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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 9 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 9

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
नवमः सर्गः (9)

(विभीषण का रावण से श्रीराम की अजेयता बताकर सीताको लौटा देने के लिये अनुरोध करना)

ततो निकुम्भो रभसः सूर्यशत्रुर्महाबलः।
सुप्तघ्नो यज्ञकोपश्च महापार्श्वमहोदरौ॥१॥
अग्निकेतुश्च दुर्धर्षो रश्मिकेतुश्च राक्षसः।
इन्द्रजिच्च महातेजा बलवान् रावणात्मजः॥२॥
प्रहस्तोऽथ विरूपाक्षो वज्रदंष्ट्रो महाबलः।
धूम्राक्षश्चातिकायश्च दुर्मुखश्चैव राक्षसः॥३॥
परिघान् पट्टिशान् शूलान् प्रासान् शक्तिपरश्वधान्।
चापानि च सुबाणानि खड्गांश्च विपुलाम्बुभान्॥४॥
प्रगृह्य परमक्रुद्धाः समुत्पत्य च राक्षसाः।
अब्रुवन् रावणं सर्वे प्रदीप्ता इव तेजसा॥५॥

तत्पश्चात् निकुम्भ, रभस, महाबली सूर्यशत्र, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, महापार्श्व, महोदर, दुर्जय अग्निकेतु, राक्षस रश्मिकेतु, महातेजस्वी बलवान् रावणकुमार इन्द्रजित् , प्रहस्त, विरूपाक्ष, महाबली वज्रदंष्ट्र, धूम्राक्ष, अतिकाय और निशाचर दुर्मुख—ये सब राक्षस अत्यन्त कुपित हो हाथों में परिघ, पट्टिश, शूल, प्रास, शक्ति, फरसे, धनुष, बाण तथा पैनी धारवाले बड़े-बड़े खड्ग लिये उछलकर रावण के सामने आये और अपने तेज से उद्दीप्त-से होकर वे सब-के-सब उससे बोले- ॥१-५॥

अद्य रामं वधिष्यामः सुग्रीवं च सलक्ष्मणम्।
कृपणं च हनूमन्तं लङ्का येन प्रधर्षिता॥६॥

‘हमलोग आज ही राम, सुग्रीव, लक्ष्मण और उस कायर हनुमान् को भी मार डालेंगे, जिसने लङ्कापुरी जलायी है’॥६॥

तान् गृहीतायुधान् सर्वान् वारयित्वा विभीषणः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं पुनः प्रत्युपवेश्य तान्॥७॥

हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये खड़े हुए उन सब राक्षसों को जाने के लिये उद्यत देख विभीषण ने रोका और पुनः उन्हें बिठाकर दोनों हाथ जोड़ रावण से कहा- ॥७॥

अप्युपायैस्त्रिभिस्तात योऽर्थः प्राप्तुं न शक्यते।
तस्य विक्रमकालांस्तान् युक्तानाहुर्मनीषिणः॥८॥

‘तात ! जो मनोरथ साम, दान और भेद—इन तीन उपायों से प्राप्त न हो सके, उसी की प्राप्ति के लिये नीतिशास्त्र के ज्ञाता मनीषी विद्वानों ने पराक्रम करने के योग्य अवसर बताये हैं।॥ ८॥

प्रमत्तेष्वभियुक्तेषु दैवेन प्रहतेषु च।
विक्रमास्तात सिद्ध्यन्ति परीक्ष्य विधिना कृताः॥

‘तात ! जो शत्रु असावधान हों, जिन पर दूसरे-दूसरे शत्रुओं ने आक्रमण किया हो तथा जो महारोग आदि से ग्रस्त होने के कारण दैव से मारे गये हों, उन्हीं पर भलीभाँति परीक्षा करके विधिपूर्वक किये गये पराक्रम सफल होते हैं॥९॥

अप्रमत्तं कथं तं तु विजिगीषु बले स्थितम्।
जितरोषं दुराधर्षं तं धर्षयितुमिच्छथ॥१०॥

‘श्रीरामचन्द्रजी बेखबर नहीं हैं। वे विजय की इच्छा से आ रहे हैं और उनके साथ सेना भी है। उन्होंने क्रोध को सर्वथा जीत लिया है। अतः वे सर्वथा दुर्जय हैं। ऐसे अजेय वीर को तुमलोग परास्त करना चाहते हो ॥ १०॥

समुद्रं लवयित्वा तु घोरं नदनदीपतिम्।
गतिं हनूमतो लोके को विद्यात् तर्कयेत वा॥
बलान्यपरिमेयानि वीर्याणि च निशाचराः।
परेषां सहसावज्ञा न कर्तव्या कथंचन॥१२॥

‘निशाचरो! नदों और नदियों के स्वामी भयंकर महासागर को जो एक ही छलाँग में लाँघकर यहाँ तक आ पहुँचे थे, उन हनुमान जी की गति को इस संसार में कौन जान सकता है अथवा कौन उसका अनुमान लगा सकता है? शत्रुओं के पास असंख्य सेनाएँ हैं, उनमें असीम बल और पराक्रम है; इस बात को तुमलोग अच्छी तरह जान लो। दूसरों की शक्ति को भुलाकर किसी तरह भी सहसा उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये॥ ११-१२॥

किं च राक्षसराजस्य रामेणापकृतं पुरा।
आजहार जनस्थानाद् यस्य भार्यां यशस्विनः॥१३॥

‘श्रीरामचन्द्रजी ने पहले राक्षसराज रावण का कौन सा अपराध किया था, जिससे उन यशस्वी महात्मा की पत्नी को ये जनस्थान से हर लाये? ॥ १३ ॥

खरो यद्यतिवृत्तस्तु स रामेण हतो रणे।
अवश्यं प्राणिनां प्राणा रक्षितव्या यथाबलम्॥१४॥

‘यदि कहें कि उन्होंने खर को मारा था तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि खर अत्याचारी था। उसने स्वयं ही उन्हें मार डालने के लिये उन पर आक्रमण किया था। इसलिये श्रीराम ने रणभूमि में उसका वध किया; क्योंकि प्रत्येक प्राणी को यथाशक्ति अपने प्राणों की रक्षा अवश्य करनी चाहिये॥ १४॥

एतन्निमित्तं वैदेही भयं नः सुमहद् भवेत्।
आहृता सा परित्याज्या कलहार्थे कृते नु किम्॥

‘यदि इसी कारण से सीता को हरकर लाया गया हो तो उन्हें जल्दी ही लौटा देना चाहिये; अन्यथा हमलोगों पर महान् भय आ सकता है। जिस कर्म का फल केवल कलह है, उसे करने से क्या लाभ?॥
१५॥

न तु क्षमं वीर्यवता तेन धर्मानुवर्तिना।
वैरं निरर्थकं कर्तुं दीयतामस्य मैथिली॥१६॥

‘श्रीराम बड़े धर्मात्मा और पराक्रमी हैं। उनके साथ व्यर्थ वैर करना उचित नहीं है। मिथिलेशकुमारी सीता को उनके पास लौटा देना चाहिये॥१६॥

यावन्न सगजां साश्वां बहुरत्नसमाकुलाम्।
पुरीं दारयते बाणैर्दीयतामस्य मैथिली॥१७॥

‘जबतक हाथी, घोड़े और अनेकों रत्नों से भरी हुई लङ्कापुरी का श्रीराम अपने बाणों द्वारा विध्वंस नहीं कर डालते, तब तक ही मैथिली को उन्हें लौटा दिया जाय॥ १७॥

यावत् सुघोरा महती दुर्धर्षा हरिवाहिनी।
नावस्कन्दति नो लङ्कां तावत् सीता प्रदीयताम्॥१८॥

‘जबतक अत्यन्त भयंकर, विशाल और दुर्जय वानर-वाहिनी हमारी लङ्का को पददलित नहीं कर देती, तभी तक सीता को वापस कर दिया जाय॥ १८॥

विनश्येद्धि पुरी लङ्का शूराः सर्वे च राक्षसाः।
रामस्य दयिता पत्नी न स्वयं यदि दीयते॥१९॥

‘यदि श्रीराम की प्राणवल्लभा सीता को हमलोग स्वयं ही नहीं लौटा देते हैं तो यह लङ्कापुरी नष्ट हो जायगी और समस्त शूरवीर राक्षस मार डाले जायेंगे। १९॥

प्रसादये त्वां बन्धुत्वात् कुरुष्व वचनं मम।
हितं तथ्यं त्वहं ब्रूमि दीयतामस्य मैथिली॥ २०॥

‘आप मेरे बड़े भाई हैं। अतः मैं आपको विनयपूर्वक प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मेरी बात मान लें। मैं आपके हित के लिये सच्ची बात कहता हूँ -आप श्रीरामचन्द्रजी को उनकी सीता वापस कर दें॥२०॥

पुरा शरत्सूर्यमरीचिसंनिभान् नवाग्रपुङ्खान् सुदृढान् नृपात्मजः।
सृजत्यमोघान् विशिखान् वधाय ते प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली॥२१॥

‘राजकुमार श्रीराम जबतक आपके वध के लिये शरत्काल के सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी, उज्ज्वल अग्रभाग एवं पंखों से सुशोभित, सुदृढ़ तथा अमोघ बाणों की वर्षा करें, उसके पहले ही आप उन दशरथनन्दन की सेवा में मिथिलेशकुमारी सीता को सौंप दें॥ २१॥

त्यजाशु कोपं सुखधर्मनाशनं भजस्व धर्मं रतिकीर्तिवर्धनम्।
प्रसीद जीवेम सपुत्रबान्धवाः प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली॥२२॥

‘भैया! आप क्रोध को त्याग दें; क्योंकि वह सुख और धर्म का नाश करने वाला है। धर्म का सेवन कीजिये; क्योंकि वह सुख और सुयश को बढ़ाने वाला है। हम पर प्रसन्न होइये, जिससे हम पुत्र और बन्धु बान्धवों सहित जीवित रह सकें। इसी दृष्टि से मेरी प्रार्थना है कि आप दशरथनन्दन श्रीराम के हाथ में मिथिलेशकुमारी सीता को लौटा दें’॥ २२ ॥

विभीषणवचः श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः।
विसर्जयित्वा तान् सर्वान् प्रविवेश स्वकं गृहम्॥२३॥

विभीषण की यह बात सुनकर राक्षसराज रावण उन सब सभासदों को विदा करके अपने महल में चला गया॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे नवमः सर्गः॥९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ॥९॥


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Shivangi

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