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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 60 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 60

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
षष्टितमः सर्गः (60)

अपनी पराजय से दुःखी हुए रावण की आज्ञा से सोये हुए कुम्भकर्ण का जगाया जाना और उसे देखकर वानरों का भयभीत होना

 

स प्रविश्य पुरीं लङ्कां रामबाणभयार्दितः।
भग्नदर्पस्तदा राजा बभूव व्यथितेन्द्रियः॥१॥

भगवान् श्रीराम के बाणों और भय से पीड़ित हो राक्षसराज रावण जब लङ्कापुरी में पहुँचा, तब उसका अभिमान चूर-चूर हो गया था। उसकी सारी इन्द्रियाँ व्यथा से व्याकुल थीं॥१॥

मातंग इव सिंहेन गरुडेनेव पन्नगः।
अभिभूतोऽभवद् राजा राघवेण महात्मना॥२॥

जैसे सिंह गजराज को और गरुड़ विशाल नाग को पीड़ित एवं पराजित कर देता है, उसी प्रकार महात्मा रघुनाथजी ने राजा रावण को अभिभूत कर दिया था। २॥

ब्रह्मदण्डप्रतीकानां विधुच्चलितवर्चसाम्।
स्मरन् राघवबाणानां विव्यथे राक्षसेश्वरः॥३॥

भगवान् श्रीराम के बाण ब्रह्मदण्ड के प्रतीक जान पड़ते थे। उनकी दीप्ति चपला के समान चञ्चल थी। उन्हें याद करके राक्षसराज रावण के मन में बड़ी व्यथा हुई॥३॥

स काञ्चनमयं दिव्यमाश्रित्य परमासनम्।
विप्रेक्षमाणो रक्षांसि रावणो वाक्यमब्रवीत्॥४॥

सोने के बने हुए दिव्य एवं श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठकर राक्षसों की ओर देखता हुआ रावण उस समय इस प्रकार कहने लगा— ॥४॥

सर्वं तत् खलु मे मोघं यत् तप्तं परमं तपः।
यत् समानो महेन्द्रेण मानुषेण विनिर्जितः॥५॥

‘मैंने जो बहुत बड़ी तपस्या की थी, वह सब अवश्य ही व्यर्थ हो गयी; क्योंकि आज महेन्द्रतुल्य पराक्रमी मुझ रावण को एक मनुष्य ने परास्त कर दिया॥

इदं तद् ब्रह्मणो घोरं वाक्यं मामभ्युपस्थितम्।
मानुषेभ्यो विजानीहि भयं त्वमिति तत्तथा॥६॥

‘ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था कि ‘तुम्हें मनुष्यों से भय प्राप्त होगा। इस बात को अच्छी तरह जान लो’। उनका कहा हुआ यह घोर वचन इस समय सफल होकर मेरे समक्ष उपस्थित हुआ है॥६॥

देवदानवगन्धर्वैर्यक्षराक्षसपन्नगैः।
अवध्यत्वं मया प्रोक्तं मानुषेभ्यो न याचितम्॥७॥

‘मैंने तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सोसे ही अवध्य होने का वर माँगा था,  अभय होने की वर-याचना नहीं की थी॥७॥

तमिमं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्।
इक्ष्वाकुकुलजातेन अनरण्येन यत् पुरा॥८॥
उत्पत्स्यति हि मदंशपुरुषो राक्षसाधम।
यस्त्वां सपुत्रं सामात्यं सबलं साश्वसारथिम्॥९॥
निहनिष्यति संग्रामे त्वां कुलाधम दुर्मते।

‘पूर्वकाल में इक्ष्वाकुवंशी राजा अनरण्य ने मुझे शाप देते हुए कहा था कि ‘राक्षसाधम! कुलाङ्गार! दुर्मते !मेरे ही वंश में एक ऐसा श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न होगा, जो तुझे पुत्र, मन्त्री, सेना, अश्व और सारथि के सहित समराङ्गण में मार डालेगा।’ मालूम होता है कि अनरण्य ने जिसकी ओर संकेत किया था, यह दशरथकुमार राम वही मनुष्य है॥८-९२ ॥

शप्तोऽहं वेदवत्या च यथा सा धर्षिता पुरा॥१०॥ 
सेयं सीता महाभागा जाता जनकनन्दिनी।

‘इसके सिवा पूर्वकाल में मुझे वेदवती ने भी शाप दिया था; क्योंकि मैंने उसके साथ बलात्कार किया था। जान पड़ता है वही यह महाभागा जनकनन्दिनी सीता होकर प्रकट हुई है॥ १०॥

उमा नन्दीश्वरश्चापि रम्भा वरुणकन्यका॥
यथोक्तास्तन्मया प्राप्तं न मिथ्या ऋषिभाषितम्।

‘इसी तरह उमा, नन्दीश्वर, रम्भा और वरुणकन्या ने भी जैसा-जैसा कहा था, वैसा ही परिणाम मुझे प्राप्त हुआ है।* सच है ऋषियों की बात कभी झूठी नहीं होती॥ ११ १/२॥
* उमा ने कैलास उठाने के समय भयभीत होने से रावण को शाप दिया था कि ‘तेरी मृत्यु स्त्री के कारण होगी।’ नन्दीश्वर की वानरमूर्ति देखकर रावण हँसा था, इसलिये उन्होंने कहा था—’मेरे समान रूप और पराक्रमवाले ही तेरे कुल का नाश करेंगे।’ रम्भा के निमित्त से नल-कूबर ने और वरुण-कन्या पुञ्जिकस्थला के निमित्त से ब्रह्माजी ने शाप दिया था कि ‘अनिच्छा से किसी स्त्री के साथ सम्भोग करने पर तेरी मृत्यु हो जायगी।’

एतदेव समागम्य यत्नं कर्तुमिहार्हथ॥१२॥
राक्षसाश्चापि तिष्ठन्तु चर्यागोपुरमूर्धसु।

‘ये शाप ही मुझ पर भय अथवा संकट लाने में कारण हुए हैं। इस बात को जानकर अब तुमलोग आये हुए संकट को टालने का प्रयत्न करो। राक्षसलोग राजमार्गों तथा गोपुरों के शिखरों पर उनकी रक्षा के लिये डटे रहें।

स चाप्रतिमगाम्भीर्यो देवदानवदर्पहा॥१३॥
ब्रह्मशापाभिभूतस्तु कुम्भकर्णो विबोध्यताम्।

‘साथ ही जिसके गाम्भीर्य की कहीं तुलना नहीं है, जो देवताओं और दानवों का दर्प दलन करने वाला है तथा ब्रह्माजी के शाप से प्राप्त हुई निद्रा जिसे सदा अभिभूत किये रहती है, उस कुम्भकर्ण को भी जगाया जाय’ ॥ १३ १/२॥

समरे जितमात्मानं प्रहस्तं च निषूदितम्॥१४॥
ज्ञात्वा रक्षोबलं भीममादिदेश महाबलः।
द्वारेषु यत्नः क्रियतां प्राकारश्चाधिरुह्यताम्॥१५॥
निद्रावशसमाविष्टः कुम्भकर्णो विबोध्यताम्।

‘प्रहस्त मारा गया और मैं भी समराङ्गण में परास्त हो गया’ ऐसा जानकर महाबली रावण ने राक्षसों की भयानक सेना को आदेश दिया कि ‘तुमलोग नगर के दरवाजों पर रहकर उनकी रक्षा के लिये यत्न करो। परकोटों पर भी चढ़ जाओ और निद्रा के अधीन हुए कुम्भकर्ण को जगा दो॥ १४-१५ १/२॥

सुखं स्वपिति निश्चिन्तः कामोपहतचेतनः॥
नव सप्त दशाष्टौ च मासान् स्वपिति राक्षसः।
मन्त्रं कृत्वा प्रसुप्तोऽयमितस्तु नवमेऽहनि॥१७॥

(मैं तो दुःखी, चिन्तित और अपूर्ण काम होकर जाग रहा हूँ और) वह राक्षस कामभोग से अचेत हो बड़ी निश्चिन्तता के साथ सुखपूर्वक सो रहा है। वह कभी नौ, कभी सात, कभी दस और कभी आठ मास तक सोता रहता है। यह आज से नौ महीने पहले मुझसे सलाह करके सोया था॥ १६-१७॥

तं तु बोधयत क्षिप्रं कुम्भकर्णं महाबलम्।
स हि संख्ये महाबाहुः ककुदं सर्वरक्षसाम्।
वानरान् राजपुत्रौ च क्षिप्रमेव हनिष्यति॥१८॥

‘अतः तुमलोग महाबली कुम्भकर्ण को शीघ्र जगा दो। महाबाहु कुम्भकर्ण सभी राक्षसों में श्रेष्ठ है। वह युद्धस्थल में वानरों और उन राजकुमारों को भी शीघ्र ही मार डालेगा॥१८॥

एष केतुः परं संख्ये मुख्यो वै सर्वरक्षसाम्।
कुम्भकर्णः सदा शेते मूढो ग्राम्यसुखे रतः॥१९॥

‘समस्त राक्षसों में प्रधान यह कुम्भकर्ण समरभूमि में हमारे लिये सर्वोत्तम विजय-वैजयन्ती के समान है; किंतु खेद की बात है कि वह मूर्ख ग्राम्यसुख में आसक्त होकर सदा सोता रहता है॥ १९॥ ।

रामेणाभिनिरस्तस्य संग्रामेऽस्मिन् सुदारुणे।
भविष्यति न मे शोकः कुम्भकर्णे विबोधिते॥२०॥

‘यदि कुम्भकर्ण को जगा दिया जाय तो इस भयंकर संग्राम में मुझे राम से पराजित होने का शोक नहीं होगा॥ २०॥

किं करिष्याम्यहं तेन शक्रतुल्यबलेन हि।
ईदृशे व्यसने घोरे यो न साह्याय कल्पते॥२१॥

‘यदि इस घोर संकट के समय भी कुम्भकर्ण मेरी सहायता करने में समर्थ नहीं हो रहा है तो इन्द्र के तुल्य बलशाली होने पर भी उससे मेरा प्रयोजन ही क्या है—मैं उसे लेकर क्या करूँगा?’ ॥ २१॥

ते तु तद् वचनं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्य राक्षसाः।
जग्मुः परमसम्भ्रान्ताः कुम्भकर्णनिवेशनम्॥२२॥

राक्षसराज रावण की वह बात सुनकर समस्त राक्षस बड़ी घबराहट में पड़कर कुम्भकर्ण के घर गये॥ २२॥

ते रावणसमादिष्टा मांसशोणितभोजनाः।
गन्धं माल्यं महद्भक्ष्यमादाय सहसा ययुः ॥२३॥

रक्त-मांस का भोजन करने वाले वे राक्षस रावण की आज्ञा पाकर गन्ध, माल्य तथा खाने-पीने की बहुत-सी सामग्री लिये सहसा कुम्भकर्ण के पास गये॥ २३॥

तां प्रविश्य महाद्वारा सर्वतो योजनायताम्।
कुम्भकर्णगुहां रम्यां पुष्पगन्धप्रवाहिनीम्॥२४॥
कुम्भकर्णस्य निःश्वासादवधूता महाबलाः।
प्रतिष्ठमानाः कृच्छ्रेण यत्नात् प्रविविशुर्गुहाम्॥२५॥

कुम्भकर्ण एक गुफा में रहता था, जो बड़ी ही सुन्दर थी और वहाँ के वातावरण में फूलों की सुगन्ध छायी रहती थी। उसकी लंबाई-चौड़ाई सब ओर से एक-एक योजन की थी तथा उसका दरवाजा बहुत बड़ा था। उसमें प्रवेश करते ही वे महाबली राक्षस कुम्भकर्ण की साँस के वेग से सहसा पीछे को ठेल दिये गये। फिर बड़ी कठिनाई से पैर जमाते हुए वे पूरा प्रयत्न करके उस गुफा के भीतर घुसे॥२४-२५ ॥

तां प्रविश्य गुहां रम्यां रत्नकाञ्चनकुट्टिमाम्।
ददृशुर्नैर्ऋतव्याघ्राः शया भीमविक्रमम्॥२६॥

उस गुफा की फर्श में रत्न और सुवर्ण जड़े गये थे, जिससे उसकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। उसके भीतर प्रवेश करके उन श्रेष्ठ राक्षसों ने देखा, भयानक पराक्रमी कुम्भकर्ण सो रहा है ॥ २६ ॥

ते तु तं विकृतं सुप्तं विकीर्णमिव पर्वतम्।
कुम्भकर्णं महानिद्रं समेताः प्रत्यबोधयन्॥२७॥

महानिद्रा में निमग्न हुआ कुम्भकर्ण बिखरे हुए पर्वत के समान विकृतावस्था में सो कर खर्राटे ले रहा था, अतः वे सब राक्षस एकत्र हो उसे जगाने की चेष्टा करने लगे॥२७॥

ऊर्ध्वलोमाञ्चिततनुं श्वसन्तमिव पन्नगम्।
भ्रामयन्तं विनिःश्वासैः शयानं भीमविक्रमम्॥२८॥

उसका सारा शरीर ऊपर उठी हुई रोमावलियों से भरा था। वह सर्प के समान साँस लेता और अपने निःश्वासों से लोगों को चक्कर में डाल देता था। वहाँ सोया हुआ वह राक्षस भयानक बल-विक्रम से सम्पन्न था॥२८॥

भीमनासापुटं तं तु पातालविपुलाननम्।
शयने न्यस्तसर्वाऊँ मेदोरुधिरगन्धिनम्॥२९॥

उसकी नासिका के दोनों छिद्र बड़े भयंकर थे। मुँह पाताल के समान विशाल था। उसने अपना सारा शरीर शय्या पर डाल रखा था और उसकी देह से रक्त और चर्बी की-सी गन्ध प्रकट होती थी॥२९॥

काञ्चनाङ्गदनद्धाऊं किरीटेनार्कवर्चसम्।
ददृशुर्नैर्ऋतव्याघ्रं कुम्भकर्णमरिंदमम्॥३०॥

उसकी भुजाओं में बाजूबन्द शोभा पाते थे। मस्तक पर तेजस्वी किरीट धारण करने के कारण वह सूर्यदेव के समान प्रभापुञ्ज से प्रकाशित हो रहा था। इस रूप में निशाचरश्रेष्ठ शत्रुदमन कुम्भकर्ण को उन राक्षसों ने देखा॥३०॥

ततश्चक्रुर्महात्मानः कुम्भकर्णस्य चाग्रतः।
भूतानां मेरुसंकाशं राशिं परमतर्पणम्॥३१॥

तदनन्तर उन महाकाय निशाचरों ने कुम्भकर्ण के सामने प्राणियों के मेरुपर्वत-जैसे ढेर लगा दिये, जो उसे अत्यन्त तृप्ति प्रदान करने वाले थे॥ ३१॥

मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च संचयान्।
चक्रुर्नैर्ऋतशार्दूला राशिमन्नस्य चाद्भुतम्॥ ३२॥

उन श्रेष्ठ राक्षसों ने वहाँ मृगों, भैंसों और सूअरों के समूह खड़े कर दिये तथा अन्न की भी अद्भुत राशि एकत्र कर दी॥ ३२॥

ततः शोणितकुम्भांश्च मांसानि विविधानि च।
पुरस्तात् कुम्भकर्णस्य चक्रुस्त्रिदशशत्रवः॥३३॥

इतना ही नहीं, उन देवद्रोहियों ने कुम्भकर्ण के आगे रक्त से भरे हुए बहुतेरे घड़े और नाना प्रकार के मांस भी रख दिये॥३३॥

लिलिपुश्च परायेन चन्दनेन परंतपम्।
दिव्यैराश्वासयामासुर्माल्यैर्गन्धैश्च गन्धिभिः॥३४॥
धूपगन्धांश्च ससृजुस्तुष्टुवुश्च परंतपम्।
जलदा इव चानेदुर्यातुधानास्ततस्ततः॥ ३५॥

तत्पश्चात् उन्होंने शत्रुसंतापी कुम्भकर्ण के शरीर में बहुमूल्य चन्दन का लेप किया। दिव्य सुगन्धित पुष्प और चन्दन सुघाँये। धूपों की सुगन्ध फैलायी। उस शत्रुदमन वीर की स्तुति की तथा जहाँ-तहाँ खड़े हुए राक्षस मेघों के समान गम्भीर ध्वनि से गर्जना करने लगे॥

शङ्खाश्च पूरयामासुः शशाङ्कसदृशप्रभान्।
तुमुलं युगपच्चापि विनेदुश्चाप्यमर्षिताः॥३६॥

(इतने पर भी जब कुम्भकर्ण नहीं उठा, तब) अमर्ष से भरे हुए राक्षस चन्द्रमा के समान श्वेत रंग के बहुत-से शङ्ख फूंकने तथा एक साथ तुमुल-ध्वनि से गर्जना करने लगे॥ ३६॥

नेदुरास्फोटयामासुश्चिक्षिपुस्ते निशाचराः।
कुम्भकर्णविबोधार्थं चक्रुस्ते विपुलं स्वरम्॥३७॥

वे निशाचर सिंहनाद करने, ताल ठोंकने और कुम्भकर्ण के विभिन्न अङ्गों को झकझोरने लगे। उन्होंने कुम्भकर्ण को जगाने के लिये बड़े जोर-जोर से गम्भीर ध्वनि की॥ ३७॥

सशङ्खभेरीपणवप्रणादं सास्फोटितक्ष्वेलितसिंहनादम्।
दिशो द्रवन्तस्त्रिदिवं किरन्तः श्रुत्वा विहंगाः सहसा निपेतुः॥ ३८॥

शङ्ख, भेरी और पणव बजने लगे। ताल ठोंकने, गर्जने और सिंहनाद का शब्द सब ओर गूंज उठा। वह तुमुल नाद सुनकर पक्षी समस्त दिशाओं की ओर भागने और आकाश में उड़ने लगे। उड़ते-उड़ते वे सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ते थे॥ ३८॥

यदा भृशं तैर्निनदैर्महात्मा न कुम्भकर्णो बुबुधे प्रसुप्तः।
ततो भुशुण्डीर्मुसलानि सर्वे रक्षोगणास्ते जगृहुर्गदाश्च ॥ ३९॥

जब उस महान् कोलाहल से भी सोया हुआ विशालकाय कुम्भकर्ण नहीं जग सका, तब उन समस्त राक्षसों ने अपने हाथों में भुशुण्डी, मूसल और गदाएँ ले लीं॥ ३९॥

तं शैलशृङ्गैर्मुसलैर्गदाभिर्वक्षःस्थले मुद्गरमुष्टिभिश्च।
सुखप्रसुप्तं भुवि कुम्भकर्णं रक्षांस्युदग्राणि तदा निजघ्नुः॥४०॥

कुम्भकर्ण भूतल पर ही सुख से सो रहा था। उसी अवस्था में उन प्रचण्ड राक्षसों ने उस समय उसकी छाती पर पर्वतशिखरों, मूसलों, गदाओं, मुद्गरों और मुक्कों से मारना आरम्भ किया॥ ४०॥

तस्य निःश्वासवातेन कुम्भकर्णस्य रक्षसः।
राक्षसाः कुम्भकर्णस्य स्थातुं शेकुर्न चाग्रतः॥४१॥

किंतु राक्षस कुम्भकर्ण की निःश्वास-वायु से प्रेरित हो वे सब निशाचर उसके आगे ठहर नहीं पाते थे।

ततः परिहिता गाढं राक्षसा भीमविक्रमाः।
मृदङ्गपणवान् भेरीः शङ्खकुम्भगणांस्तथा॥४२॥
दश राक्षससाहस्रं युगपत्पर्यवारयत्।
नीलाञ्जनचयाकारं ते तु तं प्रत्यबोधयन्॥४३॥

तदनन्तर अपने वस्त्रों को खूब कसकर बाँध लेने के पश्चात् वे भयानक पराक्रमी राक्षस जिनकी संख्या लगभग दस हजार थी, एक ही समय कुम्भकर्ण को घेरकर खड़े हो गये और काले कोयले के ढेर के समान पड़े हुए उस निशाचर को जगाने का प्रयत्न करने लगे। उन सबने एक साथ मृदंग, पणव, भेरी, शङ्ख और कुम्भ (धौंसे) बजाने आरम्भ किये॥ ४२-४३॥

अभिनन्तो नदन्तश्च न च सम्बुबुधे तदा।
यदा चैनं न शेकुस्ते प्रतिबोधयितुं तदा॥४४॥
ततो गुरुतरं यत्नं दारुणं समुपाक्रमन्।

इस तरह वे राक्षस बाजे बजाते और गर्जते रहे तो भी कुम्भकर्ण की निद्रा नहीं टूटी। जब वे उसे किसी तरह जगान सके, तब उन्होंने पहले से भी भारी प्रयत्न आरम्भ किया॥४४ १/२॥

अश्वानुष्ट्रान् खरान् नागाजघ्नुर्दण्डकशाङ्कशैः॥४५॥
भेरीशङ्खमृदङ्गांश्च सर्वप्राणैरवादयन्।
निजजुश्चास्य गात्राणि महाकाष्ठकटंकरैः॥४६॥
मुद्गरैर्मुसलैश्चापि सर्वप्राणसमुद्यतैः।
तेन नादेन महता लङ्का सर्वा प्रपूरिता।
सपर्वतवना सर्वा सोऽपि नैव प्रबुध्यते॥४७॥

वे घोड़ों, ऊँटों, गदहों और हाथियों को डंडों, कोड़ों तथा अंकुशों से मार-मारकर उसके ऊपर ठेलने लगे। सारी शक्ति लगाकर भेरी, मृदङ्ग और शङ्ख बजाने लगे तथा पूरा बल लगाकर उठाये गये बड़े-बड़े काष्ठों के समूहों, मुद्गरों और मूसलों से भी उसके अङ्गों पर प्रहार करने लगे। उस महान् कोलाहल से पर्वतों और वनोंसहित सारी लङ्का गूंज उठी, परंतु कुम्भकर्ण नहीं जागा, नहीं जागा॥ ४५-४७॥

ततो भेरीसहस्रं तु युगपत् समहन्यत।
मृष्टकाञ्चनकोणानामसक्तानां समन्ततः॥४८॥

तदनन्तर सब ओर सहस्रों धौंसे एक साथ बजाये जाने लगे। वे सब-के-सब लगातार बजते रहे। उन्हें बजाने के लिये जो डंडे थे, वे सुन्दर सुवर्ण के बने हुए थे॥

एवमप्यतिनिद्रस्तु यदा नैव प्रबुध्यते।
शापस्य वशमापन्नस्ततः क्रुद्धा निशाचराः॥४९॥

इतने पर भी शाप के अधीन हुआ वह अतिशय निद्रालु निशाचर नहीं जागा। इससे वहाँ आये हुए सब राक्षसों को बड़ा क्रोध हुआ॥४९॥

ततः कोपसमाविष्टाः सर्वे भीमपराक्रमाः।
तद् रक्षो बोधयिष्यन्तश्चक्रुरन्ये पराक्रमम्॥५०॥

फिर वे रोष से भरे हुए सभी भयानक पराक्रमी निशाचर उस राक्षस को जगाने के लिये पराक्रम करने लगे॥

अन्ये भेरीः समाजघ्नुरन्ये चक्रुर्महास्वनम्।
केशानन्ये प्रलुलुपुः कर्णानन्ये दशन्ति च॥५१॥

कोई धौंसे बजाने लगे, कोई महान् कोलाहल करने लगे, कोई कुम्भकर्ण के सिर के बाल नोचने लगे और कोई दाँतों से उसके कान काटने लगे॥५१॥

उदकुम्भशतानन्ये समसिञ्चन्त कर्णयोः।
न कुम्भकर्णः पस्पन्दे महानिद्रावशं गतः॥५२॥

दूसरे राक्षसों ने उसके दोनों कानों में सौ घड़े पानी डाल दिये तो भी महानिद्रा के वश में पड़ा हुआ कुम्भकर्ण टस-से-मस नहीं हुआ॥५२॥

अन्ये च बलिनस्तस्य कूटमुद्गरपाणयः।
मूर्ध्नि वक्षसि गात्रेषु पातयन् कूटमुद्गरान्॥५३॥

दूसरे बलवान् राक्षस काँटेदार मुद्गर हाथ में लेकर उन्हें उसके मस्तक, छाती तथा अन्य अङ्गों पर गिराने लगे॥ ५३॥

रज्जुबन्धनबद्धाभिः शतघ्नीभिश्च सर्वतः।
वध्यमानो महाकायो न प्राबुध्यत राक्षसः॥५४॥

तत्पश्चात् रस्सियों से बँधी हुई शतघ्नियों द्वारा उस पर सब ओर से चोटें पड़ने लगीं। फिर भी उस महाकाय राक्षस की नींद नहीं टूटी ॥ ५४॥

वारणानां सहस्रं च शरीरेऽस्य प्रधावितम्।
कुम्भकर्णस्तदा बुद्ध्वा स्पर्श परमबुध्यत॥५५॥

इसके बाद उसके शरीर पर हजारों हाथी दौड़ाये गये। तब उसे कुछ स्पर्श मालूम हुआ और वह जाग उठा॥

स पात्यमानैर्गिरिशृङ्गवृक्षरचिन्तयंस्तान् विपुलान् प्रहारान्।
निद्राक्षयात् क्षुद्भयपीडितश्च विजृम्भमाणः सहसोत्पपात॥५६॥

यद्यपि उसके ऊपर पर्वतशिखर और वृक्ष गिराये जाते थे, तथापि उसने उन भारी प्रहारों को कुछ भी नहीं गिना। हाथियों के स्पर्श से जब उसकी नींद टूटी, तब वह भूख के भय से पीड़ित हो अँगड़ाई लेता हुआ सहसा उछलकर खड़ा हो गया॥५६॥

स नागभोगाचलशृङ्गकल्पौ विक्षिप्य बाहू जितवज्रसारौ।
विवृत्य वक्त्रं वडवामुखाभं निशाचरोऽसौ विकृतं जजृम्भे॥५७॥

उसकी दोनों भुजाएँ नागों के शरीर और पर्वतशिखरों के समान जान पड़ती थीं। उन्होंने वज्र की शक्ति को पराजित कर दिया था। उन दोनों बाँहों और मुँह को फैलाकर जब वह निशाचर जम्हाई लेने लगा, उस समय उसका मुख बड़वानल के समान विकराल जान पड़ता था॥ ५७॥

तस्य जाजृम्भमाणस्य वक्त्रं पातालसंनिभम्।
ददृशे मेरुशृङ्गाग्रे दिवाकर इवोदितः॥५८॥

जम्हाई लेते समय कुम्भकर्ण का पाताल-जैसा मुख मेरुपर्वत के शिखर पर उगे हुए सूर्य के समान दिखायी देता था॥ ५८॥

स जृम्भमाणोऽतिबलः प्रबुद्धस्तु निशाचरः।
निःश्वासश्चास्य संजज्ञे पर्वतादिव मारुतः॥५९॥

इस तरह जम्हाई लेता हुआ वह अत्यन्त बलशाली निशाचर जब जगा, तब उसके मुख से जो साँस निकलती थी, वह पर्वत-से चली हुई वायु के समान प्रतीत होती थी॥

रूपमुत्तिष्ठतस्तस्य कुम्भकर्णस्य तद् बभौ।
युगान्ते सर्वभूतानि कालस्येव दिधक्षतः॥६०॥

नींद से उठे हुए कुम्भकर्ण का वह रूप प्रलयकाल में समस्त प्राणियों के संहार की इच्छा रखने वाले काल के समान जान पड़ता था॥ ६०॥

तस्य दीप्ताग्निसदृशे विद्युत्सदृशवर्चसी।
ददृशाते महानेत्रे दीप्ताविव महाग्रहौ॥६१॥

उसकी दोनों बड़ी-बड़ी आँखें प्रज्वलित अग्नि और विद्युत् के समान दीप्तिमती दिखायी देती थीं। वे ऐसी लगती थीं मानो दो महान् ग्रह प्रकाशित हो रहे हों॥ ६१॥

ततस्त्वदर्शयन् सर्वान् भक्ष्यांश्च विविधान् बहून्।
वराहान् महिषांश्चैव बभक्ष स महाबलः॥६२॥
चारयन् सर्वतो दृष्टिं तान् ददर्श निशाचरान्॥६५॥

उस समय उसके नेत्र निद्रा के कारण अप्रसन्नकुछ-कुछ खुले हुए थे और मलिन जान पड़ते थे। उसने सब ओर दृष्टि डालकर वहाँ खड़े हुए निशाचरों को देखा॥६५॥

स सर्वान् सान्त्वयामास नैर्ऋतान् नैर्ऋतर्षभः।
बोधनाद् विस्मितश्चापि राक्षसानिदमब्रवीत् ॥६६॥

निशाचरों में श्रेष्ठ कुम्भकर्ण ने उन सब राक्षसों को सान्त्वना दी और अपने जगाये जाने के कारण विस्मित हो उनसे इस प्रकार पूछा- ॥६६॥

किमर्थमहमादृत्य भवद्भिः प्रतिबोधितः।
कच्चित् सुकुशलं राज्ञो भयं वा नेह किंचन॥६७॥

‘तुमलोगों ने इस प्रकार आदर करके मुझे किसलिये जगाया है? राक्षसराज रावण कुशल से हैं न? यहाँ कोई भय तो नहीं उपस्थित हुआ है ? ॥ ६७॥

अथवा ध्रुवमन्येभ्यो भयं परमुपस्थितम्।
यदर्थमेव त्वरितैर्भवद्भिः प्रतिबोधितः॥६८॥

‘अथवा निश्चय ही यहाँ दूसरों से कोई महान् भय उपस्थित हुआ है, जिसके निवारण के लिये तुमलोगों ने इतनी उतावली के साथ मुझे जगाया है॥ ६८॥

अद्य राक्षसराजस्य भयमुत्पाटयाम्यहम्।
दारयिष्ये महेन्द्रं वा शीतयिष्ये तथानलम्॥६९॥

‘अच्छा तो आज मैं राक्षसराज के भय को उखाड़ फेंकूँगा। महेन्द्र (पर्वत या इन्द्र)-को भी चीर डालूँगा और अग्नि को भी ठंडा कर दूंगा॥ ६९॥

न ह्यल्पकारणे सुप्तं बोधयिष्यति मादृशम्।
तदाख्यातार्थतत्त्वेन मत्प्रबोधनकारणम्॥७०॥

‘मुझ-जैसे पुरुष को किसी छोटे-मोटे कारणवश नींद से नहीं जगाया जायगा। अतः तुमलोग ठीक-ठीक बताओ, मेरे जगाये जाने का क्या कारण है ?’ ॥ ७० ॥

एवं ब्रुवाणं संरब्धं कुम्भकर्णमरिंदमम्।
यूपाक्षः सचिवो राज्ञः कृताञ्जलिरभाषत॥७१॥

शत्रुसूदन कुम्भकर्ण जब रोष में भरकर इस प्रकार पूछने लगा, तब राजा रावण के सचिव यूपाक्ष ने हाथ जोड़कर कहा- ॥ ७१॥

न नो देवकृतं किंचिद् भयमस्ति कदाचन।
मानुषान्नो भयं राजंस्तुमुलं सम्प्रबाधते॥७२॥

‘महाराज! हमें देवताओं की ओर से तो कभी कोई भय हो ही नहीं सकता। इस समय केवल एक मनुष्य से तुमुल भय प्राप्त हुआ है, जो हमें सता रहा है॥७२॥

न दैत्यदानवेभ्यो वा भयमस्ति न नः क्वचित्।
यादृशं मानुषं राजन् भयमस्मानुपस्थितम्॥७३॥

‘राजन्! इस समय एक मनुष्य से हमारे लिये जैसा भय उपस्थित हो गया है, वैसा तो कभी दैत्यों और दानवों से भी नहीं हुआ था॥७३॥ ।

वानरैः पर्वताकारैर्लङ्केयं परिवारिता।
सीताहरणसंतप्ताद् रामान्नस्तुमुलं भयम्॥७४॥

‘पर्वताकार वानरों ने आकर इस लङ्कापुरी को चारों ओर से घेर लिया है। सीताहरण से  संतप्त हुए श्रीराम की ओर से हमें तुमुल भय की प्राप्ति हुई है। ७४॥

एकेन वानरेणेयं पूर्वं दग्धा महापुरी।
कुमारो निहतश्चाक्षः सानुयात्रः सकुञ्जरः॥७५॥

‘पहले एक ही वानर ने यहाँ आकर इस महापुरी को जला दिया था और हाथियों तथा साथियोंसहित राजकुमार अक्ष को भी मार डाला था॥ ७५ ॥

स्वयं रक्षोधिपश्चापि पौलस्त्यो देवकण्टकः।
व्रजेति संयुगे मुक्तो रामेणादित्यवर्चसा॥७६॥

‘श्रीराम सूर्य के समान तेजस्वी हैं। उन्होंने देवशत्रु पुलस्त्यकुलनन्दन साक्षात् राक्षसराज रावण को भी युद्ध में हराकर जीवित छोड़ दिया और कहा —’लङ्का को लौट जाओ’ ॥ ७६॥

यन्न देवैः कृतो राजा नापि दैत्यैर्न दानवैः।
कृतः स इह रामेण विमुक्तः प्राणसंशयात्॥७७॥

‘महाराज की जो दशा देवता, दैत्य और दानव भी नहीं कर सके थे, वह राम ने कर दी। उनके प्राण बड़े संकट से बचे हैं’।। ७७॥

स यूपाक्षवचः श्रुत्वा भ्रातुर्युधि पराभवम्।
कुम्भकर्णो विवृत्ताक्षो यूपाक्षमिदमब्रवीत्॥७८॥

युद्ध में भाई की पराजय से सम्बन्ध रखने वाली यूपाक्ष की यह बात सुनकर कुम्भकर्ण आँखें फाड़फाड़कर देखने लगा और यूपाक्ष से इस प्रकार बोला — ॥ ७८॥

सर्वमद्यैव यूपाक्ष हरिसैन्यं सलक्ष्मणम्।
राघवं च रणे जित्वा ततो द्रक्ष्यामि रावणम्॥७९॥

‘यूपाक्ष! मैं अभी सारी वानरसेना को तथा लक्ष्मणसहित राम को भी रणभूमि में परास्त करके रावण का दर्शन करूँगा॥७९॥

राक्षसांस्तर्पयिष्यामि हरीणां मांसशोणितैः।
रामलक्ष्मणयोश्चापि स्वयं पास्यामि शोणितम्॥८०॥

‘आज वानरों के मांस और रक्त से राक्षसों को तृप्त करूँगा और स्वयं भी राम और लक्ष्मण के खून पीऊँगा’॥ ८०॥

तत् तस्य वाक्यं ब्रुवतो निशम्य सगर्वितं रोषविवृद्धदोषम्।
महोदरो नैर्ऋतयोधमुख्यः कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं बभाषे॥८१॥

कुम्भकर्ण के बढ़े हुए रोष-दोष से युक्त अहङ्कारपूर्ण वचन सुनकर राक्षस-योद्धाओं में प्रधान महोदर ने हाथ जोड़कर यह बात कही- ॥ ८१॥

रावणस्य वचः श्रुत्वा गुणदोषौ विमृश्य च।
पश्चादपि महाबाहो शत्रून् युधि विजेष्यसि॥८२॥

‘महाबाहो! पहले चलकर महाराज रावण की बात सुन लीजिये। फिर गुण-दोष का विचार करने के पश्चात् युद्ध में शत्रुओं को परास्त कीजियेगा’ ॥ ८२॥

महोदरवचः श्रुत्वा राक्षसैः परिवारितः।
कुम्भकर्णो महातेजाः सम्प्रतस्थे महाबलः॥८३॥

महोदर की यह बात सुनकर राक्षसों से घिरा हुआ महातेजस्वी महाबली कुम्भकर्ण वहाँ से चलने की तैयारी करने लगा॥ ८३॥

सुप्तमुत्थाप्य भीमाक्षं भीमरूपपराक्रमम्।
राक्षसास्त्वरिता जग्मुर्दशग्रीवनिवेशनम्॥८४॥

इस तरह सोये हुए भयानक नेत्र, रूप और पराक्रमवाले कुम्भकर्ण को उठाकर वे राक्षस शीघ्र ही दशमुख रावण के महल में गये॥ ८४ ॥

तेऽभिगम्य दशग्रीवमासीनं परमासने।
ऊचुर्बद्धाञ्जलिपुटाः सर्व एव निशाचराः॥८५॥

दशग्रीव उत्तम सिंहासन पर बैठा हुआ था, उसके पास जा सभी निशाचर हाथ जोड़कर बोले- ॥ ८५ ॥

कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽसौ भ्राता ते राक्षसेश्वर।
कथं तत्रैव निर्यातु द्रक्ष्यसे तमिहागतम्॥८६॥

‘राक्षसेश्वर! आपके भाई कुम्भकर्ण जाग उठे हैं। कहिये, वे क्या करें? सीधे युद्धस्थल में ही पधारें या आप उन्हें यहाँ उपस्थित देखना चाहते हैं? ॥ ८६॥

रावणस्त्वब्रवीद्धृष्टो राक्षसांस्तानुपस्थितान्।
द्रष्टमेनमिहेच्छामि यथान्यायं च पूज्यताम्॥८७॥

तब रावण ने बड़े हर्ष के साथ उन उपस्थित हुए राक्षसों से कहा—’मैं कुम्भकर्ण को यहाँ देखना चाहता हूँ, उनका यथोचित सत्कार किया जाय’ ॥ ८७॥

तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे पुनरागम्य राक्षसाः।
कुम्भकर्णमिदं वाक्यमूचू रावणचोदिताः॥८८॥

तब ‘जो आज्ञा’ कहकर रावण के भेजे हुए वे सब राक्षस पुनः कुम्भकर्ण के पास आ इस प्रकार बोले

द्रष्टुं त्वां काङ्क्षते राजा सर्वराक्षसपुङ्गवः।
गमने क्रियतां बुद्धिर्भ्रातरं सम्प्रहर्षय॥८९॥

‘प्रभो! सर्वराक्षसशिरोमणि महाराज रावण आपको देखना चाहते हैं। अतः आप वहाँ चलने का विचार करें और पधारकर अपने भाई का हर्ष बढ़ावें ॥ ८९॥

कुम्भकर्णस्तु दुर्धर्षो भ्रातुराज्ञाय शासनम्।
कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽसौ भ्राता ते राक्षसेश्वर।
कथं तत्रैव निर्यातु द्रक्ष्यसे तमिहागतम्॥८६॥

‘राक्षसेश्वर! आपके भाई कुम्भकर्ण जाग उठे हैं। कहिये, वे क्या करें? सीधे युद्धस्थल में ही पधारें या आप उन्हें यहाँ उपस्थित देखना चाहते हैं? ॥ ८६॥

रावणस्त्वब्रवीद्धृष्टो राक्षसांस्तानुपस्थितान्।
द्रष्टमेनमिहेच्छामि यथान्यायं च पूज्यताम्॥८७॥

तब रावण ने बड़े हर्ष के साथ उन उपस्थित हुए राक्षसों से कहा—’मैं कुम्भकर्ण को यहाँ देखना चाहता हूँ, उनका यथोचित सत्कार किया जाय’ ॥ ८७॥

तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे पुनरागम्य राक्षसाः।
कुम्भकर्णमिदं वाक्यमूचू रावणचोदिताः॥८८॥

तब ‘जो आज्ञा’ कहकर रावण के भेजे हुए वे सब राक्षस पुनः कुम्भकर्ण के पास आ इस प्रकार बोले

द्रष्टुं त्वां काङ्क्षते राजा सर्वराक्षसपुङ्गवः।
गमने क्रियतां बुद्धिर्भ्रातरं सम्प्रहर्षय॥८९॥

‘प्रभो! सर्वराक्षसशिरोमणि महाराज रावण आपको देखना चाहते हैं। अतः आप वहाँ चलने का विचार करें और पधारकर अपने भाई का हर्ष बढ़ावें ॥ ८९॥

कुम्भकर्णस्तु दुर्धर्षो भ्रातुराज्ञाय शासनम्।
कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽसौ भ्राता ते राक्षसेश्वर।
कथं तत्रैव निर्यातु द्रक्ष्यसे तमिहागतम्॥८६॥

‘राक्षसेश्वर! आपके भाई कुम्भकर्ण जाग उठे हैं। कहिये, वे क्या करें? सीधे युद्धस्थल में ही पधारें या आप उन्हें यहाँ उपस्थित देखना चाहते हैं? ॥ ८६॥

रावणस्त्वब्रवीद्धृष्टो राक्षसांस्तानुपस्थितान्।
द्रष्टमेनमिहेच्छामि यथान्यायं च पूज्यताम्॥८७॥

तब रावण ने बड़े हर्ष के साथ उन उपस्थित हुए राक्षसों से कहा—’मैं कुम्भकर्ण को यहाँ देखना चाहता हूँ, उनका यथोचित सत्कार किया जाय’ ॥ ८७॥

तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे पुनरागम्य राक्षसाः।
कुम्भकर्णमिदं वाक्यमूचू रावणचोदिताः॥८८॥

तब ‘जो आज्ञा’ कहकर रावण के भेजे हुए वे सब राक्षस पुनः कुम्भकर्ण के पास आ इस प्रकार बोले

द्रष्टुं त्वां काङ्क्षते राजा सर्वराक्षसपुङ्गवः।
गमने क्रियतां बुद्धिर्भ्रातरं सम्प्रहर्षय॥८९॥

‘प्रभो! सर्वराक्षसशिरोमणि महाराज रावण आपको देखना चाहते हैं। अतः आप वहाँ चलने का विचार करें और पधारकर अपने भाई का हर्ष बढ़ावें ॥ ८९॥

कुम्भकर्णस्तु दुर्धर्षो भ्रातुराज्ञाय शासनम्।
तथेत्युक्त्वा महावीर्यः शयनादुत्पपात ह॥९०॥

भाई का यह आदेश पाकर महापराक्रमी दुर्जय वीर कुम्भकर्ण ‘बहुत अच्छा’ कहकर शय्या से उठकर खड़ा हो गया॥९०॥

प्रक्षाल्य वदनं हृष्टः स्नातः परमहर्षितः।
पिपासुस्त्वरयामास पानं बलसमीरणम्॥९१॥

उसने बड़े हर्ष और प्रसन्नता के साथ मुँह धोकर स्नान किया और पीने की इच्छा से तुरंत बलवर्धक पेय ले आने की आज्ञा दी॥ ९१॥

ततस्ते त्वरितास्तत्र राक्षसा रावणाज्ञया।
मद्यं भक्ष्यांश्च विविधान् क्षिप्रमेवोपहारयन्॥९२॥

तब रावण के आदेश से वे सब राक्षस तुरंत मद्य तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थ ले आये॥ ९२॥

पीत्वा घटसहस्रे द्वे गमनायोपचक्रमे।
ईषत्समुत्कटो मत्तस्तेजोबलसमन्वितः॥९३॥

कुम्भकर्ण दो हजार घड़े मद्य गटककर चलने को उद्यत हुआ। इससे उसमें कुछ ताजगी आ गयी तथा वह मतवाला, तेजस्वी और शक्तिसम्पन्न हो गया।

कुम्भकर्णो बभौ रुष्टः कालान्तकयमोपमः।
भ्रातुः स भवनं गच्छन् रक्षोबलसमन्वितः।
कुम्भकर्णः पदन्यासैरकम्पयत मेदिनीम्॥९४॥

फिर जब राक्षसों की सेना के साथ कुम्भकर्ण भाई के महल की ओर चला, उस समय वह रोष से भरे हुए प्रलयकाल के विनाशकारी यमराज के समान जान पड़ता था। कुम्भकर्ण अपने पैरों की धमक से सारी पृथ्वी को कम्पित कर रहा था॥९४ ॥

स राजमार्ग वपुषा प्रकाशयन् सहस्ररश्मिर्धरणीमिवांशुभिः।
जगाम तत्राञ्जलिमालया वृतः शतक्रतुर्गेहमिव स्वयंभुवः॥ ९५॥

जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से भूतल को प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार वह अपने तेजस्वी शरीर से राजमार्ग को उद्भासित करता हुआ हाथ जोड़े अपने भाई के महल में गया। ठीक उसी तरह, जैसे देवराज इन्द्र ब्रह्माजी के धाम में जाते हैं। ९५॥

तं राजमार्गस्थममित्रघातिनं वनौकसस्ते सहसा बहिःस्थिताः।
दृष्ट्वाप्रमेयं गिरिशृङ्गकल्पं वितत्रसुस्ते सह यूथपालैः॥ ९६॥

राजमार्ग पर चलते समय शत्रुघाती कुम्भकर्ण पर्वतशिखर के समान जान पड़ता था। नगर के बाहर खड़े हुए वानर सहसा उस विशालकाय राक्षस को देखकर सेनापतियोंसहित सहम गये॥ ९६ ॥

केचिच्छरण्यं शरणं स्म रामं व्रजन्ति केचिद् व्यथिताः पतन्ति।
केचिद् दशश्च व्यथिताः पतन्ति केचिद् भयार्ता भुवि शेरते स्म॥ ९७॥

उनमें से कुछ वानरों ने शरणागतवत्सल भगवान् श्रीराम की शरण ली। कुछ व्यथित होकर गिर पड़े। कोई पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये और जहाँ-तहाँ धराशायी हो गये और कितने ही वानर भय से पीड़ित हो धरती पर लेट गये॥९७॥

तमद्रिशृङ्गप्रतिमं किरीटिनं स्पृशन्तमादित्यमिवात्मतेजसा।
वनौकसः प्रेक्ष्य विवृद्धमद्भुतं भयार्दिता दुद्रुविरे यतस्ततः॥ ९८॥

वह पर्वतशिखर के समान ऊँचा था। उसके मस्तक पर मुकुट शोभा देता था। वह अपने तेज से सूर्य का स्पर्श करता-सा जान पड़ता था। उस बढ़े हुए विशालकाय एवं अद्भुत राक्षस को देखकर सभी वनवासी वानर भय से पीड़ित हो इधर-उधर भागने लगे॥९८॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे षष्टितमः सर्गः॥६०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में साठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६० ॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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