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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 4 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 4

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
चतुर्थः सर्गः (4)

(श्रीराम आदि के साथ वानर-सेना का प्रस्थान और समुद्र-तट पर उसका पड़ाव)

श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं यथावदनुपूर्वशः।
ततोऽब्रवीन्महातेजा रामः सत्यपराक्रमः॥१॥

हनुमान जी के वचनों को क्रमशः यथावत् -रूप से सुनकर सत्यपराक्रमी महातेजस्वी भगवान् श्रीराम ने कहा- ॥१॥

यन्निवेदयसे लङ्कां पुरीं भीमस्य रक्षसः।
क्षिप्रमेनां वधिष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते॥२॥

‘हनुमन्! मैं तुमसे सच कहता हूँ तुमने उस भयानक राक्षस की जिस लङ्कापुरी का वर्णन किया है, उसे मैं शीघ्र ही नष्ट कर डालूँगा॥२॥

अस्मिन् मुहूर्ते सुग्रीव प्रयाणमभिरोचय।
युक्तो मुहूर्ते विजये प्राप्तो मध्यं दिवाकरः॥३॥

‘सुग्रीव! तुम इसी मुहूर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। सूर्यदेव दिन के मध्य भाग में जा पहुंचे हैं। इसलिये इस विजय* नामक मुहूर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी।
* दिन में दोपहरी के समय अभिजित् मुहूर्त होता है, इसी को विजय-मुहूर्त भी कहते हैं। यह यात्रा के लिये बहुत उत्तम माना गया है। यद्यपि—’भुक्तौ दक्षिणयात्रायां प्रतिष्ठायां द्विजन्मनि। आधाने च ध्वजारोहे मृत्युदः स्यात् सदाभिजित्॥’ इस ज्योतिष-रत्नाकर के वचन के अनुसार उक्त मुहूर्त में दक्षिणयात्रा निषिद्ध है, तथापि किष्किन्धा से लङ्का दक्षिणपूर्व के कोण में होने के कारण वह दोष यहाँ नहीं प्राप्त होता है।

सीतां हृत्वा तु तद् यातु क्वासौ यास्यति जीवितः।
सीता श्रुत्वाभियानं मे आशामेष्यति जीविते।
जीवितान्तेऽमृतं स्पृष्ट्वा पीत्वामृतमिवातुरः॥४॥

‘रावण सीता को हरकर ले जाय; किंतु वह जीवित बचकर कहाँ जायगा? सिद्ध आदि के मुँह से लङ्का पर मेरी चढ़ाई का समाचार सुनकर सीता को अपने जीवन की आशा बँध जायगी; ठीक उसी तरह जैसे जीवन का अन्त उपस्थित होने पर यदि रोगी अमृत का (अमृतत्व के साधनभूत दिव्य ओषधि का) स्पर्श कर ले अथवा अमृतोपम द्रवभूत ओषधि को पी ले तो उसे जीने की आशा हो जाती है॥४॥

उत्तराफाल्गुनी ह्यद्य श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते।
अभिप्रयाम सुग्रीव सर्वानीकसमावृताः॥५॥

‘आज उत्तराफाल्गुनी नामक नक्षत्र है। कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिये सुग्रीव ! हमलोग आज ही सारी सेनाओं के साथ यात्रा कर दें।

निमित्तानि च पश्यामि यानि प्रादुर्भवन्ति वै।
निहत्य रावणं सीतामानयिष्यामि जानकीम्॥६॥

‘इस समय जो शकुन प्रकट हो रहे हैं और जिन्हें मैं देख रहा हूँ, उनसे यह विश्वास होता है कि मैं अवश्य ही रावण का वध करके जनकनन्दिनी सीता को ले आऊँगा॥६॥

उपरिष्टाद्धि नयनं स्फुरमाणमिमं मम।
विजयं समनुप्राप्तं शंसतीव मनोरथम्॥७॥

‘इसके सिवा मेरी दाहिनी आँख का ऊपरी भाग फड़क रहा है। वह भी मानो मेरी विजय-प्राप्ति और मनोरथसिद्धि को सूचित कर रहा है’ ॥७॥

ततो वानरराजेन लक्ष्मणेन सुपूजितः।
उवाच रामो धर्मात्मा पुनरप्यर्थकोविदः॥८॥

यह सुनकर वानरराज सुग्रीव तथा लक्ष्मणने भी उनका बड़ा आदर किया। तत्पश्चात् अर्थवेत्ता (नीतिनिपुण) धर्मात्मा श्रीरामने फिर कहा- ॥८॥

अग्रे यातु बलस्यास्य नीलो मार्गमवेक्षितुम्।
वृतः शतसहस्रेण वानराणां तरस्विनाम्॥९॥

‘इस सेना के आगे-आगे एक लाख वेगवान् वानरों से घिरे हुए सेनापति नील मार्ग देखने के लिये चलें॥९॥

फलमूलवता नील शीतकाननवारिणा।
पथा मधुमता चाशु सेनां सेनापते नय॥१०॥

‘सेनापति नील! तुम सारी सेना को ऐसे मार्ग से शीघ्रतापूर्वक ले चलो, जिसमें फल-मूल की अधिकता हो, शीतल छाया से युक्त सघन वन हो, ठंडा जल मिल सके और मधु भी उपलब्ध हो सके॥ १० ॥

दूषयेयुर्दुरात्मानः पथि मूलफलोदकम्।
राक्षसाः पथि रक्षेथास्तेभ्यस्त्वं नित्यमुद्यतः॥११॥

‘सम्भव है दुरात्मा राक्षस रास्ते के फल-मूल और जल को विष आदि से दूषित कर दें, अतः तुम मार्ग में सतत सावधान रहकर उनसे इन वस्तुओं की रक्षा करना॥

निम्नेषु वनदुर्गेषु वनेषु च वनौकसः।
अभिप्लुत्याभिपश्येयुः परेषां निहितं बलम्॥१२॥

‘वानरों को चाहिये कि जहाँ गड्डे, दुर्गम वन और साधारण जंगल हों, वहाँ सब ओर कूद-फाँदकर यह देखते रहें कि कहीं शत्रुओं की सेना तो नहीं छिपी है (ऐसा न हो कि हम आगे निकल जायँ और शत्रु अकस्मात् पीछे से आक्रमण कर दे) ॥ १२॥

यत्तु फल्गु बलं किंचित् तदत्रैवोपपद्यताम्।
एतद्धि कृत्यं घोरं नो विक्रमेण प्रयुज्यताम्॥१३॥

“जिस सेना में बाल, वृद्ध आदि के कारण दुर्बलता हो, वह यहाँ किष्किन्धा में ही रह जाय; क्योंकि हमारा यह युद्धरूपी कृत्य बड़ा भयंकर है, अतः इसके लिये बल-विक्रमसम्पन्न सेना को ही यात्रा करनी चाहिये॥१३॥

सागरौघनिभं भीममग्रानीकं महाबलाः।
कपिसिंहाः प्रकर्षन्तु शतशोऽथ सहस्रशः॥१४॥

‘सैकड़ों और हजारों महाबली कपिकेसरी वीर महासागर की जलराशि के समान भयंकर एवं अपार वानर-सेना के अग्रभाग को अपने साथ आगे बढ़ाये चलें॥१४॥

गजश्च गिरिसंकाशो गवयश्च महाबलः।
गवाक्षश्चाग्रतो यातु गवां दृप्त इवर्षभः॥१५॥

‘पर्वत के समान विशालकाय गज, महाबली गवय तथा मतवाले साँड़ की भाँति पराक्रमी गवाक्ष सेना के आगे-आगे चलें॥ १५ ॥

यातु वानरवाहिन्या वानरः प्लवतां पतिः।
पालयन् दक्षिणं पार्श्वमृषभो वानरर्षभः॥१६॥

‘उछल-कूदकर चलने वाले कपियों के पालक वानरशिरोमणि ऋषभ इस वानर-सेना के दाहिने भाग की रक्षा करते हुए चलें॥ १६॥

गन्धहस्तीव दुर्धर्षस्तरस्वी गन्धमादनः।
यातु वानरवाहिन्याः सव्यं पार्श्वमधिष्ठितः॥१७॥

‘गन्धहस्ती के समान दुर्जय और वेगशाली वानर गन्धमादन इस वानर-वाहिनी के वामभाग में रहकर इसकी रक्षा करते हुए आगे बढ़ें॥ १७॥

यास्यामि बलमध्येऽहं बलौघमभिहर्षयन्।
अधिरुह्य हनमन्तमैरावतमिवेश्वरः॥१८॥

‘जैसे देवराज इन्द्र ऐरावत हाथीपर आरूढ़ होते हैं, उसी प्रकार मैं हनुमान् के कंधे पर चढ़कर सेना के बीच में रहकर सारी सेना का हर्ष बढ़ाता हुआ चलूँगा॥ १८॥

अङ्गदेनैष संयातु लक्ष्मणश्चान्तकोपमः।
सार्वभौमेन भूतेशो द्रविणाधिपतिर्यथा॥१९॥

‘जैसे धनाध्यक्ष कुबेर सार्वभौम नामक दिग्गज की पीठ पर बैठकर यात्रा करते हैं, उसी प्रकार काल के समान पराक्रमी लक्ष्मण अंगदपर आरूढ़ होकर यात्रा करें॥ १९॥

जाम्बवांश्च सुषेणश्च वेगदर्शी च वानरः।
ऋक्षराजो महाबाहुः कुक्षिं रक्षन्तु ते त्रयः॥२०॥

‘महाबाहु ऋक्षराज जाम्बवान्, सुषेण और वानर वेगदर्शी-ये तीनों वानर सेना के पृष्ठभाग की रक्षा करें॥

राघवस्य वचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाहिनीपतिः।
व्यादिदेश महावीर्यो वानरान् वानरर्षभः॥२१॥

रघुनाथजी का यह वचन सुनकर महापराक्रमी वानरशिरोमणि सेनापति सुग्रीव ने उन वानरों को यथोचित आज्ञा दी॥२१॥

ते वानरगणाः सर्वे समुत्पत्य महौजसः।
गुहाभ्यः शिखरेभ्यश्च आशु पुप्लुविरे तदा॥२२॥

तब वे समस्त महाबली वानरगण अपनी गुफाओं और शिखरों से शीघ्र ही निकलकर उछलते-कूदते हुए चलने लगे॥ २२॥

ततो वानरराजेन लक्ष्मणेन च पूजितः।
जगाम रामो धर्मात्मा ससैन्यो दक्षिणां दिशम्॥२३॥

तत्पश्चात् वानरराज सुग्रीव और लक्ष्मण के सादर अनुरोध करने पर सेनासहित धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुए॥ २३॥

शतैः शतसहस्रैश्च कोटिभिश्चायुतैरपि।
वारणाभैश्च हरिभिर्ययौ परिवृतस्तदा ॥२४॥

उस समय सैकड़ों, हजारों, लाखों और करोड़ों वानरों से, जो हाथी के समान विशालकाय थे, घिरे हुए श्रीरघुनाथजी आगे बढ़ने लगे॥ २४॥

तं यान्तमनुयान्ती सा महती हरिवाहिनी।
हृष्टाः प्रमुदिताः सर्वे सुग्रीवेणापि पालिताः॥२५॥

यात्रा करते हुए श्रीराम के पीछे वह विशाल वानरवाहिनी चलने लगी। उस सेना के सभी वीर सुग्रीव से पालित होने के कारण हृष्ट-पुष्ट एवं प्रसन्न थे॥ २५॥

आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः।
क्ष्वेलन्तो निनदन्तश्च जग्मुर्वै दक्षिणां दिशम्॥२६॥

उनमें से कुछ वानर उस सेना की रक्षा के लिये उछलते-कूदते हुए चारों ओर चक्कर लगाते थे, कुछ मार्गशोधन के लिये कूदते-फाँदते आगे बढ़ जाते थे, कुछ वानर मेघों के समान गर्जते, कुछ सिंहों के समान दहाड़ते और कुछ किलकारियाँ भरते हुए दक्षिण दिशा की ओर अग्रसर हो रहे थे॥ २६॥

भक्षयन्तः सुगन्धीनि मधूनि च फलानि च।
उदहन्तो महावृक्षान् मञ्जरीपुञ्जधारिणः॥ २७॥

वे सुगन्धित मधु पीते और मीठे फल खाते हुए मञ्जरी-पुञ्ज धारण करने वाले विशाल वृक्षों को उखाड़कर कंधों पर लिये चल रहे थे॥ २७॥

अन्योन्यं सहसा दृप्ता निर्वहन्ति क्षिपन्ति च।
पतन्तश्चोत्पतन्त्यन्ये पातयन्त्यपरे परान्॥२८॥

कुछ मतवाले वानर विनोद के लिये एक दूसरे को ढो रहे थे। कोई अपने ऊपर चढ़े हुए वानर को झटककर दूर फेंक देते थे। कोई चलते-चलते ऊपर को उछल पड़ते थे और दूसरे वानर दूसरों दूसरों को ऊपर से धक्के देकर नीचे गिरा देते थे॥२८॥

रावणो नो निहन्तव्यः सर्वे च रजनीचराः।
इति गर्जन्ति हरयो राघवस्य समीपतः॥२९॥

श्रीरघुनाथजी के समीप चलते हुए वानर यह कहते हुए गर्जना करते थे कि ‘हमें रावण को मार डालना चाहिये। समस्त निशाचरों का भी संहार कर देना चाहिये’॥

पुरस्तादृषभो नीलो वीरः कुमुद एव च।
पन्थानं शोधयन्ति स्म वानरैर्बहभिः सह ॥३०॥

सबसे आगे ऋषभ, नील और वीर कुमुद ये बहुसंख्यक वानरों के साथ रास्ता ठीक करते जाते थे॥३०॥

मध्ये तु राजा सुग्रीवो रामो लक्ष्मण एव च।
बलिभिर्बहुभिर्भीमैर्वृतः शत्रुनिबर्हणः॥३१॥

सेना के मध्यभाग में राजा सुग्रीव, श्रीराम और लक्ष्मण—ये तीनों शत्रुसूदन वीर अनेक बलशाली एवं भयंकर वानरों से घिरे हुए चल रहे थे॥३१॥

हरिः शतबलिर्वीरः कोटिभिर्दशभिर्वृतः।
सर्वामेको ह्यवष्टभ्य ररक्ष हरिवाहिनीम्॥३२॥

शतबलि नाम का एक वीर वानर दस करोड़ वानरों के साथ अकेला ही सारी सेना को अपने नियन्त्रण में रखकर उसकी रक्षा करता था॥ ३२॥

कोटीशतपरीवारः केसरी पनसो गजः।
अर्कश्च बहुभिः पार्श्वमेकं तस्याभिरक्षति॥

सौ करोड़ वानरों से घिरे हुए केसरी और पनस—ये सेना के एक (दक्षिण) भागकी तथा बहुत-से वानर सैनिकों को साथ लिये गज और अर्क—ये उस वानर-सेना के दूसरे (वाम) भाग की रक्षा करते थे। ३३॥

सुषेणो जाम्बवांश्चैव ऋक्षैर्बहुभिरावृतौ।
सुग्रीवं पुरतः कृत्वा जघनं संररक्षतुः॥ ३४॥

बहुसंख्यक भालुओं से घिरे हुए सुषेण और जाम्बवान्—ये दोनों सुग्रीव को आगे करके सेना के पिछले भाग की रक्षा कर रहे थे॥३४॥

तेषां सेनापतिर्वीरो नीलो वानरपुंगवः।
सम्पतन् प्लवतां श्रेष्ठस्तद् बलं पर्यवारयत्॥३५॥

उन सबके सेनापति कपिश्रेष्ठ वानरशिरोमणि वीरवर नील उस सेना की सब ओर से रक्षा एवं नियन्त्रण कर रहे थे॥ ३५ ॥

दरीमुखः प्रजङ्घश्च जम्भोऽथ रभसः कपिः।
सर्वतश्च ययुर्वीरास्त्वरयन्तः प्लवंगमान्॥३६॥

दरीमुख, प्रजन, जम्भ और रभस—ये वीर सब ओर से वानरों को शीघ्र आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए चल रहे थे॥ ३६॥

एवं ते हरिशार्दूला गच्छन्ति बलदर्पिताः।
अपश्यन्त गिरिश्रेष्ठं सां गिरिशतायुतम्॥३७॥

इस प्रकार वे बलोन्मत्त कपि-केसरी वीर बराबर आगे बढ़ते गये। चलते-चलते उन्होंने पर्वतश्रेष्ठ सह्यगिरि को देखा, जिसके आस-पास और भी सैकड़ों पर्वत थे॥ ३७॥

सरांसि च सुफुल्लानि तटाकानि वराणि च।
रामस्य शासनं ज्ञात्वा भीमकोपस्य भीतवत्॥३८॥
वर्जयन् नागराभ्याशांस्तथा जनपदानपि।
सागरौघनिभं भीमं तद् वानरबलं महत्॥३९॥
निःससर्प महाघोरं भीमघोषमिवार्णवम्।

रास्ते में उन्हें बहुत-से सुन्दर सरोवर और तालाब दिखायी दिये, जिनमें मनोहर कमल खिले हुए थे। श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा थी कि रास्ते में कोई किसी प्रकार का उपद्रव न करे। भयंकर कोपवाले श्रीरामचन्द्रजी के इस आदेश को जानकर समुद्र के जलप्रवाह की भाँति अपार एवं भयंकर दिखायी देने वाली वह विशाल वानरसेना भयभीत-सी होकर नगरों के समीपवर्ती स्थानों और जनपदों को दूर से ही छोड़ती चली जा रही थी। विकट गर्जना करने के कारण भयानक शब्दवाले समुद्र की भाँति वह महाघोर जान पड़ती थी॥ ३८-३९ १/२॥

तस्य दाशरथेः पार्वे शूरास्ते कपिकुञ्जराः॥४०॥
तूर्णमापुप्लुवुः सर्वे सदश्वा इव चोदिताः।

वे सभी शूरवीर कपिकुञ्जर हाँके गये अच्छे घोड़ों की भाँति उछलते-कूदते हुए तुरंत ही दशरथनन्दन श्रीराम के पास पहुँच जाते थे॥ ४० १/२॥

कपिभ्यामुह्यमानौ तौ शुशुभाते नरर्षभौ॥४१॥
महद्भयामिव संस्पृष्टौ ग्रहाभ्यां चन्द्रभास्करौ।

हनुमान् और अंगद-इन दो वानर वीरों द्वारा ढोये जाते हुए वे नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण शुक्र और बृहस्पति—इन दो महाग्रहों से संयुक्त हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान शोभा पा रहे थे॥ ४१ १/२॥

ततो वानरराजेन लक्ष्मणेन सुपूजितः॥४२॥
जगाम रामो धर्मात्मा ससैन्यो दक्षिणां दिशम्।

उस समय वानरराज सुग्रीव और लक्ष्मण से सम्मानित हुए धर्मात्मा श्रीराम सेनासहित दक्षिण दिशा की ओर बढ़े जा रहे थे॥ ४२ १/२॥

तमङ्गदगतो राम लक्ष्मणः शुभया गिरा॥४३॥
उवाच परिपूर्णार्थं पूर्णार्थप्रतिभानवान्।

लक्ष्मणजी अंगद के कंधे पर बैठे हुए थे। वे शकुनों के द्वारा कार्यसिद्धि की बात अच्छी तरह जान लेते थे। उन्होंने पूर्णकाम भगवान् श्रीराम से मङ्गलमयी वाणी में कहा- ॥ ४३ १/२॥

हृतामवाप्य वैदेहीं क्षिप्रं हत्वा च रावणम्॥४४॥
समृद्धार्थः समृद्धार्थामयोध्यां प्रतियास्यसि।
महान्ति च निमित्तानि दिवि भूमौ च राघव॥४५॥
शुभानि तव पश्यामि सर्वाण्येवार्थसिद्धये।

‘रघुनन्दन! मुझे पृथ्वी और आकाश में बहुत अच्छे-अच्छे शकुन दिखायी देते हैं। ये सब आपके मनोरथ की सिद्धि को सूचित करते हैं। इनसे निश्चय होता है कि आप शीघ्र ही रावण को मारकर हरी हुई सीताजी को प्राप्त करेंगे और सफल मनोरथ होकर समृद्धिशालिनी अयोध्या को पधारेंगे॥ ४४-४५ १/२॥

अनुवाति शिवो वायुः सेनां मृदुहितः सुखः॥४६॥
पूर्णवल्गुस्वराश्चेमे प्रवदन्ति मृगद्विजाः।
प्रसन्नाश्च दिशः सर्वा विमलश्च दिवाकरः॥४७॥
उशना च प्रसन्नार्चिरनु त्वां भार्गवो गतः।
ब्रह्मराशिर्विशुद्धश्च शुद्धाश्च परमर्षयः।
अर्चिष्मन्तः प्रकाशन्ते ध्रुवं सर्वे प्रदक्षिणम्॥४८॥

‘देखिये सेना के पीछे शीतल, मन्द, हितकर और सुखमय समीर चल रहा है। ये पशु और पक्षी पूर्ण मधुर स्वर में अपनी-अपनी बोली बोल रहे हैं। सब दिशाएँ प्रसन्न हैं। सूर्यदेव निर्मल दिखायी दे रहे हैं। भृगुनन्दन शुक्र भी अपनी उज्ज्वल प्रभा से प्रकाशित हो आपके पीछे की दिशा में प्रकाशित हो रहे हैं। जहाँ सप्तर्षियों का समुदाय शोभा पाता है, वह ध्रुवतारा भी निर्मल दिखायी देता है। शुद्ध और प्रकाशमान समस्त सप्तर्षिगण ध्रुव को अपने दाहिने रखकर उनकी परिक्रमा करते हैं॥ ४६–४८॥

त्रिशङ्कर्विमलो भाति राजर्षिः सपुरोहितः।
पितामहः पुरोऽस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनाम्॥४९॥

‘हमारे साथ ही महामना इक्ष्वाकुवंशियों के पितामह राजर्षि त्रिशंकु अपने पुरोहित वसिष्ठजी के साथ हमलोगों के सामने ही निर्मल कान्ति से प्रकाशित हो रहे हैं॥ ४९॥

विमले च प्रकाशेते विशाखे निरुपद्रवे।
नक्षत्रं परमस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनाम्॥५०॥

‘हम महामनस्वी इक्ष्वाकुवंशियों के लिये जो सबसे उत्तम है, वह विशाखा नामक युगल नक्षत्र निर्मल एवं उपद्रवशून्य (मंगल आदि दुष्ट ग्रहों की आक्रान्ति से रहित) होकर प्रकाशित हो रहा है॥ ५० ॥

नैर्ऋतं नैर्ऋतानां च नक्षत्रमतिपीड्यते।
मूलो मूलवता स्पृष्टो धूप्यते धूमकेतुना॥५१॥

‘राक्षसों का नक्षत्र मूल, जिसके देवता निर्ऋति हैं, अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। उस मूल के नियामक धूमकेतु से आक्रान्त होकर वह संताप का भागी हो रहा है॥५१॥

सर्वं चैतद् विनाशाय राक्षसानामुपस्थितम्।
काले कालगृहीतानां नक्षत्रं ग्रहपीडितम्॥५२॥

‘यह सब कुछ राक्षसों के विनाश के लिये ही उपस्थित हुआ है; क्योंकि जो लोग कालपाश में बँधे होते हैं, उन्हीं का नक्षत्र समयानुसार ग्रहों से पीड़ित होता है।

प्रसन्नाः सुरसाश्चापो वनानि फलवन्ति च।
प्रवान्ति नाधिका गन्धा यथर्तुकुसुमा द्रुमाः॥५३॥

‘जल स्वच्छ और उत्तम रस से पूर्ण दिखायी देता है, जंगलों में पर्याप्त फल उपलब्ध होते हैं, सुगन्धित वायु अधिक तीव्रगति से नहीं बह रही है और वृक्षों में ऋतुओं के अनुसार फूल लगे हुए हैं॥ ५३॥

व्यूढानि कपिसैन्यानि प्रकाशन्तेऽधिकं प्रभो।
देवानामिव सैन्यानि संग्रामे तारकामये।
एवमार्य समीक्ष्यैतत् प्रीतो भवितुमर्हसि ॥५४॥

‘प्रभो! व्यूहबद्ध वानरी सेना बड़ी शोभासम्पन्न जान पड़ती है। तारकामय संग्राम के अवसर पर देवताओं की सेनाएँ जिस तरह उत्साह से सम्पन्न थीं, इसी प्रकार आज ये वानर-सेनाएँ भी हैं। आर्य! ऐसे शुभ लक्षण देखकर आपको प्रसन्न होना चाहिये।५४॥

इति भ्रातरमाश्वास्य हृष्टः सौमित्रिरब्रवीत्।
अथावृत्य महीं कृत्स्नां जगाम हरिवाहिनी॥५५॥

अपने भाई श्रीराम को आश्वासन देते हुए हर्ष से भरे सुमित्राकुमार लक्ष्मण जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय वानरों की सेना वहाँ की सारी भूमि को घेरकर आगे बढ़ने लगी॥ ५५ ॥

ऋक्षवानरशार्दूलैर्नखद्रंष्ट्रायुधैरपि।
कराग्रैश्चरणाग्रैश्च वानरैरुद्धतं रजः॥५६॥

उस सेना में कुछ रीछ थे और कुछ सिंह के समान पराक्रमी वानर। नख और दाँत ही उनके शस्त्र थे। वे सभी वानर सैनिक हाथों और पैरों की अंगुलियों से बड़ी धूल उड़ा रहे थे॥५६॥

भीममन्तर्दधे लोकं निवार्य सवितुः प्रभाम्।
सपर्वतवनाकाशं दक्षिणां हरिवाहिनी॥५७॥
छादयन्ती ययौ भीमा द्यामिवाम्बुदसंततिः।

उनकी उड़ायी हुई उस भयंकर धूल ने सूर्य की प्रभा को ढककर सम्पूर्ण जगत् को छिपा-सा दिया। वह भयानक वानर सेना पर्वत, वन और आकाशसहित दक्षिण दिशा को आच्छादित-सी करती हुई उसी तरह आगे बढ़ रही थी, जैसे मेघों की घटा आकाश को ढककर अग्रसर होती है। ५७ १/२॥

उत्तरन्त्याश्च सेनायाः सततं बहुयोजनम्॥५८॥
नदीस्रोतांसि सर्वाणि सस्यन्दुर्विपरीतवत्।

वह वानरी सेना जब किसी नदी को पार करती थी, उस समय लगातार कई योजनों तक उसकी समस्त धाराएँ उलटी बहने लगती थीं॥ ५८ १/२ ॥

सरांसि विमलाम्भांसि द्रुमाकीर्णाश्च पर्वतान्॥५९॥
समान् भूमिप्रदेशांश्च वनानि फलवन्ति च।
मध्येन च समन्ताच्च तिर्यक् चाधश्च साविशत्॥६०॥
समावृत्य महीं कृत्स्नां जगाम महती चमूः।

वह विशाल सेना निर्मल जलवाले सरोवर, वृक्षों से ढके हुए पर्वत, भूमि के समतल प्रदेश और फलों से भरे हुए वन—इन सभी स्थानों के मध्य में, इधर-उधर तथा ऊपर-नीचे सब ओर की सारी भूमि को घेरकर चल रही थी॥ ५९-६० १/२॥

ते हृष्टवदनाः सर्वे जग्मुर्मारुतरंहसः॥६१॥
हरयो राघवस्यार्थे समारोपितविक्रमाः।

उस सेना के सभी वानर प्रसन्नमुख तथा वायु के समान वेगवाले थे। रघुनाथजी की कार्यसिद्धि के लिये उनका पराक्रम उबला पड़ता था॥ ६१ १/२॥

हर्षं वीर्यं बलोद्रेकान् दर्शयन्तः परस्परम्॥६२॥
यौवनोत्सेकजाद् दर्पाद् विविधांश्चक्रुरध्वनि।

वे जवानी के जोश और अभिमानजनित दर्प के कारण रास्ते में एक-दूसरे को उत्साह, पराक्रम तथा नाना प्रकार के बल-सम्बन्धी उत्कर्ष दिखा रहे थे। ६२ १/२॥

तत्र केचिद् द्रुतं जग्मुरुत्पेतुश्च तथापरे॥६३॥
केचित् किलकिलां चक्रुर्वानरा वनगोचराः।
प्रास्फोटयंश्च पुच्छानि संनिजघ्नुः पदान्यपि॥६४॥

उनमें से कोई तो बड़ी तेजी से भूतल पर चलते थे और दूसरे उछलकर आकाश में उड़ जाते थे। कितने ही वनवासी वानर किलकारियाँ भरते, पृथ्वी पर अपनी पूँछ फटकारते और पैर पटकते थे॥ ६३-६४॥

भुजान् विक्षिप्य शैलांश्च द्रुमानन्ये बभञ्जिरे।
आरोहन्तश्च शृङ्गाणि गिरीणां गिरिगोचराः॥६५॥

कितने ही अपनी बाँहें फैलाकर पर्वत-शिखरों और वृक्षों को तोड़ डालते थे तथा पर्वतों पर विचरने वाले बहुतेरे वानर पहाड़ों की चोटियों पर चढ़ जाते थे। ६५॥

महानादान् प्रमुञ्चन्ति क्ष्वेडामन्ये प्रचक्रिरे।
ऊरुवेगैश्च ममृदुर्लताजालान्यनेकशः॥६६॥

कोई बड़े जोर से गर्जते और कोई सिंहनाद करते थे। कितने ही अपनी जाँघों के वेग से अनेकानेक लता-समूहों को मसल डालते थे॥६६॥

जृम्भमाणाश्च विक्रान्ता विचिक्रीडुः शिलाद्रुमैः।
ततः शतसहस्रैश्च कोटिभिश्च सहस्रशः॥६७॥
वानराणां सुघोराणां श्रीमत्परिवृता मही।

वे सभी वानर बड़े पराक्रमी थे। अंगड़ाई लेते हुए पत्थर की चट्टानों और बड़े-बड़े वृक्षों से खेल करते थे। उन सहस्रों, लाखों और करोड़ों वानरों से घिरी हुई सारी पृथ्वी बड़ी शोभा पाती थी॥ ६७ १/२ ॥

सा स्म याति दिवारानं महती हरिवाहिनी॥६८॥
प्रहृष्टमुदिताः सर्वे सुग्रीवेणाभिपालिताः।
वानरास्त्वरिता यान्ति सर्वे युद्धाभिनन्दिनः।
प्रमोक्षयिषवः सीतां मुहूर्तं क्वापि नावसन्॥६९॥

इस प्रकार वह विशाल वानरसेना दिन-रात चलती रही। सुग्रीव से सुरक्षित सभी वानर हृष्ट-पुष्ट और प्रसन्न थे। सभी बड़ी उतावली के साथ चल रहे थे। सभी युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे और सभी सीताजी को रावण की कैद से छुड़ाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने रास्ते में कहीं दो घड़ी भी विश्राम नहीं लिया॥

ततः पादपसम्बाधं नानावनसमायुतम्।
सह्यपर्वतमासाद्य वानरास्ते समारुहन्॥७०॥

चलते-चलते घने वृक्षों से व्याप्त और अनेकानेक काननों से संयुक्त सह्य पर्वत के पास पहुँचकर वे सब वानर उसके ऊपर चढ़ गये॥ ७० ॥

काननानि विचित्राणि नदीप्रस्रवणानि च।
पश्यन्नपि ययौ रामः सह्यस्य मलयस्य च॥७१॥

श्रीरामचन्द्रजी सह्य और मलय के विचित्र काननों, नदियों तथा झरनों की शोभा देखते हुए यात्रा कर रहे थे॥

चम्पकांस्तिलकांश्चूतानशोकान् सिन्दुवारकान्।
तिनिशान् करवीरांश्च भञ्जन्ति स्म प्लवंगमाः॥७२॥

वे वानर मार्ग में मिले हुए चम्पा, तिलक, आम, अशोक, सिन्दुवार, तिनिश और करवीर आदि वृक्षों को तोड़ देते थे। ७२॥

अङ्कोलांश्च करजांश्च प्लक्षन्यग्रोधपादपान्।
जम्बूकामलकान् नीपान् भञ्जन्ति स्म प्लवंगमाः॥७३॥

उछल-उछलकर चलने वाले वे वानरसैनिक रास्ते के अंकोल, करंज, पाकड़, बरगद, जामुन, आँवले और नीप आदि वृक्षों को भी तोड़ डालते थे॥७३॥

प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधाः काननद्रुमाः।
वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति तान्॥७४॥

रमणीय पत्थरों पर उगे हुए नाना प्रकार के जंगली वृक्ष वायु के झोंके से झूम-झूमकर उन वानरों पर फूलों की वर्षा करते थे॥ ७४॥

मारुतः सुखसंस्पर्शो वाति चन्दनशीतलः।
षट्पदैरनुकूजद्भिर्वनेषु मधुगन्धिषु॥७५॥

मधु से सुगन्धित वनों में गुनगुनाते हुए भौंरों के साथ चन्दनके समान शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चल रही थी॥ ७५॥

अधिकं शैलराजस्तु धातुभिस्तु विभूषितः।
धातुभ्यः प्रसृतो रेणुर्वायुवेगेन घट्टितः॥७६॥
सुमहदानरानीकं छादयामास सर्वतः।

वह पर्वतराज गैरिक आदि धातुओं से विभूषित हो बड़ी शोभा पा रहा था। उन धातुओं से फैली हुई धूल वायु के वेग से उड़कर उस विशाल वानरसेना को सब ओरसे आच्छादित कर देती थी॥ ७६ १/२॥

गिरिप्रस्थेषु रम्येषु सर्वतः सम्प्रपुष्पिताः॥७७॥
केतक्यः सिन्दुवाराश्च वासन्त्यश्च मनोरमाः।
माधव्यो गन्धपूर्णाश्च कुन्दगुल्माश्च पुष्पिताः॥७८॥

रमणीय पर्वतशिखरोंपर सब ओर खिली हुई केतकी, सिन्दुवार और वासन्ती लताएँ बड़ी मनोरम जान पड़ती थीं। प्रफुल्ल माधवी लताएँ सुगन्ध से भरी थीं और कुन्दकी झाड़ियाँ भी फूलों से लदी हुई थीं। ७७-७८॥

चिरिबिल्वा मधूकाश्च वञ्जुला बकुलास्तथा।
रञ्जकास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः॥७९॥

चिरिबिल्व, मधूक (महुआ), वञ्जुल, बकुल, रंजक, तिलक और नागकेसर के वृक्ष भी वहाँ खिले हुए थे।

चूताः पाटलिकाश्चैव कोविदाराश्च पुष्पिताः।
मुचुलिन्दार्जुनाश्चैव शिंशपाः कुटजास्तथा॥८०॥
हिन्तालास्तिनिशाश्चैव चूर्णका नीपकास्तथा।
नीलाशोकाश्च सरला अङ्कोलाः पद्मकास्तथा॥८१॥

आम, पाडर और कोविदार भी फूलों से लदे थे। मुचुलिन्द, अर्जुन, शिंशपा, कुटज, हिंताल, तिनिश, चूर्णक, कदम्ब, नीलाशोक, सरल, अंकोल और पद्मक भी सुन्दर फूलों से सुशोभित थे॥ ८०-८१॥

प्रीयमाणैः प्लवंगैस्तु सर्वे पर्याकुलीकृताः।
वाप्यस्तस्मिन् गिरौ रम्याः पल्वलानि तथैव च॥८२॥
चक्रवाकानुचरिताः कारण्डवनिषेविताः।
प्लवैः क्रौञ्चैश्च संकीर्णा वराहमृगसेविताः॥८३॥

प्रसन्नता से भरे हुए वानरों ने उन सब वृक्षों को घेर लिया था। उस पर्वत पर बहुत-सी रमणीय बावड़ियाँ तथा छोटे-छोटे जलाशय थे, जहाँ चकवे विचरते और जलकुक्कुट निवास करते थे। जलकाक और क्रौञ्च भरे हुए थे तथा सूअर और हिरन उनमें पानी पीते थे॥

ऋक्षस्तरक्षुभिः सिंहैः शार्दूलैश्च भयावहैः।
व्यालैश्च बहुभिर्भीमैः सेव्यमानाः समन्ततः॥८४॥

रीछ, तरक्षु (लकड़बग्घे), सिंह, भयंकर बाघ तथा बहुसंख्यक दुष्ट हाथी, जो बड़े भीषण थे, सब ओर से आ-आकर उन जलाशयों का सेवन करते थे। ८४॥

पद्मः सौगन्धिकैः फुल्लैः कुमुदैश्चोत्पलैस्तथा।
वारिजैर्विविधैः पुष्पै रम्यास्तत्र जलाशयाः॥८५॥

खिले हुए सुगन्धित कमल, कुमुद, उत्पल तथा जल में होने वाले भाँति-भाँति के अन्य पुष्पों से वहाँ के जलाशय बड़े रमणीय दिखायी देते थे॥ ८५ ॥

तस्य सानुषु कूजन्ति नानाद्विजगणास्तथा।
स्नात्वा पीत्वोदकान्यत्र जले क्रीडन्ति वानराः॥८६॥

उस पर्वत के शिखरों पर नाना प्रकार के पक्षी कलरव करते थे। वानर उन जलाशयों में नहाते, पानी पीते और जल में क्रीड़ा करते थे॥८६॥

अन्योन्यं प्लावयन्ति स्म शैलमारुह्य वानराः।
फलान्यमृतगन्धीनि मूलानि कुसुमानि च॥८७॥
बभञ्जुर्वानरास्तत्र पादपानां मदोत्कटाः।
द्रोणमात्रप्रमाणानि लम्बमानानि वानराः॥८८॥
ययुः पिबन्तः स्वस्थास्ते मधूनि मधुपिङ्गलाः।

वे आपस में एक-दूसरे पर पानी भी उछालते थे। कुछ वानर पर्वत पर चढ़कर वहाँ के वृक्षों के अमृततुल्य मीठे फलों, मूलों और फूलों को तोड़ते थे। मधु के समान वर्णवाले कितने ही मदमत्त वानर वृक्षों में लटके और एक-एक द्रोण शहद से भरे हुए मधु के छत्तों को तोड़कर उनका मधु पी लेते और स्वस्थ (संतुष्ट) होकर चलते थे॥ ८७-८८ १/२॥

पादपानवभञ्जन्तो विकर्षन्तस्तथा लताः॥८९॥
विधमन्तो गिरिवरान् प्रययुः प्लवगर्षभाः।

पेड़ों को तोड़ते, लताओं को खींचते और बड़े-बड़े पर्वतों को प्रतिध्वनित करते हुए वे श्रेष्ठ वानर तीव्र गति से आगे बढ़ रहे थे। ८९ १/२॥

वृक्षेभ्योऽन्ये तु कपयो नदन्तो मधु दर्पिताः॥९०॥
अन्ये वृक्षान् प्रपद्यन्ते प्रपिबन्त्यपि चापरे।

दूसरे वानर दर्प में भरकर वृक्षों से मधु के छत्ते उतार लेते और जोर-जोर से गर्जना करते थे। कुछ वानर वृक्षों पर चढ़ जाते और कुछ मधु पीने लगते थे॥९०१/२॥

बभूव वसुधा तैस्तु सम्पूर्णा हरिपुङ्गवैः।
यथा कमलकेदारैः पक्वैरिव वसुंधरा॥९१॥

उन वानरशिरोमणियों से भरी हुई वहाँ की भूमि पके हुए बालवाले कलमी धानों की क्यारियों से ढकी हुई धरती के समान सुशोभित हो रही थी॥९१॥

महेन्द्रमथ सम्प्राप्य रामो राजीवलोचनः।
आरुरोह महाबाहुः शिखरं द्रुमभूषितम्॥९२॥

कमलनयन महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी महेन्द्र पर्वत के पास पहुँचकर भाँति-भाँति के वृक्षों से सुशोभित उसके शिखर पर चढ़ गये॥ ९२॥

ततः शिखरमारुह्य रामो दशरथात्मजः।
कूर्ममीनसमाकीर्णमपश्यत् सलिलाशयम्॥९३॥

महेन्द्र पर्वत के शिखर पर आरूढ़ हो दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम ने कछुओं और मत्स्यों से भरे हुए समुद्र को देखा॥९३॥

ते सह्यं समतिक्रम्य मलयं च महागिरिम्।
आसेदुरानुपूर्येण समुद्रं भीमनिःस्वनम्॥९४॥

इस प्रकार वे सह्य तथा मलय को लाँघकर क्रमशः महेन्द्र पर्वत के समीपवर्ती समुद्र के तट पर जा पहुँचे, जहाँ बड़ा भयंकर शब्द हो रहा था॥९४ ।।

अवरुह्य जगामाशु वेलावनमनुत्तमम्।
रामो रमयतां श्रेष्ठः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः॥ ९५॥

उस पर्वत से उतरकर भक्तों के मन को रमाने वालों में श्रेष्ठ भगवान् श्रीराम सुग्रीव और लक्ष्मण के साथ शीघ्र ही सागर-तटवर्ती परम उत्तम वन में जा पहुँचे।९५ ॥

अथ धौतोपलतलां तोयौघैः सहसोत्थितैः।
वेलामासाद्य विपुलां रामो वचनमब्रवीत्॥९६॥

जहाँ सहसा उठी हुई जल की तरङ्गों से प्रस्तर की शिलाएँ धुल गयी थीं, उस विस्तृत सिन्धुतट पर पहुँचकर श्रीराम ने कहा- ॥९६॥

एते वयमनुप्राप्ताः सुग्रीव वरुणालयम्।
इहेदानीं विचिन्ता सा या नः पूर्वमुपस्थिता॥९७॥

‘सुग्रीव! लो, हम सब लोग समुद्र के किनारे तो आ गये। अब यहाँ मन में फिर वही चिन्ता उत्पन्न हो गयी, जो हमारे सामने पहले उपस्थित थी॥९७॥

अतः परमतीरोऽयं सागरः सरितां पतिः।
न चायमनुपायेन शक्यस्तरितुमर्णवः॥९८॥

‘इससे आगे तो यह सरिताओं का स्वामी महासागर ही विद्यमान है, जिसका कहीं पार नहीं दिखायी देता। अब बिना किसी समुचित उपाय के सागर को पार करना असम्भव है॥९८॥

तदिहैव निवेशोऽस्तु मन्त्रः प्रस्तूयतामिह।
यथेदं वानरबलं परं पारमवाप्नुयात्॥९९॥

‘इसलिये यहीं सेना का पड़ाव पड़ जाय और हमलोग यहाँ बैठकर यह विचार आरम्भ करें कि किस प्रकार यह वानर-सेना समुद्र के उस पार तक पहुँच सकती है’। ९९॥

इतीव स महाबाहुः सीताहरणकर्शितः।
रामः सागरमासाद्य वासमाज्ञापयत् तदा ॥१०॥

इस प्रकार सीताहरण के शोक से दुर्बल हुए महाबाहु श्रीराम ने समुद्र के किनारे पहुँचकर उस समय सारी सेना को वहाँ ठहरने की आज्ञा दी॥ १०० ॥

सर्वाः सेना निवेश्यन्तां वेलायां हरिपुङ्गव।
सम्प्राप्तो मन्त्रकालो नः सागरस्येह लङ्घने॥१०१॥

वे बोले—’कपिश्रेष्ठ! समस्त सेनाओं को समुद्र के तट पर ठहराया जाय। अब यहाँ हमारे लिये समुद्रलङ्घन के उपाय पर विचार करने का अवसर प्राप्त हुआ है। १०१॥

स्वां स्वां सेनां समुत्सृज्य मा च कश्चित् कुतो व्रजेत्।
गच्छन्तु वानराः शूरा ज्ञेयं छन्नं भयं च नः॥ १०२॥

‘इस समय कोई भी सेनापति किसी भी कारण से अपनी-अपनी सेना को छोड़कर कहीं अन्यत्र न जाय। समस्त शूरवीर वानर-सेना की रक्षा के लिये यथास्थान चले जायँ। सबको यह जान लेना चाहिये कि हमलोगों पर राक्षसों की माया से गुप्त भय आ सकता है’॥ १०२॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा सुग्रीवः सहलक्ष्मणः।
सेनां निवेशयत् तीरे सागरस्य द्रुमायुते॥१०३॥

श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मणसहित सुग्रीव ने वृक्षावलियों से सुशोभित सागर-तट पर सेना को ठहरा दिया॥ १०३॥

विरराज समीपस्थं सागरस्य च तद् बलम्।
मधुपाण्डुजलः श्रीमान् द्वितीय इव सागरः॥१०४॥

समुद्र के पास ठहरी हुई वह विशाल वानर-सेना मधु के समान पिङ्गलवर्ण के जल से भरे हुए दूसरे सागर की-सी शोभा धारण करती थी॥ १०४॥

वेलावनमुपागम्य ततस्ते हरिपुङ्गवाः।
निविष्टाश्च परं पारं काङ्क्षमाणा महोदधेः॥१०५॥

सागर-तटवर्ती वन में पहुँचकर वे सभी श्रेष्ठ वानर समुद्र के उस पार जाने की अभिलाषा मन में लिये वहीं ठहर गये॥ १०५॥

तेषां निविशमानानां सैन्यसंनाहनिःस्वनः।
अन्तर्धाय महानादमर्णवस्य प्रशुश्रुवे॥१०६॥

वहाँ डेरा डालते हुए उन श्रीराम आदि की सेनाओं के संचरण से जो महान् कोलाहल हुआ, वह महासागर की गम्भीर गर्जना को भी दबाकर सुनायी देने लगा॥ १०६॥

सा वानराणां ध्वजिनी सुग्रीवेणाभिपालिता।
त्रिधा निविष्टा महती रामस्यार्थपराभवत्॥१०७॥

सुग्रीव द्वारा सुरक्षित वह वानरों की विशाल सेना श्रीरामचन्द्रजी के कार्य-साधन में तत्पर हो रीछ, लंगूर और वानरों के भेद से तीन भागों में विभक्त होकर ठहर गयी॥

सा महार्णवमासाद्य हृष्टा वानरवाहिनी।
वायुवेगसमाधूतं पश्यमाना महार्णवम्॥१०८॥

महासागर के तटपर पहुँचकर वह वानर-सेना वायुके वेगसे कम्पित हुए समुद्र की शोभा देखती हुई बड़े हर्षका अनुभव करती थी॥ १०८ ॥

दूरपारमसम्बाधं रक्षोगणनिषेवितम्।
पश्यन्तो वरुणावासं निषेदुर्हरियूथपाः॥१०९॥

जिसका दूसरा तट बहुत दूर था और बीच में कोई आश्रय नहीं था तथा जिसमें राक्षसों के समुदाय निवास करते थे, उस वरुणालय समुद्र को देखते हुए वे वानर-यूथपति उसके तट पर बैठे रहे ॥ १०९ ॥

चण्डनक्रग्राहघोरं क्षपादौ दिवसक्षये।
हसन्तमिव फेनौधैर्नृत्यन्तमिव चोर्मिभिः॥११०॥
चन्द्रोदये समुद्भूतं प्रतिचन्द्रसमाकुलम्।
चण्डानिलमहाग्राहैः कीर्णं तिमितिमिंगिलैः॥१११॥

क्रोध में भरे हुए नाकों के कारण समुद्र बड़ा भयंकर दिखायी देता था। दिन के अन्त और रात के आरम्भ में प्रदोष के समय चन्द्रोदय होने पर उसमें ज्वार आ गया था। उस समय वह फेन-समूहों के कारण हँसता और उत्ताल तरङ्गों के कारण नाचता-सा प्रतीत होता था। चन्द्रमा के प्रतिविम्बों से भरा-सा जान पड़ता था। प्रचण्ड वायु के समान वेगशाली बड़े-बड़े ग्राहों से और तिमि नामक महामत्स्यों को भी निगल जाने वाले महाभयंकर जल-जन्तुओं से व्याप्त दिखायी देता था। ११०-१११॥

दीप्तभोगैरिवाकीर्णं भुजङ्गैर्वरुणालयम्।
अवगाढं महासत्त्वै नाशैलसमाकुलम्॥११२॥

वह वरुणालय प्रदीप्त फणोंवाले सों, विशालकाय जलचरों और नाना पर्वतों से व्याप्त जान पड़ता था॥ ११२॥

सुदुर्गं दुर्गमार्गं तमगाधमसुरालयम्।
मकरैर्नागभोगैश्च विगाढा वातलोलिताः।
उत्पेतुश्च निपेतुश्च प्रहृष्टा जलराशयः॥११३॥

राक्षसों का निवासभूत वह अगाध महासागर अत्यन्त दुर्गम था। उसे पार करने का कोई मार्ग या साधन दुर्लभ था। उसमें वायु की प्रेरणा से उठी हुई चञ्चल तरङ्, जो मगरों और विशालकाय साँसे व्याप्त थीं, बड़े उल्लास से ऊपर को उठती और नीचे को उतर आती थीं॥ ११३॥

अग्निचूर्णमिवाविद्धं भास्वराम्बुमहोरगम्।
सुरारिनिलयं घोरं पातालविषयं सदा॥११४॥
सागरं चाम्बरप्रख्यमम्बरं सागरोपमम्।
सागरं चाम्बरं चेति निर्विशेषमदृश्यत॥११५॥

समुद्र के जल-कण बड़े चमकीले दिखायी देते थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो सागर में आग की चिनगारियाँ बिखेर दी गयी हों। (फैले हुए नक्षत्रों के कारण आकाश भी वैसा ही दिखायी देता था।) समुद्र में बड़े-बड़े सर्प थे (आकाश में भी राहु आदि सर्पाकार ही देखे जाते थे)। समुद्र देवद्रोही दैत्यों और राक्षसों का आवास-स्थान था (आकाश भी वैसा ही था; क्योंकि वहाँ भी उनका संचरण देखा जाता था)। दोनों ही देखने में भयंकर और पाताल के समान गम्भीर थे। इस प्रकार समुद्र आकाश के समान और आकाश समुद्र के समान जान पड़ता था। समुद्र और आकाश में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। ११४-११५ ॥

सम्पृक्तं नभसाप्यम्भः सम्पृक्तं च नभोऽम्भसा।
तादृग्रूपे स्म दृश्यते तारारत्नसमाकुले॥११६॥

जल आकाश से मिला हुआ था और आकाश जल से, आकाश में तारे छिटके हुए थे और समुद्र में मोती। इसलिये दोनों एक-से दिखायी देते थे॥ ११६॥

समुत्पतितमेघस्य वीचिमालाकुलस्य च।
विशेषो न द्वयोरासीत् सागरस्याम्बरस्य च॥११७॥

आकाश में मेघों की घटा घिर आयी थी और समुद्र तरङ्गमालाओं से व्याप्त हो रहा था। अतः समुद्र और आकाश दोनों में कोई अन्तर नहीं रह गया था। ११७॥

अन्योन्यैरहताः सक्ताः सस्वनुर्भीमनिःस्वनाः।
ऊर्मयः सिन्धुराजस्य महाभेर्य इवाम्बरे॥११८॥

परस्पर टकराकर और सटकर सिन्धुराज की लहरें आकाश में बजने वाली देवताओं की बड़ी-बड़ी भेरियों के समान भयानक शब्द करती थीं॥ ११८ ॥

रत्नौघजलसंनादं विषक्तमिव वायुना।
उत्पतन्तमिव क्रुद्धं यादोगणसमाकुलम्॥११९॥

वायु से प्रेरित हो रत्नों को उछालने वाली जल की तरङ्गों के कलकल नाद से युक्त और जल-जन्तुओं से भरा हुआ समुद्र इस प्रकार ऊपर को उछल रहा था, मानो रोष से भरा हुआ हो॥ ११९ ॥

ददृशुस्ते महात्मानो वाताहतजलाशयम्।
अनिलोधूतमाकाशे प्रवलान्तमिवोर्मिभिः॥१२०॥

उन महामनस्वी वानरवीरों ने देखा, समुद्र वायु के थपेड़े खाकर पवन की प्रेरणा से आकाश में ऊँचे उठकर उत्ताल तरङ्गों के द्वारा नृत्य-सा कर रहा था। १२० ॥

ततो विस्मयमापन्ना हरयो ददृशुः स्थिताः।
भ्रान्तोर्मिजालसंनादं प्रलोलमिव सागरम्॥१२१॥

तदनन्तर वहाँ खड़े हुए वानरों ने यह भी देखा कि चक्कर काटते हुए तरङ्ग-समूहों के कल-कल नाद से युक्त महासागर अत्यन्त चञ्चल-सा हो गया है। यह देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ॥ १२१॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ॥४॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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