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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 10 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 10

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
दशमः सर्गः (10)

(विभीषण का रावण के महल में जाना, उसे अपशकुनों का भय दिखाकर सीता को लौटा देने के लिये प्रार्थना करना)

ततः प्रत्युषसि प्राप्ते प्राप्तधर्मार्थनिश्चयः।
राक्षसाधिपतेर्वेश्म भीमकर्मा विभीषणः॥१॥
शैलाग्रचयसंकाशं शैलशृङ्गमिवोन्नतम्।
सुविभक्तमहाकक्षं महाजनपरिग्रहम्॥२॥
मतिमद्भिर्महामात्रैरनुरक्तैरधिष्ठितम्।
राक्षसैराप्तपर्याप्तैः सर्वतः परिरक्षितम्॥३॥
मत्तमातङ्गनिःश्वासैर्व्याकुलीकृतमारुतम्।
शङ्खघोषमहाघोषं तूर्यसम्बाधनादितम्॥४॥
प्रमदाजनसम्बाधं प्रजल्पितमहापथम्।
तप्तकाञ्चननिर्वृहं भूषणोत्तमभूषितम्॥५॥
गन्धर्वाणामिवावासमालयं मरुतामिव।
रत्नसंचयसम्बाधं भवनं भोगिनामिव॥६॥
तं महाभ्रमिवादित्यस्तेजोविस्तृतरश्मिवान्।
अग्रजस्यालयं वीरः प्रविवेश महाद्युतिः॥७॥

दूसरे दिन सबेरा होते ही धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले भीमकर्मा महातेजस्वी वीर विभीषण अपने बड़े भाई राक्षसराज रावण के घर गये। वह घर अनेक प्रासादों के कारण पर्वतशिखरों के समूह की भाँति शोभा पाता था। उसकी ऊँचाई भी पहाड़ की चोटी को लज्जित करती थी। उसमें अलग-अलग बड़ी-बड़ी कक्षाएँ (ड्योढ़ियाँ) सुन्दर ढंग से बनी हुई थीं। बहुतेरे श्रेष्ठ पुरुषों का वहाँ आना-जाना लगा रहता था। अनेकानेक बुद्धिमान् महामन्त्री, जो राजा के प्रति अनुराग रखने वाले थे, उसमें बैठे थे। विश्वसनीय, हितैषी तथा कार्यसाधन में कुशल बहुसंख्यक राक्षस सब ओर से उस भवन की रक्षा करते थे। वहाँ की वायु मतवाले हाथियों के निःश्वास से मिश्रित हो बवंडर-सी जान पड़ती थी। शङ्खध्वनि के समान राक्षसों का गम्भीर घोष वहाँ गूंजता रहता था। नाना प्रकार के वाद्यों के मनोरम शब्द उस भवन को निनादित करते थे। रूप और यौवन के मद से मतवाली युवतियों की वहाँ भीड-सी लगती रहती थी। वहाँ के बड़े-बड़े मार्ग लोगों के वार्तालाप से मुखरित जान पड़ते थे। उसके फाटक तपाये हुए सुवर्ण के बने हुए थे। उत्तम सजावट की वस्तुओं से वह महल अच्छी तरह सजा हुआ था, अतएव वह गन्धर्वो के आवास और देवताओं के निवासस्थान-सा मनोरम प्रतीत होता था। रत्नराशि से परिपूर्ण होने के कारण वह नागभवन के समान उद्भासित होता था। जैसे तेज से विस्तृत किरणों वाले सूर्य महान् मेघों की घटा में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार तेजस्वी विभीषण ने रावण के उस भवन में पदार्पण किया॥१-७॥

पुण्यान् पुण्याहघोषांश्च वेदविद्भिरुदाहृतान्।
शुश्राव सुमहातेजा भ्रातुर्विजयसंश्रितान्॥८॥

वहाँ पहुँचकर उन महातेजस्वी विभीषण ने अपने भाई की विजय के उद्देश्य से वेदवेत्ता ब्राह्मणों द्वारा किये गये पुण्याहवाचन के पवित्र घोष सुने॥ ८॥

पूजितान् दधिपात्रैश्च सर्पिभिः सुमनोक्षतैः।
मन्त्रवेदविदो विप्रान् ददर्श स महाबलः॥९॥

तत्पश्चात् उन महाबली विभीषण ने वेदमन्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों का दर्शन किया, जिनके हाथों में दही और घी के पात्र थे। फूलों और अक्षतों से उन सबकी पूजा की गयी थी॥९॥

स पूज्यमानो रक्षोभिर्दीप्यमानं स्वतेजसा।
आसनस्थं महाबाहुर्ववन्दे धनदानुजम्॥१०॥

वहाँ जाने पर राक्षसों ने उनका स्वागत-सत्कार किया। फिर उन महाबाहु विभीषण ने अपने तेज से देदीप्यमान और सिंहासन पर विराजमान कुबेर के छोटे भाई रावण को प्रणाम किया॥ १० ॥

स राजदृष्टिसम्पन्नमासनं हेमभूषितम्।
जगाम समुदाचारं प्रयुज्याचारकोविदः॥११॥

तदनन्तर शिष्टाचार के ज्ञाता विभीषण ‘विजयतां महाराजः’ (महाराज की जय हो) इत्यादि रूप से राजा के प्रति परम्पराप्राप्त शुभाशंसासूचक वचन का प्रयोग करके राजा के द्वारा दृष्टि के संकेत से बताये गये सुवर्णभूषित सिंहासन पर बैठ गये॥ ११॥

स रावणं महात्मानं विजने मन्त्रिसंनिधौ।
उवाच हितमत्यर्थं वचनं हेतुनिश्चितम्॥१२॥
प्रसाद्य भ्रातरं ज्येष्ठं सान्त्वेनोपस्थितक्रमः।
देशकालार्थसंवादि दृष्टलोकपरावरः॥१३॥

विभीषण जगत् की भली-बुरी बातों को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने प्रणाम आदि व्यवहार का यथार्थरूप से निर्वाह करके सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा अपने बड़े भाई महामना रावण को प्रसन्न किया और उससे एकान्त में मन्त्रियों के निकट देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप, युक्तियों द्वारा निश्चित तथा अत्यन्त हितकारक बात कही— ॥१२-१३॥

यदाप्रभृति वैदेही सम्प्राप्तेह परंतप।
तदाप्रभृति दृश्यन्ते निमित्तान्यशुभानि नः॥१४॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! जबसे विदेहकुमारी सीता यहाँ आयी हैं, तभी से हमलोगों को अनेक प्रकार के अमङ्गलसूचक अपशकुन दिखायी दे रहे हैं॥१४॥

सस्फुलिङ्गः सधूमार्चिः सधूमकलुषोदयः।
मन्त्रसंधक्षितोऽप्यग्निर्न सम्यगभिवर्धते॥१५॥

‘मन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक धधकाने पर भी आग अच्छी तरह प्रज्वलित नहीं हो रही है। उससे चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। उसकी लपट के साथ धुआँ उठने लगता है और मन्थनकाल में जब अग्नि प्रकट होती है, उस समय भी वह धूएँसे मलिन ही रहती है। १५॥

अग्निष्टेष्वग्निशालासु तथा ब्रह्मस्थलीषु च।
सरीसृपाणि दृश्यन्ते हव्येषु च पिपीलिकाः॥

‘रसोई-घरों में, अग्निशालाओं में तथा वेदाध्ययन के स्थानों में भी साँप देखे जाते हैं और हवन-सामग्रियों में चीटियाँ पड़ी दिखायी देती हैं॥ १६ ॥

गवां पयांसि स्कन्नानि विमदा वरकुञ्जराः।
दीनमश्वाः प्रहेषन्ते नवग्रासाभिनन्दिनः॥१७॥

‘गायों का दूध सूख गया है, बड़े-बड़े गजराज मदरहित हो गये हैं, घोड़े नये ग्रास से आनन्दित (भोजन से संतुष्ट) होने पर भी दीनतापूर्ण स्वर में हिनहिनाते हैं ॥ १७॥

खरोष्ट्राश्वतरा राजन् भिन्नरोमाः स्रवन्ति च।
न स्वभावेऽवतिष्ठन्ते विधानैरपि चिन्तिताः॥१८॥

‘राजन् ! गधों, ऊँटों और खच्चरों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके नेत्रों से आँसू गिरने लगते हैं। विधिपूर्वक चिकित्सा की जाने पर भी वे पूर्णतः स्वस्थ हो नहीं पाते हैं॥ १८॥

वायसाः संघशः क्रूरा व्याहरन्ति समन्ततः।
समवेताश्च दृश्यन्ते विमानाग्रेषु संघशः॥१९॥

‘क्रूर कौए झुंड-के-झुंड एकत्र होकर कर्कश स्वर में काँव-काँव करने लगते हैं तथा वे सतमहले मकानोंपर समूह-के-समूह इकट्ठे हुए देखे जाते हैं। १९॥

गृध्राश्च परिलीयन्ते पुरीमुपरि पिण्डिताः।
उपपन्नाश्च संध्ये द्वे व्याहरन्त्यशिवं शिवाः॥२०॥

लङ्कापुरी के ऊपर झुंड-के-झुंड गीध उसका स्पर्श करते हुए-से मड़राते रहते हैं। दोनों संध्याओं के समय सियारिने नगर के समीप आकर अमङ्गलसूचक शब्द करती हैं॥ २० ॥

क्रव्यादानां मृगाणां च पुरीद्वारेषु संघशः।
श्रूयन्ते विपुला घोषाः सविस्फूर्जितनिःस्वनाः॥२१॥

‘नगर के सभी फाटकों पर समूह-के-समूह एकत्र हुए मांसभक्षी पशुओं के जोर-जोर से किये जानेवाले चीत्कार बिजली की गड़गड़ाहट के समान सुनायी पड़ते हैं ॥ २१॥

तदेवं प्रस्तुते कार्ये प्रायश्चित्तमिदं क्षमम्।
रोचये वीर वैदेही राघवाय प्रदीयताम्॥२२॥

‘वीरवर ! ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही प्रायश्चित्त अच्छा जान पड़ता है कि विदेहकुमारी सीता श्रीरामचन्द्रजी को लौटा दी जायँ।। २२ ॥

इदं च यदि वा मोहाल्लोभाद् वा व्याहृतं मया।
तत्रापि च महाराज न दोषं कर्तुमर्हसि ॥२३॥

‘महाराज! यदि यह बात मैंने मोह या लोभ से कही हो तो भी आपको मुझमें दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिये॥

अयं हि दोषः सर्वस्य जनस्यास्योपलक्ष्यते।
रक्षसां राक्षसीनां च पुरस्यान्तःपुरस्य च ॥ २४॥

‘सीता का अपहरण तथा इससे होने वाला अपशकुनरूपी दोष यहाँ की सारी जनता, राक्षसराक्षसी तथा नगर और अन्तःपुर—सभी के लिये उपलक्षित होता है॥ २४॥

प्रापणे चास्य मन्त्रस्य निवृत्ताः सर्वमन्त्रिणः।
अवश्यं च मया वाच्यं यद् दृष्टमथवा श्रुतम्।
सम्प्रधार्य यथान्यायं तद् भवान् कर्तुमर्हति॥२५॥

‘यह बात आपके कानों तक पहुँचाने में प्रायः सभी मन्त्री संकोच करते हैं; परंतु जो बात मैंने देखी या सुनी है वह मुझे तो आपके आगे अवश्य निवेदन कर देनी चाहिये; अतः उसपर यथोचित विचार करके आप जैसा उचित समझें, वैसा करें’॥ २५ ॥

इति स्वमन्त्रिणां मध्ये भ्राता भ्रातरमूचिवान्।
रावणं रक्षसां श्रेष्ठं पथ्यमेतद विभीषणः॥२६॥

इस प्रकार भाई विभीषण ने अपने मन्त्रियों के बीच में बड़े भाई राक्षसराज रावण से ये हितकारी वचन कहे। । २६॥

हितं महार्थं मृदु हेतुसंहितं व्यतीतकालायतिसम्प्रतिक्षमम्।
निशम्य तद्वाक्यमुपस्थितज्वरः प्रसङ्गवानुत्तरमेतदब्रवीत्॥२७॥
भयं न पश्यामि कतश्चिदप्यहं न राघवः प्राप्स्यति जातु मैथिलीम्।
सुरैः सहेन्द्रैरपि संगरे कथं ममाग्रतः स्थास्यति लक्ष्मणाग्रजः॥२८॥

विभीषण की ये हितकर, महान् अर्थ की साधक, कोमल, युक्तिसंगत तथा भूत, भविष्य और वर्तमानकाल में भी कार्यसाधन में समर्थ बातें सुनकर रावण को बुखार चढ़ आया। श्रीराम के साथ वैर बढ़ाने में उसकी आसक्ति हो गयी थी। इसलिये उसने इस प्रकार उत्तर दिया—’विभीषण! मैं तो कहीं से भी कोई भय नहीं देखता। राम मिथिलेशकुमारी सीता को कभी नहीं पा सकते। इन्द्रसहित देवताओं की सहायता प्राप्त कर लेने पर भी लक्ष्मण के बड़े भाई राम मेरे सामने संग्राम में कैसे टिक सकेंगे?’॥

इत्येवमुक्त्वा सुरसैन्यनाशनो महाबलः संयति चण्डविक्रमः।
दशाननो भ्रातरमाप्तवादिनं विसर्जयामास तदा विभीषणम्॥२९॥

ऐसा कहकर देवसेना के नाशक और समराङ्गण में प्रचण्ड पराक्रम प्रकट करने वाले महाबली दशाननने अपने यथार्थवादी भाई विभीषण को तत्काल विदा कर दिया॥ २९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे दशमः सर्गः॥१०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में दसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१०॥


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Shivangi

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