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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 67 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 67

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
सप्तषष्टितमः सर्गः (67)

(कम्भकर्ण का भयंकर युद्ध और श्रीराम के हाथ से उसका वध)

ते निवृत्ता महाकायाः श्रुत्वाङ्गदवचस्तदा।
नैष्ठिकी बुद्धिमास्थाय सर्वे संग्रामकाङ्गिणः॥१॥

अङ्गद के पूर्वोक्त वचन सुनकर वे सब विशालकाय वानर मरने-मारनेका निश्चय करके युद्ध की इच्छा से लौटे थे॥१॥

समुदीरितवीर्यास्ते समारोपितविक्रमाः।
पर्यवस्थापिता वाक्यैरङ्गदेन बलीयसा॥२॥

महाबली अङ्गद ने उनके पूर्व-पराक्रमों का वर्णन करके अपने वचनों द्वारा उन्हें सुदृढ़ एवं बलविक्रमसम्पन्न बनाकर खड़ा कर दिया था॥२॥

प्रयाताश्च गता हर्षं मरणे कृतनिश्चयाः।
चक्रुः सुतुमुलं युद्धं वानरास्त्यक्तजीविताः॥३॥

अब वे वानर मरने का निश्चय करके बड़े हर्ष के साथ आगे बढ़े और जीवन का मोह छोड़कर अत्यन्त भयंकर युद्ध करने लगे॥३॥

अथ वृक्षान् महाकायाः सानूनि सुमहान्ति च।
वानरास्तूर्णमुद्यम्य कुम्भकर्णमभिद्रवन्॥४॥

उन विशालकाय वानर-वीरों ने वृक्ष तथा बड़े-बड़े पर्वत-शिखर लेकर तुरंत ही कुम्भकर्ण पर धावा किया॥

कुम्भकर्णः सुसंक्रुद्धो गदामुद्यम्य वीर्यवान्।
धर्षयन् स महाकायः समन्ताद् व्यक्षिपद् रिपून्॥

परंतु अत्यन्त क्रोध से भरे हुए विक्रमशाली महाकाय कुम्भकर्ण ने गदा उठाकर शत्रुओं को घायल करके उन्हें चारों ओर बिखेर दिया॥५॥

शतानि सप्त चाष्टौ च सहस्राणि च वानराः।
प्रकीर्णाः शेरते भूमौ कुम्भकर्णेन ताडिताः॥६॥

कुम्भकर्ण की मार खाकर आठ हजार सात सौ वानर तत्काल धराशायी हो गये॥६॥

षोडशाष्टौ च दश च विंशत्त्रिंशत्तथैव च।
परिक्षिप्य च बाहुभ्यां खादन् स परिधावति।
भक्षयन् भृशसंक्रुद्धो गरुडः पन्नगानिव॥७॥

वह सोलह, आठ, दस, बीस और तीस-तीस वानरों को अपनी दोनों भुजाओं से समेट लेता और जैसे गरुड़ सो को खाता है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधपूर्वक उनका भक्षण करता हुआ सब ओर दौड़ता-फिरता था॥७॥

कृच्छ्रेण च समाश्वस्ताः संगम्य च ततस्ततः।
वृक्षाद्रिहस्ता हरयस्तस्थुः संग्राममूर्धनि॥८॥

उस समय वानर बड़ी कठिनाई से धैर्य धारण करके इधर-उधर से एकत्र हुए और वृक्ष तथा पर्वतशिखर हाथ में लेकर संग्रामभूमि में डटे रहे॥८॥

ततः पर्वतमुत्पाट्य द्विविदः प्लवगर्षभः।
दुद्राव गिरिशृङ्गाभं विलम्ब इव तोयदः॥९॥

तत्पश्चात् मेघ के समान विशाल शरीरवाले वानरशिरोमणि द्विविद ने एक पर्वत उखाड़कर पर्वतशिखर के समान ऊँचे कुम्भकर्ण पर आक्रमण किया॥९॥

तं समुत्पाट्य चिक्षेप कुम्भकर्णाय वानरः।
तमप्राप्य महाकायं तस्य सैन्येऽपतत् ततः॥१०॥

उस पर्वत को उखाड़कर द्विविद ने कुम्भकर्ण के ऊपर फेंका; किंतु वह उस विशालकाय राक्षस तक न पहुँचकर उसकी सेना में जा गिरा ॥ १०॥

ममर्दाश्वान् गजांश्चापि रथांश्चापि गजोत्तमान्।
तानि चान्यानि रक्षांसि एवं चान्यदगिरेः शिरः॥११॥

उस पर्वत-शिखर ने राक्षससेना के कितने ही घोड़ों, हाथियों, रथों, गजराजों तथा दूसरे-दूसरे राक्षसों को भी कुचल डाला॥११॥

तच्छैलवेगाभिहतं हताश्वं हतसारथिम्।
रक्षसां रुधिरक्लिन्नं बभूवायोधनं महत्॥१२॥

उस समय वह महान् युद्धस्थल, जिसमें शैलशिखर के वेग से कितने ही घोड़े और सारथि कुचल गये थे, राक्षसों के रुधिर से गीला हो गया॥१२॥

रथिनो वानरेन्द्राणां शरैः कालान्तकोपमैः।
शिरांसि नर्दतां जह्रः सहसा भीमनिःस्वनाः॥१३॥

रथियों ने प्रलयकालीन यमराज के समान भयंकर बाणों से गर्जते हुए वानरयूथपतियों के मस्तकों को सहसा काटना आरम्भ किया।॥ १३॥

वानराश्च महात्मानः समुत्पाट्य महाद्रुमान्।
रथानश्वान् गजानुष्ट्रान् राक्षसानभ्यसूदयन्॥१४॥

महामनस्वी वानर भी बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर शत्रुसेना के रथ, घोड़े, हाथी, ऊँट और राक्षसों का संहार करने लगे॥१४॥

हनूमान् शैलशृङ्गाणि शिलाश्च विविधान् द्रुमान्।
ववर्ष कुम्भकर्णस्य शिरस्यम्बरमास्थितः॥१५॥

हनुमान् जी आकाश में पहुँचकर कुम्भकर्ण के मस्तक पर पर्वत-शिखरों, शिलाओं और नाना प्रकार के वृक्षों की वर्षा करने लगे॥ १५ ॥

तानि पर्वतश्रृङ्गाणि शूलेन स बिभेद ह।
बभञ्ज वृक्षवर्षं च कुम्भकर्णो महाबलः॥१६॥

परंतु महाबली कुम्भकर्ण ने अपने शूल से उन पर्वतशिखरों को फोड़ डाला और बरसाये जाने वाले वृक्षों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥१६॥

ततो हरीणां तदनीकमुग्रं दुद्राव शूलं निशितं प्रगृह्य।
तस्थौ स तस्यापततः परस्ता न्महीधराग्रं हनुमान् प्रगृह्य ॥१७॥

तत्पश्चात् उसने अपने तीक्ष्ण शूल को हाथ में लेकर वानरों की उस भयंकर सेना पर आक्रमण किया। यह देख हनुमान जी एक पर्वत-शिखर हाथ में लेकर उस आक्रमणकारी राक्षस का सामना करने के लिये खड़े हो गये॥१७॥

स कुम्भकर्णं कुपितो जघान वेगेन शैलोत्तमभीमकायम्।
संचुक्षुभे तेन तदाभिभूतो मेदागात्रो रुधिरावसिक्तः॥१८॥

उन्होंने कुपित हो श्रेष्ठ पर्वत के समान भयानक शरीरवाले कुम्भकर्ण पर बड़े वेग से प्रहार किया। उनकी उस मार से कुम्भकर्ण व्याकुल हो उठा। उसका सारा शरीर चर्बी से गीला हो गया और वह रक्त से नहा गया॥

स शूलमाविध्य तडित्प्रकाशं गिरिं यथा प्रज्वलिताग्निशृङ्गम्।
बाह्वन्तरे मारुतिमाजघान गुहोऽचलं क्रौञ्चमिवोग्रशक्त्या॥१९॥

फिर तो उसने भी बिजली के समान चमकते हुए शूल को घुमाकर जिसके शिखर पर आग जल रही हो, उस पर्वत के समान हनुमान जी की छाती में उसी तरह मारा, जैसे स्वामी कार्तिकेय ने अपनी भयानक शक्ति से क्रौञ्चपर्वत पर आघात किया था॥ १९॥

स शूलनिर्भिन्नमहाभुजान्तरः प्रविह्वलः शोणितमुद्रमन् मुखात् ।
ननाद भीमं हनुमान् महाहवे युगान्तमेघस्तनितस्वनोपमम्॥२०॥

उस महासमर में शूल की चोट से हनुमान जी की दोनों भुजाओं के बीच का भाग (वक्षःस्थल) विदीर्ण हो गया। वे व्याकुल हो गये और मुँह से रक्त वमन करने लगे। उस समय पीड़ा के मारे उन्होंने बड़ा भयंकर आर्तनाद किया, जो प्रलयकाल के मेघों की गर्जना के समान जान पड़ता था॥ २०॥

ततो विनेदुः सहसा प्रहृष्टा रक्षोगणास्तं व्यथितं समीक्ष्य।
प्लवंगमास्तु व्यथिता भयार्ताः प्रदुद्रुवुः संयति कुम्भकर्णात्॥२१॥

हनुमान जी को आघात से पीड़ित देख राक्षसों के हर्ष की सीमा न रही। वे सहसा जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। इधर कुम्भकर्ण के भय से पीड़ित एवं व्यथित हुए वानर युद्धभूमि छोड़कर भागने लगे। २१॥

ततस्तु नीलो बलवान् पर्यवस्थापयन् बलम्।
प्रविचिक्षेप शैलाग्रं कुम्भकर्णाय धीमते॥२२॥

यह देख बलवान् नील ने वानरसेना को धैर्य बँधाने एवं सुस्थिर रखनेके लिये बुद्धिमान् कुम्भकर्ण पर एक पर्वत का शिखर चलाया॥ २२॥

तदापतन्तं सम्प्रेक्ष्य मुष्टिनाभिजघान ह।
मुष्टिप्रहाराभिहतं तच्छैलाग्रं व्यशीर्यत।
सविस्फुलिङ्गं सज्वालं निपपात महीतले॥२३॥

उस पर्वत शिखर को अपने ऊपर आता देख कुम्भकर्ण ने उसपर मुक्के से आघात किया। उसका मुक्का लगते ही वह शिखर चूर-चूर होकर बिखर गया और आग की चिनगारियाँ तथा लपटें निकालता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ २३॥

ऋषभः शरभो नीलो गवाक्षो गन्धमादनः।
पञ्च वानरशार्दूलाः कुम्भकर्णमुपाद्रवन्॥२४॥

इसके बाद ऋषभ, शरभ, नील, गवाक्ष और गन्धमादन—इन पाँच प्रमुख वानरवीरों ने कुम्भकर्ण पर धावा किया॥ २४॥

शैलैर्वृक्षैस्तलैः पादैर्मुष्टिभिश्च महाबलाः।
कुम्भकर्णं महाकायं निजघ्नुः सर्वतो युधि॥२५॥

वे महाबली वीर चारों ओर से घेरकर युद्धस्थल में महाकाय कुम्भकर्ण को पर्वतों, वृक्षों, थप्पड़ों, लातों और मुक्कों से मारने लगे॥२५॥

स्पर्शानिव प्रहारांस्तान् वेदयानो न विव्यथे।
ऋषभं तु महावेगं बाहुभ्यां परिषस्वजे॥२६॥

यद्यपि ये लोग बड़े जोर-जोर से प्रहार करते थे, तथापि उसे ऐसा जान पड़ता था मानो कोई धीरे से छू रहा हो। अतः इनकी मार से उसे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई। उसने महान् वेगशाली ऋषभ को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया॥२६॥

कुम्भकर्णभुजाभ्यां तु पीडितो वानरर्षभः।
निपपातर्षभो भीमः प्रमुखागतशोणितः॥ २७॥

कुम्भकर्ण की दोनों भुजाओं से दबकर पीड़ित हुए भयंकर वानरशिरोमणि ऋषभ के मुँह से खून निकलने लगा और वे पृथ्वी पर गिर पड़े॥२७॥

मुष्टिना शरभं हत्वा जानुना नीलमाहवे।
आजघान गवाक्षं तु तलेनेन्द्ररिपुस्तदा।
पादेनाभ्यहनत् क्रुद्धस्तरसा गन्धमादनम्॥२८॥

तदनन्तर उस समरभूमि में इन्द्रद्रोही कुम्भकर्ण ने शरभ को मुक्के से मारकर नील को घुटने से रगड़ दिया और गवाक्ष को थप्पड़ से मारा। फिर क्रोध से भरकर उसने गन्धमादन को बड़े वेग से लात मारी॥ २८॥

दत्तप्रहारव्यथिता मुमुहुः शोणितोक्षिताः।
निपेतुस्ते तु मेदिन्यां निकृत्ता इव किंशुकाः॥२९॥

उसके प्रहार से व्यथित हुए वानर मूर्च्छित हो गये और रक्त से नहा उठे। फिर कटे हुए पलाश-वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े॥२९॥

तेषु वानरमुख्येषु पातितेषु महात्मसु।
वानराणां सहस्राणि कुम्भकर्णं प्रदुद्रुवुः ॥३०॥

उन महामनस्वी प्रमुख वानरों के धराशायी हो जाने पर हजारों वानर एक साथ कुम्भकर्ण पर टूट पड़े॥

तं शैलमिव शैलाभाः सर्वे तु प्लवगर्षभाः।
समारुह्य समुत्पत्य ददंशुश्च महाबलाः॥३१॥

पर्वत के समान प्रतीत होने वाले वे समस्त महाबली वानर-यूथपति उस पर्वताकार राक्षस के ऊपर चढ़ गये और उछल-उछलकर उसे दाँतों से काटने लगे॥३१॥

तं नखैर्दशनैश्चापि मुष्टिभिर्बाहुभिस्तथा।
कुम्भकर्णं महाबाहुं निजघ्नुः प्लवगर्षभाः॥३२॥

वे वानरशिरोमणि नखों, दाँतों, मुक्कों और हाथों से महाबाहु कुम्भकर्ण को मारने लगे॥ ३२॥

स वानरसहस्रेस्तु विचितः पर्वतोपमः।
रराज राक्षसव्याघ्रो गिरिरात्मरुहैरिव॥३३॥

जैसे पर्वत अपने ऊपर उगे हुए वृक्षों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार सहस्रों वानरों से व्याप्त हुआ वह पर्वताकार राक्षस वीर अद्भुत शोभा पाने लगा॥३३॥

बाहुभ्यां वानरान् सर्वान् प्रगृह्य स महाबलः।
भक्षयामास संक्रुद्धो गरुडः पन्नगानिव॥३४॥

जैसे गरुड़ सो को अपना आहार बनाते हैं, उसी तरह अत्यन्त कुपित हुआ वह महाबली राक्षस समस्त वानरों को दोनों हाथों से पकड़-पकड़कर भक्षण करने लगा॥३४॥

प्रक्षिप्ताः कुम्भकर्णेन वक्त्रे पातालसंनिभे।
नासापुटाभ्यां संजग्मुः कर्णाभ्यां चैव वानराः॥३५॥

कुम्भकर्ण अपने पाताल के समान मुख में वानरों को झोंकता जाता था और वे उसके कानों तथा नाकों की राह से बाहर निकलते जाते थे॥ ३५ ॥

भक्षयन् भृशसंक्रुद्धो हरीन् पर्वतसंनिभः।
बभञ्ज वानरान् सर्वान् संक्रुद्धो राक्षसोत्तमः॥३६॥

अत्यन्त क्रोध से भरकर वानरों का भक्षण करते हुए पर्वत के समान विशालकाय उस राक्षसराज ने समस्त वानरों के अङ्ग-भङ्ग कर डाले॥ ३६॥

मांसशोणितसंक्लेदां कुर्वन् भूमिं स राक्षसः।
चचार हरिसैन्येषु कालाग्निरिव मूर्च्छितः॥ ३७॥

रणभूमि में रक्त और मांस की कीच मचाता हुआ वह राक्षस बढ़ी हुई प्रलयाग्नि के समान वानरसेना में विचरने लगा॥ ३७॥

वज्रहस्तो यथा शक्रः पाशहस्त इवान्तकः।
शूलहस्तो बभौ युद्धे कुम्भकर्णो महाबलः॥३८॥

शूल हाथ में लेकर संग्रामभूमि में विचरता हुआ महाबली कुम्भकर्ण वज्रधारी इन्द्र और पाशधारी यमराज के समान जान पड़ता था॥ ३८॥

यथा शुष्काण्यरण्यानि ग्रीष्मे दहति पावकः।
तथा वानरसैन्यानि कुम्भकर्णो ददाह सः॥३९॥

जैसे ग्रीष्म ऋतु में दावानल सूखे जंगलों को जला देता है, उसी प्रकार कुम्भकर्ण वानरसेनाओं को दग्ध करने लगा॥३९॥

ततस्ते वध्यमानास्तु हतयूथाः प्लवंगमाः।
वानरा भयसंविग्ना विनेदुर्विकृतैः स्वरैः॥४०॥

जिनके यूथ-के-यूथ नष्ट हो गये थे, वे वानर कुम्भकर्ण की मार खाकर भय से उद्विग्न हो उठे और विकृत स्वर में चीत्कार करने लगे॥ ४०॥

अनेकशो वध्यमानाः कुम्भकर्णेन वानराः।
राघवं शरणं जग्मुर्व्यथिता भिन्नचेतसः॥४१॥

कुम्भकर्ण के हाथ से मारे जाते हुए बहुत-से वानर, जिनका दिल टूट गया था, व्यथित हो श्रीरघुनाथजी की शरण में गये॥४१॥

प्रभग्नान् वानरान् दृष्ट्वा वज्रहस्तात्मजात्मजः।
अभ्यधावत वेगेन कुम्भकर्णं महाहवे॥४२॥

वानरों को भागते देख वालिकुमार अङ्गद उस महासमर में कुम्भकर्ण की ओर बड़े वेग से दौड़े॥ ४२॥

शैलशृङ्गं महद् गृह्य विनदन् स मुहुर्मुहुः।
त्रासयन् राक्षसान् सर्वान् कुम्भकर्णपदानुगान्॥४३॥
चिक्षेप शैलशिखरं कुम्भकर्णस्य मूर्धनि।

उन्होंने बारंबार गर्जना करके एक विशाल शैलशिखर हाथ में ले लिया और कुम्भकर्ण के पीछे चलने वाले समस्त राक्षसों को भयभीत करते हुए उस पर्वत-शिखर को उसके मस्तक पर दे मारा॥ ४३
१/२॥

स तेनाभिहतो मूर्ध्नि शैलेनेन्द्ररिपुस्तदा॥४४॥
कुम्भकर्णः प्रजज्वाल क्रोधेन महता तदा।
सोऽभ्यधावत वेगेन वालिपुत्रममर्षणः॥४५॥

मस्तक पर उस पर्वत-शिखरकी चोट खाकर इन्द्रद्रोही कुम्भकर्ण उस समय महान् क्रोध से जल उठा और उस प्रहार को सहन न कर सकने के कारण बड़े वेग से वालिपुत्र की ओर दौड़ा॥ ४४-४५ ॥

कुम्भकर्णो महानादस्त्रासयन् सर्ववानरान्।
शूलं ससर्ज वै रोषादङ्गदे तु महाबलः॥४६॥

बड़े जोर से गर्जना करने वाले महाबली कुम्भकर्ण ने समस्त वानरों को संत्रस्त करते हुए अङ्गद पर बड़े रोष से शूल का प्रहार किया॥ ४६॥

तदापतन्तं बलवान् युद्धमार्गविशारदः।
लाघवान्मोक्षयामास बलवान् वानरर्षभः॥४७॥

किंतु युद्धमार्ग के ज्ञाता बलवान् वानरशिरोमणि अङ्गद ने फुर्ती से हटकर अपनी ओर आते हुए उस शूल से अपने-आपको बचा लिया॥४७॥

उत्पत्य चैनं तरसा तलेनोरस्यताडयत्।
स तेनाभिहतः कोपात् प्रमुमोहाचलोपमः॥४८॥

साथ ही बड़े वेग से उछलकर उन्होंने उसकी छाती में एक थप्पड़ मारा। क्रोधपूर्वक चलाये हुए उस थप्पड़ की मार खाकर वह पर्वताकार राक्षस मूर्च्छित हो गया॥४८॥

स लब्धसंज्ञोऽतिबलो मुष्टिं संगृह्य राक्षसः।
अपहस्तेन चिक्षेप विसंज्ञः स पपात ह॥४९॥

थोड़ी देर में जब उसे होश हुआ, तब उस अत्यन्त बलशाली राक्षस ने भी बायें हाथ से मुक्का बाँधकर अङ्गद पर प्रहार किया, जिससे वे अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥४९॥

तस्मिन् प्लवगशार्दूले विसंज्ञे पतिते भुवि।
तच्छूलं समुपादाय सुग्रीवमभिदुद्रुवे॥५०॥

वानरप्रवर अङ्गद के अचेत एवं धराशायी हो जाने पर कुम्भकर्ण वही शूल लेकर सुग्रीव की ओर दौड़ा॥५०॥

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य कुम्भकर्णं महाबलम्।
उत्पपात तदा वीरः सुग्रीवो वानराधिपः॥५१॥

महाबली कुम्भकर्ण को अपनी ओर आते देख वीर वानरराज सुग्रीव तत्काल ऊपर की ओर उछले॥

स पर्वताग्रमुत्क्षिप्य समाविध्य महाकपिः।
अभिदुद्राव वेगेन कुम्भकर्णं महाबलम्॥५२॥

महाकपि सुग्रीव ने एक पर्वत-शिखर को उठा लिया और उसे घुमाकर महाबली कुम्भकर्ण पर वेगपूर्वक धावा किया॥५२॥

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य कुम्भकर्णः प्लवंगमम्।
तस्थौ विवृत्तसर्वाङ्गो वानरेन्द्रस्य सम्मुखः॥५३॥

वानर सुग्रीव को आक्रमण करते देख कुम्भकर्ण अपने सारे अङ्गों को फैलाकर उन वानरराज के सामने खड़ा हो गया॥५३॥

कपिशोणितदिग्धाङ्गं भक्षयन्तं महाकपीन्।
कुम्भकर्णं स्थितं दृष्ट्वा सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत्॥५४॥

कुम्भकर्ण का सारा शरीर वानरों के रक्त से नहा उठा था। वह बड़े-बड़े वानरों को खाता हुआ उनके सामने खड़ा था। उसे देखकर सुग्रीव ने कहा- ॥५४॥

पातिताश्च त्वया वीराः कृतं कर्म सुदुष्करम्।
भक्षितानि च सैन्यानि प्राप्तं ते परमं यशः॥
त्यज तद् वानरानीकं प्राकृतैः किं करिष्यसि।
सहस्वैकं निपातं मे पर्वतस्यास्य राक्षस॥५६॥

‘राक्षस! तुमने बहुत-से वीरों को मार गिराया, अत्यन्त दुष्कर कर्म कर दिखाया और कितने ही सैनिकों को अपना आहार बना लिया। इससे तुम्हें शौर्य का महान् यश प्राप्त हुआ है। अब इन वानरों की सेना को छोड़ दो। इन साधारण बंदरों से लड़कर क्या करोगे? यदि शक्ति हो तो मेरे चलाये हुए इस पर्वत की एक ही चोट सह लो’॥ ५५-५६॥

तद् वाक्यं हरिराजस्य सत्त्वधैर्यसमन्वितम्।
श्रुत्वा राक्षसशार्दूलः कुम्भकर्णोऽब्रवीद् वचः॥५७॥

वानरराज की यह सत्त्व और धैर्य से युक्त बात सुनकर राक्षसप्रवर कुम्भकर्ण बोला— ॥ ५७॥

प्रजापतेस्तु पौत्रस्त्वं तथैवर्लरजःसुतः।
धृतिपौरुषसम्पन्नस्तस्माद् गर्जसि वानर ॥५८॥

‘वानर ! तुम प्रजापति के पौत्र, ऋक्षरजा के पुत्र तथा धैर्य एवं पौरुष से सम्पन्न हो। इसीलिये इस तरह गरज रहे हो’॥ ५८॥

स कुम्भकर्णस्य वचो निशम्य व्याविध्य शैलं सहसा मुमोच।
तेनाजघानोरसि कुम्भकर्णं शैलेन वज्राशनिसंनिभेन॥५९॥

कुम्भकर्ण की यह बात सुनकर सुग्रीव ने उस शैलशिखर को घुमाकर सहसा उसके ऊपर छोड़ दिया। वह वज्र और अशनि के समान था। उसके द्वारा उन्होंने कुम्भकर्ण की छाती में गहरी चोट पहुँचायी॥ ५९॥

तच्छैलशृङ्गं सहसा विभिन्नं भुजान्तरे तस्य तदा विशाले।
ततो विषेदुः सहसा प्लवंगा रक्षोगणाश्चापि मुदा विनेदुः॥६०॥

किंतु उसके विशाल वक्षःस्थल से टकराकर वह शैल-शिखर सहसा चूर-चूर हो गया। यह देख वानर तत्काल विषाद में डूब गये और राक्षस बड़े हर्ष के साथ गर्जना करने लगे॥६०॥

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य कुम्भकर्णं महाबलम्।
उत्पपात तदा वीरः सुग्रीवो वानराधिपः॥५१॥

महाबली कुम्भकर्ण को अपनी ओर आते देख वीर वानरराज सुग्रीव तत्काल ऊपर की ओर उछले॥

स पर्वताग्रमुत्क्षिप्य समाविध्य महाकपिः।
अभिदुद्राव वेगेन कुम्भकर्णं महाबलम्॥५२॥

महाकपि सुग्रीव ने एक पर्वत-शिखर को उठा लिया और उसे घुमाकर महाबली कुम्भकर्णपर वेगपूर्वक धावा किया॥५२॥

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य कुम्भकर्णः प्लवंगमम्।
तस्थौ विवृत्तसर्वाङ्गो वानरेन्द्रस्य सम्मुखः॥५३॥

वानर सुग्रीव को आक्रमण करते देख कुम्भकर्ण अपने सारे अङ्गों को फैलाकर उन वानरराज के सामने खड़ा हो गया॥५३॥

कपिशोणितदिग्धाङ्गं भक्षयन्तं महाकपीन्।
कुम्भकर्णं स्थितं दृष्ट्वा सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत्॥५४॥

कुम्भकर्ण का सारा शरीर वानरों के रक्त से नहा उठा था। वह बड़े-बड़े वानरों को खाता हुआ उनके सामने खड़ा था। उसे देखकर सुग्रीव ने कहा- ॥५४॥

पातिताश्च त्वया वीराः कृतं कर्म सुदुष्करम्।
भक्षितानि च सैन्यानि प्राप्तं ते परमं यशः॥
त्यज तद् वानरानीकं प्राकृतैः किं करिष्यसि।
सहस्वैकं निपातं मे पर्वतस्यास्य राक्षस॥५६॥

‘राक्षस! तुमने बहुत-से वीरों को मार गिराया, अत्यन्त दुष्कर कर्म कर दिखाया और कितने ही सैनिकों को अपना आहार बना लिया। इससे तुम्हें शौर्य का महान् यश प्राप्त हुआ है। अब इन वानरों की सेना को छोड़ दो। इन साधारण बंदरों से लड़कर क्या करोगे? यदि शक्ति हो तो मेरे चलाये हुए इस पर्वत की एक ही चोट सह लो’॥ ५५-५६॥

तद् वाक्यं हरिराजस्य सत्त्वधैर्यसमन्वितम्।
श्रुत्वा राक्षसशार्दूलः कुम्भकर्णोऽब्रवीद् वचः॥५७॥

वानरराज की यह सत्त्व और धैर्य से युक्त बात सुनकर राक्षसप्रवर कुम्भकर्ण बोला— ॥ ५७॥

प्रजापतेस्तु पौत्रस्त्वं तथैवर्लरजःसुतः।
धृतिपौरुषसम्पन्नस्तस्माद् गर्जसि वानर ॥५८॥

‘वानर ! तुम प्रजापति के पौत्र, ऋक्षरजा के पुत्र तथा धैर्य एवं पौरुष से सम्पन्न हो। इसीलिये इस तरह गरज रहे हो’॥ ५८॥

स कुम्भकर्णस्य वचो निशम्य व्याविध्य शैलं सहसा मुमोच।
तेनाजघानोरसि कुम्भकर्णं शैलेन वज्राशनिसंनिभेन॥५९॥

कुम्भकर्ण की यह बात सुनकर सुग्रीव ने उस शैलशिखर को घुमाकर सहसा उसके ऊपर छोड़ दिया। वह वज्र और अशनि के समान था। उसके द्वारा उन्होंने कुम्भकर्ण की छाती में गहरी चोट पहुँचायी॥ ५९॥

तच्छैलशृङ्गं सहसा विभिन्नं भुजान्तरे तस्य तदा विशाले।
ततो विषेदुः सहसा प्लवंगा रक्षोगणाश्चापि मुदा विनेदुः॥६०॥

किंतु उसके विशाल वक्षःस्थल से टकराकर वह शैल-शिखर सहसा चूर-चूर हो गया। यह देख वानर तत्काल विषाद में डूब गये और राक्षस बड़े हर्ष के साथ गर्जना करने लगे॥६०॥

स शैलशृङ्गाभिहतश्चुकोप ननाद रोषाच्च विवृत्य वक्त्रम्।
व्याविध्य शूलं स तडित्प्रकाशं चिक्षेप हपृक्षपतेर्वधाय॥६१॥

उस पर्वत-शिखर की चोट खाकर कुम्भकर्ण को बड़ा क्रोध हुआ। वह रोष से मुँह फैलाकर जोर-जोर से गर्जना करने लगा। फिर उसने बिजली के समान चमकने वाले उस शूल को घुमाकर सुग्रीव के वध के लिये चलाया॥ ६१॥

तत् कुम्भकर्णस्य भुजप्रणुन्नं शूलं शितं काञ्चनधामयष्टिम्।
क्षिप्रं समुत्पत्य निगृह्य दोर्ध्या बभञ्ज वेगेन सुतोऽनिलस्य॥६२॥

कुम्भकर्ण के हाथ से छूटे हुए उस तीखे शूल को, जिसके डंडे में सोने की लड़ियाँ लगी हुई थीं, वायुपुत्र हनुमान् ने शीघ्र उछलकर दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे वेगपूर्वक तोड़ डाला॥ ६२॥

कृतं भारसहस्रस्य शूलं कालायसं महत्।
बभञ्ज जानुमारोप्य तदा हृष्टः प्लवंगमः॥६३॥

वह महान् शूल हजार भार काले लोहे का बना हुआ था, जिसे हनुमान् जी ने बड़े हर्ष के साथ अपने घुटनों में लगाकर तत्काल तोड़ दिया॥६३॥

शूलं भग्नं हनुमता दृष्ट्वा वानरवाहिनी।
हृष्टा ननाद बहुशः सर्वतश्चापि दुद्रुवे॥६४॥

हनुमान् जी के द्वारा शूल को तोड़ा गया देख वानरसेना बड़े हर्ष से भरकर बारंबार सिंहनाद करने लगी और चारों ओर दौड़ लगाने लगी॥ ६४॥

बभूवाथ परित्रस्तो राक्षसो विमुखोऽभवत्।
सिंहनादं च ते चक्रुः प्रहृष्टा वनगोचराः।
मारुतिं पूजयांचक्रुर्दृष्ट्वा शूलं तथागतम्॥६५॥

परंतु वह राक्षस भय से थर्रा उठा। उसके मुख पर उदासी छा गयी और वनचारी वानर अत्यन्त प्रसन्न हो सिंहनाद करने लगे। उन सबने शूल को खण्डित हुआ देख पवनकुमार हनुमान जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की॥

स तत् तथा भग्नमवेक्ष्य शूलं चुकोप रक्षोधिपतिर्महात्मा।
उत्पाट्य लङ्कामलयात् स शृङ्गं जघान सुग्रीवमुपेत्य तेन॥६६॥

इस प्रकार उस शूल को भग्न हुआ देख महाकाय राक्षसराज कुम्भकर्ण को बड़ा क्रोध हुआ और उसने लङ्का के निकटवर्ती मलय पर्वत का शिखर उठाकर सुग्रीव के निकट जा उन पर दे मारा॥६६॥

स शैलशृङ्गाभिहतो विसंज्ञः पपात भूमौ युधि वानरेन्द्रः।।
तं वीक्ष्य भूमौ पतितं विसंज्ञं नेदुः प्रहृष्टा युधि यातुधानाः॥६७॥

उस शैल-शिखर से आहत हो वानरराज सुग्रीव अपनी सुध-बुध खो बैठे और युद्धभूमि में गिर पड़े। उन्हें अचेत होकर पृथ्वी पर पड़ा देख निशाचरों को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे रणक्षेत्र में सिंहनाद करने लगे॥ ६७॥

समभ्युपेत्याद्भुतघोरवीर्य स कुम्भकर्णो युधि वानरेन्द्रम्।
जहार सुग्रीवमभिप्रगृह्य यथानिलो मेघमिव प्रचण्डः॥६८॥

तदनन्तर कुम्भकर्ण ने युद्धस्थल में अद्भुत एवं भयानक पराक्रम प्रकट करने वाले वानरराज सुग्रीव के पास जाकर उन्हें उठा लिया और जैसे प्रचण्ड वायु बादलों को उड़ा ले जाती है, उसी तरह वह उन्हें हर ले गया॥ ६८॥

स तं महामेघनिकाशरूपमुत्पाट्य गच्छन् युधि कुम्भकर्णः।
रराज मेरुप्रतिमानरूपो मेरुर्यथा व्युच्छ्रितघोरशृङ्गः॥६९॥

कुम्भकर्ण का स्वरूप मेरुपर्वत के समान जान पड़ता था। वह महान् मेघ के समान रूपवाले सुग्रीव को उठाकर जब युद्धस्थल से चला, उस समय भयानक ऊँचे शिखरोंवाले मेरुगिरि के समान ही शोभा पाने लगा॥

ततस्तमादाय जगाम वीरः संस्तूयमानो युधि राक्षसेन्द्रः।
शृण्वन् निनादं त्रिदिवालयानां प्लवङ्गराजग्रहविस्मितानाम्॥७०॥

उन्हें लेकर वह वीर राक्षसराज लङ्का की ओर चल दिया। उस समय युद्धस्थल में सभी राक्षस उसकी स्तुति कर रहे थे। वानरराज के पकड़े जाने से आश्चर्यचकित हुए देवताओं का दुःखजनित शब्द उसे स्पष्ट सुनायी दे रहा था॥ ७० ॥

ततस्तमादाय तदा स मेने हरीन्द्रमिन्द्रोपममिन्द्रवीर्यः।
अस्मिन् हते सर्वमिदं हतं स्यात् सराघवं सैन्यमितीन्द्रशत्रः॥७१॥

इन्द्र के समान पराक्रमी इन्द्रद्रोही कुम्भकर्ण ने उस समय देवेन्द्रतुल्य तेजस्वी वानरराज सुग्रीव को पकड़कर मन-ही-मन यह मान लिया कि इनके मारे जाने से श्रीरामसहित यह सारी वानर-सेना स्वतः नष्ट हो जायगी॥

विद्रुतां वाहिनीं दृष्ट्वा वानराणामितस्ततः।
कुम्भकर्णेन सुग्रीवं गृहीतं चापि वानरम्॥७२॥
हनूमांश्चिन्तयामास मतिमान् मारुतात्मजः।
एवं गृहीते सुग्रीवे किं कर्तव्यं मया भवेत्॥७३॥

‘वानरों की सेना इधर-उधर भाग रही है और वानरराज सुग्रीव को कुम्भकर्ण ने पकड़ लिया है’, यह देखकर बुद्धिमान् पवनकुमार हनुमान् ने सोचा — ‘सुग्रीव के इस प्रकार पकड़ लिये जाने पर मुझे क्या करना चाहिये?

यद्धि न्याय्यं मया कर्तुं तत् करिष्याम्यसंशयम्।
भूत्वा पर्वतसंकाशो नाशयिष्यामि राक्षसम्॥७४॥

‘मेरे लिये जो भी करना उचित होगा, उसे मैं निःसन्देह करूँगा। पर्वताकार रूप धारण करके उस राक्षस का नाश कर डालूँगा॥ ७४॥

मया हते संयति कुम्भकर्णे महाबले मुष्टिविशीर्णदेहे।
विमोचिते वानरपार्थिवे च भवन्तु हृष्टाः प्लवगाः समग्राः॥७५॥

‘युद्धस्थल में अपने मुक्कों से मार-मारकर महाबली कुम्भकर्ण के शरीर को चूर-चूर कर दूंगा; इस प्रकार जब वह मेरे हाथ से मारा जायगा तथा वानरराज सुग्रीव को उसकी कैद से छुड़ा लिया जायगा, तब सारे वानर हर्ष से खिल उठेंगे; अच्छा ऐसा ही हो॥ ७५ ॥

अथवा स्वयमप्येष मोक्षं प्राप्स्यति वानरः।
गृहीतोऽयं यदि भवेत् त्रिदशैः सासुरोरगैः॥७६॥

‘अथवा ये सुग्रीव स्वयं ही उसकी पकड़ से छूट जायेंगे। यदि इन्हें देवता, असुर अथवा नाग भी पकड़ लें तो ये अपने ही प्रयत्न से उनकी कैद से भी छुटकारा पा जायँगे॥ ७६॥

मन्ये न तावदात्मानं बुध्यते वानराधिपः।
शैलप्रहाराभिहतः कुम्भकर्णेन संयुगे॥७७॥

‘मैं समझता हूँ कि युद्ध में कुम्भकर्ण ने शिला के प्रहार से सुग्रीव को जो गहरी चोट पहुँचायी है, उससे अचेत हुए वानरराज को अभी तक होश नहीं हुआ है।

अयं मुहूर्तात् सुग्रीवो लब्धसंज्ञो महाहवे।
आत्मनो वानराणां च यत् पथ्यं तत् करिष्यति॥७८॥

‘एक ही मुहूर्त में जब सुग्रीव सचेत होंगे, तब महासमर में अपने और वानरों के लिये जो हितकर कर्म होगा, उसे करेंगे॥ ७८॥

मया तु मोक्षितस्यास्य सुग्रीवस्य महात्मनः।
अप्रीतिश्च भवेत् कष्टा कीर्तिनाशश्च शाश्वतः॥७९॥

‘यदि मैं इन्हें छुड़ाऊँ तो महात्मा सुग्रीव को प्रसन्नता नहीं होगी, उलटे इनके मन में खेद होगा और सदा के लिये इनके यश का नाश हो जायगा॥ ७९॥

तस्मान्मुहूर्तं कांक्षिष्ये विक्रम मोक्षितस्य तु।
भिन्नं च वानरानीकं तावदाश्वासयाम्यहम्॥८०॥

‘अतः मैं एक मुहूर्त तक उनके छूटने की प्रतीक्षा करूँगा। फिर वे छूट जायेंगे तो उनका पराक्रम देलूँगा। तब तक भागी हुई वानर-सेना को धैर्य बँधाता हूँ’॥ ८०॥

इत्येवं चिन्तयित्वाथ हनूमान् मारुतात्मजः।
भूयः संस्तम्भयामास वानराणां महाचमूम्॥८१॥

ऐसा विचारकर पवनकुमार हनुमान् ने वानरों की उस विशाल वाहिनी को पुनः आश्वासन दे स्थिरतापूर्वक स्थापित किया॥ ८१॥

स कुम्भकर्णोऽथ विवेश लङ्कां स्फुरन्तमादाय महाहरिं तम्।
विमानचर्यागृहगोपुरस्थैः पुष्पाग्रयवर्षैरभिपूज्यमानः॥ ८२॥

उधर कुम्भकर्ण हाथ-पैर हिलाते हुए महावानर सुग्रीव को लिये-दिये लङ्का में घुस गया। उस समय विमानों (सतमहले मकानों), सड़क के दोनों ओर बनी हुई गृहपंक्तियों तथा गोपुरों में रहने वाले स्त्री-पुरुष उत्तम फूलों की वर्षा करके कुम्भकर्ण का स्वागतसत्कार कर रहे थे॥ ८२॥

लाजगन्धोदवर्षैस्तु सेच्यमानः शनैः शनैः।
राजवीथ्यास्तु शीतत्वात् संज्ञां प्राप महाबलः॥८३॥

लावा और गन्धयुक्त जल की वर्षाद्वारा अभिषिक्त हो राजमार्ग की शीतलता के कारण महाबली सुग्रीव को धीरे-धीरे होश आ गया॥ ८३॥

ततः स संज्ञामुपलभ्य कृच्छ्राद् बलीयसस्तस्य भुजान्तरस्थः।
अवेक्षमाणः पुरराजमार्ग विचिन्तयामास मुहर्महात्मा॥८४॥

तब बड़ी कठिनाई से सचेत हो बलवान् कुम्भकर्ण की भुजाओं में दबे हुए महात्मा सुग्रीव नगर और राजमार्ग की ओर देखकर बारंबार इस प्रकार विचार करने लगे— ॥ ८४॥

एवं गृहीतेन कथं नु नाम शक्यं मया सम्प्रतिकर्तुमद्य।
तथा करिष्यामि यथा हरीणां भविष्यतीष्टं च हितं च कार्यम्॥ ८५॥

‘इस प्रकार इस राक्षस की पकड़ में आकर अब मैं किस तरह इससे भरपूर बदला ले सकता हूँ? मैं वही करूँगा, जिससे वानरों का अभीष्ट और हितकर कार्य हो’ ।। ८५॥

ततः कराग्रैः सहसा समेत्य राजा हरीणाममरेन्द्रशत्रोः।
खरैश्च कर्णौ दशनैश्च नासां ददंश पादैर्विददार पाश्वौं॥८६॥

ऐसा निश्चय करके वानरों के राजा सुग्रीव ने सहसा हाथों के तीखे नखों द्वारा इन्द्रशत्रु कुम्भकर्ण के दोनों कान नोच लिये, दाँतों से उसकी नाक काट ली और अपने पैरों के नखों से उस राक्षस की दोनों पसलियाँ फाड़ डालीं॥८६॥

स कुम्भकर्णो हृतकर्णनासो विदारितस्तेन रदैर्नखैश्च।
रोषाभिभूतः क्षतजार्द्रगात्रः सुग्रीवमाविध्य पिपेष भूमौ॥ ८७॥

सुग्रीव के दाँतों और नखों से दोनों कानों का निम्न भाग और नाक कट जाने तथा पार्श्वभाग के विदीर्ण हो जाने से कुम्भकर्ण का सारा शरीर लहूलुहान हो गया। तब उसे बड़ा रोष हुआ और उसने सुग्रीव को घुमाकर भूमि पर पटक दिया। पटककर वह उन्हें भूमि पर रगड़ने लगा॥ ८७॥

स भूतले भीमबलाभिपिष्टः सुरारिभिस्तैरभिहन्यमानः।
जगाम खं कन्दुकवज्जवेन पुनश्च रामेण समाजगाम॥८८॥

भयानक बलशाली कुम्भकर्ण जब उन्हें पृथ्वी पर रगड़ रहा था और वे देवद्रोही राक्षस उनपर सब ओर से चोट कर रहे थे, उसी समय सुग्रीव सहसा गेंद की भाँति वेगपूर्वक आकाश में उछले और पुनः श्रीरामचन्द्रजी से आ मिले॥ ८८॥

कर्णनासाविहीनस्तु कुम्भकर्णो महाबलः।
रराज शोणितोत्सिक्तो गिरिः प्रस्रवणैरिव॥८९॥

महाबली कुम्भकर्ण अपनी नाक और कान खो बैठा। उसके अङ्गों से इस तरह खून बहने लगा, जैसे पर्वत से पानी के झरने गिरते हैं। वह रक्त से नहा उठा और झरनों से युक्त शैलशिखर की भाँति शोभा पाने लगा॥

शोणिताो महाकायो राक्षसो भीमदर्शनः।
युद्धायाभिमुखो भूयो मनश्चक्रे निशाचरः॥९०॥

महाकाय राक्षस रक्त से नहाकर और भी भयानक दिखायी देने लगा। उस निशाचर ने पुनः शत्रु के सामने जाकर युद्ध करने का विचार किया॥९० ॥

अमर्षाच्छोणितोद्गारी शुशुभे रावणानुजः।
नीलाञ्जनचयप्रख्यः ससंध्य इव तोयदः॥९१॥

अमर्षपूर्वक रक्त वमन करता हुआ रावण का छोटा भाई कुम्भकर्ण, जिसके शरीर का रंग काले मेघ के समान था, संध्याकाल के बादल की भाँति सुशोभित हो रहा था।

गते च तस्मिन् सुरराजशत्रुः क्रोधात् प्रदुद्राव रणाय भूयः।
अनायुधोऽस्मीति विचिन्त्य रौद्रो घोरं तदा मुद्गरमाससाद॥९२॥

सुग्रीव के निकल भागने पर वह इन्द्रद्रोही राक्षस फिर युद्ध के लिये दौड़ा। उस समय यह सोचकर कि ‘मेरे पास कोई हथियार नहीं है’ उसने एक बड़ा भयंकर मुद्गर ले लिया॥९२॥

ततः स पुर्याः सहसा महौजा निष्क्रम्य तद् वानरसैन्यमुग्रम्।
बभक्ष रक्षो युधि कुम्भकर्णः प्रजा युगान्ताग्निरिव प्रवृद्धः॥९३॥

तदनन्तर महाबलशाली राक्षस कुम्भकर्ण सहसा लङ्कापुरी से निकलकर प्रजा का भक्षण करने वाली प्रलयकाल की प्रज्वलित अग्नि के समान उस भयंकर वानर-सेना को युद्धस्थल में अपना आहार बनाने लगा॥

बुभुक्षितः शोणितमांसगृनुः प्रविश्य तद् वानरसैन्यमुग्रम्।
चखाद रक्षांसि हरीन् पिशाचानृक्षांश्च मोहाद् युधि कुम्भकर्णः।
यथैव मृत्युर्हरते युगान्ते स भक्षयामास हरीश्च मुख्यान्॥९४॥

उस समय कुम्भकर्ण को भूख सता रही थी, अतएव वह रक्त और मांस के लिये लालायित हो रहा था। उसने उस भयंकर वानर-सेना में प्रवेश करके मोहवश वानरों और भालुओं के साथ-साथ राक्षसों तथा पिशाचों को भी खाना आरम्भ कर दिया। वह प्रधान-प्रधान वानरों को उसी प्रकार अपना ग्रास बना रहा था, जैसे प्रलयकाल में मृत्यु प्राणियों के प्राणों का अपहरण करती है॥९४॥

एकं द्वौ त्रीन् बहून् क्रुद्धो वानरान् सह राक्षसैः।
समादायैकहस्तेन प्रचिक्षेप त्वरन् मुखे॥९५॥

वह बड़ी उतावली के साथ एक हाथ से क्रोधपूर्वक एक, दो, तीन तथा बहुत-बहुत राक्षसों और वानरों को समेटकर अपने मुँह में झोंक लेता था॥ ९५॥

सम्प्रस्रवंस्तदा मेदः शोणितं च महाबलः।
वध्यमानो नगेन्द्राग्रैर्भक्षयामास वानरान्॥९६॥

उस समय वह महाबली निशाचर पर्वत-शिखरों की मार खाता हुआ भी मुँह से वानरों की चर्बी और रक्त गिराता हुआ उन सबका भक्षण कर रहा था॥ ९६ ॥

ते भक्ष्यमाणा हरयो राम जग्मुस्तदा गतिम्।
कुम्भकर्णो भृशं क्रुद्धः कपीन् खादन् प्रधावति॥९७॥

उसके द्वारा खाये जाते हुए वानर भयभीत हो उस समय भगवान् श्रीराम की शरण में गये। उधर कुम्भकर्ण अत्यन्त कुपित हो वानरों को अपना आहार बनाता हुआ सब ओर उन पर धावा करने लगा। ९७॥

शतानि सप्त चाष्टौ च विंशत् त्रिंशत् तथैव च।
सम्परिष्वज्य बाहुभ्यां खादन् विपरिधावति॥९८॥

वह सात, आठ, बीस, तीस तथा सौ-सौ वानरों को अपनी दोनों भुजाओं में भर लेता और उन्हें खाता हुआ रणभूमि में दौड़ता-फिरता था॥९८ ॥

मेदोवसाशोणितदिग्धगात्रः कर्णावसक्तग्रथितान्त्रमालः।
ववर्ष शूलानि सुतीक्ष्णदंष्ट्रः कालो युगान्तस्थ इव प्रवृद्धः॥९९॥

उसके शरीर में मेद, चर्बी और रक्त लिपटे हुए थे। उसके कानों में आँतों की मालाएँ उलझी हुई थीं तथा उसकी दाढ़ें बहुत तीखी थीं। वह महाप्रलय के समय प्राणियों का संहार करने वाले विशाल रूपधारी काल के समान वानरों पर शूलों की वर्षा कर रहा था॥९९॥

तस्मिन् काले सुमित्रायाः पुत्रः परबलार्दनः।
चकार लक्ष्मणः क्रुद्धो युद्धं परपुरंजयः॥१००॥

उस समय शत्रुनगरी पर विजय पाने तथा शत्रुओं का संहार करने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण कुपित होकर उस राक्षस के साथ युद्ध करने लगे॥ १०० ।।

स कुम्भकर्णस्य शरान् शरीरे सप्त वीर्यवान्।
निचखानाददे चान्यान् विससर्ज च लक्ष्मणः॥१०१॥

उन पराक्रमी लक्ष्मण ने कुम्भकर्ण के शरीर में सात बाण धंसा दिये। फिर दूसरे बाण लिये और उन्हें भी उस पर छोड़ दिया॥१०१॥

पीड्यमानस्तदस्त्रं तु विशेषं तत् स राक्षसः।
ततश्चुकोप बलवान् सुमित्रानन्दवर्धनः॥१०२॥

उनसे पीड़ित हुए उस राक्षस ने लक्ष्मण के उस अस्त्र को निःशेष कर दिया। तब सुमित्रा के आनन्द को बढ़ाने वाले बलवान् लक्ष्मण को बड़ा क्रोध हुआ। १०२॥

अथास्य कवचं शुभ्रं जाम्बूनदमयं शुभम्।
प्रच्छादयामास शरैः संध्याभ्रमिव मारुतः॥१०३॥

उन्होंने कुम्भकर्ण के सुवर्णनिर्मित सुन्दर एवं दीप्तिमान् कवच को अपने बाणों से ढककर उसी तरह अदृश्य कर दिया, जैसे हवाने संध्याकाल के बादल को उखाड़कर अदृश्य कर दिया हो॥ १०३॥

नीलाञ्जनचयप्रख्यः शरैः काञ्चनभूषणैः।
आपीड्यमानः शुशुभे मेघैः सूर्य इवांशुमान्॥१०४॥

काले कोयले के ढेर की-सी कान्तिवाला कुम्भकर्ण लक्ष्मण के सुवर्णभूषित बाणों से आच्छादित हो मेघों से ढके हुए अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पा रहा था।

ततः स राक्षसो भीमः सुमित्रानन्दवर्धनम्।
सावज्ञमेव प्रोवाच वाक्यं मेघौघनिःस्वनः॥१०५॥

तब उस भयंकर राक्षस ने मेघ की गर्जना के समान गम्भीर स्वर से सुमित्रानन्दन लक्ष्मण का तिरस्कार करते हुए कहा— ॥ १०५॥

अन्तकस्याप्यकष्टेन युधि जेतारमाहवे।
युध्यता मामभीतेन ख्यापिता वीरता त्वया॥१०६॥

‘लक्ष्मण! मैं युद्ध में यमराज को भी बिना कष्ट उठाये ही जीत लेने की शक्ति रखता हूँ। तुमने मेरे साथ निर्भय होकर युद्ध करते हुए अपनी अद्भुत वीरता का परिचय दिया है॥ १०६॥

प्रगृहीतायुधस्येह मृत्योरिव महामृधे।
तिष्ठन्नप्यग्रतः पूज्यः किमु युद्धप्रदायकः॥१०७॥

‘जब मैं महासमर में मृत्यु के समान हथियार लेकर युद्ध के लिये उद्यत होऊँ, उस समय जो मेरे सामने खड़ा रह जाय, वह भी प्रशंसा का पात्र है। फिर जो मुझे युद्ध प्रदान कर रहा हो, उसके लिये तो कहना ही क्या है ?॥ १०७॥

ऐरावतं समारूढो वृतः सर्वामरैः प्रभुः।
नैव शक्रोऽपि समरे स्थितपूर्वः कदाचन॥१०८॥

‘ऐरावत पर आरूढ़ हो सम्पूर्ण देवताओं से घिरे हुए शक्तिशाली इन्द्र भी पहले मेरे सामने युद्ध में नहीं ठहर सके हैं॥ १०८॥

अद्य त्वयाहं सौमित्रे बालेनापि पराक्रमैः।
तोषितो गन्तुमिच्छामि त्वामनुज्ञाप्य राघवम्॥१०९॥

‘सुमित्रानन्दन! तुमने बालक होकर भी आज अपने पराक्रम से मुझे संतुष्ट कर दिया, अतः मैं तुम्हारी अनुमति लेकर युद्ध के लिये श्रीराम के पास जाना चाहता हूँ॥ १०९॥

यत् तु वीर्यबलोत्साहैस्तोषितोऽहं रणे त्वया।
राममेवैकमिच्छामि हन्तुं यस्मिन् हते हतम्॥ ११०॥

‘तुमने अपने वीर्य, बल और उत्साह से रणभूमि में मुझे संतोष प्रदान किया है; इसलिये अब मैं केवल राम को ही मारना चाहता हूँ, जिनके मारे जाने पर सारी शत्रुसेना स्वतः मर जायगी॥ ११० ॥

रामे मयात्र निहते येऽन्ये स्थास्यन्ति संयुगे।
तानहं योधयिष्यामि स्वबलेन प्रमाथिना॥१११॥

‘मेरे द्वारा राम के मारे जाने पर जो दूसरे लोग युद्धभूमि में खड़े रहेंगे, उन सबके साथ मैं अपने संहारकारी बल के द्वारा युद्ध करूँगा’॥ १११॥

इत्युक्तवाक्यं तद् रक्षः प्रोवाच स्तुतिसंहितम्।
मृधे घोरतरं वाक्यं सौमित्रिः प्रहसन्निव॥११२॥

वह राक्षस जब पूर्वोक्त बात कह चुका, तब सुमित्राकुमार लक्ष्मण रणभूमि में ठठाकर हँस पड़े और उससे प्रशंसा मिश्रित कठोर वाणी में बोले- ॥ ११२॥

यस्त्वं शक्रादिभिर्देवैरसह्यः प्राप्य पौरुषम्।
तत् सत्यं नान्यथा वीर दृष्टस्तेऽद्य पराक्रमः॥११३॥
एष दाशरथी रामस्तिष्ठत्यद्रिरिवाचलः।

‘वीर कुम्भकर्ण! तुम महान् पौरुष पाकर जो इन्द्र आदि देवताओं के लिये भी असह्य हो उठे हो, वह तुम्हारा कथन बिलकुल ठीक है, झूठ नहीं है। मैंने स्वयं अपनी आँखों से आज तुम्हारा पराक्रम देख लिया। ये रहे दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम, जो पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हैं’॥ ११३ १/२॥

इति श्रुत्वा ह्यनादृत्य लक्ष्मणं स निशाचरः॥११४॥
अतिक्रम्य च सौमित्रिं कुम्भकर्णो महाबलः।
राममेवाभिदुद्राव कम्पयन्निव मेदिनीम्॥११५॥

लक्ष्मण की यह बात सुनकर उसका आदर न करते हुए महाबली निशाचर कुम्भकर्ण ने सुमित्राकुमार को लाँघकर श्रीराम पर ही धावा किया। उस समय वह अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को कम्पित-सी किये देता था॥

अथ दाशरथी रामो रौद्रमस्त्रं प्रयोजयन्।
कुम्भकर्णस्य हृदये ससर्ज निशितान् शरान्॥११६॥

उसे आते देख दशरथनन्दन श्रीराम ने रौद्रास्त्रका प्रयोग करके कुम्भकर्ण के हृदय में अनेक तीखे बाण मारे॥ ११६॥

तस्य रामेण विद्धस्य सहसाभिप्रधावतः।
अङ्गारमिश्राः क्रुद्धस्य मुखान्निश्चेरुरर्चिषः॥११७॥

श्रीराम के बाणों से घायल हो वह सहसा उन पर टूट पड़ा। उस समय क्रोध से भरे हुए कुम्भकर्ण के मुख से अङ्गारमिश्रित आग की लपटें निकल रही थीं॥ ११७॥

रामास्त्रविद्धो घोरं वै नर्दन् राक्षसपुङ्गवः।
अभ्यधावत संक्रुद्धो हरीन् विद्रावयन् रणे॥११८॥

भगवान् श्रीराम के अस्त्रसे पीड़ित हो राक्षसप्रवर कुम्भकर्ण घोर गर्जना करता और रणभूमि में वानरों को खदेड़ता हुआ क्रोधपूर्वक उनकी ओर दौड़ा॥ ११८ ॥

तस्योरसि निमग्नास्ते शरा बर्हिणवाससः।
हस्ताच्चास्य परिभ्रष्टा गदा चोर्ध्या पपात ह॥११९॥

श्रीराम के बाणों में  मोर के पंख लगे हुए थे। वे कुम्भकर्ण की छाती में फँस गये। अतः व्याकुलता के कारण उसके हाथ से गदा छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी॥ ११९॥

आयुधानि च सर्वाणि विप्रकीर्यन्त भूतले।
स निरायुधमात्मानं यदा मेने महाबलः॥१२०॥
मुष्टिभ्यां च कराभ्यां च चकार कदनं महत्।

इतना ही नहीं, उसके अन्य सब आयुध भी भूमि पर बिखर गये। जब उसने समझ लिया कि अब मेरे पास कोई हथियार नहीं है, तब उस महाबली निशाचर ने दोनों मुक्कों और हाथों से ही वानरों का महान् संहार आरम्भ किया॥ १२० १/२॥

स बाणैरतिविद्धाङ्गः क्षतजेन समुक्षितः।
रुधिरं परिसुस्राव गिरिः प्रस्रवणं यथा॥१२१॥

बाणों से उसके सारे अङ्ग अत्यन्त घायल हो गये थे, इसलिये वह खून से नहा उठा और जैसे पर्वत झरने बहाता है, उसी तरह वह अपनी देह से रक्त की धारा बहाने लगा॥ १२१॥

स तीवेण च कोपेन रुधिरेण च मूर्च्छितः।
वानरान् राक्षसानृक्षान् खादन् स परिधावति॥१२२॥

वह खून से लथपथ और दुःसह क्रोध से व्याकुल होकर वानरों, भालुओं तथा राक्षसों को भी खाता हुआ चारों ओर दौड़ने लगा॥ १२२ ॥

अथ शृङ्गं समाविध्य भीमं भीमपराक्रमः।
चिक्षेप राममुद्दिश्य बलवानन्तकोपमः॥१२३॥

इसी बीच में यमराज के समान प्रतीत होने वाले उस बलवान् एवं भयानक पराक्रमी निशाचर ने एक भयंकर पर्वत का शिखर उठाया और उसे घुमाकर श्रीरामचन्द्रजी को लक्ष्य करके चला दिया॥ १२३॥

अप्राप्तमन्तरा रामः सप्तभिस्तमजिह्मगैः।
चिच्छेद गिरिशृङ्गं तं पुनः संधाय कार्मुकम्॥१२४॥

परंतु श्रीराम ने पुनः धनुष का संधान करके सीधे जाने वाले सात बाण मारकर उस पर्वत-शिखर को बीच में ही टूक-टूक कर डाला, अपने पास तक नहीं आने दिया॥

ततस्तु रामो धर्मात्मा तस्य शृङ्गं महत् तदा।
शरैः काञ्चनचित्राङ्गैश्चिच्छेद भरताग्रजः॥१२५॥
तन्मेरुशिखराकारं द्योतमानमिव श्रिया।
द्वे शते वानराणां च पतमानमपातयत्॥१२६॥

भरत के बड़े भाई धर्मात्मा श्रीराम ने सुवर्णभूषित विचित्र बाणों द्वारा जब उस महान् पर्वतशिखर को काट दिया, उस समय अपनी प्रभा से प्रकाशित-सा होते हुए उस मेरुपर्वत के शृङ्गसदृश शिखर ने भूमि पर गिरते-गिरते दो सौ वानरों को धराशायी कर दिया। १२५-१२६॥

तस्मिन् काले स धर्मात्मा लक्ष्मणो राममब्रवीत्।
कुम्भकर्णवधे युक्तो योगान् परिमृशन् बहून्॥१२७॥

उस समय धर्मात्मा लक्ष्मण ने, जो कुम्भकर्ण के वध के लिये नियुक्त थे, उसके वध की अनेक युक्तियों का विचार करते हुए श्रीराम से कहा— ॥ १२७॥

नैवायं वानरान् राजन् न विजानाति राक्षसान्।
मत्तः शोणितगन्धेन स्वान् परांश्चैव खादति॥१२८॥

‘राजन्! यह राक्षस शोणित की गन्ध से मतवाला हो गया है; अतः न वानरों को पहचानता है न राक्षसों को अपने और पराये दोनों ही पक्षों के योद्धाओं को खा रहा है। १२८॥

साध्वेनमधिरोहन्तु सर्वतो वानरर्षभाः।
यूथपाश्च यथा मुख्यास्तिष्ठन्त्वस्मिन् समन्ततः॥१२९॥

‘अतः श्रेष्ठ वानर-यूथपतियों में जो प्रधान लोग हैं, वे सब ओर से इसके ऊपर चढ़ जायँ और इसके शरीर पर ही बैठे रहें॥ १२९॥

अद्यायं दुर्मतिः काले गुरुभारप्रपीडितः।
प्रचरन् राक्षसो भूमौ नान्यान् हन्यात् प्लवंगमान्॥१३०॥

‘ऐसा होने से यह दुर्बुद्धि निशाचर इस समय भारी भार से पीड़ित हो रणभूमि में विचरण करते समय दूसरे वानरों को नहीं मार सकेगा’ ॥ १३०॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राजपुत्रस्य धीमतः।
ते समारुरुहुर्हृष्टाः कुम्भकर्णं महाबलाः॥१३१॥

बुद्धिमान् राजकुमार लक्ष्मण की यह बात सुनकर वे महाबली वानर-यूथपति बड़े हर्ष के साथ कुम्भकर्ण पर चढ़ गये॥ १३१॥

कुम्भकर्णस्तु संक्रुद्धः समारूढः प्लवंगमैः।
व्यधूनयत् तान् वेगेन दुष्टहस्तीव हस्तिपान्॥१३२॥

वानरों के चढ़ जाने पर कुम्भकर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा और जैसे बिगडैल हाथी महावतों को गिरा देता है, उसी प्रकार उसने वेगपूर्वक वानरों को अपनी देह हिलाकर गिरा दिया॥ १३२॥

तान् दृष्ट्वा निधुतान् रामो रुष्टोऽयमिति राक्षसम्।
समुत्पपात वेगेन धनुरुत्तममाददे॥१३३॥

उन सबको गिराया गया देख श्रीराम ने यह समझ लिया कि कुम्भकर्ण रुष्ट हो गया है। फिर वे बड़े वेग से उछलकर उस राक्षस की ओर दौड़े और एक उत्तम धनुष हाथ में ले लिया॥ १३३॥

क्रोधरक्तेक्षणो धीरो निर्दहन्निव चक्षुषा।
राघवो राक्षसं वेगादभिदुद्राव वेगितः।
यूथपान् हर्षयन् सर्वान् कुम्भकर्णबलार्दितान्॥१३४॥

उस समय उनके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे। वे धीर-वीर श्रीरघुनाथजी उसकी ओर इस प्रकार देखने लगे, मानो उसे अपनी दृष्टि से दग्ध कर डालेंगे। उन्होंने कुम्भकर्ण के बल से पीड़ित समस्त
वानरयूथपतियों का हर्ष बढ़ाते हुए बड़े वेग से उस राक्षस पर धावा किया॥१३४॥

स चापमादाय भुजंगकल्पं दृढज्यमुग्रं तपनीयचित्रम्।
हरीन् समाश्वास्य समुत्पपात रामो निबद्धोत्तमतूणबाणः॥१३५॥

सुदृढ़ प्रत्यञ्चा से संयुक्त, सर्प के समान भयंकर और सुवर्ण से जटित होने के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न उग्र धनुष को हाथ में लेकर श्रीराम ने उत्तम तरकस और बाण बाँध लिये और वानरों को आश्वासन देकर उन्होंने कुम्भकर्ण पर बड़े वेग से आक्रमण किया॥१३५॥

स वानरगणैस्तैस्तु वृतः परमदुर्जयैः।
लक्ष्मणानुचरो वीरः सम्प्रतस्थे महाबलः॥।१३६॥

उस समय अत्यन्त दुर्जय वानरसमूहों ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा था। लक्ष्मण उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार वे महाबली वीर श्रीराम आगे बढ़े॥ १३६॥

स ददर्श महात्मानं किरीटिनमरिंदमम्।
शोणिताप्लुतरक्ताक्षं कुम्भकर्णं महाबलः॥१३७॥
सर्वान् समभिधावन्तं यथा रुष्टं दिशागजम्।
मार्गमाणं हरीन् क्रुद्धं राक्षसैः परिवारितम्॥१३८॥

उन महान् बलशाली श्रीराम ने देखा, महाकाय शत्रुदमन कुम्भकर्ण मस्तक पर किरीट धारण किये सब ओर धावा कर रहा है। उसके सारे अङ्ग खून से लथपथ हो रहे हैं। वह रोष से भरे हुए दिग्गज की भाँति क्रोधपूर्वक वानरों को खोज रहा है और उन सब पर आक्रमण करता है। बहुत-से राक्षस उसे घेरे हुए हैं॥ १३७-१३८॥

विन्ध्यमन्दरसंकाशं काञ्चनाङ्गदभूषणम्।
स्रवन्तं रुधिरं वक्त्राद् वर्षमेघमिवोत्थितम्॥१३९॥

वह विन्ध्य और मन्दराचल के समान जान पड़ता है। सोने के बाजूबंद उसकी भुजाओं को विभूषित किये हुए हैं तथा वह (वर्षाकाल में) उमड़े हुए जलवर्षी मेघ की भाँति मुँह से रक्त की वर्षा कर रहा है॥ १३९॥

जिह्वया परिलिह्यन्तं सृक्किणी शोणितोक्षिते।
मृनन्तं वानरानीकं कालान्तकयमोपमम्॥१४०॥

जिह्वा के द्वारा रक्त से भीगे हुए जबड़े चाट रहा है और प्रलयकाल के संहारकारी यमराज की भाँति वानरों की सेना को रौंद रहा है॥ १४०॥

तं दृष्ट्वा राक्षसश्रेष्ठं प्रदीप्तानलवर्चसम्।
विस्फारयामास तदा कार्मुकं पुरुषर्षभः॥१४१॥

इस प्रकार प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी राक्षसशिरोमणि कुम्भकर्ण को देखकर पुरुषप्रवर श्रीराम ने तत्काल अपना धनुष खींचा॥ १४१॥

स तस्य चापनि?षात् कुपितो राक्षसर्षभः।
अमृष्यमाणस्तं घोषमभिदुद्राव राघवम्॥१४२॥

उनके धनुष की टंकार सुनकर राक्षसश्रेष्ठ कुम्भकर्ण कुपित हो उठा और उस टंकारध्वनि को सहन न करके श्रीरघुनाथजी की ओर दौड़ा* ॥ १४२॥
* इस श्लोक के बाद कुछ प्रतियों में निम्नाङ्कित श्लोक अधिक उपलब्ध होते हैं, जो उपयोगी होने से यहाँ अर्थसहित दिये जा रहे हैं

पुरस्ताद् राघवस्यार्थे गदायुक्तो विभीषणः।
अभिदुद्राव वेगेन भ्राता भ्रातरमाहवे॥
विभीषणं पुरो दृष्ट्वा कुम्भकर्णोऽब्रवीदिदम्।
प्रहरस्व रणे शीघ्रं क्षत्रधर्मे स्थिरो भव॥
भ्रातृस्नेहं परित्यज्य राघवस्य प्रियं कुरु।
अस्मत्कार्यं कृतं वत्स यस्त्वं राममुपागतः॥
त्वमेको रक्षसां लोके सत्यधर्माभिरक्षिता।
नास्ति धर्माभिरक्तानां व्यसनं तु कदाचन॥
संतानार्थं त्वमेवैकः कुलस्यास्य भविष्यसि।
राघवस्य प्रसादात् त्वं रक्षसां राज्यमाप्स्यसि॥
प्रकृत्या मम दुर्धर्ष शीघ्रं मार्गादपक्रम।
न स्थातव्यं पुरस्तान्मे सम्भ्रमान्नष्टचेतसः॥
न वेद्मि संयुगेसक्तःस्वान्परान् वा निशाचर।
रक्षणीयोऽसि मे वत्स सत्यमेतद् ब्रवीमि ते॥
एवमुक्तो वचस्तेन कुम्भकर्णेन धीमता।
विभीषणो महाबाहुः कुम्भकर्णमुवाच ह॥
गदितं मे कुलस्यास्य रक्षणार्थमिरंदम।
न श्रुतं सर्वरक्षोभिस्ततोऽहं राममागतः॥
कृतं तु तन्महाभाग सुकृतं दुष्कृतं तु वा।
एवमुक्त्वाश्रुपूर्णाक्षो गदापाणिर्विभीषणः।
एकान्तमाश्रितो भूत्वा चिन्तयामास संस्थितः॥

तब श्रीरामचन्द्रजी के लिये युद्ध करने के निमित्त गदा हाथ में लिये विभीषण उनके आगे आकर खड़े हो गये और उस युद्धस्थल में भाई होकर भाई का सामना करने के लिये बड़े वेग से आगे बढ़े। विभीषण को सामने देखकर कुम्भकर्ण ने इस प्रकार कहा—’वत्स! तुम भाई का स्नेह छोड़कर श्रीरघुनाथजी का प्रिय करो और रणभूमि में शीघ्र मेरे ऊपर गदा चलाओ। इस समय तुम क्षात्रधर्म में दृढ़तापूर्वक स्थिर रहो। तुम जो श्रीराम की शरण में आ गये, इससे तुमने हमलोगों का काम बना दिया। राक्षसों में एक तुम्हीं ऐसे हो, जिसने इस जगत् में सत्य और धर्म की रक्षा की है। जो धर्म में अनुरक्त होते हैं, उन्हें कभी कोई दुःख नहीं भोगना पड़ता है। अब एकमात्र तुम्हीं इस कुल की संतानपरम्परा को सुरक्षित रखने के लिये जीवित रहोगे। श्रीरघुनाथजी की कृपा से तुम्हें राक्षसों का राज्य प्राप्त होगा। दुर्जय वीर ! मेरी प्रकृति से तो तुम परिचित ही हो; अतः शीघ्र मेरा रास्ता छोड़कर दूर हट जाओ। इस समय सम्भ्रम के कारण मेरी विचारशक्ति नष्ट हो गयी है; अतः तुम्हें मेरे सामने नहीं खड़ा होना चाहिये। निशाचर! इस समय युद्ध में आसक्त होने के कारण मुझे अपने अथवा पराये की पहचान नहीं हो रही है, तथापि वत्स! तुम मेरे लिये रक्षणीय हो —मैं तुम्हारा वध करना नहीं चाहता। यह तुमसे सच्ची बात कहता हूँ।’ बुद्धिमान् कुम्भकर्ण के ऐसा कहने पर महाबाह विभीषण ने उससे कहा—’शत्रुओं का दमन करने वाले वीर! मैंने इस कुल की रक्षा के लिये बहुत कुछ कहा था; किंतु समस्त राक्षसों ने मेरी बात नहीं सुनी; अतः मैं निराश होकर श्रीराम की शरण में आ गया। महाभाग! यह मेरे लिये पुण्य हो या पाप। अब मैंने श्रीराम का आश्रय तो ग्रहण कर ही लिया।’ ऐसा कहकर गदाधारी विभीषण के नेत्रों में आँसू भर आये और वे एकान्त का आश्रय ले खड़े होकर चिन्ता करने लगे।

ततस्तु वातोद्धतमेघकल्पं भुजंगराजोत्तमभोगबाहुः।
तमापतन्तं धरणीधराभमुवाच रामो युधि कुम्भकर्णम्॥१४३॥

तदनन्तर जिनकी भुजाएँ नागराज वासुकि के समान विशाल और मोटी थीं, उन भगवान् श्रीराम ने पवन की प्रेरणा से उमड़े हुए मेघ के समान काले और पर्वत के समान ऊँचे शरीरवाले कुम्भकर्ण को आक्रमण करते देख रणभूमि में उससे कहा- ॥ १४३॥

आगच्छ रक्षोऽधिप मा विषादमवस्थितोऽहं प्रगृहीतचापः।
अवेहि मां राक्षसवंशनाशनं यस्त्वं मुहूर्ताद् भविता विचेताः॥१४४॥

‘राक्षसराज! आओ, विषाद न करो। मैं धनुष लेकर खड़ा हूँ। मुझे राक्षसवंश का विनाश करने वाला समझो। अब तुम भी दो ही घड़ी में अपनी चेतना खो बैठोगे (मर जाओगे)’ ॥ १४४॥

रामोऽयमिति विज्ञाय जहास विकृतस्वनम्।
अभ्यधावत संक्रुद्धो हरीन् विद्रावयन् रणे॥१४५॥

‘यही राम हैं’—यह जानकर वह राक्षस विकृत स्वर में अट्टहास करने लगा और अत्यन्त कुपित हो रणक्षेत्र में वानरों को भगाता हुआ उनकी ओर दौड़ा॥ १४५ ॥

दारयन्निव सर्वेषां हृदयानि वनौकसाम्।
प्रहस्य विकृतं भीमं स मेघस्तनितोपमम्॥१४६॥
कुम्भकर्णो महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्।
नाहं विराधो विज्ञेयो न कबन्धः खरो न च।
न वाली न च मारीचः कुम्भकर्णः समागतः॥१४७॥

महातेजस्वी कुम्भकर्ण समस्त वानरों के हृदय को  विदीर्ण-सा करता हुआ विकृत स्वर में जोर-जोर से हँसकर मेघ-गर्जना के समान गम्भीर एवं भयंकर वाणी में श्रीरघुनाथजी से बोला—’राम! मुझे विराध, कबन्ध और खर नहीं समझना चाहिये। मैं मारीच और वाली भी नहीं हूँ। यह कुम्भकर्ण तुमसे लड़ने आया है॥ १४६-१४७॥

पश्य मे मुद्गरं भीमं सर्वं कालायसं महत्।
अनेन निर्जिता देवा दानवाश्च पुरा मया॥१४८॥

‘मेरे इस भयंकर एवं विशाल मुद्गर की ओर देखो। यह सब-का-सब काले लोहे का बना हुआ है। मैंने पूर्वकाल में इसी के द्वारा समस्त देवताओं और दानवों को परास्त किया है॥ १४८॥

विकर्णनास इति मां नावज्ञातुं त्वमर्हसि।
स्वल्पापि हि न मे पीडा कर्णनासाविनाशनात्॥१४९॥

‘मेरे नाक-कान नीचे से कट गये हैं, ऐसा समझकर तुम्हें मेरी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। इन दोनों अङ्गों के नष्ट होनेसे मुझे थोड़ी-सी भी पीड़ा नहीं होती

दर्शयेक्ष्वाकुशार्दूल वीर्यं गात्रेषु मेऽनघ।
ततस्त्वां भक्षयिष्यामि दृष्टपौरुषविक्रमम्॥१५०॥

‘निष्पाप रघुनन्दन! तुम इक्ष्वाकुवंश के वीर पुरुष हो, अतः मेरे अङ्गों पर अपना पराक्रम दिखाओ। तुम्हारे पौरुष एवं बल-विक्रम को देख लेनेके बाद ही मैं तुम्हें खाऊँगा’ ॥ १५०॥

स कुम्भकर्णस्य वचो निशम्य रामः सुपुङ्खान् विससर्ज बाणान्।
तैराहतो वज्रसमप्रवेगैन चुक्षुभे न व्यथते सुरारिः॥१५१॥

कुम्भकर्ण की यह बात सुनकर श्रीराम ने उसके ऊपर सुन्दर पंखवाले बहुत-से बाण मारे। वज्र के समान वेगवाले उन बाणों की गहरी चोट खाने पर भी वह देवद्रोही राक्षस न तो क्षुब्ध हुआ और न व्यथित ही॥

यैः सायकैः सालवरा निकृत्ता वाली हतो वानरपुङ्गवश्च।
ते कुम्भकर्णस्य तदा शरीरं वज्रोपमा न व्यथयाम्प्रचक्रुः॥१५२॥

जिन बाणों से श्रेष्ठ सालवृक्ष काटे गये और वानरराज वाली का वध हुआ, वे ही वज्रोपम बाण उस समय कुम्भकर्ण के शरीर को व्यथा न पहुँचा सके॥ १५२॥

स वारिधारा इव सायकांस्तान् पिबन् शरीरेण महेन्द्रशत्रुः।
जघान रामस्य शरप्रवेगं व्याविध्य तं मुद्गरमुग्रवेगम्॥१५३॥

देवराज इन्द्रका शत्रु कुम्भकर्ण जल की धारा के समान श्रीराम की बाणवर्षा को अपने शरीर से पीने लगा और भयंकर वेगशाली मुद्गर को चारों ओर से घुमाघुमाकर उनके बाणों के महान् वेग को नष्ट करने लगा॥

ततस्तु रक्षः क्षतजानुलिप्तं वित्रासनं देवमहाचमूनाम्।
व्याविध्य तं मुद्गरमुग्रवेगं विद्रावयामास चमूं हरीणाम्॥१५४॥

तदनन्तर वह राक्षस देवताओं की विशाल सेना को भयभीत करने वाले और खून से लिपटे हुए उस उग्र वेगशाली मुद्गर को घुमा-घुमाकर वानरों की वाहिनी को खदेड़ने लगा॥ १५४॥

वायव्यमादाय ततोऽपरास्त्रं रामः प्रचिक्षेप निशाचराय।
समुद्गरं तेन जहार बाहुं स कृत्तबाहुस्तुमुलं ननाद ॥१५५॥

यह देख भगवान् श्रीराम ने वायव्य नामक दूसरे अस्त्र का संधान करके उसे कुम्भकर्ण पर चलाया और उसके द्वारा उस निशाचर की मुद्गरसहित दाहिनी बाँह काट डाली। बाँह कट जाने पर वह राक्षस भयानक आवाज में चीत्कार करने लगा। १५५॥

स तस्य बाहुर्गिरिशृङ्गकल्पः समुद्गरो राघवबाणकृत्तः।
पपात तस्मिन् हरिराजसैन्ये जघान तां वानरवाहिनीं च॥१५६॥

श्रीरघुनाथजी के बाण से कटी हुई वह बाँह, जो पर्वतशिखर के समान जान पड़ती थी, मुद्गर के साथ ही वानरों की सेना में गिरी। उसके नीचे दबकर कितने ही वानर-सैनिक अपने प्राणों से हाथ धो बैठे॥ १५६॥

ते वानरा भग्नहतावशेषाः पर्यन्तमाश्रित्य तदा विषण्णाः।
प्रपीडिताङ्गा ददृशुः सुघोरं नरेन्द्ररक्षोऽधिपसंनिपातम्॥१५७॥

जो अङ्ग-भङ्ग होने या मरने से बचे, वे खिन्नचित्त हो किनारे जाकर खड़े हो गये। उनके शरीर में बड़ी पीड़ा हो रही थी और वे चुपचाप महाराज श्रीराम और राक्षस कुम्भकर्ण के घोर संग्राम को देखने लगे। १५७॥

स कुम्भकर्णोऽस्त्रनिकृत्तबाहुमहासिकृत्ताग्र इवाचलेन्द्रः।
उत्पाटयामास करेण वृक्षं ततोऽभिदुद्राव रणे नरेन्द्रम्॥१५८॥

वायव्यास्त्र से एक बाँह कट जाने पर कुम्भकर्ण शिखरहीन पर्वत के समान प्रतीत होने लगा। उसने एक ही हाथ से एक ताड़ का वृक्ष उखाड़ लिया और उसे लेकर रणभूमि में महाराज श्रीराम पर धावा किया। १५८॥

तं तस्य बाहुं सहतालवृक्षं समुद्यतं पन्नगभोगकल्पम्।
ऐन्द्रास्त्रयुक्तेन जघान रामो बाणेन जाम्बूनदचित्रितेन ॥ १५९॥

तब श्रीराम ने एक सुवर्णभूषित बाण निकालकर उसे ऐन्द्रास्त्र से अभिमन्त्रित किया और उसके द्वारा सर्प के समान उठी हुई राक्षस की दूसरी बाँह को भी वृक्षसहित काट गिराया॥ १५९॥

स कुम्भकर्णस्य भुजो निकृत्तः पपात भूमौ गिरिसंनिकाशः।
विचेष्टमानो निजघान वृक्षान् शैलान् शिलावानरराक्षसांश्च ॥१६०॥

कुम्भकर्ण की वह कटी हुई बाँह पर्वत-शिखर के समान पृथ्वी पर गिरी और छटपटाने लगी। उसने कितने ही वृक्षों, शैलशिखरों, शिलाओं, वानरों और राक्षसों को भी कुचल डाला॥ १६० ॥

तं छिन्नबाहुं समवेक्ष्य रामः समापतन्तं सहसा नदन्तम्।
द्वावर्धचन्द्रौ निशितौ प्रगृह्य चिच्छेद पादौ युधि राक्षसस्य॥१६१॥

उन दोनों भुजाओं के कट जाने पर वह राक्षस सहसा आर्तनाद करता हुआ श्रीराम पर टूट पड़ा। उसे आक्रमण करते देख श्रीराम ने दो तीखे अर्धचन्द्राकार बाण लेकर उनके द्वारा युद्धस्थल में उस राक्षस के
दोनों पैर भी उड़ा दिये ॥ १६१॥

तौ तस्य पादौ प्रदिशो दिशश्च गिरेगुहाश्चैव महार्णवं च।
लङ्कां च सेनां कपिराक्षसानां विनादयन्तौ विनिपेततुश्च ॥१६२॥

उसके दोनों पैर दिशा-विदिशा, पर्वत की कन्दरा, महासागर, लङ्कापुरी तथा वानरों और राक्षसों की सेनाओं को भी प्रतिध्वनित करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े॥ १६२॥

निकृत्तबाहुर्विनिकृत्तपादो विदार्य वक्त्रं वडवामुखाभम्।
दुद्राव रामं सहसाभिगर्जन् राहुर्यथा चन्द्रमिवान्तरिक्षे॥१६३॥

दोनों बाँहों और पैरों के कट जाने पर उसने वडवानल के समान अपने विकराल मुख को फैलाया और जैसे राहु आकाश में चन्द्रमा को ग्रस लेता है, उसी प्रकार वह श्रीराम को ग्रसने के लिये भयानक गर्जना करता हुआ सहसा उनके ऊपर टूट पड़ा।

अपूरयत् तस्य मुखं शिताग्रै रामः शरैर्हेमपिनद्धपुकैः।
सम्पूर्णवकत्रो न शशाक वक्तुं चुकूज कृच्छ्रेण मुमूर्च्छ चापि॥१६४॥

तब श्रीरामचन्द्रजी ने सुवर्णजटित पंखवाले अपने तीखे बाणों से उसका मुँह भर दिया। मुँह भर जाने पर वह बोलने में भी असमर्थ हो गया और बड़ी कठिनाई से आर्तनाद करके मूर्छित हो गया॥ १६४॥

अथाददे सूर्यमरीचिकल्पं स ब्रह्मदण्डान्तककालकल्पम्।
अरिष्टमैन्द्रं निशितं सुपुङ्ख रामः शरं मारुततुल्यवेगम्॥१६५॥
तं वज्रजाम्बूनदचारुपुङ्ख प्रदीप्तसूर्यज्वलनप्रकाशम्।
महेन्द्रवज्राशनितुल्यवेगं रामः प्रचिक्षेप निशाचराय॥१६६॥

इसके बाद भगवान् श्रीराम ने ब्रह्मदण्ड तथा विनाशकारी काल के समान भयंकर एवं तीखा बाण, जो सूर्य की किरणों के समान उद्दीप्त, इन्द्रास्त्र से अभिमन्त्रित, शत्रुनाशक, तेजस्वी सूर्य और प्रज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान, हीरे और सुवर्ण से विभूषित सुन्दर पंख से युक्त, वायु तथा इन्द्र के वज्र और अशनि के समान वेगशाली था, हाथ में लिया और उस निशाचर को लक्ष्य करके छोड़ दिया। १६५-१६६॥

स सायको राघवबाहुचोदितो दिशःस्वभासा दश सम्प्रकाशयन्।
विधूमवैश्वानरभीमदर्शनो जगाम शक्राशनिभीमविक्रमः॥१६७॥

श्रीरघुनाथजी की भुजाओं से प्रेरित होकर वह बाण अपनी प्रभा से दसों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ इन्द्र के वज्र की भाँति भयंकर वेग से चला। वह धूमरहित अग्नि के समान भयानक दिखायी देता था। १६७॥

स तन्महापर्वतकूटसंनिभं सुवृत्तदंष्ट्रं चलचारुकुण्डलम्।
चकर्त रक्षोऽधिपतेः शिरस्तदा यथैव वृत्रस्य पुरा पुरंदरः॥१६८॥

जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का मस्तक काट डाला था, उसी प्रकार उस बाण ने राक्षसराज कुम्भकर्ण के महान् पर्वतशिखर के समान ऊँचे, सुन्दर गोलाकार दाढ़ों से युक्त तथा हिलते हुए मनोहर कुण्डलों से अलंकृत मस्तक को धड़ से अलग कर दिया॥ १६८॥

कुम्भकर्णशिरो भाति कुण्डलालंकृतं महत्।
आदित्येऽभ्युदिते रात्रौ मध्यस्थ इव चन्द्रमाः॥१६९॥

कुम्भकर्ण का वह कुण्डलों से अलंकृत विशाल मस्तक प्रातःकाल सूर्योदय होने पर आकाश के मध्य में विराजमान चन्द्रमा की भाँति निस्तेज प्रतीत होता था। १६९॥

तद् रामबाणाभिहतं पपात रक्षःशिरः पर्वतसंनिकाशम्।
बभञ्ज चर्यागृहगोपुराणि प्राकारमुच्चं तमपातयच्च ॥१७०॥

श्रीराम के बाणों से कटा हुआ राक्षस का वह पर्वताकार मस्तक लङ्का में जा गिरा। उसने अपने धक्के से सड़क के आस-पास के कितने ही मकानों, दरवाजों और ऊँचे परकोटे को भी धराशायी कर दिया॥ १७०॥

तच्चातिकायं हिमवत् प्रकाशं रक्षस्तदा तोयनिधौ पपात।
ग्राहान् परान् मीनवरान् भुजंगमान् ममर्द भूमिं च तथा विवेश॥१७१॥

इसी प्रकार उस राक्षस का विशाल धड़ भी, जो हिमालय के समान जान पड़ता था, तत्काल समुद्र के जल में गिर पड़ा और बड़े-बड़े ग्राहों, मत्स्यों तथा साँपों को पीसता हुआ पृथ्वी के भीतर समा गया। १७१॥

तस्मिन् हते ब्राह्मणदेवशत्रौ महाबले संयति कुम्भकर्णे।
चचाल भूर्भूमिधराश्च सर्वे हर्षाच्च देवास्तुमुलं प्रणेदुः॥१७२॥

ब्राह्मणों और देवताओं के शत्रु महाबली कुम्भकर्ण के युद्ध में मारे जाने पर पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत हिलने लगे और सम्पूर्ण देवता हर्ष से भरकर तुमुल नाद करने लगे॥

ततस्तु देवर्षिमहर्षिपन्नगाः सुराश्च भूतानि सुपर्णगुह्यकाः।
सयक्षगन्धर्वगणा नभोगताः प्रहर्षिता रामपराक्रमेण॥१७३॥

उस समय आकाश में खड़े हुए देवर्षि, महर्षि, सर्प, देवता, भूतगण, गरुड़, गुह्यक, यक्ष और गन्धर्वगण श्रीराम का पराक्रम देखकर बहुत प्रसन्न हुए॥ १७३॥

ततस्तु ते तस्य वधेन भूरिणा मनस्विनो नैर्ऋतराजबान्धवाः।
विनेदुरुच्चैर्व्यथिता रघूत्तमं हरिं समीक्ष्यैव यथा मतंगजाः॥१७४॥

कुम्भकर्ण के महान् वध से राक्षसराज रावण के मनस्वी बन्धुओं को बड़ा दुःख हुआ। वे रघुकुलतिलक श्रीराम की ओर देखकर उसी तरह उच्च स्वरसे रोने-कल्पने लगे, जैसे सिंह पर दृष्टि पड़ते ही मतवाले हाथी चीत्कार कर उठते हैं॥ १७४॥

स देवलोकस्य तमो निहत्य सूर्यो यथा राहुमुखाद् विमुक्तः।
तथा व्यभासीद्धरिसैन्यमध्ये निहत्य रामो युधि कुम्भकर्णम्॥१७५॥

देवसमूह को दुःख देने वाले कुम्भकर्ण का युद्ध में वध करके वानर-सेना के बीच में  खड़े हुए भगवान् श्रीराम अन्धकार का नाश करके राहु के मुख से छूटे हुए सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहे थे। १७५ ॥

प्रहर्षमीयुर्बहवश्च वानराः प्रबुद्धपद्मप्रतिमैरिवाननैः।
अपूजयन् राघवमिष्टभागिनं हते रिपौ भीमबले नृपात्मजम्॥१७६॥

भयानक बलशाली शत्रु के मारे जाने से बहुसंख्यक वानरों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके मुख विकसित कमल की भाँति हर्षोल्लास से खिल उठे तथा उन्होंने सफल मनोरथ हुए राजकुमार भगवान् श्रीराम की भूरिभूरि प्रशंसा की। १७६॥

स कुम्भकर्णं सुरसैन्यमर्दनं महत्सु युद्धेषु कदाचनाजितम्।
ननन्द हत्वा भरताग्रजो रणे महासुरं वृत्रमिवामराधिपः॥ १७७॥

जो बड़े-बड़े युद्धों में कभी पराजित नहीं हुआ था तथा देवताओं की सेना को भी कुचल डालने वाला था, उस महान् राक्षस कुम्भकर्ण को रणभूमि में मारकर रघुनाथजी को वैसी ही प्रसन्नता हुई जैसी वृत्रासुर का वध करके देवराज इन्द्र को हुई थी॥ १७७॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे सप्तषष्टितमः सर्गः॥६७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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