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वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 29 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Yuddhakanda Chapter 29

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
युद्धकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (29)

रावण का शुक और सारण को फटकारकर अपने दरबार से निकाल देना,उसके भेजे हुए गुप्तचरों का श्रीराम की दया से वानरों के चंगुल से छूटकर लङ्का में आना

 

शुकेन तु समादिष्टान् दृष्ट्वा स हरियूथपान्।
लक्ष्मणं च महावीर्यं भुजं रामस्य दक्षिणम्॥१॥
समीपस्थं च रामस्य भ्रातरं च विभीषणम्।
सर्ववानरराजं च सुग्रीवं भीमविक्रमम्॥२॥
अङ्गदं चापि बलिनं वज्रहस्तात्मजात्मजम्।
हनूमन्तं च विक्रान्तं जाम्बवन्तं च दुर्जयम्॥३॥
सुषेणं कुमुदं नीलं नलं च प्लवगर्षभम्।
गजं गवाक्षं शरभं मैन्दं च द्विविदं तथा॥४॥

शुक के बताये अनुसार रावण ने समस्त यूथपतियों को देखकर श्रीराम की दाहिनी बाँह महापराक्रमी लक्ष्मण को, श्रीराम के निकट बैठे हुए अपने भाई विभीषण को, समस्त वानरों के राजा भयंकर पराक्रमी सुग्रीव को, इन्द्रपुत्र वाली के बेटे बलवान् अङ्गद को, बल-विक्रमशाली हनुमान् को, दुर्जय वीर जाम्बवान् को तथा सुषेण, कुमुद, नील, वानरश्रेष्ठ नल, गज, गवाक्ष, शरभ, मैन्द एवं द्विविद को भी देखा॥१-४॥

किंचिदाविग्नहृदयो जातक्रोधश्च रावणः।
भर्त्सयामास तौ वीरौ कथान्ते शुकसारणौ ॥५॥

उन सबको देखकर रावण का हृदय कुछ उद्विग्न हो उठा। उसे क्रोध आ गया और उसने बात समाप्त होने पर वीर शुक और सारण को फटकारा॥५॥

अधोमुखौ तौ प्रणतावब्रवीच्छुकसारणौ।
रोषगद्गदया वाचा संरब्धं परुषं तथा॥६॥

‘बेचारे शुक और सारण विनीत भाव से नीचे मुँह किये खड़े रहे और रावण ने रोषगद्गद वाणी में क्रोधपूर्वक यह कठोर बात कही-॥६॥

न तावत् सदृशं नाम सचिवैरुपजीविभिः।
विप्रियं नृपतेर्वक्तुं निग्रहे प्रग्रहे प्रभोः॥७॥

‘राजा निग्रह और अनुग्रह करने में भी समर्थ होता है। उसके सहारे जीविका चलाने वाले मन्त्रियों को ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये, जो उसे अप्रिय लगे॥७॥

रिपूणां प्रतिकूलानां युद्धार्थमभिवर्तताम्।
उभाभ्यां सदृशं नाम वक्तुमप्रस्तवे स्तवम्॥८॥

‘जो शत्रु अपने विरोधी हैं और युद्ध के लिये सामने आये हैं; उनकी बिना किसी प्रसङ्ग के ही स्तुति करना क्या तुम दोनों के लिये उचित था? ॥ ८॥

आचार्या गुरवो वृद्धा वृथा वां पर्युपासिताः।
सारं यद् राजशास्त्राणामनुजीव्यं न गृह्यते॥९॥

‘तुमलोगों ने आचार्य, गुरु और वृद्धों की व्यर्थ ही सेवा की है; क्योंकि राजनीति का जो संग्रहणीय सार है, उसे तुम नहीं ग्रहण कर सके॥९॥

गृहीतो वा न विज्ञातो भारोऽज्ञानस्य वाह्यते।
ईदृशैः सचिवैर्युक्तो मूखैर्दिष्ट्या धराम्यहम्॥१०॥

‘यदि तुमने उसे ग्रहण भी किया हो तो भी इस समय तुम्हें उसका ज्ञान नहीं रह गया है तुमने उसे भुला दिया है। तुमलोग केवल अज्ञान का बोझ ढो रहे हो। ऐसे मूर्ख मन्त्रियों के सम्पर्क में रहते हुए भी जो मैं अपने राज्य को सुरक्षित रख सका हूँ, यह सौभाग्य की ही बात है॥ १०॥

किं नु मृत्योर्भयं नास्ति मां वक्तुं परुषं वचः।
यस्य मे शासतो जिह्वा प्रयच्छति शुभाशुभम्॥

मैं इस राज्य का शासक हूँ। मेरी जिह्वा ही तुम्हें शुभ या अशुभ की प्राप्ति करा सकती है—मैं वाणीमात्र से तुम पर निग्रह और अनुग्रह कर सकता हूँ; फिर भी तुम दोनों ने मेरे सामने कठोर बात कहने का साहस किया। क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है? ॥ ११॥

अप्येव दहनं स्पृष्ट्वा वने तिष्ठन्ति पादपाः।
राजदण्डपरामृष्टास्तिष्ठन्ते नापराधिनः॥१२॥

‘वन में दावानल का स्पर्श करके भी वहाँ के वृक्ष खड़े रह जायँ, यह सम्भव है; परंतु राजदण्ड के अधिकारी अपराधी नहीं टिक सकते। वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं॥ १२॥

हन्यामहं त्विमौ पापौ शत्रुपक्षप्रशंसिनौ।
यदि पूर्वोपकारैर्मे क्रोधो न मृदुतां व्रजेत्॥१३॥

‘यदि इनके पहले के उपकारों को याद करके मेरा क्रोध नरम न पड़ जाता तो शत्रुपक्ष की प्रशंसा करने वाले इन दोनों पापियों को मैं अभी मार डालता॥ १३॥

अपध्वंसत नश्यध्वं संनिकर्षादितो मम।
नहि वां हन्तुमिच्छामि स्मराम्युपकृतानि वाम्।
हतावेव कृतघ्नौ द्वौ मयि स्नेहपराङ्मखौ॥१४॥

‘अब तुम दोनों मेरी सभा में प्रवेश के अधिकार से वञ्चित हो। मेरे पास से चले जाओ; फिर कभी मुझे अपना मुँह न दिखाना। मैं तुम दोनों का वध करना नहीं चाहता; क्योंकि तुम दोनों के किये हुए उपकारों को सदा स्मरण रखता हूँ। तुम दोनों मेरे स्नेह से विमुख और कृतघ्न हो, अतः मरे हुए के ही समान हो’ ॥ १४॥

एवमुक्तौ तु सव्रीडौ तौ दृष्ट्वा शुकसारणौ।
रावणं जयशब्देन प्रतिनन्द्याभिनिःसृतौ ॥१५॥

उसके ऐसा कहने पर शुक और सारण बहुत लज्जित हुए और जय-जयकार के द्वारा रावण का अभिनन्दन करके वहाँ से निकल गये॥ १५ ॥

अब्रवीच्च दशग्रीवः समीपस्थं महोदरम्।
उपस्थापय मे शीघ्रं चारानिति निशाचरः।
महोदरस्तथोक्तस्तु शीघ्रमाज्ञापयच्चरान्॥१६॥

इसके पश्चात् दशमुख रावण ने अपने पास बैठे हुए महोदर से कहा—’मेरे सामने शीघ्र ही गुप्तचरों को उपस्थित होने की आज्ञा दो।’ यह आदेश पाकर निशाचर महोदरने शीघ्र ही गुप्तचरों को हाजिर होने की आज्ञा दी॥ १६॥

ततश्चाराः संत्वरिताः प्राप्ताः पार्थिवशासनात्।
उपस्थिताः प्राञ्जलयो वर्धयित्वा जयाशिषः॥१७॥

राजा की आज्ञा पाकर गुप्तचर उसी समय विजयसूचक आशीर्वाद दे हाथ जोड़े सेवा में उपस्थित हुए॥१७॥

तानब्रवीत् ततो वाक्यं रावणो राक्षसाधिपः।
चारान् प्रत्यायिकान् शूरान् धीरान् विगतसाध्वसान्॥१८॥

वे सभी गुप्तचर विश्वासपात्र, शूरवीर, धीर एवं निर्भय थे। राक्षसराज रावण ने उनसे यह बात कही।

इतो गच्छत रामस्य व्यवसायं परीक्षितुम्।
मन्त्रेष्वभ्यन्तरा येऽस्य प्रीत्या तेन समागताः॥१९॥

‘तुमलोग अभी वानरसेना में राम का क्या निश्चय है, यह जानने के लिये तथा गुप्तमन्त्रणा में भाग लेने वाले जो उनके अन्तरङ्ग मन्त्री हैं और जो लोग प्रेमपूर्वक उनसे मिले हैं उनके मित्र हो गये हैं; उन सबके भी निश्चित विचार क्या हैं, इसकी जाँच करने के लिये यहाँ से जाओ॥ १९॥

कथं स्वपिति जागर्ति किमद्य च करिष्यति।
विज्ञाय निपुणं सर्वमागन्तव्यमशेषतः॥२०॥

‘वे कैसे सोते हैं? किस तरह जागते हैं और आज क्या करेंगे?—इन सब बातों का पूर्णरूप से अच्छी तरह पता लगाकर लौट आओ॥२०॥

चारेण विदितः शत्रुः पण्डितैर्वसुधाधिपैः।
युद्धे स्वल्पेन यत्नेन समासाद्य निरस्यते॥२१॥

‘गुप्तचर के द्वारा यदि शत्रु की गति-विधि का पता चल जाय तो बुद्धिमान् राजा थोड़े-से ही प्रयत्न के द्वारा युद्ध में उसे धर दबाते और मार भगाते हैं’।२१॥

चारास्तु ते तथेत्युक्त्वा प्रहृष्टा राक्षसेश्वरम्।
शार्दूलमग्रतः कृत्वा ततश्चक्रुः प्रदक्षिणम्॥२२॥

तब ‘बहुत अच्छा ‘ कहकर हर्ष में भरे हुए गुप्तचरों ने शार्दूल को आगे करके राक्षसराज रावण की परिक्रमा की॥ २२॥

ततस्तं तु महात्मानं चारा राक्षससत्तमम्।
कृत्वा प्रदक्षिणं जग्मुर्यत्र रामः सलक्ष्मणः॥२३॥

इस प्रकार वे गुप्तचर राक्षसशिरोमणि महाकाय रावण की परिक्रमा करके उस स्थान पर गये, जहाँ लक्ष्मणसहित श्रीराम विराजमान थे॥ २३॥

ते सुवेलस्य शैलस्य समीपे रामलक्ष्मणौ।
प्रच्छन्ना ददृशुर्गत्वा ससुग्रीवविभीषणौ ॥२४॥

सुवेल पर्वत के निकट जाकर उन गुप्तचरों ने छिपे रहकर श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण को देखा॥

प्रेक्षमाणाश्चमूं तां च बभूवुर्भयविह्वलाः।
ते तु धर्मात्मना दृष्टा राक्षसेन्द्रेण राक्षसाः॥२५॥

वानरों की उस सेना को देखकर वे भयसे व्याकुल हो उठे। इतने ही में धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण ने उन सब राक्षसों को देख लिया॥ २५॥ ।

विभीषणेन तत्रस्था निगृहीता यदृच्छया।
शार्दूलो ग्राहितस्त्वेकः पापोऽयमिति राक्षसः॥२६॥

तब उन्होंने अकस्मात् वहाँ आये हुए राक्षसों को फटकारा और अकेले शार्दूल को यह सोचकर पकड़वा लिया कि यह राक्षस बड़ा पापी है ॥ २६॥

मोचितः सोऽपि रामेण वध्यमानः प्लवंगमैः।
आनृशंस्येन रामेण मोचिता राक्षसाः परे॥२७॥

फिर तो वानर उसे पीटने लगे। तब भगवान् श्रीराम ने दयावश उसे तथा अन्य राक्षसों को भी छुड़ा दिया॥२७॥

वानरैरर्दितास्ते तु विक्रान्तैर्लघुविक्रमैः।
पुनर्लङ्कामनुप्राप्ताः श्वसन्तो नष्टचेतसः॥२८॥

बल-विक्रमसम्पन्न शीघ्र पराक्रमी वानरों से पीड़ित हो उन राक्षसों के होश उड़ गये और वे हाँफते-हाँफते फिर लङ्का में जा पहुँचे॥२८॥

ततो दशग्रीवमुपस्थितास्ते चारा बहिर्नित्यचरा निशाचराः।
गिरेः सुवेलस्य समीपवासिनं न्यवेदयन् रामबलं महाबलाः॥२९॥

तदनन्तर रावण की सेवा में उपस्थित हो चर के वेश में सदा बाहर विचरने वाले उन महाबली निशाचरों ने यह सूचना दी कि श्रीरामचन्द्रजी की सेना सुवेल पर्वत के निकट डेरा डाले पड़ी है।॥ २९ ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः॥ २९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में उन्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२९॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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