥ ३३॥

बहूनि च करोति स्म दृश्यन्ते न त्वसौ ततः।
प्रतिगृह्य ततो राम महदस्त्रं दशाननः॥३४॥
जघान मूर्ध्नि धनदं व्याविद्ध्य महतीं गदाम्।

इस प्रकार वह बहुत-से रूप प्रकट करता था। वे रूप ही दिखायी देते थे, वह स्वयं दृष्टिगोचर नहीं होता था। श्रीराम! तदनन्तर दशमुख ने एक बहुत बड़ी गदा हाथ में ली और उसे घुमाकर कुबेर के मस्तक पर दे मारा ॥ ३४ १/२॥

एवं स तेनाभिहतो विह्वलः शोणितोक्षितः॥३५॥
कृत्तमूल इवाशोको निपपात धनाधिपः।

इस प्रकार रावण द्वारा आहत हो धन के स्वामी कुबेर रक्त से नहा उठे और व्याकुल हो जड़ से कटे हुए अशोक की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ३५ २ ॥

ततः पद्मादिभिस्तत्र निधिभिः स तदा वृतः॥
धनदोच्छ्वासितस्तैस्तु वनमानीय नन्दनम्।

तत्पश्चात् पद्म आदि निधियों के अधिष्ठाता देवताओं ने उन्हें घेरकर उठा लिया और नन्दनवन में ले जाकर चेत कराया॥ ३६ १/२ ॥

निर्जित्य राक्षसेन्द्रस्तं धनदं हृष्टमानसः॥ ३७॥
पुष्पकं तस्य जग्राह विमानं जयलक्षणम्।

इस तरह कुबेर को जीतकर राक्षसराज रावण अपने मन में बहुत प्रसन्न हुआ और अपनी विजय के चिह्न के रूप में उसने उनका पुष्पकविमान अपने अधिकार में कर लिया।

काञ्चनस्तम्भसंवीतं वैदूर्यमणितोरणम्॥ ३८॥
मुक्ताजालप्रतिच्छन्नं सर्वकालफलद्रुमम्।

उस विमान में सोने के खम्भे और वैदूर्यमणि के फाटक लगे थे। वह सब ओर से मोतियों की जाली से ढका हुआ था। उसके भीतर ऐसे-ऐसे वृक्ष लगे थे, जो सभी ऋतुओं में फल देने वाले थे॥ ३८ १/२ ॥

मनोजवं कामगमं कामरूपं विहंगमम्॥ ३९॥
मणिकाञ्चनसोपानं तप्तकाञ्चनवेदिकम्।

उसका वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुए लोगों की इच्छा के अनुसार सब जगह जा सकता था तथा चालक जैसा चाहे, वैसा छोटा या बड़ा रूप धारण कर लेता था। उस आकाशचारी विमान में मणि और सुवर्ण की सीढ़ियाँ तथा तपाये हुए सोने की वेदियाँ बनी थीं॥ ३९ १/२ ॥

देवोपवाह्यमक्षय्यं सदा दृष्टिमनःसुखम्॥४०॥
बह्वाश्चर्यं भक्तिचित्रं ब्रह्मणा परिनिर्मितम्।

वह देवताओं का ही वाहन था और टूटने फूटने वाला नहीं था। सदा देखने में सुन्दर और चित्त को प्रसन्न करने वाला था। उसके भीतर अनेक प्रकार के आश्चर्यजनक चित्र थे। उसकी दीवारों पर तरह-तरह के बेल-बूटे बने थे, जिनसे उनकी विचित्र शोभा हो रही थी। ब्रह्मा (विश्वकर्मा) ने उसका निर्माण किया था।

निर्मितं सर्वकामैस्तु मनोहरमनुत्तमम्॥४१॥
न तु शीतं न चोष्णं च सर्वर्तुसुखदं शुभम्।
स तं राजा समारुह्य कामगं वीर्यनिर्जितम्॥४२॥
जितं त्रिभुवनं मेने दर्पोत्सेकात् सुदुर्मतिः।
जित्वा वैश्रवणं देवं कैलासात् समवातरत्॥४३॥

वह सब प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं से सम्पन्न, मनोहर और परम उत्तम था न अधिक ठंडा था औरन अधिक गरम। सभी ऋतुओं में आराम पहुँचाने वाला तथा मङ्गलकारी था। अपने पराक्रम से जीते हुए उस इच्छानुसार चलने वाले विमान पर आरूढ़ हो अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला राजा रावण अहंकारकी अधिकता से ऐसा मानने लगा कि मैंने तीनों लोकों को जीत लिया। इस प्रकार वैश्रवणदेव को पराजित करके वह कैलास से नीचे उतरा॥

स तेजसा विपुलमवाप्य तं जयं प्रतापवान् विमलकिरीटहारवान्।
रराज वै परमविमानमास्थितो निशाचरः सदसि गतो यथानलः॥४४॥

निर्मल किरीट और हार से विभूषित वह प्रतापी निशाचर अपने तेज से उस महान् विजय को पाकर उस उत्तम विमान पर आरूढ़ हो यज्ञमण्डप में प्रज्वलित होने वाले अग्निदेव की भाँति शोभा पाने लगा॥ ४४॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे पञ्चदशः सर्गः॥१५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१५॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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