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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 56 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 56

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
षट्पञ्चाशः सर्गः (56)

हनुमान जी के द्वारा अकम्पन का वध

 

तद् दृष्ट्वा सुमहत् कर्म कृतं वानरसत्तमैः।
क्रोधमाहारयामास युधि तीव्रमकम्पनः॥१॥

उन वानरशिरोमणियों द्वारा किये गये उस महान् पराक्रम को देखकर युद्धस्थल में अकम्पन को बड़ा भारी एवं दुःसह क्रोध हुआ॥१॥

क्रोधमूिर्च्छत तरूपस्तु धुन्वन् परमकार्मुकम्।
दृष्ट्वा तु कर्म शत्रूणां सारथिं वाक्यमब्रवीत्॥२॥

शत्रुओं का कर्म देख रोष से उसका सारा शरीर व्याप्त हो गया और अपने उत्तम धनुष को हिलाते हुए उसने सारथि से कहा- ॥२॥

तत्रैव तावत् त्वरितो रथं प्रापय सारथे।
एते च बलिनो नन्ति सुबहून् राक्षसान् रणे॥३॥

‘सारथे! ये बलवान् वानर युद्ध में बहुतेरे राक्षसों का वध कर रहे हैं, अतः पहले वहीं शीघ्रतापूर्वक मेरा रथ पहुँचाओ॥३॥

एते च बलवन्तो वा भीमकोपाश्च वानराः।
द्रुमशैलप्रहरणास्तिष्ठन्ति प्रमुखे मम॥४॥

‘ये वानर बलवान् तो हैं ही, इनका क्रोध भी बड़ा भयानक है। ये वृक्षों और शिलाओं का प्रहार करते हुए मेरे सामने खड़े हैं॥ ४॥

एतान् निहन्तुमिच्छामि समरश्लाघिनो ह्यहम्।
एतैः प्रमथितं सर्वं रक्षसां दृश्यते बलम्॥५॥

‘ये युद्ध की स्पृहा रखने वाले हैं; अतः मैं इन सबका वध करना चाहता हूँ। इन्होंने सारी राक्षससेना को मथ डाला है। यह साफ दिखायी देता है ॥५॥

ततः प्रचलिताश्वेन रथेन रथिनां वरः।
हरीनभ्यपतद् दूराच्छरजालैरकम्पनः॥६॥

तदनन्तर तेज चलने वाले घोड़ों से जुते हुए रथ के द्वारा रथियों में श्रेष्ठ अकम्पन दूरसे ही बाणसमूहों की वर्षा करता हुआ उन वानरों पर टूट पड़ा॥६॥

न स्थातुं वानराः शेकुः किं पुनर्योधुमाहवे।
अकम्पनशरैर्भग्नाः सर्व एवाभिदुद्रुवुः ॥७॥

अकम्पन के बाणों से घायल हो सभी वानर भाग चले। वे युद्धस्थल में खड़े भी न रह सके; फिर युद्ध करने की तो बात ही क्या है ? ॥ ७॥

तान् मृत्युवशमापन्नानकम्पनशरानुगान्।
समीक्ष्य हनुमान् ज्ञातीनुपतस्थे महाबलः॥८॥

अकम्पन के बाण वानरों के पीछे लगे थे और वे मृत्यु के अधीन होते जाते थे। अपने जाति-भाइयों की यह दशा देखकर महाबली हनुमान् जी अकम्पन के पास आये॥

तं महाप्लवगं दृष्ट्वा सर्वे ते प्लवगर्षभाः।
समेत्य समरे वीराः संहृष्टाः पर्यवारयन्॥९॥

महाकपि हनुमान् जी को आया देख वे समस्त वीर वानरशिरोमणि एकत्र हो हर्षपूर्वक उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये॥९॥

व्यवस्थितं हनूमन्तं ते दृष्ट्वा प्लवगर्षभाः।
बभूवुर्बलवन्तो हि बलवन्तमुपाश्रिताः॥१०॥

हनुमान जी को युद्ध के लिये डटा हुआ देख वे सभी श्रेष्ठ वानर उन बलवान् वीर का आश्रय ले स्वयं भी बलवान् हो गये॥१०॥

अकम्पनस्तु शैलाभं हनूमन्तमवस्थितम्।
महेन्द्र इव धाराभिः शरैरभिववर्ष ह॥११॥

पर्वत के समान विशालकाय हनुमान् जी को अपने सामने उपस्थित देख अकम्पन उनपर बाणों की फिर वर्षा करने लगा, मानो देवराज इन्द्र जल की धारा बरसा रहे हों।

अचिन्तयित्वा बाणौघान् शरीरे पातितान् कपिः।
अकम्पनवधार्थाय मनो दधे महाबलः॥१२॥

अपने शरीर पर गिराये गये उन बाण-समूहों की परवा न करके महाबली हनुमान् ने अकम्पन को मार डालने का विचार किया॥ १२ ॥

स प्रहस्य महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः।
अभिदुद्राव तद्रक्षः कम्पयन्निव मेदिनीम्॥१३॥

फिर तो महातेजस्वी पवनकुमार हनुमान् महान् अट्टहास करके पृथ्वी को कँपाते हुए-से उस राक्षस की ओर दौड़े ॥१३॥

तस्याथ नर्दमानस्य दीप्यमानस्य तेजसा।
बभूव रूपं दुर्धर्षं दीप्तस्येव विभावसोः॥१४॥

उस समय वहाँ गर्जते और तेज से देदीप्यमान होते हुए हनुमान जी का रूप प्रज्वलित अग्नि के समान दुर्धर्ष हो गया था॥ १४॥

आत्मानं त्वप्रहरणं ज्ञात्वा क्रोधसमन्वितः।
शैलमुत्पाटयामास वेगेन हरिपुङ्गवः ॥ १५॥

अपने हाथ में कोई हथियार नहीं है, यह जानकर क्रोध से भरे हुए वानरशिरोमणि हनुमान् ने बड़े वेग से पर्वत उखाड़ लिया॥१५॥

गृहीत्वा सुमहाशैलं पाणिनैकेन मारुतिः।
स विनद्य महानादं भ्रामयामास वीर्यवान्॥१६॥

उस महान् पर्वत को एक ही हाथ से लेकर पराक्रमी पवनकुमार बड़े जोर-जोर से गर्जना करते हुए उसे घुमाने लगे॥१६॥

ततस्तमभिदुद्राव राक्षसेन्द्रमकम्पनम्।
पुरा हि नमुचिं संख्ये वज्रेणेव पुरंदरः॥१७॥

फिर उन्होंने राक्षसराज अकम्पन पर धावा किया, ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में देवेन्द्र ने वज्र लेकर युद्धस्थल में नमुचिपर आक्रमण किया था॥ १७॥

अकम्पनस्तु तद् दृष्ट्वा गिरिशृङ्गं समुद्यतम्।
दूरादेव महाबाणैरर्धचन्द्रैर्व्यदारयत्॥१८॥

अकम्पन ने उस उठे हुए पर्वतशिखर को देख अर्धचन्द्राकार विशाल बाणों के द्वारा उसे दूर से ही विदीर्ण कर दिया॥ १८॥

तं पर्वताग्रमाकाशे रक्षोबाणविदारितम्।
विकीर्णं पतितं दृष्ट्वा हनूमान् क्रोधमूिर्च्छतः॥१९॥

उस राक्षस के बाण से विदीर्ण हो वह पर्वतशिखर आकाश में ही बिखरकर गिर पड़ा। यह देख हनुमान् जी के क्रोध की सीमा न रही॥ १९॥

सोऽश्वकर्णं समासाद्य रोषदर्यान्वितो हरिः।
तूर्णमुत्पाटयामास महागिरिमिवोच्छ्रितम्॥२०॥

फिर रोष और दर्प से उन वानरवीर ने महान् पर्वत के समान ऊँचे अश्वकर्ण नामक वृक्ष के पास जाकर उसे शीघ्रतापूर्वक उखाड़ लिया।॥ २०॥

तं गृहीत्वा महास्कन्धं सोऽश्वकर्णं महाद्युतिः।
प्रगृह्य परया प्रीत्या भ्रामयामास संयुगे॥२१॥

विशाल तने वाले उस अश्वकर्ण को हाथ में लेकर महातेजस्वी हनुमान् ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे युद्धभूमि में घुमाना आरम्भ किया॥२१॥

प्रधावन्नुरुवेगेन बभञ्ज तरसा गुमान्।
हनूमान् परमक्रुद्धश्चरणैर्दारयन् महीम्॥२२॥

प्रचण्ड क्रोध से भरे हुए हनुमान् ने बड़े वेग से दौड़कर कितने ही वृक्षों को तोड़ डाला और पैरों की धमक से वे पृथ्वी को भी विदीर्ण-सी करने लगे॥ २२ ॥

गजांश्च सगजारोहान् सरथान् रथिनस्तथा।
जघान हनुमान् धीमान् राक्षसांश्च पदातिगान्॥२३॥

सवारोंसहित हाथियों, रथोंसहित रथियों तथा पैदल राक्षसों को भी बुद्धिमान् हनुमान् जी मौत के घाट उतारने लगे॥ २३॥

तमन्तकमिव क्रुद्धं सद्रुमं प्राणहारिणम्।
हनूमन्तमभिप्रेक्ष्य राक्षसा विप्रदुद्रुवुः ॥ २४॥

क्रोध से भरे हुए यमराज की भाँति वृक्ष हाथ में लिये प्राणहारी हनुमान् को देख राक्षस भागने लगे॥ २४॥

तमापतन्तं संक्रुद्धं राक्षसानां भयावहम्।
ददर्शाकम्पनो वीरश्चुक्षोभ च ननाद च॥ २५॥

राक्षसों को भय देने वाले हनुमान् अत्यन्त कुपित होकर शत्रुओं पर आक्रमण कर रहे थे। उस समय वीर अकम्पन ने उन्हें देखा। देखते ही वह क्षोभ से भर गया और जोर-जोर से गर्जना करने लगा॥ २५ ॥

स चतुर्दशभिर्बाणैर्निशितैर्देहदारणैः।
निर्बिभेद महावीर्यं हनूमन्तमकम्पनः ॥२६॥

अकम्पन ने देह को विदीर्ण कर देने वाले चौदह पैने बाण मारकर महापराक्रमी हनुमान् को घायल कर दिया॥ २६॥

स तथा विप्रकीर्णस्तु नाराचैः शितशक्तिभिः।
हनूमान् ददृशे वीरः प्ररूढ इव सानुमान्॥२७॥

इस प्रकार नाराचों और तीखी शक्तियों से छिदे हुए वीर हनुमान् उस समय वृक्षों से व्याप्त पर्वत के समान दिखायी देते थे॥ २७॥

विरराज महावीर्यो महाकायो महाबलः।
पुष्पिताशोकसंकाशो विधूम इव पावकः॥ २८॥

उनका सारा शरीर रक्त से रँग गया था, इसलिये वे महापराक्रमी महाबली और महाकाय हनुमान् खिले हुए अशोक एवं धूमरहित अग्नि के समान शोभा पा रहे थे॥

ततोऽन्यं वृक्षमुत्पाट्य कृत्वा वेगमनुत्तमम्।
शिरस्याभिजघानाशु राक्षसेन्द्रमकम्पनम्॥२९॥

तदनन्तर महान् वेग प्रकट करके हनुमान जी ने एक दूसरा वृक्ष उखाड़ लिया और तुरंत ही उसे राक्षसराज अकम्पन के सिरपर दे मारा ॥ २९ ॥

स वृक्षेण हतस्तेन सक्रोधेन महात्मना।
राक्षसो वानरेन्द्रेण पपात च ममार च॥३०॥

क्रोध से भरे वानरश्रेष्ठ महात्मा हनुमान् के चलाये हुए उस वृक्ष की गहरी चोट खाकर राक्षस अकम्पन पृथ्वी पर गिरा और मर गया॥ ३० ॥

तं दृष्ट्वा निहतं भूमौ राक्षसेन्द्रमकम्पनम्।
व्यथिता राक्षसाः सर्वे क्षितिकम्प इव द्रुमाः॥३१॥

जैसे भूकम्प आने पर सारे वृक्ष काँपने लगते हैं, उसी प्रकार राक्षसराज अकम्पन को रणभूमि में मारा गया देख समस्त राक्षस व्यथित हो उठे॥३१॥

त्यक्तप्रहरणाः सर्वे राक्षसास्ते पराजिताः।
लङ्कामभिययुस्त्रासाद् वानरैस्तैरभिद्रुताः॥ ३२॥

वानरों के खदेड़ने पर वहाँ परास्त हुए वे सब राक्षस अपने अस्त्र-शस्त्र फेंककर डर के मारे लङ्का में भाग गये॥

ते मुक्तकेशाः सम्भ्रान्ता भग्नमानाः पराजिताः।
भयाच्छ्रमजलैरङ्गैः प्रस्रवद्भिर्विदुद्रुवुः ॥ ३३॥

उनके केश खुले हुए थे। वे घबरा गये थे और पराजित होने से उनका घमंड चूर-चूर हो गया था। भय के कारण उनके अङ्गों से  पसीने चू रहे थे और इसी अवस्था में वे भाग रहे थे। ३३।।

अन्योन्यं ये प्रमथ्नन्तो विविशुनगरं भयात्।
पृष्ठतस्ते तु सम्मूढाः प्रेक्षमाणा मुहुर्मुहुः॥३४॥

भय के कारण एक-दूसरे को कुचलते हुए वे भागकर लङ्कापुरी में घुस गये। भागते समय वे बारंबार पीछे घूम-घूमकर देखते रहते थे॥ ३४॥

तेषु लङ्कां प्रविष्टेषु राक्षसेषु महाबलाः।
समेत्य हरयः सर्वे हनूमन्तमपूजयन्॥ ३५॥

उन राक्षसों के लङ्का में घुस जाने पर समस्त महाबली वानरों ने एकत्र हो वहाँ हनुमान जी का अभिनन्दन किया॥ ३५ ॥

सोऽपि प्रवृद्धस्तान् सर्वान् हरीन् सम्प्रत्यपूजयत्।
हनूमान् सत्त्वसम्पन्नो यथार्हमनुकूलतः॥३६॥

उन शक्तिशाली हनुमान जी ने भी उत्साहित हो यथायोग्य अनुकूल बर्ताव करते हुए उन समस्त वानरों का समादर किया॥ ३६॥

विनेदुश्च यथाप्राणं हरयो जितकाशिनः।
चकृषुश्च पुनस्तत्र सप्राणानेव राक्षसान्॥३७॥

तत्पश्चात् विजयोल्लास से सुशोभित होने वाले वानरों ने पूरा बल लगाकर उच्च स्वर से गर्जना की और वहाँ जीवित राक्षसों को ही पकड़-पकड़कर घसीटना आरम्भ किया॥ ३७॥

स वीरशोभामभजन्महाकपिः समेत्य रक्षांसि निहत्य मारुतिः।
महासुरं भीमममित्रनाशनं विष्णुर्यथैवोरुबलं चमूमुखे॥ ३८॥

जैसे भगवान् विष्णु ने शत्रुनाशन, महाबली, भयंकर एवं महान् असुर मधुकैटभ आदि का वध करके वीरशोभा (विजयलक्ष्मी)-का वरण किया था, उसी प्रकार महाकपि हनुमान् ने राक्षसों के पास पहुँचकर उन्हें मौत के घाट उतार वीरोचित शोभा को धारण किया॥३८॥

अपूजयन् देवगणास्तदाकपिं स्वयं च रामोऽतिबलश्च लक्ष्मणः।
तथैव सुग्रीवमुखाः प्लवंगमा विभीषणश्चैव महाबलस्तदा॥३९॥

उस समय देवता, महाबली श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि वानर तथा अत्यन्त बलशाली विभीषण ने भी कपिवर हनुमान जी का यथोचित सत्कार किया। ३९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः॥५६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५६॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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