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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 18 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 18

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः (18)

(भगवान् श्रीराम का शरणागत की रक्षा का महत्त्व एवं अपना व्रत बताकरविभीषण से मिलना)

अथ रामः प्रसन्नात्मा श्रुत्वा वायुसुतस्य ह।
प्रत्यभाषत दुर्धर्षः श्रुतवानात्मनि स्थितम्॥१॥

वायुनन्दन हनुमान् जी के मुख से अपने मन में बैठी हुई बात सुनकर दुर्जय वीर भगवान् श्रीराम का चित्त प्रसन्न हो गया। वे इस प्रकार बोले- ॥१॥

ममापि च विवक्षास्ति काचित् प्रति विभीषणम्।
श्रोतुमिच्छामि तत् सर्वं भवद्भिः श्रेयसि स्थितैः॥२॥

‘मित्रो! विभीषण के सम्बन्ध में मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। आप सब लोग मेरे हितसाधन में संलग्न रहने वाले हैं। अतः मेरी इच्छा है कि आप भी उसे सुन लें॥२॥

मित्रभावेन सम्प्राप्तं न त्यजेयं कथंचन।
दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतदगर्हितम्॥३॥

‘जो मित्रभाव से मेरे पास आ गया हो, उसे मैं किसी तरह त्याग नहीं सकता। सम्भव है उसमें कुछ दोष भी हों, परंतु दोषीको आश्रय देना भी सत्पुरुषों के लिये निन्दित नहीं है (अतः विभीषण को मैं अवश्य अपनाऊँगा)’॥३॥

सुग्रीवस्त्वथ तद्वाक्यमाभाष्य च विमृश्य च।
ततः शुभतरं वाक्यमुवाच हरिपुङ्गवः॥४॥

वानरराज सुग्रीव ने भगवान् श्रीराम के इस कथन को सुनकर स्वयं भी उसे दोहराया और उस पर विचार करके यह परम सुन्दर बात कही ॥४॥

स दुष्टो वाप्यदुष्टो वा किमेष रजनीचरः।
ईदृशं व्यसनं प्राप्तं भ्रातरं यः परित्यजेत्॥५॥
को नाम स भवेत् तस्य यमेष न परित्यजेत्।

‘प्रभो! यह दुष्ट हो या अदुष्ट, इससे क्या? है तो यह निशाचर ही। फिर जो पुरुष ऐसे संकट में पड़े हुए अपने भाईको छोड़ सकता है, उसका दूसरा ऐसा कौन सम्बन्धी होगा, जिसे वह त्याग न सके’ ॥ ५ १/२॥

वानराधिपतेर्वाक्यं श्रुत्वा सर्वानुदीक्ष्य तु॥६॥
ईषदुत्स्मयमानस्तु लक्ष्मणं पुण्यलक्षणम्।
इति होवाच काकुत्स्थो वाक्यं सत्यपराक्रमः॥७॥

वानरराज सुग्रीव की यह बात सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरघुनाथजी सबकी ओर देखकर कुछ मुसकराये और पवित्र लक्षणवाले लक्ष्मण से इस प्रकार बोले -||

अनधीत्य च शास्त्राणि वृद्धाननुपसेव्य च।
न शक्यमीदृशं वक्तुं यदुवाच हरीश्वरः॥८॥

‘सुमित्रानन्दन! इस समय वानरराज ने जैसी बात कही है, वैसी कोई भी पुरुष शास्त्रों का अध्ययन और गुरुजनों की सेवा किये बिना नहीं कह सकता॥८॥

अस्ति सूक्ष्मतरं किंचिद् यथात्र प्रतिभाति मा।
प्रत्यक्षं लौकिकं चापि वर्तते सर्वराजसु॥९॥

‘परंतु सुग्रीव! तुमने विभीषण में जो भाई के परित्यागरूप दोष की उद्भावना की है, उस विषयमें मुझे एक ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म अर्थ की प्रतीति हो रही है, जो समस्त राजाओं में प्रत्यक्ष देखा गया है और सभी लोगों में प्रसिद्ध है (मैं उसी को तुम सब लोगों से कहना चाहता हूँ)

अमित्रास्तत्कुलीनाश्च प्रातिदेश्याश्च कीर्तिताः।
व्यसनेषु प्रहर्तारस्तस्मादयमिहागतः॥१०॥

‘राजाओं के छिद्र दो प्रकार के बताये गये हैं—एक तो उसी कुल में उत्पन्न हुए जाति-भाई और दूसरे पड़ोसी देशों के निवासी। ये संकट में पड़ने पर अपने विरोधी राजा या राजपुत्र पर प्रहार कर बैठते हैं। इसी भय से यह विभीषण यहाँ आया है (इसे भी अपने जाति-भाइयों से भय है) ॥ १०॥

अपापास्तत्कुलीनाश्च मानयन्ति स्वकान् हितान्।
एष प्रायो नरेन्द्राणां शङ्कनीयस्तु शोभनः॥११॥

‘जिनके मन में पाप नहीं है, ऐसे एक कुल में उत्पन्न हुए भाई-बन्धु अपने कुटुम्बीजनों को हितैषी मानते हैं, परंतु यही सजातीय बन्धु अच्छा होने पर भी प्रायः राजाओं के लिये शङ्कनीय होता है (रावण भी विभीषण को शङ्का की दृष्टि से देखने लगा है; इसलिये इसका अपनी रक्षा के लिये यहाँ आना अनुचित नहीं है। अतः तुम्हें इसके ऊपर भाई के त्याग का दोष नहीं लगाना चाहिये) ॥११॥

यस्तु दोषस्त्वया प्रोक्तो ह्यादानेऽरिबलस्य च।
तत्र ते कीर्तयिष्यामि यथाशास्त्रमिदं शृणु॥१२॥

‘तुमने शत्रुपक्षीय सैनिक को अपनाने में जो यह दोष बताया है कि वह अवसर देखकर प्रहार कर बैठता है, उसके विषय में मैं तुम्हें यह नीतिशास्त्र के अनुकूल उत्तर दे रहा हूँ, सुनो॥ १२॥

न वयं तत्कुलीनाश्च राज्यकाङ्क्षी च राक्षसः।
पण्डिता हि भविष्यन्ति तस्माद् ग्राह्यो विभीषणः॥१३॥

‘हमलोग इसके कुटुम्बी तो हैं नहीं (अतः हमसे स्वार्थ-हानि की आशंका इसे नहीं है) और यह राक्षसराज्य पाने का अभिलाषी है (इसलिये भी यह हमारा त्याग नहीं कर सकता)। इन राक्षसों में बहुत-से लोग बड़े विद्वान् भी होते हैं (अतः वे मित्र होने पर बड़े काम के सिद्ध होंगे) इसलिये विभीषण को अपने पक्ष में मिला लेना चाहिये॥ १३॥

अव्यग्राश्च प्रहृष्टाश्च ते भविष्यन्ति संगताः।
प्रणादश्च महानेषोऽन्योन्यस्य भयमागतम्।
इति भेदं गमिष्यन्ति तस्माद् ग्राह्यो विभीषणः॥१४॥

‘हमसे मिल जाने पर ये विभीषण आदि निश्चिन्त एवं प्रसन्न हो जायँगे। इनकी जो यह शरणागति के लिये प्रबल पुकार है, इससे मालूम होता है, राक्षसों में एक-दूसरेसे भय बना हुआ है। इसी कारण से इनमें परस्पर फूट होगी और ये नष्ट हो जायँगे। इसलिये भी विभीषण को ग्रहण कर लेना चाहिये॥ १४ ॥

न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमाः।
मद्विधा वा पितुः पुत्राः सुहृदो वा भवद्विधाः॥

‘तात सुग्रीव! संसार में सब भाई भरत के ही समान नहीं होते। बाप के सब बेटे मेरे ही जैसे नहीं होते और सभी मित्र तुम्हारे ही समान नहीं हुआ करते हैं’। १५॥

एवमुक्तस्तु रामेण सुग्रीवः सहलक्ष्मणः।
उत्थायेदं महाप्राज्ञः प्रणतो वाक्यमब्रवीत्॥१६॥

श्रीराम के ऐसा कहने पर लक्ष्मणसहित महाबुद्धिमान् सुग्रीव ने उठकर उन्हें प्रणाम किया और इस प्रकार कहा

रावणेन प्रणिहितं तमवेहि निशाचरम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये क्षमं क्षमवतां वर ॥१७॥

‘उचित कार्य करने वालों में श्रेष्ठ रघुनन्दन! आप उस राक्षस को रावण का भेजा हुआ ही समझें। मैं तो उसे कैद कर लेना ही ठीक समझता हूँ॥ १७ ॥

राक्षसो जिह्मया बुद्ध्या संदिष्टोऽयमिहागतः।
प्रहर्तुं त्वयि विश्वस्ते विश्वस्ते मयि वानघ।१८॥
लक्ष्मणे वा महाबाहो स वध्यः सचिवैः सह।
रावणस्य नृशंसस्य भ्राता ह्येष विभीषणः॥१९॥

‘निष्पाप श्रीराम! यह निशाचर रावण के कहने से मन में कुटिल विचार लेकर ही यहाँ आया है। जब हमलोग इस पर विश्वास करके इसकी ओर से निश्चिन्त हो जायँगे, उस समय यह आप पर, मुझपर अथवा लक्ष्मण पर भी प्रहार कर सकता है। इसलिये महाबाहो! क्रूर रावण के भाई इस विभीषण का मन्त्रियोंसहित वध कर देना ही उचित है’ ॥ १८-१९॥

एवमुक्त्वा रघुश्रेष्ठं सुग्रीवो वाहिनीपतिः।
वाक्यज्ञो वाक्यकुशलं ततो मौनमुपागमत्॥२०॥

प्रवचनकुशल रघुकुलतिलक श्रीराम से ऐसा कहकर बातचीत की कला जानने वाले सेनापति सुग्रीव मौन हो गये॥२०॥

स सुग्रीवस्य तद् वाक्यं रामः श्रुत्वा विमृश्य च।
ततः शुभतरं वाक्यमुवाच हरिपुङ्गवम्॥२१॥

सुग्रीव का वह वचन सुनकर और उसपर भलीभाँति विचार करके श्रीराम ने उन वानरशिरोमणि से यह परम मङ्गलमयी बात कही- ॥२१॥

स दुष्टो वाप्यदुष्टो वा किमेष रजनीचरः।
सूक्ष्ममप्यहितं कर्तुं मम शक्तः कथंचन॥२२॥

‘वानरराज! विभीषण दुष्ट हो या साधु। क्या यह निशाचर किसी तरह भी मेरा सूक्ष्म-से-सूक्ष्मरूप में भी अहित कर सकता है? ॥ २२॥

पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां चैव राक्षसान्।
अङ्गल्यग्रेण तान् हन्यामिच्छन् हरिगणेश्वर ॥२३॥

‘वानरयूथपते! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी पर जितने भी पिशाच, दानव, यक्ष और राक्षस हैं, उन सबको एक अंगुलि के अग्रभाग से मार सकता हूँ॥ २३॥

श्रूयते हि कपोतेन शत्रुः शरणमागतः।
अर्चितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः॥२४॥

‘सुना जाता है कि एक कबूतर ने अपनी शरण में आये हुए अपने ही शत्रु एक व्याध का यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया था और उसे निमन्त्रण दे अपने शरीर के मांस का भोजन कराया था॥ २४ ॥

स हि तं प्रतिजग्राह भार्याहर्तारमागतम्।
कपोतो वानरश्रेष्ठ किं पुनर्मद्विधो जनः॥ २५॥

‘उस व्याध ने उस कबूतर की भार्या कबूतरीको पकड़ लिया था तो भी अपने घर आने पर कबूतर ने उसका आदर किया; फिर मेरे-जैसा मनुष्य शरणागत पर अनुग्रह करे, इसके लिये तो कहना ही क्या है ? ॥ २५॥

ऋषेः कण्वस्य पुत्रोण कण्डुना परमर्षिणा।
शृणु गाथा पुरा गीता धर्मिष्ठा सत्यवादिना॥२६॥

‘पूर्वकाल में कण्व मुनि के पुत्र सत्यवादी महर्षि कण्डु ने एक धर्मविषयक गाथा का गान किया था उसे बताता हूँ, सुनो॥ २६॥

बद्धाञ्जलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम्।
न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रु परंतप॥२७॥

‘परंतप! यदि शत्रु भी शरण में आये और दीनभाव से हाथ जोड़कर दया की याचना करे तो उस पर प्रहार नहीं करना चाहिये॥ २७॥

आर्तो वा यदि वा दृप्तः परेषां शरणं गतः।
अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना॥२८॥

‘शत्रु दुःखी हो या अभिमानी, यदि वह अपने विपक्षी की शरण में  जाय तो शुद्ध हृदयवाले श्रेष्ठ पुरुष को अपने प्राणों का मोह छोड़कर उसकी रक्षा करनी चाहिये।

स चेद् भयाद् वा मोहाद् वा कामाद् वापि न रक्षति।
स्वया शक्त्या यथान्यायं तत् पापं लोकगर्हितम्॥२९॥

‘यदि वह भय, मोह अथवा किसी कामना से न्यायानुसार यथाशक्ति उसकी रक्षा नहीं करता तो उसके उस पापकर्म की लोक में बड़ी निन्दा होती है। २९॥

विनष्टः पश्यतस्तस्य रक्षिणः शरणं गतः।
आनाय सुकृतं तस्य सर्वं गच्छेदरक्षितः॥ ३०॥

‘यदि शरण में आया हुआ पुरुष संरक्षण न पाकर उस रक्षक के देखते-देखते नष्ट हो जाय तो वह उसके सारे पुण्य को अपने साथ ले जाता है॥ ३०॥

एवं दोषो महानत्र प्रपन्नानामरक्षणे।
अस्वयँ चायशस्यं च बलवीर्यविनाशनम्॥३१॥

‘इस प्रकार शरणागत की रक्षा न करने में महान् दोष बताया गया है। शरणागत का त्याग स्वर्ग और सुयश की प्राप्ति को मिटा देता है और मनुष्य के बल और वीर्य का नाश करता है॥ ३१॥

करिष्यामि यथार्थं तु कण्डोर्वचनमुत्तमम्।
धर्मिष्ठं च यशस्यं च स्वयँ स्यात् तु फलोदये॥३२॥

‘इसलिये मैं तो महर्षि कण्डु के उस यथार्थ और उत्तम वचन का ही पालन करूँगा; क्योंकि वह परिणाम में धर्म, यश और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है।॥ ३२॥

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥३३॥

‘जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है, उसे मैं समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूँ। यह मेरा सदा के लिये व्रत है॥ ३३॥

आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम्॥३४॥

‘अतः कपिश्रेष्ठ सुग्रीव! वह विभीषण हो या स्वयं रावण आ गया हो। तुम उसे ले आओ मैंने उसे अभयदान दे दिया’ ।। ३४॥

रामस्य तु वचः श्रुत्वा सुग्रीवः प्लवगेश्वरः।
प्रत्यभाषत काकुत्स्थं सौहार्दैनाभिपूरितः॥ ३५॥

भगवान् श्रीराम का यह वचन सुनकर वानरराज सुग्रीवने सौहार्द से भरकर उनसे कहा- ॥ ३५ ॥

किमत्र चित्रं धर्मज्ञ लोकनाथशिखामणे।
यत् त्वमार्यं प्रभाषेथाः सत्त्ववान् सत्पथे स्थितः॥३६॥

धर्मज्ञ! लोकेश्वरशिरोमणे! आपने जो यह श्रेष्ठ धर्म की बात कही है, इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि आप महान् शक्तिशाली और सन्मार्ग पर स्थित हैं। ३६॥

मम चाप्यन्तरात्मायं शुद्धं वेत्ति विभीषणम।
अनुमानाच्च भावाच्च सर्वतः सुपरीक्षितः॥ ३७॥

‘यह मेरी अन्तरात्मा भी विभीषण को शुद्ध समझती है। हनुमान जी ने भी अनुमान और भाव से उनकी भीतर-बाहर सब ओर से भलीभाँति परीक्षा कर ली हैं। ३७॥

तस्मात् क्षिप्रं सहास्माभिस्तुल्यो भवतु राघव।
विभीषणो महाप्राज्ञः सखित्वं चाभ्युपैतु नः॥३८॥

‘अतः रघुनन्दन! अब विभीषण शीघ्र ही यहाँ हमारे-जैसे होकर रहें और हमारी मित्रता प्राप्त करें’॥३८॥

ततस्तु सुग्रीववचो निशम्य तधरीश्वरेणाभिहितं नरेश्वरः।
विभीषणेनाशु जगाम संगमं पतत्त्रिराजेन यथा पुरंदरः॥३९॥

तदनन्तर वानरराज सुग्रीवकी कही हुई वह बात सुनकर राजा श्रीराम शीघ्र आगे बढ़कर विभीषण से मिले, मानो देवराज इन्द्र पक्षिराज गरुड़ से मिल रहे हों॥ ३९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डेऽष्टादशः सर्गः॥१८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१८॥


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Shivangi

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