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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 4 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 4

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
चतुर्थः सर्गः (सर्ग 4)

राक्षसवंश का वर्णन हेति, विद्युत्केश और सुकेश की उत्पत्ति

 

श्रुत्वागस्त्येरितं वाक्यं रामो विस्मयमागतः।
कथमासीत् तु लङ्कायां सम्भवो रक्षसां पुरा॥१॥

अगस्त्यजी की कही हुई इस बात को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने मन-ही मन सोचा, राक्षसकुल की उत्पत्ति तो मुनिवर विश्रवा से ही मानी जाती है। यदि उनसे भी पहले
प्रकार हुई थी॥

ततः शिरः कम्पयित्वा त्रेताग्निसमविग्रहम्।
तमगस्त्यं मुहर्दृष्ट्वा स्मयमानोऽभ्यभाषत॥२॥

इस प्रकार आश्चर्य होने के अनन्तर सिर हिलाकर श्रीरामचन्द्रजी ने त्रिविध अग्नियों के समान तेजस्वी शरीर वाले अगस्त्यजी की ओर बारम्बार देखा और मुस्कराकर पूछा— ॥२॥

भगवन् पूर्वमप्येषा लङ्काऽऽसीत् पिशिताशिनाम्।
श्रुत्वेदं भगवद्वाक्यं जातो मे विस्मयः परः॥३॥

‘भगवन्! कुबेर और रावण से पहले भी यह लङ्कापुरी मांसभक्षी राक्षसों के अधिकार में थी, यह आपके मुँह से सुनकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ है। ३॥

पुलस्त्यवंशादुद्भूता राक्षसा इति नः श्रुतम्।
इदानीमन्यतश्चापि सम्भवः कीर्तितस्त्वया॥४॥

‘हमने तो यही सुन रखा है कि राक्षसों की उत्पत्ति पुलस्त्यजी के कुल से हुई है। किंतु इस समय आपने किसी दूसरे के कुल से भी राक्षसों के प्रादुर्भाव की बात कही है॥४॥

रावणात् कुम्भकर्णाश्च प्रहस्ताद् विकटादपि।
रावणस्य च पुत्रेभ्यः किं नु ते बलवत्तराः॥५॥

‘क्या वे पहले के राक्षस रावण, कुम्भकर्ण, प्रहस्त, विकट तथा रावणपुत्रों से भी बढ़कर बलवान् थे? ॥

क एषां पूर्वको ब्रह्मन् किंनामा च बलोत्कटः।
अपराधं च कं प्राप्य विष्णुना द्राविताः कथम्॥

‘ब्रह्मन् ! उनका पूर्वज कौन था और उस उत्कट बलशाली पुरुष का नाम क्या था? भगवान् विष्णु ने उन राक्षसों का कौन-सा अपराध पाकर किस तरह उन्हें लङ्का से मार भगाया? ॥ ६॥

एतद् विस्तरतः सर्वं कथयस्व ममानघ।
कुतूहलमिदं मह्यं नुद भानुर्यथा तमः॥७॥

‘निष्पाप महर्षे ! ये सब बातें आप मुझे विस्तार से बताइये। इनके लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है जैसे सूर्यदेव अन्धकार को दूर करते हैं, उसी तरह आप मेरे इस कौतूहल का निवारण कीजिये’ ॥७॥

राघवस्य वचः श्रुत्वा संस्कारालंकृतं शुभम्।
अथ विस्मयमानस्तमगस्त्यः प्राह राघवम्॥८॥

श्रीरघुनाथजी की वह सुन्दर वाणी पदसंस्कार, वाक्यसंस्कार और अर्थसंस्कार से अलंकृत थी। उसे सुनकर अगस्त्यजी को यह सोचकर विस्मय हुआ कि ये सर्वज्ञ होकर भी मुझसे अनजान की भाँति पूछ रहे हैं। तत्पश्चात् उन्होंने श्रीराम से कहा- ॥८॥

प्रजापतिः पुरा सृष्ट्वा अपः सलिलसम्भवः।
तासां गोपायने सत्त्वानसृजत् पद्मसम्भवः॥९॥

‘रघुनन्दन! जल से प्रकट हुए कमल से उत्पन्न प्रजापति ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में समुद्रगत जल की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिये अनेक प्रकार के जलजन्तुओं को उत्पन्न किया॥९॥

ते सत्त्वाः सत्त्वकर्तारं विनीतवदुपस्थिताः।
किं कुर्म इति भाषन्तः क्षुत्पिपासाभयार्दिताः॥१०॥

‘वे जन्तु भूख-प्यास के भय से पीड़ित हो ‘अब हम क्या करें’, ऐसी बातें करते हुए अपने जन्मदाता ब्रह्माजी के पास विनीतभाव से गये॥ १०॥

प्रजापतिस्तु तान् सर्वान् प्रत्याह प्रहसन्निव।
आभाष्य वाचा यत्नेन रक्षध्वमिति मानद॥११॥

‘दूसरों को मान देने वाले रघुवीर! उन सबको आया देख प्रजापति ने उन्हें वाणी द्वारा सम्बोधित करके हँसते हुए-से कहा—’जल-जन्तुओ! तुम यत्नपूर्वक इस जल की रक्षा करो’ ॥११॥

रक्षाम इति तत्रान्यैर्यक्षाम इति चापरैः।
भुक्षिताभुक्षितैरुक्तस्ततस्तानाह भूतकृत्॥१२॥

‘वे सब जन्तु भूखे-प्यासे थे। उनमें से कुछ ने कहा —’हम इस जल की रक्षा करेंगे’ और दूसरे ने कहा’हम इसका यक्षण (पूजन) करेंगे’, तब उन भूतों की सृष्टि करने वाले प्रजापति ने उनसे कहा- ॥१२॥

रक्षाम इति यैरुक्तं राक्षसास्ते भवन्तु वः।
यक्षाम इति यैरुक्तं यक्षा एव भवन्तु वः॥१३॥

‘तुममें से जिन लोगों ने रक्षा करने की बात कही है, वे राक्षस नाम से प्रसिद्ध हों और जिन्होंने यक्षण (पूजन) करना स्वीकार किया है, वे लोग यक्ष नाम से ही विख्यात हों’ (इस प्रकार वे जीव राक्षस और यक्ष—इन दो जातियों में विभक्त हो गये) ॥ १३॥

तत्र हेतिः प्रहेतिश्च भ्रातरौ राक्षसाधिपौ।
मधुकैटभसंकाशौ बभूवतुररिंदमौ॥१४॥

‘उन राक्षसों में हेति और प्रहेति नामवाले दो भाई थे, जो समस्त राक्षसों के अधिपति थे। शत्रुओंका दमन करने में समर्थ वे दोनों वीर मधु और कैटभ के समान शक्तिशाली थे॥ १४॥

प्रहेतिर्धार्मिकस्तत्र तपोवनगतस्तदा।
हेतिरक्रियार्थे तु परं यत्नमथाकरोत्॥१५॥

‘उनमें प्रहेति धर्मात्मा था; अतः वह तत्काल तपोवन में जाकर तपस्या करने लगा। परंतु हेति ने विवाह के लिये बड़ा प्रयत्न किया॥ १५ ॥

स कालभगिनीं कन्यां भयां नाम महाभयाम्।
उदावहदमेयात्मा स्वयमेव महामतिः॥१६॥

‘वह अमेय आत्मबल से सम्पन्न और बड़ा बुद्धिमान् था। उसने स्वयं ही याचना करके काल की कुमारी भगिनी भया के साथ विवाह किया भया बड़ी भयानक थी॥१६॥

स तस्यां जनयामास हेती राक्षसपुंगवः।
पुत्रं पुत्रवतां श्रेष्ठो विद्युत्केशमिति श्रुतम्॥१७॥

‘राक्षसराज हेति ने भया के गर्भ से एक पुत्र को उत्पन्न किया, जो विद्युत्केश के नाम से प्रसिद्ध था। उसे जन्म देकर हेति पुत्रवानों में श्रेष्ठ समझा जाने लगा॥

विद्युत्केशो हेतिपुत्रः स दीप्तार्कसमप्रभः।
व्यवर्धत महातेजास्तोयमध्य इवाम्बुजम्॥१८॥

‘हेतिपुत्र विद्युत्केश दीप्तिमान् सूर्य के समान प्रकाशित होता था। वह महातेजस्वी बालक जल में कमल की भाँति दिनोदिन बढ़ने लगा॥ १८ ॥

स यदा यौवनं भद्रमनुप्राप्तो निशाचरः।
ततो दारक्रियां तस्य कर्तुं व्यवसितः पिता॥१९॥

‘निशाचर विद्युत्केश जब बढ़कर उत्तम युवावस्था को प्राप्त हुआ, तब उसके पिता राक्षसराज हेति ने अपने पुत्र का ब्याह कर देने का निश्चय किया। १९॥

संध्यादुहितरं सोऽथ संध्यातुल्यां प्रभावतः।
वरयामास पुत्रार्थं हेती राक्षसपुंगवः॥२०॥

‘राक्षसराजशिरोमणि हेति ने अपने पुत्र को ब्याहने के लिये संध्या की पुत्री का, जो प्रभाव में अपनी माता संध्या के ही समान थी, वरण किया॥२०॥

अवश्यमेव दातव्या परस्मै सेति संध्यया।
चिन्तयित्वा सुता दत्ता विद्युत्केशाय राघव॥२१॥

‘रघुनन्दन! संध्या ने सोचा—’कन्याका किसी दूसरे के साथ ब्याह तो अवश्य ही करना पड़ेगा, अतः इसीके साथ क्यों न कर दूँ?’ यह विचारकर उसने अपनी पुत्री विद्युत्केश को ब्याह दी॥ २१॥

संध्यायास्तनयां लब्ध्वा विद्युत्केशो निशाचरः।
रमते स तया सार्धं पौलोम्या मघवानिव॥२२॥

‘संध्या की उस पुत्री को पाकर निशाचर विद्युत्केश उसके साथ उसी तरह रमण करने लगा, जैसे देवराज इन्द्र पुलोमपुत्री शची के साथ विहार करते हैं ॥ २२॥

केनचित्त्वथ कालेन राम सालकटङ्कटा।
विद्युत्केशाद् गर्भमाप घनराजिरिवार्णवात्॥२३॥

‘श्रीराम! संध्या की उस पुत्री का नाम सालकटङ्कटा था। कुछ काल के पश्चात् उसने विद्युत्केश से उसी तरह गर्भधारण किया, जैसे मेघों की पंक्ति समुद्र से जल ग्रहण करती है।

ततः सा राक्षसी गर्भं घनगर्भसमप्रभम्।
प्रसूता मन्दरं गत्वा गङ्गा गर्भमिवाग्निजम्।
समुत्सृज्य तु सा गर्भ विद्युत्केशरतार्थिनी॥२४॥

तदनन्तर उस राक्षसी ने मन्दराचल पर जाकर विद्युत् के समान कान्तिमान् बालक को जन्म दिया, मानो गङ्गा ने अग्नि के छोड़े हुए भगवान् शिव के तेजःस्वरूप गर्भ (कुमार कार्तिकेय)-को उत्पन्न किया हो। उस नवजात शिशु को वहीं छोड़कर वह विद्युत्केश के साथ रति-क्रीडा के लिये चली गयी। २४॥

रेमे तु सार्धं पतिना विस्मृत्य सुतमात्मजम्।
उत्सृष्टस्तु तदा गर्भो घनशब्दसमस्वनः॥२५॥

‘अपने बेटे को भुलाकर सालकटङ्कटा पति के साथ रमण करने लगी। उधर उसका छोड़ा हुआ वह नवजात शिशु मेघ की गम्भीर गर्जना के समान शब्द करने लगा।

तयोत्सृष्टः स तु शिशुः शरदर्कसमद्युतिः।
निधायास्ये स्वयं मुष्टिं रुरोद शनकैस्तदा ॥२६॥

उसके शरीर की कान्ति शरत्काल के सूर्य की भाँति उद्भासित होती थी। माता का छोड़ा हुआ वह शिशु स्वयं ही अपनी मुट्ठी मुँह में डालकर धीरे-धीरे रोने लगा॥२६॥

ततो वृषभमास्थाय पार्वत्या सहितः शिवः।
वायुमार्गेण गच्छन् वै शुश्राव रुदितस्वनम्॥२७॥

‘उस समय भगवान् शंकर पार्वतीजी के साथ बैलपर चढ़कर वायुमार्ग (आकाश) से जा रहे थे। उन्होंने उस बालक के रोने की आवाज सुनी॥ २७॥

अपश्यदुमया सार्धं रुदन्तं राक्षसात्मजम्।
कारुण्यभावात् पार्वत्या भवस्त्रिपुरसूदनः॥२८॥
तं राक्षसात्मजं चक्रे मातुरेव वयःसमम्।

‘सुनकर पार्वतीसहित शिव ने उस रोते हुए राक्षसकुमार की ओर देखा। उसकी दयनीय अवस्था पर दृष्टिपात करके माता पार्वती के हृदय में करुणा का स्रोत उमड़ उठा और उनकी प्रेरणा से त्रिपुरसूदन भगवान् शिव ने उस राक्षस-बालक को उसकी माता की अवस्था के समान ही नौजवान बना दिया॥ २८ १/२॥

अमरं चैव तं कृत्वा महादेवोऽक्षरोऽव्ययः॥२९॥
पुरमाकाशगं प्रादात् पार्वत्याः प्रियकाम्यया।

‘इतना ही नहीं, पार्वतीजी का प्रिय करने की इच्छा से अविनाशी एवं निर्विकार भगवान् महादेव ने उस बालक को अमर बनाकर उसके रहने के लिये एक आकाशचारी नगराकार विमान दे दिया। २९ १/२ ॥

उमयापि वरो दत्तो राक्षसीनां नृपात्मज॥३०॥
सद्योपलब्धिर्गर्भस्य प्रसूतिः सद्य एव च।
सद्य एव वयःप्राप्तिं मातुरेव वयःसमम्॥३१॥

‘राजकुमार! तत्पश्चात् पार्वतीजी ने भी यह वरदान दिया कि आज से राक्षसियाँ जल्दी ही गर्भ धारण करेंगी; फिर शीघ्र ही उसका प्रसव करेंगी और उनका पैदा किया हुआ बालक तत्काल बढ़कर माता के ही समान अवस्थाका हो जायगा॥३०-३१॥

ततः सुकेशो वरदानगर्वितः श्रियं प्रभोः प्राप्य हरस्य पार्श्वतः।
चचार सर्वत्र महान् महामतिः खगं पुरं प्राप्य पुरंदरो यथा॥३२॥

‘विद्युत्केश का वह पुत्र सुकेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह बड़ा बुद्धिमान् था। भगवान् शंकर का वरदान पाने से उसे बड़ा गर्व हुआ और वह उन परमेश्वर के पास से अद्भुत सम्पत्ति एवं आकाशचारी विमान पाकर देवराज इन्द्र की भाँति सर्वत्र अबाधगति से विचरने लगा॥३२॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ॥४॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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