RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 9 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 9

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
नवमः सर्गः (सर्ग 9)

रावण आदि का जन्म और उनका तप के लिये गोकर्ण-आश्रम में जाना

 

कस्यचित् त्वथ कालस्य सुमाली नाम राक्षसः।
रसातलान्मर्त्यलोकं सर्वं वै विचचार ह॥१॥
नीलजीमूतसंकाशस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः।
कन्यां दुहितरं गृह्य विना पद्ममिव श्रियम्॥२॥

कुछ काल के पश्चात् नीले मेघ के समान श्याम वर्णवाला राक्षस सुमाली तपाये हुए सोने के कुण्डलों से अलंकृत हो अपनी सुन्दरी कन्या को, जो बिना कमल की लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, साथ ले रसातल से निकला और सारे मर्त्यलोक में विचरने लगा॥ १-२॥

राक्षसेन्द्रः स तु तदा विचरन् वै महीतले।
तदापश्यत् स गच्छन्तं पुष्पकेण धनेश्वरम्॥३॥
गच्छन्तं पितरं द्रष्टुं पुलस्त्यतनयं विभुम्।
तं दृष्ट्वामरसंकाशं गच्छन्तं पावकोपमम्॥४॥
रसातलं प्रविष्टः सन्मर्त्यलोकात् सविस्मयः।

उस समय भूतल पर विचरते हुए उस राक्षसराज ने अग्नि के समान तेजस्वी तथा देवतुल्य शोभा धारण करने वाले धनेश्वर कुबेर को देखा, जो पुष्पकविमान द्वारा अपने पिता पुलस्त्यनन्दन विश्रवा का दर्शन करने के लिये जा रहे थे। उन्हें देखकर वह अत्यन्त विस्मित हो मर्त्यलोक से रसातल में प्रविष्ट हुआ॥३-४ १/२॥

इत्येवं चिन्तयामास राक्षसानां महामतिः॥५॥
किं कृत्वा श्रेय इत्येवं वर्धेमहि कथं वयम्।

सुमाली बड़ा बुद्धिमान् था। वह सोचने लगा, क्या करने से हम राक्षसों का भला होगा? कैसे हमलोग उन्नति कर सकेंगे? ॥ ५ १/२॥

अथाब्रवीत् सुतां रक्षः कैकसीं नाम नामतः॥६॥
पुत्र प्रदानकालोऽयं यौवनं व्यतिवर्तते।
प्रत्याख्यानाच्च भीतैस्त्वं न वरैः प्रतिगृह्यसे॥७॥

ऐसा विचार करके उस राक्षस ने अपनी पुत्री से, जिसका नाम कैकसी था, कहा—’बेटी! अब तुम्हारे विवाह के योग्य समय आ गया है; क्योंकि इस समय तुम्हारी युवावस्था बीत रही है। तुम कहीं इनकार नकर दो, इसी भय से श्रेष्ठ वर तुम्हारा वरण नहीं कर रहे हैं॥ ६-७॥

त्वत्कृते च वयं सर्वे यन्त्रिता धर्मबुद्धयः।
त्वं हि सर्वगुणोपेता श्रीः साक्षादिव पुत्रिके॥८॥

‘पुत्री! तुम्हें विशिष्ट वर की प्राप्ति हो, इसके लिये हमलोगों ने बहुत प्रयास किया है; क्योंकि कन्यादान के विषय में हम धर्मबुद्धि रखने वाले हैं। तुम तो साक्षात् लक्ष्मी के समान सर्वगुणसम्पन्न हो (अतः तुम्हारा वर भी सर्वथा तुम्हारे योग्य ही होना चाहिये) ॥ ८॥

कन्यापितृत्वं दुःखं हि सर्वेषां मानकांक्षिणाम्।
न ज्ञायते च कः कन्यां वरयेदिति कन्यके॥९॥

‘बेटी! सम्मान की इच्छा रखने वाले सभी लोगों के लिये कन्या का पिता होना दुःखका ही कारण होता है; क्योंकि यह पता नहीं चलता कि कौन और कैसा पुरुष कन्या का वरण करेगा? ॥९॥

मातुः कुलं पितृकुलं यत्र चैव च दीयते।
कुलत्रयं सदा कन्या संशये स्थाप्य तिष्ठति॥१०॥

‘माता के, पिता के और जहाँ कन्या दी जाती है,उस पति के कुल को भी कन्या सदा संशय में डाले रहती है।

सा त्वं मुनिवरं श्रेष्ठं प्रजापतिकुलोद्भवम्।
भज विश्रवसं पुत्रि पौलस्त्यं वरय स्वयम्॥११॥

‘अतः बेटी ! तुम प्रजापति के कुल में उत्पन्न, श्रेष्ठ गुणसम्पन्न, पुलस्त्यनन्दन मुनिवर विश्रवा का स्वयं चलकर पति के रूप में वरण करो और उनकी सेवा में रहो॥११॥

ईदृशास्ते भविष्यन्ति पुत्राः पुत्रि न संशयः।
तेजसा भास्करसमो तादृशोऽयं धनेश्वरः॥१२॥

‘पुत्री! ऐसा करने से निःसंदेह तुम्हारे पुत्र भी ऐसे ही होंगे, जैसे ये धनेश्वर कुबेर हैं। तुमने तो देखा ही था; वे कैसे अपने तेज से सूर्य के समान उद्दीप्त हो रहे थे?’ ॥ १२॥

सा तु तद् वचनं श्रुत्वा कन्यका पितृगौरवात्।
तत्र गत्वा च सा तस्थौ विश्रवा यत्र तप्यते॥१३॥

पिता की यह बात सुनकर उनके गौरव का खयाल करके कैकसी उस स्थान पर गयी, जहाँ मुनिवर विश्रवा तप करते थे। वहाँ जाकर वह एक जगह खड़ी हो गयी॥१३॥

एतस्मिन्नन्तरे राम पुलस्त्यतनयो द्विजः।
अग्निहोत्रमुपातिष्ठच्चतुर्थ इव पावकः॥१४॥

श्रीराम! इसी बीच में पुलस्त्यनन्दन ब्राह्मण विश्रवा सायंकाल का अग्निहोत्र करने लगे। वे तेजस्वी मुनि उस समय तीन अग्नियों के साथ स्वयं भी चतुर्थ अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहे थे॥१४॥

अविचिन्त्य तु तां वेलां दारुणां पितृगौरवात्।
उपसृत्याग्रतस्तस्य चरणाधोमुखी स्थिता॥१५॥

पिता के प्रति गौरवबुद्धि होने के कारण कैकसी ने उस भयंकर वेला का विचार नहीं किया और निकट जा उनके चरणों पर दृष्टि लगाये नीचा मुँह किये वह सामने खड़ी हो गयी॥ १५ ॥

विलिखन्ती मुहुर्भूमिमङ्गष्ठाग्रेण भामिनी।
स तु तां वीक्ष्य सुश्रोणी पूर्णचन्द्रनिभाननाम्॥१६॥
अब्रवीत् परमोदारो दीप्यमानां स्वतेजसा।

वह भामिनी अपने पैर के अँगूठे से बारम्बार धरती पर रेखा खींचने लगी। पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख तथा सुन्दर कटिप्रदेशवाली उस सुन्दरी को जो अपने तेज से उद्दीप्त हो रही थी, देखकर उन परम उदार महर्षि ने पूछा— ॥ १६ १/२॥

भद्रे कस्यासि दुहिता कुतो वा त्वमिहागता॥१७॥
किं कार्यं कस्य वा हेतोस्तत्त्वतो ब्रूहि शोभने॥१८॥

‘भद्रे! तुम किसकी कन्या हो, कहाँ से यहाँ आयी हो, मुझसे तुम्हारा क्या काम है अथवा किस उद्देश्य से यहाँ तुम्हारा आना हुआ है? शोभने! ये सब बातें मुझे ठीक-ठीक बताओ’ ॥ १७-१८॥

एवमुक्ता तु सा कन्या कृताञ्जलिरथाब्रवीत्।
आत्मप्रभावेण मुने ज्ञातुमर्हसि मे मतम्॥१९॥
किं तु मां विद्धि ब्रह्मर्षे शासनात् पितुरागताम्।
कैकसी नाम नाम्नाहं शेषं त्वं ज्ञातुमर्हसि ॥२०॥

विश्रवा के इस प्रकार पूछने पर उस कन्या ने हाथ जोड़कर कहा—’मुने! आप अपने ही प्रभाव से मेरे मनोभाव को समझ सकते हैं; किंतु ब्रह्मर्षे! मेरे मुख से इतना अवश्य जान लें कि मैं अपने पिता की आज्ञा से आपकी सेवा में आयी हूँ और मेरा नाम कैकसी है।बाकी सब बातें आपको स्वतः जान लेनी चाहिये (मुझसे न कहलावें)’॥ १९-२०॥

स तु गत्वा मुनिर्व्यानं वाक्यमेतदुवाच ह।
विज्ञातं ते मया भद्रे कारणं यन्मनोगतम्॥२१॥
सुताभिलाषो मत्तस्ते मत्तमातङ्गगामिनि।
दारुणायां तु वेलायां यस्मात् त्वं मामुपस्थिता॥२२॥
शृणु तस्मात् सुतान् भद्रे यादृशाञ्जनयिष्यसि।
दारुणान् दारुणाकारान् दारुणाभिजनप्रियान्॥२३॥
प्रसविष्यसि सुश्रोणि राक्षसान् क्रूरकर्मणः।

यह सुनकर मुनि ने थोड़ी देर तक ध्यान लगाया और उसके बाद कहा—’भद्रे! तुम्हारे मन का भाव मालूम हुआ। मतवाले गजराज की भाँति मन्दगति से चलने वाली सुन्दरी! तुम मुझसे पुत्र प्राप्त करना चाहती हो; परंतु इस दारुण वेला में मेरे पास आयी हो, इसलिये यह भी सुन लो कि तुम कैसे पुत्रों को जन्म दोगी। सुश्रोणि! तुम्हारे पुत्र क्रूर स्वभाव वाले और शरीर से भी भयंकर होंगे तथा उनका क्रूरकर्मा राक्षसों के साथ ही प्रेम होगा। तुम क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले राक्षसों को ही पैदा करोगी’॥ २१–२३ १/२॥

सा तु तद्वचनं श्रुत्वा प्रणिपत्याब्रवीद् वचः॥२४॥
भगवन्नीदृशान् पुत्रांस्त्वत्तोऽहं ब्रह्मवादिनः।
नेच्छामि सुदुराचारान् प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥२५॥

मुनि का यह वचन सुनकर कैकसी उनके चरणों पर गिर पड़ी और इस प्रकार बोली-भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। मैं आपसे ऐसे दुराचारी पुत्रों को पाने की अभिलाषा नहीं रखती; अतः आप मुझ पर कृपा कीजिये’ ॥ २४-२५॥

कन्यया त्वेवमुक्तस्तु विश्रवा मुनिपुङ्गवः।
उवाच कैकसीं भूयः पूर्णेन्दुरिव रोहिणीम्॥२६॥

उस राक्षसकन्या के इस प्रकार कहने पर पूर्णचन्द्रमा के समान मुनिवर विश्रवा रोहिणी-जैसे सुन्दरी कैकसी से फिर बोले- ॥२६॥

पश्चिमो यस्तव सुतो भविष्यति शुभानने।
मम वंशानुरूपः स धर्मात्मा च न संशयः॥२७॥

‘शुभानने ! तुम्हारा जो सबसे छोटा एवं अन्तिम पुत्र होगा, वह मेरे वंश के अनुरूप धर्मात्मा होगा। इसमें संशय नहीं है’ ॥२७॥

एवमुक्ता तु सा कन्या राम कालेन केनचित्।
जनयामास बीभत्सं रक्षोरूपं सुदारुणम्॥२८॥
दशग्रीवं महादंष्ट्र नीलाञ्जनचयोपमम्।
ताम्रोष्ठं विंशतिभुजं महास्यं दीप्तमूर्धजम्॥२९॥

श्रीराम! मुनि के ऐसा कहने पर कैकसी ने कुछ काल के अनन्तर अत्यन्त भयानक और क्रूर स्वभाव वाले एक राक्षस को जन्म दिया, जिसके दस मस्तक, बड़ी-बड़ी दाढ़ें, ताँबे-जैसे ओठ, बीस भुजाएँ, विशाल मुख और चमकीले केश थे। उसके शरीर का रंग कोयले के पहाड़-जैसा काला था। २८—९॥

तस्मिञ्जाते ततस्तस्मिन् सज्वालकवलाः शिवाः।
क्रव्यादाश्चापसव्यानि मण्डलानि प्रचक्रमुः॥३०॥

उसके पैदा होते ही मुँह में अङ्गारों के कौर लिये गीदड़ियाँ और मांसभक्षी गृध्र आदि पक्षी दायीं ओर मण्डलाकार घूमने लगे॥ ३० ॥

ववर्ष रुधिरं देवो मेघाश्च खरनिःस्वनाः।
प्रबभौ न च सूर्यो वै महोल्काश्चापतन् भुवि॥३१॥
चकम्पे जगती चैव ववुर्वाताः सुदारुणाः।
अक्षोभ्यः क्षुभितश्चैव समुद्रः सरितां पतिः॥३२॥

इन्द्रदेव रुधिर की वर्षा करने लगे, मेघ भयंकर स्वर में गर्जने लगे, सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी, पृथ्वी पर उल्कापात होने लगा, धरती काँप उठी, भयानक आँधी चलने लगी तथा जो किसी के द्वारा क्षुब्ध नहीं किया जा सकता, वह सरिताओं का स्वामी समुद्र विक्षुब्ध हो उठा॥ ३१-३२॥

अथ नामाकरोत् तस्य पितामहसमः पिता।
दशग्रीवः प्रसूतोऽयं दशग्रीवो भविष्यति॥३३॥

उस समय ब्रह्माजी के समान तेजस्वी पिता विश्रवा मुनि ने पुत्र का नामकरण किया—’यह दस ग्रीवाएँ लेकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये ‘दशग्रीव’ नाम से प्रसिद्ध होगा’॥

तस्य त्वनन्तरं जातः कुम्भकर्णो महाबलः।
प्रमाणाद् यस्य विपुलं प्रमाणं नेह विद्यते॥३४॥

उसके बाद महाबली कुम्भकर्ण का जन्म हुआ, जिसके शरीर से बड़ा शरीर इस जगत् में दूसरे किसी का नहीं है॥३४॥

ततः शूर्पणखा नाम संजज्ञे विकृतानना।
विभीषणश्च धर्मात्मा कैकस्याः पश्चिमः सुतः॥३५॥

इसके बाद विकराल मुखवाली शूर्पणखा उत्पन्न हुई। तदनन्तर धर्मात्मा विभीषण का जन्म हुआ, जो कैकसी के अन्तिम पुत्र थे॥ ३५ ॥

तस्मिन् जाते महासत्त्वे पुष्पवर्षं पपात ह।
नभःस्थाने दुन्दुभयो देवानां प्राणदंस्तथा।
वाक्यं चैवान्तरिक्षे च साधु साध्विति तत् तदा॥३६॥

उस महान् सत्त्वशाली पुत्र का जन्म होने पर आकाश से फूलों की वर्षा हुई और आकाश में देवों की दुन्दुभियाँ बज उठीं। उस समय अन्तरिक्ष में ‘साधुसाधु’ की ध्वनि सुनायी देने लगी॥३६॥

तौ तु तत्र महारण्ये ववृधाते महौजसौ।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ लोकोद्वेगकरौ तदा॥३७॥

कुम्भकर्ण और दशग्रीव वे दोनों महाबली राक्षस लोक में उद्वेग पैदा करनेवाले थे। वे दोनों ही उस विशाल वन में पालित होने और बढ़ने लगे॥ ३७॥

कुम्भकर्णः प्रमत्तस्तु महर्षीन् धर्मवत्सलान्।
त्रैलोक्ये नित्यासंतुष्टो भक्षयन् विचचार ह॥३८॥

कुम्भकर्ण बड़ा ही उन्मत्त निकला। वह भोजन से कभी तृप्त ही नहीं होता था; अतः तीनों लोकों में घूमघूमकर धर्मात्मा महर्षियों को खाता फिरता था॥ ३८ ॥

विभीषणस्तु धर्मात्मा नित्यं धर्मव्यवस्थितः।
स्वाध्यायनियताहार उवास विजितेन्द्रियः॥३९॥

विभीषण बचपन से ही धर्मात्मा थे। वे सदा धर्म में स्थित रहते, स्वाध्याय करते और नियमित आहार करते हुए इन्द्रियों को अपने काबू में रखते थे॥ ३९॥

अथ वैश्रवणो देवस्तत्र कालेन केनचित्।
आगतः पितरं द्रष्टुं पुष्पकेण धनेश्वरः॥४०॥

कुछ काल बीतने पर धन के स्वामी वैश्रवण पुष्पकविमान पर आरूढ़ हो अपने पिता का दर्शन करने के लिये वहाँ आये॥ ४०॥

तं दृष्ट्वा कैकसी तत्र ज्वलन्तमिव तेजसा।
आगम्य राक्षसी तत्र दशग्रीवमुवाच ह॥४१॥

वे अपने तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर राक्षसकन्या कैकसी अपने पुत्र दशग्रीव के पास आयी और इस प्रकार बोली- ॥४१॥

पुत्र वैश्रवणं पश्य भ्रातरं तेजसा वृतम्।
भ्रातृभावे समे चापि पश्यात्मानं त्वमीदृशम्॥४२॥

‘बेटा! अपने भाई वैश्रवण की ओर तो देखो। वे कैसे तेजस्वी जान पड़ते हैं? भाई होने के नाते तुम भी इन्हीं के समान हो। परंतु अपनी अवस्था देखो, कैसी है? ॥ ४२॥

दशग्रीव यथा यत्नं कुरुष्वामितविक्रम।
यथा त्वमपि मे पुत्र भवेर्वैश्रवणोपमः॥४३॥

‘अमित पराक्रमी दशग्रीव! मेरे बेटे! तुम भी ऐसा कोई यत्न करो, जिससे वैश्रवण की ही भाँति तेज और वैभव से सम्पन्न हो जाओ’ ॥४३॥

मातुस्तद् वचनं श्रुत्वा दशग्रीवः प्रतापवान्।
अमर्षमतुलं लेभे प्रतिज्ञां चाकरोत् तदा॥४४॥

माता की यह बात सुनकर प्रतापी दशग्रीव को अनुपम अमर्ष हुआ। उसने तत्काल प्रतिज्ञा की—॥ ४४॥

सत्यं ते प्रतिजानामि भ्रातृतुल्योऽधिकोऽपि वा।
भविष्याम्योजसा चैव संतापं त्यज हृद्गतम्॥४५॥

‘माँ! तुम अपने हृदय की चिन्ता छोड़ो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि अपने पराक्रम से भाई वैश्रवण के समान या उनसे भी बढ़कर हो जाऊँगा’ ॥ ४५ ॥

ततः क्रोधेन तेनैव दशग्रीवः सहानुजः।
चिकीर्षुर्दुष्करं कर्म तपसे धृतमानसः॥४६॥
प्राप्स्यामि तपसा काममिति कृत्वाध्यवस्य च।
आगच्छदात्मसिद्ध्यर्थं गोकर्णस्याश्रमं शुभम्॥४७॥

तदनन्तर उसी क्रोध के आवेश में भाइयोंसहित दशग्रीव ने दुष्कर कर्म की इच्छा मन में लेकर सोचा —’मैं तपस्या से ही अपना मनोरथ पूर्ण कर सकूँगा, ऐसा विचारकर उसने मन में तपस्या का ही निश्चय किया और अपनी अभीष्ट-सिद्धि के लिये वह गोकर्ण के पवित्र आश्रम पर गया॥ ४६-४७॥

स राक्षसस्तत्र सहानुजस्तदा तपश्चचारातुलमुग्रविक्रमः।
अतोषयच्चापि पितामहं विभुं ददौ स तुष्टश्च वराञ्जयावहान्॥४८॥

भाइयोंसहित उस भयंकर पराक्रमी राक्षस ने अनुपम तपस्या आरम्भ की। उस तपस्या द्वारा उसने भगवान् ब्रह्माजी को संतुष्ट किया और उन्होंने प्रसन्न होकर उसे विजय दिलाने वाले वरदान दिये॥४८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे नवमः सर्गः॥९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ॥९॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

उत्कृष्ट व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! आपका आर्थिक सहयोग हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण में सहयोगी होगा। RamCharit.in व SatyaSanatan.com धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: