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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 59 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 59

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकोनषष्टितमः सर्गः (59)

प्रहस्त के मारे जाने से दुःखी हुए रावण का स्वयं ही युद्ध के लिये पधारना,लक्ष्मण का युद्ध में आना, हनुमान् और रावण में थप्पड़ों की मार, तथा श्रीराम से परास्त होकर रावण का लङ्का जाना

 

तस्मिन् हते राक्षससैन्यपाले प्लवंगमानामृषभेण युद्धे।
भीमायुधं सागरवेगतुल्यं विदुद्रुवे राक्षसराजसैन्यम्॥१॥

वानरश्रेष्ठ नील के द्वारा युद्धस्थल में उस राक्षससेनापति प्रहस्त के मारे जाने पर समुद्र के समान वेगशालिनी और भयानक आयुधों से युक्त वह राक्षसराज की सेना भाग चली॥१॥

गत्वा तु रक्षोधिपतेः शशंसुः सेनापतिं पावकसूनुशस्तम्।
तच्चापि तेषां वचनं निशम्य रक्षोधिपः क्रोधवशं जगाम॥२॥

राक्षसों ने निशाचरराज रावण के पास जाकर अग्निपुत्र नील के हाथ से प्रहस्त के मारे जाने का समाचार सुनाया। उनकी वह बात सुनकर राक्षसराज रावण को बड़ा क्रोध हुआ॥२॥

संख्ये प्रहस्तं निहतं निशम्य क्रोधार्दितः शोकपरीतचेताः।
उवाच तान् राक्षसयूथमुख्यानिन्द्रो यथा निर्जरयूथमुख्यान्॥३॥

‘युद्धस्थल में प्रहस्त मारा गया’ यह सुनते ही वह क्रोध से तमतमा उठा; किंतु थोड़ी ही देर में उसका चित्त उसके लिये शोक से व्याकुल हो गया। अतः वह मुख्य-मुख्य देवताओंसे बातचीत करने वाले इन्द्र की भाँति राक्षससेना के मुख्य अधिकारियों से बोला – ॥३॥

नावज्ञा रिपवे कार्या यैरिन्द्रबलसादनः।
सूदितः सैन्यपालो मे सानुयात्रः सकुञ्जरः॥४॥

‘शत्रुओं को नगण्य समझकर उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। मैं जिन्हें बहुत छोटा समझता था, उन्हीं शत्रुओं ने मेरे उस सेनापति को सेवकों और हाथियोंसहित मार गिराया, जो इन्द्र की सेना का भी संहार करने में समर्थ था॥४॥

सोऽहं रिपुविनाशाय विजयायाविचारयन्।
स्वयमेव गमिष्यामि रणशीर्षं तदद्भुतम्॥५॥

‘अब मैं शत्रुओं के संहार और अपनी विजय के लिये बिना कोई विचार किये स्वयं ही उस अद्भुत युद्ध के मुहाने पर जाऊँगा॥ ५॥

अद्य तद् वानरानीकं रामं च सहलक्ष्मणम्।
निर्दहिष्यामि बाणौघैर्वनं दीप्तैरिवाग्निभिः।
अद्य संतर्पयिष्यामि पृथिवीं कपिशोणितैः॥६॥

‘जैसे प्रज्वलित आग वन को जला देती है, उसी तरह आज अपने बाणसमूहों से वानरों की सेना तथा लक्ष्मणसहित श्रीराम को मैं भस्म कर डालूँगा? आज वानरों के रक्त से मैं इस पृथ्वी को तृप्त करूँगा’॥६॥

स एवमुक्त्वा ज्वलनप्रकाशं रथं तुरंगोत्तमराजियुक्तम्।
प्रकाशमानं वपुषा ज्वलन्तं समारुरोहामरराजशत्रुः ॥७॥

ऐसा कहकर वह देवराज का शत्रु रावण अग्नि के समान प्रकाशमान रथ पर सवार हुआ। उसके रथ में उत्तम घोड़ों के समूह जुते हुए थे। वह अपने शरीर से भी प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रहा था।

स शङ्खभेरीपणवप्रणादैरास्फोटितक्ष्वेडितसिंहनादैः।
पुण्यैः स्तवैश्चापि सुपूज्यमान स्तदा ययौ राक्षसराजमुख्यः॥८॥

उसके प्रस्थान करते समय शङ्क, भेरी और पणव आदि बाजे बजने लगे। योद्धालोग ताल ठोकने, गर्जने और सिंहनाद करने लगे। वन्दीजन पवित्र स्तुतियों द्वारा राक्षसराज शिरोमणि रावण की भलीभाँति समाराधना करने लगे। इस प्रकार उसने यात्रा की॥८॥

स शैलजीमूतनिकाशरूपैमांसाशनैः पावकदीप्तनेत्रैः।
बभौ वृतो राक्षसराजमुख्यो भूतैर्वृतो रुद्र इवामरेशः॥९॥

पर्वत और मेघों के समान काले एवं विशालरूपवाले मांसाहारी राक्षसों से, जिनके नेत्र प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे थे, घिरा हुआ राक्षस-राजाधिराज रावण भूतगणों से घिरे हुए देवेश्वर रुद्र के समान शोभा पाता था॥९॥

ततो नगर्याः सहसा महौजा निष्क्रम्य तद् वानरसैन्यमुग्रम्।
महार्णवाभ्रस्तनितं ददर्श समुद्यतं पादपशैलहस्तम्॥१०॥

महातेजस्वी रावण ने लङ्कापुरी से सहसा निकलकर महासागर और मेघों के समान गर्जना करने वाली उस भयंकर वानर-सेना को देखा, जो हाथों में पर्वत-शिखर एवं वृक्ष लिये युद्ध के लिये तैयार थी॥ १० ॥

तद् राक्षसानीकमतिप्रचण्डमालोक्य रामो भुजगेन्द्रबाहुः।
विभीषणं शस्त्रभृतां वरिष्ठमुवाच सेनानुगतः पृथुश्रीः॥११॥

उस अत्यन्त प्रचण्ड राक्षससेना को देखकर नागराज शेष के समान भुजावाले, वानर-सेना से घिरे हुए तथा पुष्ट शोभा-सम्पत्ति से युक्त श्रीरामचन्द्रजी ने शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ विभीषण से पूछा— ॥११॥

नानापताकाध्वजछत्रजुष्टं प्रासासिशूलायुधशस्त्रजुष्टम्।
कस्येदमक्षोभ्यमभीरुजुष्टं सैन्यं महेन्द्रोपमनागजुष्टम्॥१२॥

‘जो नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं और छत्रों से सुशोभित, प्रास, खड्ग और शूल आदि अस्त्रशस्त्रों से सम्पन्न, अजेय, निडर योद्धाओं से सेवित और महेन्द्रपर्वत-जैसे विशालकाय हाथियों से भरी हुई है, ऐसी यह सेना किसकी है?’ ॥ १२ ॥

ततस्तु रामस्य निशम्य वाक्यं विभीषणः शक्रसमानवीर्यः।
शशंस रामस्य बलप्रवेकं महात्मनां राक्षसपुंगवानाम्॥१३॥

इन्द्र के समान बलशाली विभीषण श्रीराम की उपर्युक्त बात सुनकर महामना राक्षसशिरोमणियों के बल एवं सैनिकशक्ति का परिचय देते हुए उनसे बोले – ॥१३॥

योऽसौ गजस्कन्धगतो महात्मा नवोदितार्कोपमताम्रवक्त्रः।
संकम्पयन्नागशिरोऽभ्युपैति ह्यकम्पनं त्वेनमवेहि राजन्॥१४॥

‘राजन्! यह जो महामनस्वी वीर हाथी की पीठ पर बैठा है, जिसका मुख नवोदित सूर्य के समान लाल रंग का है तथा जो अपने भार से हाथी के मस्तक में कम्पन उत्पन्न करता हुआ इधर आ रहा है, इसे आप अकम्पन* समझें॥ १४॥
* यह अकम्पन हनुमान जी के द्वारा मारे गये अकम्पन से भिन्न है।

योऽसौ रथस्थो मृगराजकेतुधुंन्वन् धनुः शक्रधनुःप्रकाशम्।
करीव भात्युग्रविवृत्तदंष्ट्रः स इन्द्रजिन्नाम वरप्रधानः॥१५॥

‘वह जो रथ पर चढ़ा हुआ है, जिसकी ध्वजा पर सिंह का चिह्न है, जिसके दाँत हाथी के समान उग्र और बाहर निकले हुए हैं तथा जो इन्द्रधनुष के समान कान्तिमान् धनुष हिलाता हुआ आ रहा है, उसका नाम इन्द्रजित् है। वह वरदान के प्रभाव से बड़ा प्रबल हो गया है॥ १५॥

यश्चैष विन्ध्यास्तमहेन्द्रकल्पो धन्वी रथस्थोऽतिरथोऽतिवीरः।
विस्फारयंश्चापमतुल्यमानं नाम्नातिकायोऽतिविवृद्धकायः॥१६॥

‘यह जो विन्ध्याचल, अस्ताचल और महेन्द्रगिरि के समान विशालकाय, अतिरथी एवं अतिशय वीर धनुष लिये रथ पर बैठा है तथा अपने अनुपम धनुष को बारंबार खींच रहा है, इसका नाम अतिकाय है। इसकी काया बहुत बड़ी है॥ १६॥

योऽसौ नवार्कोदितताम्रचक्षुरारुह्य घण्टानिनदप्रणादम्।
गजं खरं गर्जति वै महात्मा महोदरो नाम स एष वीरः॥ १७॥

“जिसके नेत्र प्रातःकाल उदित हुए सूर्य के समान लाल हैं तथा जिसकी आवाज घण्टा की ध्वनि से भी उत्कृष्ट है, ऐसे क्रूर स्वभाव वाले गजराज पर आरूढ़ होकर जो जोर-जोर से गर्जना कर रहा है, वह महामनस्वी वीर महोदर नाम से प्रसिद्ध है॥१७॥

योऽसौ हयं काञ्चनचित्रभाण्डमारुह्य संध्याभ्रगिरिप्रकाशम्।
प्रासं समुद्यम्य मरीचिनद्धं पिशाच एषोऽशनितुल्यवेगः॥१८॥

‘जो सायंकालीन मेघ से युक्त पर्वत की-सी आभावाले और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित घोड़े पर चढ़कर चमकीले प्रास (भाले)-को हाथ में लिये इधर आ रहा है, इसका नाम पिशाच है। यह वज्र के समान वेगशाली योद्धा है॥ १८॥

यश्चैष शूलं निशितं प्रगृह्य विद्युत्प्रभं किंकरवज्रवेगम्।
वृषेन्द्रमास्थाय शशिप्रकाशमायाति योऽसौ त्रिशिरा यशस्वी॥१९॥

‘जिसने वज्र के वेग को भी अपना दास बना लिया है और जिससे बिजली की-सी प्रभा छिटकती रहती है, ऐसे तीखे त्रिशूल को हाथ में लिये जो यह चन्द्रमा के समान श्वेत कान्तिवाले साँड़ पर चढ़कर युद्धभूमि में आ रहा है, यह यशस्वी वीर त्रिशिरा* है॥ १९॥
* यह त्रिशिरा जनस्थान में मारे गये त्रिशिरा से भिन्न है। यह रावण का पुत्र है और वह भाई था।

असौ च जीमूतनिकाशरूपः कुम्भः पृथुव्यूढसुजातवक्षाः।
समाहितः पन्नगराजकेतुविस्फारयन् याति धनुर्विधुन्वन्॥२०॥

“जिसका रूप मेघ के समान काला है, जिसकी छाती उभरी हुई, चौड़ी और सुन्दर है, जिसकी ध्वजा पर नागराज वासुकि का चिह्न बना हुआ है तथा जो एकाग्रचित्त हो अपने धनुष को हिलाता और खींचता आ रहा है, वह कुम्भ नामक योद्धा है॥ २० ॥

यश्चैष जाम्बूनदवज्रजुष्टं दीप्तं सधूमं परिघं प्रगृह्य।
आयाति रक्षोबलकेतुभूतो योऽसौ निकुम्भोऽद्भुतघोरकर्मा॥२१॥

‘जो सुवर्ण और वज्र से जटित होने के कारण दीप्तिमान् तथा इन्द्रनीलमणि से मण्डित होने के कारण धूमयुक्त अग्नि-सा प्रकाशित होता है, ऐसे परिघ को हाथ में  लेकर जो राक्षससेना की ध्वजा के समान आ रहा है, उसका नाम निकुम्भ है। उसका पराक्रम घोर एवं अद्भुत है॥ २१॥

यश्चैष चापासिशरौघजुष्टं पताकिनं पावकदीप्तरूपम्।
रथं समास्थाय विभात्युदग्रो नरान्तकोऽसौ नगशृङ्गयोधी॥२२॥

‘यह जो धनुष, खड्ग और बाणसमूह से भरे हुए, ध्वजा-पताका से अलंकृत तथा प्रज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान रथ पर आरूढ़ हो अतिशय शोभा पा रहा है, वह ऊँचे कद का योद्धा नरान्तक* है। वह पहाड़ों की चोटियों से युद्ध करता है॥ २२ ॥
* यह नरान्तक रावण का पुत्र है।

यश्चैष नानाविधघोररूपैाघ्रोष्टनागेन्द्रमृगाश्ववक्त्रैः ।
भूतैर्वृतो भाति विवृत्तनेत्रैर्योऽसौ सुराणामपि दर्पहन्ता॥२३॥
यत्रैतदिन्दुप्रतिमं विभाति छत्रं सितं सूक्ष्मशलाकमग्र्यम्।
अत्रैष रक्षोधिपतिर्महात्मा भूतैर्वृतो रुद्र इवावभाति॥२४॥

‘यह जो व्याघ्र, ऊँट, हाथी, हिरन और घोड़े के-से मुँहवाले, चढ़ी हुई आँखवाले तथा अनेक प्रकार के भयंकर रूपवाले भूतों से घिरा हुआ है, जो देवताओं का भी दर्प दलन करने वाला है तथा जिसके ऊपर पूर्ण चन्द्रमा के समान श्वेत एवं पतली कमानी वाला सुन्दर छत्र शोभा पाता है, वही यह राक्षसराज महामना रावण है, जो भूतों से घिरे हुए रुद्रदेव के समान सुशोभित होता है॥ २३-२४॥

असौ किरीटी चलकुण्डलास्यो नगेन्द्रविन्ध्योपमभीमकायः।
महेन्द्रवैवस्वतदर्पहन्ता रक्षोधिपः सूर्य इवावभाति॥२५॥

‘यह सिर पर मुकुट धारण किये है। इसका मुख कानों में हिलते हुए कुण्डलों से अलंकृत है। इसका शरीर गिरिराज हिमालय और विन्ध्याचल के समान विशाल एवं भयंकर है तथा यह इन्द्र और यमराज के भी घमंड को चूर करने वाला है। देखिये, यह राक्षसराज साक्षात् सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है’॥ २५॥

प्रत्युवाच ततो रामो विभीषणमरिंदमः।
अहो दीप्तमहातेजा रावणो राक्षसेश्वरः॥२६॥

तब शत्रुदमन श्रीराम ने विभीषण को इस प्रकार उत्तर दिया—’अहो! राक्षसराज रावण का तेज तो बहुत ही बढ़ा-चढ़ा और देदीप्यमान है॥ २६ ॥

आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यो रश्मिभिर्भाति रावणः।
न व्यक्तं लक्षये ह्यस्य रूपं तेजःसमावृतम्॥२७॥

‘रावण अपनी प्रभा से सूर्य की ही भाँति ऐसी शोभा पा रहा है कि इसकी ओर देखना कठिन हो रहा है।तेजोमण्डल से व्याप्त होने के कारण इसका रूप मुझे स्पष्ट नहीं दिखायी देता॥२७॥

देवदानववीराणां वपुर्नैवंविधं भवेत्।
यादृशं राक्षसेन्द्रस्य वपुरेतद् विराजते॥२८॥

‘इस राक्षसराज का शरीर जैसा सुशोभित हो रहा है, ऐसा तो देवता और दानव वीरों का भी नहीं होगा।

सर्वे पर्वतसंकाशाः सर्वे पर्वतयोधिनः।
सर्वे दीप्तायुधधरा योधास्तस्य महात्मनः॥२९॥

‘इस महाकाय राक्षस के सभी योद्धा पर्वतों के समान विशाल हैं। सभी पर्वतों से युद्ध करने वाले हैं और सब-के-सब चमकीले अस्त्र-शस्त्र लिये हुए हैं। २९॥

विभाति रक्षोराजोऽसौ प्रदीप्तैर्भीमदर्शनैः।
भूतैः परिवृतस्तीक्ष्णैर्देहवद्भिरिवान्तकः॥३०॥

‘जो दीप्तिमान, भयंकर दिखायी देने वाले और तीखे स्वभाववाले हैं, उन राक्षसों से घिरा हुआ यह राक्षसराज रावण देहधारी भूतों से घिरे हुए यमराज के समान जान पड़ता है॥ ३०॥

दिष्ट्यायमद्य पापात्मा मम दृष्टिपथं गतः।
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि सीताहरणसम्भवम्॥३१॥

‘सौभाग्य की बात है कि यह पापात्मा मेरी आँखों के सामने आ गया। सीताहरण के कारण मेरे मन में जो क्रोध संचित हुआ है, उसे आज इसके ऊपर छोगा’॥ ३१॥

एवमुक्त्वा ततो रामो धनुरादाय वीर्यवान्।
लक्ष्मणानुचरस्तस्थौ समुद्धृत्य शरोत्तमम्॥३२॥

ऐसा कहकर बल-विक्रमशाली श्रीराम धनुष लेकर उत्तम बाण निकालकर युद्ध के लिये डट गये। इस कार्य में लक्ष्मण ने भी उनका साथ दिया॥३२॥

ततः स रक्षोधिपतिर्महात्मा रक्षांसि तान्याह महाबलानि।
द्वारेषु चर्यागृहगोपुरेषु सुनिर्वृतास्तिष्ठत निर्विशङ्काः॥३३॥

तदनन्तर महामना राक्षसराज रावण ने अपने साथ आये हुए उन महाबली राक्षसों से कहा-‘तुमलोग निर्भय और सुप्रसन्न होकर नगर के द्वारों तथा राजमार्ग के मकानों की ड्योढ़ियों पर खड़े हो जाओ॥ ३३॥

इहागतं मां सहितं भवद्भिर्वनौकसश्छिद्रमिदं विदित्वा।
शून्यां पुरी दुष्प्रसहां प्रमथ्य प्रधर्षयेयुः सहसा समेताः॥३४॥

‘क्योंकि वानरलोग मेरे साथ तुम सबको यहाँ आया देख इसे अपने लिये अच्छा मौका समझकर सहसा एकत्र हो मेरी सूनी नगरी में, जिसके भीतर प्रवेश होना दूसरों के लिये बहुत कठिन है, घुस जायेंगे और इसे मथकर चौपट कर डालेंगे’ ॥ ३४॥

विसर्जयित्वा सचिवांस्ततस्तान् गतेषु रक्षःसु यथानियोगम्।
व्यदारयद् वानरसागरौघं महाझषः पूर्णमिवार्णवौघम्॥ ३५॥

इस प्रकार जब अपने मन्त्रियों को विदा कर दिया और वे राक्षस उसकी आज्ञा के अनुसार उन-उन स्थानों पर चले गये, तब रावण जैसे महामत्स्य (तिमिङ्गिल) पूरे महासागर को विक्षुब्ध कर देता है, उसी प्रकार समुद्र-जैसी वानरसेना को विदीर्ण करने लगा॥ ३५॥

तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य दीप्तेषुचापं युधि राक्षसेन्द्रम्।
महत् समुत्पाट्य महीधराग्रं दुद्राव रक्षोधिपतिं हरीशः॥३६॥

चमकीले धनुष-बाण लिये राक्षसराज रावण को युद्धस्थल में सहसा आया देख वानरराज सुग्रीव ने एक बड़ा भारी पर्वत-शिखर उखाड़ लिया और उसे लेकर उस निशाचरराज पर आक्रमण किया॥ ३६॥

तच्छैलशृङ्गं बहुवृक्षसानुं प्रगृह्य चिक्षेप निशाचराय।
तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य चिच्छेद बाणैस्तपनीयपुकैः ॥ ३७॥

अनेक वृक्षों और शिखरों से युक्त उस महान् शैलशिखर को सुग्रीव ने रावण पर दे मारा। उस शिखर को अपने ऊपर आता देख रावण ने सहसा सुवर्णमय पंखवाले बहुत-से बाण मारकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥

तस्मिन् प्रवृद्धोत्तमसानुवृक्षे शृङ्गे विदीर्णे पतिते पृथिव्याम्।
महाहिकल्पं शरमन्तकाभं समादधे राक्षसलोकनाथः॥३८॥

उत्तम वृक्ष और शिखरवाला वह महान् शैलशृङ्ग जब विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, तब राक्षसलोक के स्वामी रावण ने महान् सर्प और यमराज के समान एक भयंकर बाण का संधान किया। ३८॥

स तं गृहीत्वानिलतुल्यवेगं सविस्फुलिङ्गज्वलनप्रकाशम्।
बाणं महेन्द्राशनितुल्यवेगं चिक्षेप सुग्रीववधाय रुष्टः॥ ३९॥

उस बाण का वेग वायुके समान था। उससे चिनगारियाँ छूटती थीं और प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाश फैलता था। इन्द्र के वज्र की भाँति भयंकर वेगवाले उस बाण को रावण ने रुष्ट होकर सुग्रीव के वध के लिये चलाया॥ ३९॥

स सायको रावणबाहुमुक्तः शक्राशनिप्रख्यवपुःप्रकाशम्।
सुग्रीवमासाद्य बिभेद वेगाद् गुहेरिता क्रौञ्चमिवोग्रशक्तिः॥४०॥

रावण के हाथों से छूटे हुए उस सायक ने इन्द्र के वज्र की भाँति कान्तिमान् शरीरवाले सुग्रीव के पास पहुँचकर उसी तरह वेगपूर्वक उन्हें घायल कर दिया, जैसे स्वामी कार्तिकेय की चलायी हुई भयानक शक्ति ने क्रौञ्चपर्वत को विदीर्ण कर डाला था॥ ४०॥

स सायकार्तो विपरीतचेताः कूजन् पृथिव्यां निपपात वीरः।
तं वीक्ष्य भूमौ पतितं विसंज्ञं नेदुः प्रहृष्टा युधि यातुधानाः॥४१॥

उस बाण की चोट से वीर सुग्रीव अचेत हो गये और आर्तनाद करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। सुग्रीव को बेहोश हो घूमकर गिरा देख उस युद्धस्थल में आये हुए सब राक्षस बड़े हर्ष के साथ सिंहनाद करने लगे।
४१॥

ततो गवाक्षो गवयः सुषेणस्त्वथर्षभो ज्योतिमुखो नलश्च ।
शैलान् समुत्पाट्य विवृद्धकायाः प्रदुद्रुवुस्तं प्रति राक्षसेन्द्रम्॥४२॥

तब गवाक्ष, गवय, सुषेण, ऋषभ, ज्योतिर्मुख और नल—ये विशालकाय वानर पर्वतशिखरों को उखाड़कर राक्षसराज रावण पर टूट पड़े॥४२॥

तेषां प्रहारान् स चकार मोघान् रक्षोधिपो बाणशतैः शिताग्रैः।
तान् वानरेन्द्रानपि बाणजालैबिभेद जाम्बूनदचित्रपुकैः॥४३॥
ते वानरेन्द्रास्त्रिदशारिबाणै भिन्ना निपेतुर्भुवि भीमकायाः।

परंतु निशाचरों के राजा रावण ने सैकड़ों तीखे बाण छोड़कर उन सबके प्रहारों को व्यर्थ कर दिया और उन वानरेश्वरों को भी सोने के विचित्र पंखवाले बाणसमूहों द्वारा क्षत-विक्षत कर दिया। देवद्रोही रावण के बाणों से घायल हो वे भीमकाय वानरेन्द्रगण धरती पर गिर पड़े॥ ४३२ ॥

ततस्तु तद् वानरसैन्यमुग्रं प्रच्छादयामास स बाणजालैः॥४४॥
ते वध्यमानाः पतिताश्च वीरा नानद्यमाना भयशल्यविद्धाः।

फिर तो रावण ने अपने बाण-समूहों द्वारा उस भयंकर वानरसेना को आच्छादित कर दिया। रावण के बाणों से पीड़ित और डरे हुए वीर वानर उसकी मार खा-खाकर जोर-जोरसे चीत्कार करते हुए धराशायी होने लगे॥

शाखामृगा रावणसायकार्ता जग्मुः शरण्यं शरणं स्म रामम्॥४५॥
ततो महात्मा स धनुर्धनुष्मानादाय रामः सहसा जगाम।
तं लक्ष्मणः प्राञ्जलिरभ्युपेत्य उवाच रामं परमार्थयुक्तम्॥४६॥

रावण के सायकों से पीड़ित हो बहुत-से वानर शरणागतवत्सल भगवान् श्रीराम की शरण में गये। तब धनुर्धर महात्मा श्रीराम सहसा धनुष लेकर आगे बढ़े। उसी समय लक्ष्मणजी ने उनके सामने आकर हाथ जोड़ उनसे ये यथार्थ वचन कहे- ॥ ४५-४६॥

काममार्य सुपर्याप्तो वधायास्य दुरात्मनः।
विधमिष्याम्यहं चैतमनुजानीहि मां विभो॥४७॥

‘आर्य! इस दुरात्मा का वध करने के लिये तो मैं ही पर्याप्त हूँ। प्रभो! आप मुझे आज्ञा दीजिये। मैं इसका नाश करूँगा’॥४७॥

तमब्रवीन्महातेजा रामः सत्यपराक्रमः।
गच्छ यत्नपरश्चापि भव लक्ष्मण संयुगे॥४८॥

उनकी बात सुनकर महातेजस्वी सत्यपराक्रमी श्रीराम ने कहा-‘अच्छा लक्ष्मण! जाओ किंतु संग्राम में विजय पाने के लिये पूर्ण प्रयत्नशील रहना’। ४८॥

रावणो हि महावीर्यो रणेऽद्भुतपराक्रमः।
त्रैलोक्येनापि संक्रुद्धो दुष्प्रसह्यो न संशयः॥४९॥

‘क्योंकि रावण महान् बल-विक्रम से सम्पन्न है। यह युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाता है। रावण यदि अधिक कुपित होकर युद्ध करने लगे तो तीनों लोकों के लिये इसके वेग को सहन करना कठिन हो जायगा॥ ४९॥

तस्यच्छिद्राणि मार्गस्व स्वच्छिद्राणि च लक्षय।
चक्षुषा धनुषाऽऽत्मानं गोपायस्व समाहितः॥५०॥

‘तुम युद्ध में रावण के छिद्र देखना। उसकी कमजोरियों से लाभ उठाना और अपने छिद्रों पर भी दृष्टि रखना (कहीं शत्रु उनसे लाभ न उठाने पाये)। एकाग्रचित्त हो पूरी सावधानी के साथ अपनी दृष्टि और धनुष से भी आत्मरक्षा करना’ ॥५०॥

राघवस्य वचः श्रुत्वा सम्परिष्वज्य पूज्य च।
अभिवाद्य च रामाय ययौ सौमित्रिराहवे॥५१॥

श्रीरघुनाथजी की यह बात सुनकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण उनके हृदय से लग गये और श्रीराम का पूजन एवं अभिवादन करके वे युद्ध के लिये चल दिये।५१॥

स रावणं वारणहस्तबाहुं ददर्श भीमोद्यतदीप्तचापम्।
प्रच्छादयन्तं शरवृष्टिजालैस्तान् वानरान् भिन्नविकीर्णदेहान्॥५२॥

उन्होंने देखा, रावण की भुजाएँ हाथी के शुण्डदण्ड के समान हैं। उसने बड़ा भयंकर एवं दीप्तिमान् धनुष उठा रखा है और बाण-समूहों की वर्षा करके वानरों को ढकता तथा उनके शरीरों को छिन्न-भिन्न किये डालता है॥५२॥

तमालोक्य महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः।
निवार्य शरजालानि विदुद्राव स रावणम्॥५३॥

रावण को इस प्रकार पराक्रम करते देख महातेजस्वी पवनपुत्र हनुमान् जी उसके बाणसमूहों का निवारण करते हुए उसकी ओर दौड़े।५३॥

रथं तस्य समासाद्य बाहुमुद्यम्य दक्षिणम्।
त्रासयन् रावणं धीमान् हनूमान् वाक्यमब्रवीत् ॥५४॥

उसके रथ के पास पहुँचकर अपना दायाँ हाथ उठा बुद्धिमान् हनुमान् ने रावण को भयभीत करते हुए कहा — ॥ ५४॥

देवदानवगन्धर्वैर्यक्षैश्च सह राक्षसैः।
अवध्यत्वं त्वया प्राप्तं वानरेभ्यस्तु ते भयम्॥५५॥

‘निशाचर! तुमने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष और राक्षसों से न मारे जाने का वर प्राप्त कर लिया है; परंतु वानरों से तो तुम्हें भय है ही॥ ५५ ॥

एष मे दक्षिणो बाहुः पञ्चशाखः समुद्यतः।
विधमिष्यति ते देहे भूतात्मानं चिरोषितम्॥५६॥

‘देखो, पाँच अँगुलियों से युक्त यह मेरा दाहिना हाथ उठा हुआ है। तुम्हारे शरीर में चिरकाल से जो जीवात्मा निवास करता है, उसे आज यह इस देह से अलग कर देगा’ ॥५६॥

श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रावणो भीमविक्रमः।
संरक्तनयनः क्रोधादिदं वचनमब्रवीत्॥५७॥

हनुमान जी का यह वचन सुनकर भयानक पराक्रमी रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे और उसने रोषपूर्वक कहा- ॥ ५७॥

क्षिप्रं प्रहर निःशङ्कं स्थिरां कीर्तिमवाप्नुहि।
ततस्त्वां ज्ञातविक्रान्तं नाशयिष्यामि वानर॥५८॥

‘वानर! तुम निःशङ्क होकर शीघ्र मेरे ऊपर प्रहार करो और सुस्थिर यश प्राप्त कर लो। तुममें कितना पराक्रम है, यह जान लेने पर ही मैं तुम्हारा नाश करूँगा’॥

रावणस्य वचः श्रुत्वा वायुसूनुर्वचोऽब्रवीत्।
प्रहतं हि मया पूर्वमक्षं तव सुतं स्मर॥५९॥

रावण की बात सुनकर पवनपुत्र हनुमान जी बोले ‘ मैंने तो पहले ही तुम्हारे पुत्र अक्ष को मार डाला है। इस बात को याद तो करो’ ॥ ५९॥

एवमुक्तो महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः।
आजघानानिलसुतं तलेनोरसि वीर्यवान्॥६०॥

उनके इतना कहते ही बल-विक्रमसम्पन्न महातेजस्वी राक्षसराज रावण ने उन पवनकुमार की छाती में एक तमाचा जड़ दिया॥६०॥

स तलाभिहतस्तेन चचाल च मुहुर्मुहुः।
स्थितो मुहूर्त तेजस्वी स्थैर्यं कृत्वा महामतिः॥६१॥
आजघान च संक्रुद्धस्तलेनैवामरद्विषम्।

उस थप्पड़ की चोट से हनुमान जी बारंबार इधर-उधर चक्कर काटने लगे; परंतु वे बड़े बुद्धिमान् और तेजस्वी थे, अतः दो ही घड़ी में अपने को सुस्थिर करके खड़े हो गये। फिर उन्होंने भी अत्यन्त कुपित होकर उस देवद्रोही को थप्पड़ से ही मारा॥ ६१२ ॥

ततः स तेनाभिहतो वानरेण महात्मना॥६२॥
दशग्रीवः समाधूतो यथा भूमितलेऽचलः।

उन महात्मा वानर के थप्पड़ की मार खाकर दशमुख रावण उसी तरह काँप उठा, जैसे भूकम्प आने पर पर्वत हिलने लगता है॥ ६२ १/२॥

संग्रामे तं तथा दृष्ट्वा रावणं तलताडितम्॥६३॥
ऋषयो वानराः सिद्धा नेदुर्देवाः सहासुरैः।

संग्रामभूमि में रावण को थप्पड़ खाते देख ऋषि, वानर, सिद्ध, देवता और असुर सभी हर्षध्वनि करने लगे॥६३३ ॥

अथाश्वस्य महातेजा रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥६४॥
साधु वानर वीर्येण श्लाघनीयोऽसि मे रिपुः।

तदनन्तर महातेजस्वी रावण ने सँभलकर कहा —’शाबाश वानर! शाबाश, तुम पराक्रम की दृष्टि से मेरे प्रशंसनीय प्रतिद्वन्द्वी हो’। ६४२ ॥

रावणेनैवमुक्तस्तु मारुतिर्वाक्यमब्रवीत्॥६५॥
धिगस्तु मम वीर्यस्य यत् त्वं जीवसि रावण।

रावण के ऐसा कहने पर पवनकुमार हनुमान् ने कहा —’रावण! तू अब भी जीवित है, इसलिये मेरे पराक्रम को धिक्कार है!॥ ६५२ ॥

सकृत् तु प्रहरेदानी दुर्बुद्धे किं विकत्थसे॥६६॥
ततस्त्वां मामको मुष्टिर्नयिष्यति यमक्षयम्।

‘दुर्बुद्धे ! अब तुम एक बार और मुझ पर प्रहार करो। बढ़-बढ़कर बातें क्यों बना रहे हो। तुम्हारे प्रहार के पश्चात् जब मेरा मुक्का पड़ेगा, तब वह तुम्हें तत्काल यमलोक पहुँचा देगा’॥६६॥

ततो मारुतिवाक्येन कोपस्तस्य प्रजज्वले॥६७॥
संरक्तनयनो यत्नान्मुष्टिमावृत्य दक्षिणम्।
पातयामास वेगेन वानरोरसि वीर्यवान्॥६८॥

हनुमान् जी की इस बात से रावण का क्रोध प्रज्वलित हो उठा। उसकी आँखें लाल हो गयीं। उस पराक्रमी राक्षस ने बड़े यत्न से दाहिना मुक्का तानकर हनुमान जी की छाती में वेगपूर्वक प्रहार किया। ६७-६८॥

हनूमान् वक्षसि व्यूढे संचचाल पुनः पुनः।
विह्वलं तु तदा दृष्ट्वा हनूमन्तं महाबलम्॥६९॥
रथेनातिरथः शीघ्रं नीलं प्रति समभ्यगात्।

छाती में चोट लगने पर हनुमान जी पुनः विचलित हो उठे। महाबली हनुमान जी को उस समय विह्वल देख अतिरथी रावण रथ के द्वारा शीघ्र ही नील पर जा चढ़ा॥

राक्षसानामधिपतिर्दशग्रीवः प्रतापवान्॥७०॥
पन्नगप्रतिमैीमैः परमर्माभिभेदनैः।
शरैरादीपयामास नीलं हरिचमूपतिम्॥७१॥

राक्षसों के राजा प्रतापी दशग्रीव ने शत्रुओं के मर्म को विदीर्ण करने वाले सर्पतुल्य भयंकर बाणों द्वारा वानरसेनापति नील को संताप देना आरम्भ किया। ७०-७१॥

स शरौघसमायस्तो नीलो हरिचमूपतिः।
करेणैकेन शैलाग्रं रक्षोधिपतयेऽसृजत्॥७२॥

उसके बाण-समूहों से पीड़ित हुए वानर-सेनापति नील ने उस राक्षसराज पर एक ही हाथ से पर्वत का एक शिखर उठाकर चलाया॥७२॥

हनूमानपि तेजस्वी समाश्वस्तो महामनाः।
विप्रेक्षमाणो युद्धप्सुः सरोषमिदमब्रवीत्॥७३॥
नीलेन सह संयुक्तं रावणं राक्षसेश्वरम्।
अन्येन युध्यमानस्य न युक्तमभिधावनम॥७४॥

इतने ही में तेजस्वी महामना हनुमान जी भी सँभल गये और पुनः युद्ध की इच्छा से रावण की ओर देखने लगे। उस समय राक्षसराज रावण नील के साथ उलझा हुआ था। हनुमान जी ने उससे रोषपूर्वक कहा —’ओ निशाचर! इस समय तुम दूसरे के साथ युद्ध कर रहे हो, अतः अब तुम पर धावा करना मेरे लिये उचित न होगा।

रावणोऽथ महातेजास्तं शृङ्ख सप्तभिः शरैः।
आजघान सुतीक्ष्णाग्रैस्तद् विकीर्णं पपात ह॥७५॥

उधर महातेजस्वी रावण ने नील के चलाये हुए पर्वत-शिखर पर तीखे अग्रभागवाले सात बाण मारे, जिससे वह टूट-फूटकर पृथ्वी पर बिखर गया॥ ७५ ॥

तद् विकीर्णं गिरेः शृङ्गं दृष्ट्वा हरिचमूपतिः।
कालाग्निरिव जज्वाल कोपेन परवीरहा॥७६॥

उस पर्वतशिखर को बिखरा हुआ देख शत्रुवीरों का संहार करने वाले वानर-सेनापति नील प्रलयकाल की अग्नि के समान क्रोध से प्रज्वलित हो उठे॥७६ ॥

सोऽश्वकर्णद्रुमान् शालांश्चूतांश्चापि सुपुष्पितान्।
अन्यांश्च विविधान् वृक्षान् नीलश्चिक्षेप संयुगे॥७७॥

उन्होंने युद्धस्थल में अश्वकर्ण, साल, खिले हुए आम्र तथा अन्य नाना प्रकार के वृक्षों को  उखाड़ उखाड़कर रावण पर चलाना आरम्भ किया॥ ७७॥

स तान् वृक्षान् समासाद्य प्रतिचिच्छेद रावणः।
अभ्यवर्षच्च घोरेण शरवर्षेण पावकिम्॥७८॥

रावण ने उन सब वृक्षों को सामने आने पर काट गिराया और अग्निपुत्र नील पर बाणों की भयानक वर्षा की॥

अभिवृष्टः शरौघेण मेघेनेव महाचलः।
ह्रस्वं कृत्वा ततो रूपं ध्वजाग्रे निपपात ह॥७९॥

जैसे मेघ किसी महान् पर्वत पर जल की वर्षा करता है, उसी तरह रावण ने जब नील पर बाणसमूहों की वर्षा की, तब वे छोटा-सा रूप बनाकर रावण की ध्वजा के शिखर पर चढ़ गये॥७९॥

पावकात्मजमालोक्य ध्वजाग्रे समवस्थितम्।
जज्वाल रावणः क्रोधात् ततो नीलो ननाद च॥८०॥

अपनी ध्वजा के ऊपर बैठे हुए अग्निपुत्र नील को देखकर रावण क्रोध से जल उठा और उधर नील जोर-जोर से गर्जना करने लगे॥ ८० ॥

ध्वजाग्रे धनुषश्चाग्रे किरीटाग्रे च तं हरिम्।
लक्ष्मणोऽथ हनूमांश्च रामश्चापि सुविस्मिताः॥८१॥

नील को कभी रावण की ध्वजा पर, कभी धनुष पर और कभी मुकुटपर बैठा देख श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान् जी को भी बड़ा विस्मय हुआ॥ ८१॥

रावणोऽपि महातेजाः कपिलाघवविस्मितः।
अस्त्रमाहारयामास दीप्तमाग्नेयमद्भुतम्॥८२॥

वानर नील की वह फुर्ती देखकर महातेजस्वी रावण को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अद्भुत तेजस्वी आग्नेयास्त्र हाथ में लिया॥ ८२॥

ततस्ते चुक्रुशुर्दृष्टा लब्धलक्षाः प्लवंगमाः।
नीललाघवसम्भ्रान्तं दृष्ट्वा रावणमाहवे॥८३॥

नील की फुर्ती से रावण को घबराया हुआ देख हर्ष का अवसर पाकर सब वानर बड़ी प्रसन्नता के साथ किलकारियाँ भरने लगे॥ ८३॥

वानराणां च नादेन संरब्धो रावणस्तदा।
सम्भ्रमाविष्टहृदयो न किंचित् प्रत्यपद्यत॥८४॥

उस समय वानरों के हर्षनाद से रावण को बड़ा क्रोध हुआ। साथ ही हृदय में घबराहट छा गयी थी, इसलिये वह कर्तव्यका कुछ निश्चय नहीं कर सका।

आग्नेयेनापि संयुक्तं गृहीत्वा रावणः शरम्।
ध्वजशीर्षस्थितं नीलमुदैक्षत निशाचरः॥ ८५॥

तदनन्तर निशाचर रावण ने आग्नेयास्त्र से अभिमन्त्रित बाण हाथ में लेकर ध्वज के अग्रभाग पर बैठे हुए नील को देखा॥ ८५ ॥

ततोऽब्रवीन्महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः।
कपे लाघवयुक्तोऽसि मायया परया सह॥८६॥

देखकर महातेजस्वी राक्षसराज रावण ने उनसे कहा —’वानर ! तुम उच्चकोटि की माया के साथ ही अपने भीतर बड़ी फुर्ती भी रखते हो। ८६॥

जीवितं खलु रक्षस्व यदि शक्तोऽसि वानर।
तानि तान्यात्मरूपाणि सृजसि त्वमनेकशः॥८७॥
तथापि त्वां मया मुक्तः सायकोऽस्त्रप्रयोजितः।
जीवितं परिरक्षन्तं जीविताद् भ्रंशयिष्यति॥८८॥

‘वानर! यदि शक्तिशाली हो तो मेरे बाण से अपने जीवन की रक्षा करो। यद्यपि तुम अपने पराक्रम के योग्य ही भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म कर रहे हो तथापि मेरा छोड़ा हुआ दिव्यास्त्र-प्रेरित बाण जीवन-रक्षा की चेष्टा करने पर भी तुम्हें प्राणहीन कर देगा’। ८७-८८॥

एवमुक्त्वा महाबाहू रावणो राक्षसेश्वरः।
संधाय बाणमस्त्रेण चमूपतिमताडयत्॥८९॥

ऐसा कहकर महाबाहु राक्षसराज रावण ने आग्नेयास्त्र-युक्त बाण का संधान करके उसके द्वारा सेनापति नील को मारा॥ ८९॥

सोऽस्त्रमुक्तेन बाणेन नीलो वक्षसि ताडितः।
निर्दह्यमानः सहसा स पपात महीतले॥९०॥

उसके धनुष से छूटे हुए उस बाण ने नील की छाती पर गहरी चोट की। वे उसकी आँच से जलते हुए सहसा पृथ्वी पर गिर पड़े॥९० ॥

पितृमाहात्म्यसंयोगादात्मनश्चापि तेजसा।
जानुभ्यामपतद् भूमौ न तु प्राणैर्वियुज्यत॥९१॥

‘निशाचर! तुमने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष और राक्षसों से न मारे जाने का वर प्राप्त कर लिया है; परंतु वानरों से तो तुम्हें भय है ही॥ ५५ ॥

एष मे दक्षिणो बाहुः पञ्चशाखः समुद्यतः।
विधमिष्यति ते देहे भूतात्मानं चिरोषितम्॥५६॥

‘देखो, पाँच अँगुलियों से युक्त यह मेरा दाहिना हाथ उठा हुआ है। तुम्हारे शरीर में चिरकाल से जो जीवात्मा निवास करता है, उसे आज यह इस देह से अलग कर देगा’ ॥५६॥

श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रावणो भीमविक्रमः।
संरक्तनयनः क्रोधादिदं वचनमब्रवीत्॥५७॥

हनुमान जी का यह वचन सुनकर भयानक पराक्रमी रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे और उसने रोषपूर्वक कहा- ॥ ५७॥

क्षिप्रं प्रहर निःशङ्कं स्थिरां कीर्तिमवाप्नुहि।
ततस्त्वां ज्ञातविक्रान्तं नाशयिष्यामि वानर॥५८॥

‘वानर! तुम निःशङ्क होकर शीघ्र मेरे ऊपर प्रहार करो और सुस्थिर यश प्राप्त कर लो। तुममें कितना यद्यपि नील ने पृथ्वी पर घुटने टेक दिये, तथापि पिता अग्निदेव के माहात्म्य से और अपने तेज के प्रभाव से उनके प्राण नहीं निकले॥ ९१॥

विसंज्ञं वानरं दृष्ट्वा दशग्रीवो रणोत्सुकः।
रथेनाम्बुदनादेन सौमित्रिमभिदुद्रुवे॥९२॥

वानर नील को अचेत हुआ देख रणोत्सुक रावण ने मेघ की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि करने वाले रथ के द्वारा सुमित्राकुमार लक्ष्मण पर धावा किया॥९२॥

आसाद्य रणमध्ये तं वारयित्वा स्थितो ज्वलन्।
धनुर्विस्फारयामास राक्षसेन्द्रः प्रतापवान्॥९३॥

युद्धभूमि में सारी वानरसेना को आगे बढ़ने से रोककर वह लक्ष्मण के पास पहुँच गया और प्रज्वलित अग्नि के समान सामने खड़ा हो प्रतापी राक्षसराज रावण अपने धनुष की टंकार करने लगा। ९३॥

तमाह सौमित्रिरदीनसत्त्वो विस्फारयन्तं धनुरप्रमेयम्।
अवेहि मामद्य निशाचरेन्द्र न वानरांस्त्वं प्रतियोभुमर्हसि ॥९४॥

उस समय अपने अनुपम धनुष को खींचते हुए रावण से उदार शक्तिशाली लक्ष्मण ने कहा —’निशाचरराज! समझ लो, मैं आ गया। अतः अब तुम्हें वानरों के साथ युद्ध नहीं करना चाहिये’॥ ९४ ॥

स तस्य वाक्यं प्रतिपूर्णघोषं ज्याशब्दमुग्रं च निशम्य राजा।
आसाद्य सौमित्रिमुपस्थितं तं रोषान्वितं वाचमुवाच रक्षः॥ ९५॥

लक्ष्मण की यह बात गम्भीर ध्वनि से युक्त थी और उनकी प्रत्यञ्चा से भी भयानक टंकार-ध्वनि हो रही थी। उसे सुनकर युद्ध के लिये उपस्थित हुए सुमित्राकुमार के निकट जा राक्षसों के राजा रावण ने रोषपूर्वक कहा-॥

दिष्टयासि मे राघव दृष्टिमार्ग प्राप्तोऽन्तगामी विपरीतबुद्धिः।
अस्मिन् क्षणे यास्यसि मृत्युलोकं संसाद्यमानो मम बाणजालैः॥ ९६॥

‘रघुवंशी राजकुमार! सौभाग्य की बात है कि तुम मेरी आँखों के सामने आ गये। तुम्हारा शीघ्र ही अन्त होने वाला है, इसीलिये तुम्हारी बुद्धि विपरीत हो गयी है। अब तुम मेरे बाणसमूहों से पीड़ित हो इसी क्षण यमलोक की यात्रा करोगे’॥ ९६॥

तमाह सौमित्रिरविस्मयानो गर्जन्तमुवृत्तशिताग्रदंष्ट्रम्।
राजन् न गर्जन्ति महाप्रभावा विकत्थसे पापकृतां वरिष्ठ॥९७॥

सुमित्राकुमार लक्ष्मण को उसकी बात सुनकर कोई विस्मय नहीं हुआ। उसके दाँत बड़े ही तीखे और उत्कट थे और वह जोर-जोर से गर्जना कर रहा था। उस समय सुमित्राकुमार ने उससे कहा—’राजन्! महान् प्रभावशाली पुरुष तुम्हारी तरह केवल गर्जना नहीं करते हैं (कुछ पराक्रम करके दिखाते हैं)। पापाचारियों में अग्रगण्य रावण! तुम तो झूठे ही डींग हाँकते हो॥९७॥

जानामि वीर्यं तव राक्षसेन्द्र बलं प्रतापं च पराक्रमं च।
अवस्थितोऽहं शरचापपाणिरागच्छ किं मोघविकत्थनेन॥९८॥

‘राक्षसराज! (तुमने सूने घर से जो चोरी-चोरी एक असहाय नारी का अपहरण किया, इसीसे) मैं तुम्हारे बल, वीर्य, प्रताप और पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ; इसीलिये हाथ में धनुष-बाण लेकर सामने खड़ा हूँ। आओ युद्ध करो। व्यर्थ बातें बनाने से क्या होगा?’ ॥ ९८॥

स एवमुक्तः कुपितः ससर्ज रक्षोधिपः सप्त शरान् सुपुङ्खान्।
ताँल्लक्ष्मणः काञ्चनचित्रपुडैश्चिच्छेद बाणैर्निशिताग्रधारैः॥९९॥

उनके ऐसा कहने पर कुपित हुए राक्षसराज ने उनपर सुन्दर पंखवाले सात बाण छोड़े; परंतु लक्ष्मण ने सोने के बने हुए विचित्र पंखों से सुशोभित और तेज धारवाले बाणों से उन सबको काट डाला॥ ९९॥

तान् प्रेक्षमाणः सहसा निकृत्तान् निकृत्तभोगानिव पन्नगेन्द्रान्।
लङ्केश्वरः क्रोधवशं जगाम ससर्ज चान्यान् निशितान् पृषत्कान्॥१००॥

जैसे बड़े-बड़े सो के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ, उसी प्रकार अपने समस्त बाणों को सहसा खण्डित हुआ देख लङ्कापति रावण क्रोध के वशीभूत हो गया और उसने दूसरे तीखे बाण छोड़े॥ १०० ॥

स बाणवर्षं तु ववर्ष तीव्र रामानुजः कार्मुकसम्प्रयुक्तम्।
क्षुरार्धचन्द्रोत्तमकर्णिभल्लैः शरांश्च चिच्छेद न चुक्षुभे च॥१०१॥

परंतु श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने धनुष से बाणों की भयंकर वर्षा की और क्षुर, अर्धचन्द्र, उत्तम कर्णी तथा भल्ल जाति के बाणों द्वारा रावण के छोड़े हुए उन सब बाणों को काट डाला॥ १०१॥

स बाणजालान्यपि तानि तानि मोघानि पश्यंस्त्रिदशारिराजः।
विसिस्मिये लक्ष्मणलाघवेन पुनश्च बाणान् निशितान् मुमोच॥१०२॥

उन सभी बाणसमूहों को निष्फल हुआ देख राक्षसराज रावण लक्ष्मण की फुर्ती से आश्चर्यचकित रह गया और उन पर पुनः तीखे बाण छोड़ने लगा। १०२॥

स लक्ष्मणश्चापि शिताशिताग्रान् महेन्द्रतुल्योऽशनिभीमवेगान्।
संधाय चापे ज्वलनप्रकाशान् ससर्ज रक्षोधिपतेर्वधाय॥१०३॥

देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी लक्ष्मण ने भी रावण के वध के लिये वज्र के समान भयानक वेग और तीखी धारवाले पैने बाणों को, जो अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे, धनुष पर रखा॥ १०३॥

स तान् प्रचिच्छेद हि राक्षसेन्द्रः शिताशरांल्लक्ष्मणमाजघान।
शरेण कालाग्निसमप्रभेण स्वयंभुदत्तेन ललाटदेशे॥१०४॥

परंतु राक्षसराज ने उन सभी तीखे बाणों को काट डाला और ब्रह्माजी के दिये हुए कालाग्नि के समान तेजस्वी बाण से लक्ष्मणजी के ललाट पर चोट की। १०४॥

स लक्ष्मणो रावणसायकार्तश्चचाल चापं शिथिलं प्रगृह्य।
पुनश्च संज्ञां प्रतिलभ्य कृच्छ्राच्चिच्छेद चापं त्रिदशेन्द्रशत्रोः॥१०५॥

रावण के उस बाण से पीड़ित हो लक्ष्मणजी विचलित हो उठे। उन्होंने हाथ में जो धनुष ले रखा था, उसकी मुट्ठी ढीली पड़ गयी। फिर उन्होंने बड़े कष्ट से होश सँभाला और देवद्रोही रावण के धनुष को काट दिया॥ १०५॥

निकृत्तचापं त्रिभिराजघान बाणैस्तदा दाशरथिः शिताग्रैः।
स सायकार्तो विचचाल राजा कृच्छ्राच्च संज्ञा पुनराससाद॥१०६॥

धनुष कट जाने पर रावण को लक्ष्मण ने तीन बाण मारे, जो बहुत ही तीखे थे। उन बाणों से पीड़ित हो राजा रावण व्याकुल हो गया और बड़ी कठिनाई से वह फिर सचेत हो सका॥ १०६॥

स कृत्तचापः शरताडितश्च मेदागात्रो रुधिरावसिक्तः।
जग्राह शक्तिं स्वयमुग्रशक्तिः स्वयंभुदत्तां युधि देवशत्रुः॥१०७॥

जब धनुष कट गया और बाणों की गहरी चोट खानी पड़ी, तब रावण का सारा शरीर मेदे और रक्त से भीग गया। उस अवस्था में उस भयंकर शक्तिशाली देवद्रोही राक्षस ने युद्धस्थल में ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति उठा ली॥ १०७॥

स तां सधूमानलसंनिकाशां वित्रासनां संयति वानराणाम्।
चिक्षेप शक्तिं तरसा ज्वलन्तीं सौमित्रये राक्षसराष्ट्रनाथः॥१०८॥

वह शक्ति धूमयुक्त अग्नि के समान दिखायी देती थी और युद्ध में वानरों को भयभीत करने वाली थी। राक्षसराज के स्वामी रावण ने वह जलती हुई शक्ति बड़े वेग से सुमित्राकुमार पर चलायी॥ १०८॥

तामापतन्तीं भरतानुजोऽस्त्रैजघान बाणैश्च हुताग्निकल्पैः।
तथापि सा तस्य विवेश शक्ति(जान्तरं दाशरथेर्विशालम्॥१०९॥

अपनी ओर आती हुई उस शक्ति पर लक्ष्मण ने अग्नितुल्य तेजस्वी बहुत-से बाणों तथा अस्त्रों का प्रहार किया; तथापि वह शक्ति दशरथकुमार लक्ष्मण के विशाल वक्षःस्थल में घुस गयी॥ १०९॥

स शक्तिमाशक्तिसमाहतः सन् जज्वाल भूमौ स रघुप्रवीरः।
तं विह्वलन्तं सहसाभ्युपेत्य जग्राह राजा तरसा भुजाभ्याम्॥११०॥

रघुकुल के प्रधान वीर लक्ष्मण यद्यपि बड़े शक्तिशाली थे, तथापि उस शक्ति से आहत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और जलने से लगे। उन्हें विह्वल हुआ देख राजा रावण सहसा उनके पास जा पहुँचा
और उनको वेगपूर्वक अपनी दोनों भुजाओं से उठाने लगा॥ ११० ॥

हिमवान् मन्दरो मेरुस्त्रैलोक्यं वा सहामरैः।
शक्यं भुजाभ्यामुद्धर्तुं न शक्यो भरतानुजः॥१११॥

जिस रावण में देवताओंसहित हिमालय, मन्दराचल, मेरुगिरि अथवा तीनों लोकों को भुजाओं द्वारा उठा लेने की शक्ति थी, वही भरत के छोटे भाई लक्ष्मण को उठाने में समर्थ न हो सका॥ १११॥

शक्तया ब्राह्मया तु सौमित्रिस्ताडितोऽपि स्तनान्तरे।
विष्णोरमीमांस्यभागमात्मानं प्रत्यनुस्मरत् ॥११२॥

ब्रह्मा की शक्ति से छाती में चोट खाने पर भी लक्ष्मणजी ने भगवान् विष्णु के अचिन्त्य अंशरूप से अपना चिन्तन किया॥ ११२ ॥

ततो दानवदर्पणं सौमित्रिं देवकण्टकः।
तं पीडयित्वा बाहुभ्यां न प्रभुर्लङ्घनेऽभवत्॥११३॥

अतः देवशत्रु रावण दानवों का दर्प चूर्ण करने वाले लक्ष्मण को अपनी दोनों भुजाओं में दबाकर हिलाने में भी समर्थ न हो सका॥ ११३॥

ततः क्रुद्धो वायुसुतो रावणं समभिद्रवत्।
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना॥११४॥

इसी समय क्रोध से भरे हुए वायुपुत्र हनुमान जी रावण की ओर दौड़े और अपने वज्र-सरीखे मुक्के से रावण की छाती में मारा॥ ११४ ॥

तेन मुष्टिप्रहारेण रावणो राक्षसेश्वरः।
जानुभ्यामगमद् भूमौ चचाल च पपात च॥११५॥

उस मुक्के की मार से राक्षसराज रावण ने धरती पर घुटने टेक दिये। वह काँपने लगा और अन्ततोगत्वा गिर पड़ा॥ ११५ ॥

आस्यैश्च नेत्रैः श्रवणैः पपात रुधिरं बहु।
विघूर्णमानो निश्चेष्टो रथोपस्थ उपाविशत्॥११६॥

उसके मुख, नेत्र और कानों से बहुत-सा रक्त गिरने लगा और वह चक्कर काटता हुआ रथ के पिछले भाग में निश्चेष्ट होकर जा बैठा॥ ११६॥

विसंज्ञो मूर्च्छितश्चासीन्न च स्थानं समालभत्।
विसंज्ञं रावणं दृष्ट्वा समरे भीमविक्रमम्॥११७॥
ऋषयो वानराश्चैव नेदुर्देवाश्च सासुराः।

वह मूर्च्छित होकर अपनी सुध-बुध खो बैठा। वहाँ भी वह स्थिर न रह सका-तड़पता और छटपटाता रहा। समराङ्गण में भयंकर पराक्रमी रावण को अचेत हुआ देख ऋषि, देवता, असुर और वानर हर्षनाद करने लगे।

हनूमानथ तेजस्वी लक्ष्मणं रावणार्दितम्॥११८॥
आनयद् राघवाभ्याशं बाहुभ्यां परिगृह्य तम्।

इसके पश्चात् तेजस्वी हनुमान् रावणपीड़ित लक्ष्मण को दोनों हाथों से उठाकर श्रीरघुनाथजी के निकट ले आये॥ ११८ ॥

वायुसूनोः सुहृत्त्वेन भक्तया परमया च सः।
शत्रूणामप्यकम्प्योऽपि लघुत्वमगमत् कपेः॥११९॥

हनुमान जी के सौहार्द और उत्कट भक्तिभाव के कारण लक्ष्मणजी उनके लिये हलके हो गये। शत्रुओं के लिये तो वे अब भी अकम्पनीय थे-वे उन्हें हिला नहीं सकते थे॥ ११९॥

तं समुत्सृज्य सा शक्तिः सौमित्रिं युधि निर्जितम्।
रावणस्य रथे तस्मिन् स्थानं पुनरुपागमत्॥१२०॥

युद्ध में पराजित हुए लक्ष्मण को छोड़कर वह शक्ति पुनः रावण के रथ पर लौट आयी॥ १२० ॥

रावणोऽपि महातेजाः प्राप्य संज्ञां महाहवे।
आददे निशितान् बाणाञ्जग्राह च महद्धनुः॥१२१॥

थोड़ी देर में होश में आने पर महातेजस्वी रावण ने फिर विशाल धनुष उठाया और मैंने बाण हाथ में लिये॥

आश्वस्तश्च विशल्यश्च लक्ष्मणः शत्रुसूदनः।
विष्णोर्भागममीमांस्यमात्मानं प्रत्यनुस्मरन्॥१२२॥

शत्रुसूदन लक्ष्मणजी भी भगवान् विष्णु के अचिन्तनीय अंशरूप से अपना चिन्तन करके स्वस्थ और नीरोग हो गये॥ १२२ ॥

निपातितमहावीरां वानराणां महाचमूम्।
राघवस्तु रणे दृष्ट्वा रावणं समभिद्रवत्॥१२३॥

वानरों की विशाल वाहिनी के बड़े-बड़े वीर मार गिराये गये, यह देखकर रणभूमि में रघुनाथजी ने रावण पर धावा किया॥ १२३॥

अथैनमनुसंक्रम्य हनूमान् वाक्यमब्रवीत्।
मम पृष्ठं समारुह्य राक्षसं शास्तुमर्हसि ॥१२४॥
विष्णुर्यथा गरुत्मन्तमारुह्यामरवैरिणम्।

उस समय हनूमान् जी ने उनके पास आकर कहा —’प्रभो! जैसे भगवान् विष्णु गरुड़पर चढ़कर दैत्यों का संहार करते हैं, उसी प्रकार आप मेरी पीठ पर चढ़कर इस राक्षस को दण्ड दें’॥ १२४२ ॥

तच्छ्रुत्वा राघवो वाक्यं वायुपुत्रेण भाषितम्॥१२५॥
अथारुरोह सहसा हनूमन्तं महाकपिम्।

पवनकुमार की कही हुई यह बात सुनकर श्रीरघुनाथजी सहसा उन महाकपि हनुमान् की पीठ पर चढ़ गये॥ १२५२ ॥

रथस्थं रावणं संख्ये ददर्श मनुजाधिपः॥ १२६॥
तमालोक्य महातेजाः प्रदुद्राव स रावणम्।
वैरोचनमिव क्रुद्धो विष्णुरभ्युद्यतायुधः॥१२७॥

महाराज श्रीराम ने समराङ्गण में रावण को रथ पर बैठा देखा। उसे देखते ही महातेजस्वी श्रीराम रावण की ओर उसी प्रकार दौड़े, जैसे कुपित हुए भगवान् विष्णु अपना चक्र उठाये विरोचनकुमार बलि पर टूट पड़े थे॥

ज्याशब्दमकरोत् तीव्र वज्रनिष्पेषनिष्ठरम्।
गिरा गम्भीरया रामो राक्षसेन्द्रमुवाच ह॥१२८॥

उन्होंने अपने धनुष की तीव्र टंकार प्रकट की, जो वज्र की गड़गड़ाहट से भी अधिक कठोर थी। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी राक्षसराज रावण से गम्भीर वाणी में बोले- ॥ १२८॥

तिष्ठ तिष्ठ मम त्वं हि कृत्वा विप्रियमीदृशम्।
क्व नु राक्षसशार्दूल गत्वा मोक्षमवाप्स्यसि॥१२९॥

‘राक्षसों में बाघ बने हुए रावण ! खड़ा रह, खड़ा रह। मेरा ऐसा अपराध करके तू कहाँ जाकर प्राणसंकट से छुटकारा पा सकेगा॥ १२९ ॥

यदीन्द्रवैवस्वतभास्करान् वा स्वयंभूवैश्वानरशंकरान् वा।
गमिष्यसि त्वं दशधा दिशो वा तथापि मे नाद्य गतो विमोक्ष्यसे॥१३०॥

‘यदि तू इन्द्र, यम अथवा सूर्य के पास, ब्रह्मा,अग्नि या शंकर के समीप अथवा दसों दिशाओं में भागकर जायगा तो भी अब मेरे हाथ से बच नहीं सकेगा। १३०॥

यश्चैष शक्त्या निहतस्त्वयाद्य गच्छन् विषादं सहसाभ्युपेत्य।
स एष रक्षोगणराज मृत्युः सपुत्रपौत्रस्य तवाद्य युद्धे ॥१३१॥

‘तूने आज अपनी शक्ति के द्वारा युद्ध में जाते हुए जिन लक्ष्मण को आहत किया और जो उस शक्ति की चोट से सहसा मूर्च्छित हो गये थे, उन्हीं के उस तिरस्कार का बदला लेने के लिये आज मैं युद्धभूमि में उपस्थित हुआ हूँ। राक्षसराज! मैं पुत्र-पौत्रोंसहित तेरी मौत बनकर आया हूँ॥ १३१॥

एतेन चात्यद्भुतदर्शनानि शरैर्जनस्थानकृतालयानि।
चतुर्दशान्यात्तवरायुधानि रक्षःसहस्राणि निषूदितानि॥१३२॥

‘रावण! तेरे सामने खड़े हुए इस रघुवंशी राजकुमार ने ही अपने बाणों द्वारा जनस्थाननिवासी उन चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला था, जो अद्भुत एवं दर्शनीय योद्धा थे और उत्तमोत्तम अस्त्रशस्त्रों से सम्पन्न थे’ ॥ १३२॥

राघवस्य वचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो महाबलः।
वायुपुत्रं महावेगं वहन्तं राघवं रणे॥१३३॥
रोषेण महताऽऽविष्टः पूर्ववैरमनुस्मरन्।
आजघान शरैर्दीप्तैः कालानलशिखोपमैः॥१३४॥

श्रीरामचन्द्रजी की यह बात सुनकर महाबली राक्षसराज रावण महान् रोष से भर गया। उसे पहले के वैर का स्मरण हो आया और उसने कालाग्नि की शिखा के समान दीप्तिशाली बाणों द्वारा रणभूमि में श्रीरघुनाथजी का वाहन बने हुए महान् वेगशाली वायुपुत्र हनुमान् को अत्यन्त घायल कर दिया। १३३-१३४॥

राक्षसेनाहवे तस्य ताडितस्यापि सायकैः।
स्वभावतेजोयुक्तस्य भूयस्तेजोऽभ्यवर्धत॥१३५॥

युद्धस्थल में उस राक्षस के सायकों से आहत होने पर भी स्वाभाविक तेज से सम्पन्न हनुमान जी का शौर्य और भी बढ़ गया॥ १३५ ॥

ततो रामो महातेजा रावणेन कृतव्रणम्।
दृष्ट्वा प्लवगशार्दूलं क्रोधस्य वशमेयिवान्॥१३६॥

वानरशिरोमणि हनुमान् को रावण ने घायल कर दिया, यह देखकर महातेजस्वी श्रीराम क्रोध के वशीभूत हो गये॥ १३६॥

तस्याभिसंक्रम्य रथं सचक्रं साश्वध्वजच्छत्रमहापताकम्।
ससारथिं साशनिशूलखड्गं रामः प्रचिच्छेद शितैः शराणैः॥१३७॥

फिर तो उन भगवान् श्रीराम ने आक्रमण करके पहिये, घोड़े, ध्वजा, छत्र, पताका, सारथि, अशनि, शूल और खड्गसहित उसके रथ को अपने पैने बाणों से तिल-तिल करके काट डाला॥ १३७॥

अथेन्द्रशत्रु तरसा जघान बाणेन वज्राशनिसंनिभेन।
भुजान्तरे व्यूढसुजातरूपे वज्रेण मेरुं भगवानिवेन्द्रः॥१३८॥

जैसे भगवान् इन्द्र ने वज्र के द्वारा मेरु पर्वत पर आघात किया हो, उसी प्रकार प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने वज्र और अशनि के समान तेजस्वी बाण से इन्द्रशत्रु रावण की विशाल एवं सुन्दर छाती में वेगपूर्वक आघात किया॥

यो वज्रपाताशनिसंनिपातान्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा।
स रामबाणाभिहतो भृशार्तश्चचाल चापं च मुमोच वीरः॥१३९॥

जो राजा रावण वज्र और अशनि के आघात से भी कभी क्षुब्ध एवं विचलित नहीं हुआ था, वही वीर उस समय श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से घायल हो अत्यन्त आर्त एवं कम्पित हो उठा और उसके हाथ से धनुष छूटकर गिर पड़ा॥१३९॥

तं विह्वलन्तं प्रसमीक्ष्य रामः समाददे दीप्तमथार्धचन्द्रम्।
तेनार्कवर्णं सहसा किरीटं चिच्छेद रक्षोधिपतेर्महात्मा॥१४०॥

रावण को व्याकुल हुआ देख महात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने एक चमचमाता हुआ अर्धचन्द्राकार बाण हाथ में लिया और उसके द्वारा राक्षसराज का सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट सहसा काट डाला। १४०॥

तं निर्विषाशीविषसंनिकाशं शान्तार्चिषं सूर्यमिवाप्रकाशम्।
गतश्रियं कृत्तकिरीटकूटमुवाच रामो युधि राक्षसेन्द्रम्॥१४१॥

उस समय धनुष न होने से रावण विषहीन सर्प के समान अपना प्रभाव खो बैठा था। सायंकाल में जिसकी प्रभा शान्त हो गयी हो, उस सूर्यदेव के समान निस्तेज हो गया था तथा मुकुटों का समूह कट जाने से श्रीहीन दिखायी देता था। उस अवस्था में श्रीराम ने युद्धभूमि में राक्षसराज से कहा- ॥ १४१॥

कृतं त्वया कर्म महत् सुभीमं हतप्रवीरश्च कृतस्त्वयाहम्।
तस्मात् परिश्रान्त इति व्यवस्य न त्वां शरैर्मृत्युवशं नयामि॥१४२॥

‘रावण! तुमने आज बड़ा भयंकर कर्म किया है, मेरी सेना के प्रधान-प्रधान वीरों को मार डाला है। इतनेपर भी थका हुआ समझकर मैं बाणों द्वारा तुझे मौत के अधीन नहीं कर रहा हूँ॥ १४२॥

प्रयाहि जानामि रणार्दितस्त्वं प्रविश्य रात्रिंचरराज लङ्काम्।
आश्वस्य निर्याहि रथी च धन्वी तदा बलं प्रेक्ष्यसि मे रथस्थः॥१४३॥

‘निशाचरराज! मैं जानता हूँ तू युद्ध से पीड़ित है इसलिये आज्ञा देता हूँ, जा, लङ्का में प्रवेश करके कुछ देर विश्राम कर ले। फिर रथ और धनुष के साथ निकलना। उस समय रथारूढ़ रहकर तू फिर मेरा बल देखना’॥

स एवमुक्तो हतदर्पहर्षो निकृत्तचापः स हताश्वसूतः।
शरार्दितो भग्नमहाकिरीटो विवेश लङ्कां सहसा स्म राजा॥१४४॥

भगवान् श्रीराम के ऐसा कहने पर राजा रावण सहसा लङ्का में घुस गया। उसका हर्ष और अभिमान मिट्टीमें मिल चुका था, धनुष काट दिया गया था, घोड़े तथा सारथि मार डाले गये थे, महान् किरीट खण्डित हो चुका था और वह स्वयं भी बाणों से बहुत पीड़ित था॥ १४४॥

तस्मिन् प्रविष्टे रजनीचरेन्द्रे महाबले दानवदेवशत्रौ।
हरीन् विशल्यान् सह लक्ष्मणेन चकार रामः परमाहवाग्रे॥१४५॥

देवताओं और दानवों के शत्रु महाबली निशाचरराज रावण के लङ्का में चले जाने पर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने उस महायुद्ध के मुहाने पर वानरों के शरीर से बाण निकाले॥

तस्मिन् प्रभग्ने त्रिदशेन्द्रशत्रौ सुरासुरा भूतगणा दिशश्च।
ससागराः सर्षिमहोरगाश्च तथैव भूम्यम्बुचराः प्रहृष्टाः॥१४६॥

देवराज इन्द्र का शत्रु रावण जब युद्धस्थल से भाग गया, तब उसके पराभव का विचार करके देवता, असुर, भूत, दिशाएँ, समुद्र, ऋषिगण, बड़े-बड़े नाग तथा भूचर और जलचर प्राणी भी बहुत प्रसन्न हुए। १४६॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकोनषष्टितमः सर्गः॥ ५९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।५९॥


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Shivangi

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