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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 8 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 8

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
अष्टमः सर्गः (सर्ग 8)

माल्यवान् का युद्ध और पराजय तथा सुमाली आदि सब राक्षसोंका रसातल में प्रवेश

 

हन्यमाने बले तस्मिन् पद्मनाभेन पृष्ठतः।
माल्यवान् संनिवृत्तोऽथ वेलामेत्य इवार्णवः॥१॥

(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) पद्मनाभ भगवान् विष्णु ने जब भागती हुई राक्षसों की सेना को पीछे की ओर से मारना आरम्भ किया, तब माल्यवान् लौट पड़ा, मानो महासागर अपनी तट भूमितक जाकर निवृत्त हो गया हो।

संरक्तनयनः क्रोधाच्चलन्मौलिर्निशाचरः।
पद्मनाभमिदं प्राह वचनं पुरुषोत्तमम्॥२॥

उसके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे और मुकुट हिल रहा था। उस निशाचर ने पुरुषोत्तम भगवान् पद्मनाभ से इस प्रकार कहा- ॥२॥

नारायण न जानीषे क्षात्रधर्मं पुरातनम्।
अयुद्धमनसो भीतानस्मान् हंसि यथेतरः॥३॥

‘नारायणदेव! जान पड़ता है पुरातन क्षात्रधर्म को बिलकुल नहीं जानते हो, तभी तो साधारण मनुष्य की भाँति तुम जिनका मन युद्ध से विरत हो गया है तथा जो डरकर भागे जा रहे हैं, ऐसे हम राक्षसों को भी मार रहे हो॥३॥

पराङ्मुखवधं पापं यः करोति सुरेश्वर।
स हन्ता न गतः स्वर्गं लभते पुण्यकर्मणाम्॥४॥

‘सुरेश्वर! जो युद्ध से विमुख हुए सैनिकों के वध का पाप करता है, वह घातक इस शरीर का त्याग करके परलोक में जाने पर पुण्यकर्मा पुरुषों को मिलने वाले स्वर्ग को नहीं पाता है॥४॥

युद्धश्रद्धाथवा तेऽस्ति शङ्खचक्रगदाधर।
अहं स्थितोऽस्मि पश्यामि बलं दर्शय यत् तव॥

‘शङ्ख, चक्र और गदा धारण करने वाले देवता! यदि तुम्हारे हृदय में युद्ध का हौसला है तो मैं खड़ा हूँ। देखता हूँ, तुममें कितना बल है? दिखाओ अपना पराक्रम’ ॥ ५॥

माल्यवन्तं स्थितं दृष्ट्वा माल्यवन्तमिवाचलम्।
उवाच राक्षसेन्द्रं तं देवराजानुजो बली॥६॥

माल्यवान् पर्वत के समान अविचलभाव से खड़े हुए राक्षसराज माल्यवान् को देखकर देवराज इन्द्र के छोटे भाई महाबली भगवान् विष्णु ने उससे कहा- ॥६॥

युष्मत्तो भयभीतानां देवानां वै मयाभयम्।
राक्षसोत्सादनं दत्तं तदेतदनुपाल्यते॥७॥

‘देवताओं को तुमलोगों से बड़ा भय उपस्थित हुआ है, मैंने राक्षसों के संहार की प्रतिज्ञा करके उन्हें अभय दान दिया है। अतः इस रूप में मेरे द्वारा उस प्रतिज्ञा का ही पालन किया जा रहा है॥७॥

प्राणैरपि प्रियं कार्यं देवानां हि सदा मया।
सोऽहं वो निहनिष्यामि रसातलगतानपि॥८॥

‘मुझे अपने प्राण देकर भी सदा ही देवताओं का प्रिय कार्य करना है। इसलिये तुमलोग भागकर रसातल में चले जाओ तो भी मैं तुम्हारा वध किये बिना नहीं रहूँगा’ ॥ ८॥

देवदेवं ब्रुवाणं तं रक्ताम्बुरुहलोचनम्।
शक्त्या बिभेद संक्रुद्धो राक्षसेन्द्रो भुजान्तरे॥९॥

लाल कमल के  समान नेत्रवाले देवाधिदेव भगवान् विष्णु जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय अत्यन्त कुपित हुए राक्षसराज माल्यवान् ने अपनी शक्ति के द्वारा प्रहार करके भगवान् विष्णु का वक्षःस्थल विदीर्ण कर दिया॥९॥

माल्यवद्भुजनिर्मुक्ता शक्तिघण्टाकृतस्वना।
हरेरुरसि बभ्राज मेघस्थेव शतहदा॥१०॥

माल्यवान् के हाथ से छूटकर घंटानाद करती हुई वह शक्ति श्रीहरि की छाती से जा लगी और मेघ के अङ्क में प्रकाशित होने वाली बिजली के समान शोभा पाने लगी॥

ततस्तामेव चोत्कृष्य शक्तिं शक्तिधरप्रियः।
माल्यवन्तं समुद्दिश्य चिक्षेपाम्बुरुहेक्षणः॥११॥

शक्तिधारी कार्तिकेय जिन्हें प्रिय हैं अथवा जो शक्तिधर स्कन्द के प्रियतम हैं, उन भगवान् कमलनयन विष्णु ने उसी शक्ति को अपनी छाती से खींचकर माल्यवान् पर दे मारा॥११॥

स्कन्दोत्सृष्टेव सा शक्तिर्गोविन्दकरनिःसृता।
कांक्षन्ती राक्षसं प्रायान्महोल्केवाञ्जनाचलम्॥१२॥

स्कन्द की छोड़ी हुई शक्ति के समान गोविन्द के हाथ से निकली हुई वह शक्ति उस राक्षस को लक्ष्यकरके चली, मानो अञ्जनगिरि पर कोई बड़ी भारी उल्का गिर रही हो॥ १२॥

सा तस्योरसि विस्तीर्णे हारभारावभासिते।
आपतद् राक्षसेन्द्रस्य गिरिकूट इवाशनिः॥१३॥

हारों के समूह से प्रकाशित होने वाले उस राक्षसराज के विशाल वक्षःस्थल पर वह शक्ति गिरी, मानो किसी पर्वत के शिखर पर वज्रपात हुआ हो। १३॥

तया भिन्नतनुत्राणः प्राविशद् विपुलं तमः।
माल्यवान् पुनराश्वस्तस्तस्थौ गिरिरिवाचलः॥१४॥

उससे माल्यवान् का कवच कट गया तथा वह गहरी मू में डूब गया; किंतु थोड़ी ही देर में पुनः सँभलकर माल्यवान् पर्वत की भाँति अविचलभाव से खड़ा हो गया॥

ततः कालायसं शूलं कण्टकैर्बहुभिश्चितम्।
प्रगृह्याभ्यहनन देवं स्तनयोरन्तरे दृढम्॥१५॥

तत्पश्चात् उसने काले लोहे के बने हुए और बहुसंख्यक काँटों से जड़े हुए शूल को हाथ में लेकर भगवान् की छाती में गहरा आघात किया॥ १५ ॥

तथैव रणरक्तस्तु मुष्टिना वासवानुजम्।
ताडयित्वा धनुर्मात्रमपक्रान्तो निशाचरः॥१६॥

इसी प्रकार वह युद्धप्रेमी राक्षस भगवान् विष्णुको मुक्के से मारकर एक धनुष पीछे हट गया॥१६॥

ततोऽम्बरे महान् शब्दः साधुसाध्विति चोत्थितः।
आहत्य राक्षसो विष्णुं गरुडं चाप्यताडयत्॥१७॥

उस समय आकाश में राक्षसों का महान् हर्षनाद गूंज उठा-वे एक साथ बोल उठे—’बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’। भगवान् विष्णु को घुसा मारकर उस राक्षस ने गरुड़ पर भी प्रहार किया॥ १७॥

वैनतेयस्ततः क्रुद्धः पक्षवातेन राक्षसम्।
व्यपोहद् बलवान् वायुः शुष्कपर्णचयं यथा॥१८॥

यह देख विनतानन्दन गरुड़ कुपित हो उठे और उन्होंने अपने पंखों की हवा से उस राक्षस को उसी तरह उड़ा दिया, जैसे प्रबल आँधी सूखे पत्तों के ढेर को उड़ा देती है॥ १८॥

द्विजेन्द्रपक्षवातेन द्रावितं दृश्य पूर्वजम्।
सुमाली स्वबलैः सार्धं लङ्कामभिमुखो ययौ॥१९॥

अपने बड़े भाई को पक्षिराज के पंखों की हवा से उडा हुआ देख सुमाली अपने सैनिकों के साथ लङ्का की ओर चल दिया॥ १९॥

पक्षवातबलोद्धृतो माल्यवानपि राक्षसः।
स्वबलेन समागम्य ययौ लङ्कां ह्रिया वृतः॥२०॥

गरुड़ के पंखों की हवा के बल से उड़ा हुआ राक्षस माल्यवान् भी लज्जित होकर अपनी सेना से जा मिला और लङ्का की ओर चला गया॥ २० ॥

एवं ते राक्षसा राम हरिणा कमलेक्षण।
बहुशः संयुगे भग्ना हतप्रवरनायकाः॥२१॥

कमलनयन श्रीराम! इस प्रकार उन राक्षसों का भगवान् विष्णु के साथ अनेक बार युद्ध हुआ और प्रत्येक संग्राम में प्रधान-प्रधान नायकों के मारे जाने पर उन सबको भागना पड़ा॥ २१॥

अशक्नुवन्तस्ते विष्णुं प्रतियोद्धं बलार्दिताः।
त्यक्त्वा लङ्कां गता वस्तुं पातालं सहपत्नयः॥२२॥

वे किसी प्रकार भगवान् विष्णु का सामना नहीं कर सके। सदा ही उनके बल से पीड़ित होते रहे। अतः समस्त निशाचर लङ्का छोड़कर अपनी स्त्रियों के साथ पाताल में रहने के लिये चले गये॥ २२ ॥

सुमालिनं समासाद्य राक्षसं रघुसत्तम।
स्थिताः प्रख्यातवीर्यास्ते वंशे सालकटङ्कटे॥२३॥

रघश्रेष्ठ! वे विख्यात पराक्रमी निशाचर सालकटङ्कटवंश में विद्यमान राक्षस सुमाली का आश्रय लेकर रहने लगे॥

ये त्वया निहतास्ते तु पौलस्त्या नाम राक्षसाः।
समाली माल्यवान् माली ये च तेषां पुरःसराः।
सर्व एते महाभागा रावणाद् बलवत्तराः॥२४॥

श्रीराम! आपने पुलस्त्यवंश के जिन-जिन राक्षसों का विनाश किया है, उनकी अपेक्षा प्राचीन राक्षसों का पराक्रम अधिक था। सुमाली, माल्यवान् और माली तथा उनके आगे चलने वाले योद्धा—ये सभी महाभाग निशाचर रावण से बढ़कर बलवान् थे॥ २४ ॥

न चान्यो राक्षसान् हन्ता सुरारीन् देवकण्टकान्।
ऋते नारायणं देवं शङ्खचक्रगदाधरम्॥ २५॥

देवताओं के लिये कण्टकरूप उन देवद्रोही राक्षसों का वध शङ्ख, चक्र, गदाधारी भगवान् नारायणदेव के सिवा दूसरा कोई नहीं कर सकता। २५॥

भवान् नारायणो देवश्चतुर्बाहुः सनातनः।
राक्षसान् हन्तुमुत्पन्नो ह्यजय्यः प्रभुरव्ययः॥२६॥

आप चार भुजाधारी सनातन देव भगवान् नारायण ही हैं। आपको कोई परास्त नहीं कर सकता। आप अविनाशी प्रभु हैं और राक्षसों का वध करनेके लिये इस लोक में अवतीर्ण हुए हैं।॥ २६॥

नष्टधर्मव्यवस्थानां काले काले प्रजाकरः।
उत्पद्यते दस्युवधे शरणागतवत्सलः॥ २७॥

आप ही इन प्रजाओं के स्रष्टा हैं और शरणागतो पर दया रखते हैं। जब-जब धर्म की व्यवस्था को नष्ट करने वाले दस्यु पैदा हो जाते हैं, तब-तब उन दस्युओं का वध करने के लिये आप समय-समय पर अवतार लेते रहते हैं॥२७॥

एषा मया तव नराधिप राक्षसानामुत्पत्तिरद्य कथिता सकला यथावत्।
भूयो निबोध रघुसत्तम रावणस्य जन्मप्रभावमतुलं ससुतस्य सर्वम्॥ २८॥

नरेश्वर! इस प्रकार मैंने आपको राक्षसों की उत्पत्ति का यह पूरा प्रसंग ठीक-ठीक सुना दिया। रघुवंशशिरोमणे! अब आप रावण तथा उसके पुत्रों के जन्म और अनुपम प्रभाव का सारा वर्णन सुनिये॥ २८॥

चिरात् सुमाली व्यचरद् रसातलं स राक्षसो विष्णुभयार्दितस्तदा।
पुत्रैश्च पौत्रैश्च समन्वितो बली ततस्तु लङ्कामवसद् धनेश्वरः॥२९॥

भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित होकर राक्षस सुमाली सुदीर्घ कालतक अपने पुत्र-पौत्रों के साथ रसातल में विचरता रहा। इसी बीच में धनाध्यक्ष कुबेर ने लङ्का को अपना निवास स्थान बनाया॥ २९॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके उत्तरकाण्डमें आठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥८॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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